शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 35) : हों, सदगुरु की चेतना से एकाकार


शिष्य संजीवनी के सेवन से शिष्यों को नवप्राण मिलते हैं। उनकी साधना में नया निखार आता है। अन्तःकरण में श्रद्धा व भक्ति की तरंगे उठती हैं। अस्तित्त्व में गुरुकृपा की अजस्र वर्षा होती है। यह ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे असंख्यों ने अनुभव किया है, और असंख्य जन अनुभव की राह पर चल रहे हैं। जिन्होंने निरन्तर अध्यात्म साधना के मान सरोवर में अवगाहन किया है, वे जानते हैं कि शिष्यत्व से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।

शिष्यत्व के मंदराचल से ही अध्यात्म का महासागर मथा जाता है। प्रखरता और सजलता की बलिष्ठ भुजाएँ ही इसे संचालित करती हैं। शिष्य- साधक की जिन्दगी में यदि ऐसा सुयोग बन पाए तो फिर जैसे अध्यात्म के महारत्नों की बाढ़ आ जाती है। शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ ऐसे शिष्य- साधक की चरण- चेरी बनकर रहती हैं।

यह दिव्य अनुभव पाने के लिए प्रत्येक साधक को अपने अन्तःकरण में मार्ग की प्राप्ति करनी होगी। यह महाकर्म आसान नहीं है। जन्म- जन्मान्तर के अनगिनत संस्कारों, प्रवृत्तियों से भरे इस भीषण अरण्य में यह महाकठिन पुरुषार्थ है। यह महापराक्रम किस तरह से किया जाय इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह आठवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है।

इसमें शिष्यत्व की महासाधना के परम साधक कहते हैं- ‘भयंकर आँधी के बाद जो नीरव- निस्तब्धता छाती है, उसी में फूलों के खिलने का इन्तजार करो। उससे पहले यह शुभ क्षण नहीं आएगा। क्योंकि जब तक आँधी उठ रही है, बवंडर उठ रहे हैं, महाचक्रवातों का वेग तीव्र है, तब तक तो बस महायुद्ध के प्रचण्ड क्षण हैं। ऐसे में तो केवल साधना का अंकुर फूटेगा, बढ़ेगा। उसमें शाखाएँ और कलियाँ फूटेंगी।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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