सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 66)

🔵 समस्त विश्व को समान प्रेम की दृष्टि से देखो। अपनी व्यक्तिगत मित्रता की निष्ठा के द्वारा राह समझ लो कि प्रत्येक व्यक्तिगत जीवन में मौलिक रूप में वही सुन्दर ज्योति प्रकाशित हो रही है जिसे तुम उसमें देखते हो, जिसे तुम भाई के प्रिय नाम से पुकारते हो। विश्वजनीन बनो। अपने शत्रु से भी प्रेम करो। शत्रु मित्र का यह भेद केवल सतह पर ही है। गहरे! भीतर गहरे में केवल ब्रह्म ही है। सभी वस्तु तथा व्यक्ति में केवल ब्रह्म को ही देखना सीखो। किन्तु फिर भी उप्रियता तथा स्वभाव के कलह से बचने के लिये पर्याप्त सावधान रहो।

🔴 सर्वोच्च अर्थ में वास्तविक संबंध वही है जिसमें संबंधत्व का भान ही नहीं है और इसीलिये आध्यात्मिक है। व्यष्टि के बदले समष्टि को पहचानना सीखो। शरीर के स्थान पर आत्मा को पहचानना सीखो। तब तुम अपने मित्र के अधिक निकट होओगे। मृत्यु भी तुम्हें अलग न कर सकेगी तथा स्वयं के भीतर स भी प्रकार के भेदों को जीत -लेने के कारण तुम्हारी दृष्टि में कोई शत्रु भी न होगा। सभी रूपों में जो सौंदर्य है उसे देखो किन्तु उसे प्राप्त करने को इच्छा के बदले उसकी पूजा करो। प्रत्येक जीव तथा रूप तुम्हारे  लिये आध्यात्मिक सन्देह हो।

🔵 सभी विचार जिस स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, उसी से संबंधित होते हैं। इसलिये दूसरों की बातें सुनने पर उसके अनुभवात्मक पक्ष को देखो, तर्क को नहीं। तब कोई वाद विवाद उत्पन्न नहीं होगा, तथा तुम्हारे स्वयं के अनुभव को नई प्रेरणा मिलेगी। फिर यह भी जान रखो कि मौन प्राय : उत्तम होता है तथा बोलना और तर्क करना हमारी शक्तियों का अपव्यय करता है। तथा सदैव यह स्मरण रखो कि अपने हीरों को बैंगनवालों के सामने कभी न डालो। उसी प्रकार सभी भावनायें भी स्वभाव से ही संबंधित होती हैं।

🔴 अत: उनके प्रति आसक्त होने के बदले उनके साक्षी बनो। यह जान लो कि विचार तथा भावनाएँ दोनों ही माया के क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। किन्तु माया का भी अध्यात्मीकरण करना होगा। अपने जीव भाव को परमात्मभाव के अधिकार में हो जाने दो। इसलिये अनासक्त रहो। क्योंकि तुम आज जो सोचते हो तथा अनुभव करते हो वह कल, हो सकता है, तुम्हें आगे न बढ़ाये। तथा सर्वोपरि यह जान लो कि अपने सच्चे स्वरूप में तुम भाव और विचारों से मुक्त हो। भाव और विचार तुम्हारे सत्य स्वरूप को प्रगट करने में सहायक मात्र होते हैं। इसलिये अपने भाव और विचारों को महान् तथा विश्वजनीन होने दो तथा सर्वोपरि उन्हें पूर्णतः निस्वार्थ होने दो। तब इस संसार के घोर अहंकार में भी तम उस शाश्वत ज्योति को देख सकोगे। भले ही प्रारभ में वह क्षीण क्यों न प्रतीत हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 5

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 (1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन और, (3) सभ्य समाज की अभिनव रचना यही युग-निर्माण का उद्देश्य है। इसके लिए अपना व्यक्तित्व, अपना परिवार और अपना समाज हमें आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा। भौतिक सुसज्जा कितनी ही प्राप्त क्यों न करली जाय, जब तक आत्मिक उत्कृष्टता न बढ़ेगी तब तक न मनुष्य सुखी रहेगा और न सन्तुष्ट। उसकी सफलता एवं समृद्धि भी क्षणिक तथा दिखावटी मानी जायगी।

🔴 मनुष्य का वास्तविक पराक्रम उसके सद्गुणों से ही निखरता है। सद्गुणी ही सच्ची प्रगति कर सकता है। उच्च अन्तःकरण वाले, विशाल हृदय, दूरदर्शी एवं दृढ़ चरित्र व्यक्ति अपना गौरव प्रकट करते हैं, दूसरों का मार्ग दर्शन कर सकने लायक क्षमता सम्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों का बाहुल्य होने से ही कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में समर्थ एवं समृद्ध बनता है।

🔵 योजना के विविध कार्यक्रमों में यही तथ्य सन्निहित है। व्यक्ति का विकास, परिवार का निर्माण और सामाजिक उत्कर्ष में परिपूर्ण सहयोग की त्रिविधि प्रवृत्तियां जन-साधारण के मनःक्षेत्र में प्रतिष्ठापित एवं परिपोषित करने के लिए यह अभियान आरम्भ किया गया है। इसकी सफलता असफलता पर हमारा वैयक्तिक एवं सामूहिक भविष्य उज्ज्वल या अन्धकारमय बनेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 4

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 कोई प्रसन्न नहीं, कहीं सन्तोष नहीं, किधर भी शान्ति नहीं। दुर्दशा के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मानव प्राणी अपनी मुक्ति का मार्ग खोजता है, पर उसे किधर भी आशा की किरणें दिखाई नहीं पड़तीं। अन्धकार और निराशा के श्मशान में भटकती हुई मानव अन्तरात्मा खेद और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करती। बाहरी आडम्बर दिन-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं, पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला और पोला बनता चला जा रहा है। उस स्थिति में रहते हुए न कोई सन्तुष्ट रहेगा और न शान्त।

🔴 यह प्रत्यक्ष है कि यदि सम्पूर्ण विनाश ही अभीष्ट न हो तो आज की परिस्थितियों का अविलम्ब परिवर्तन अनिवार्यतः आवश्यक है। स्थिति की विषमता को देखते हुए अब इतनी भी गुंजाइश नहीं रही कि पचास-चालीस वर्ष भी इसी ढर्रे को और आगे चलने दिया जाय। अब दुनिया की चाल बहुत तेज हो गई है। चलने का युग बीत गया, अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है।

🔵 इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला आ रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे तो समय हाथ से निकल जायगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना सम्भव न रहेगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है, जब कि परिवर्तन की प्रतिक्रिया का शुभारम्भ किया जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 65)

ध्यान के शांत क्षणों में गुरुदेव की वाणी ने मेरी आत्मा से आनंद के ये शब्द कहे: -

🔵 वत्स! जब तक विचार हैं तब तक उसका मूर्त पक्ष भी रहेगा। इस कारण देवता तथा अन्य आध्यात्मिक यथार्थताएँ मूलतः सत्य हैं। विश्व के असंख्य स्तर हैं। किन्तु उन सभी के भीतर ब्रह्म की कांति चमक रही है। जब तुम ब्रह्म की अनुभूति करोगे तब तुम्हारे लिए चेतना की सभी स्थिति और अवस्थाएँ एक हो जायेगी। इसलिए सभी सत्यों को स्वीकार करो तथा परमात्मा के सभी पक्षों की पूजा करो। उदारमना एवं विश्वजनीन बनो। धर्म के क्षेत्र का विस्तार करो। जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म की भावना को एक संभावना के रूप में देखो।

🔴 जहाँ कहीं भी, जिस किसी प्रकार का अनुभव हो, उसकी आध्यात्मिक व्याख्या करो, वहाँ ईश्वर की वाणी सुनी जा सकेगी। सभी घटनाओं में दूसरे पक्ष को देखना सीखो तब तुम कभी कट्टर न बनोगे। आध्यात्मिक समर्पण के द्वारा अति साधारण सार का कार्य भी पारमार्थिक बन जाता है। समस्त विश्व को पारमार्थिक जीवन से परिपूर्ण देखो। सभी भेदबुद्धि को पोंछ डालो। दृष्टि की सारी संकुचितता को नष्ट कर दो। दृष्टिसीमा का तब तक विस्तार करो जब तक कि वह असीम तथा सर्वग्राही न हो जाय। भगवान कहते हैं जहाँ भी सदाचार है यह जान लो कि मैं वहाँ हूँ।

🔵 पौधे के चारों ओर बेड़ा लगाना उपयोगी है किन्तु अंकुर को उसकी छाया तले आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आश्रय तथा सुरक्षा देने वाला विशाल वृक्ष अवश्य होना चाहिये। उसी प्रकार भेदबुद्धि किसी भावविशेष के विकास के लिये उपयोगी हो सकती है किन्तु ऐसा समय अवश्य आना चाहिये कि वह भावविशेष विश्वजनीन रूप अवश्य ले ले। उदार बनो वत्स, उदार बनो। औदार्य को एक स्वाभाविक वृत्ति बना लो। क्योंकि बौद्धिक रूप में जो उपलब्ध किया जाय उसे भावनात्मक रूप में भी अवश्य उपलब्ध करना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 31 Oct 2016


👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 15)

🌞 पहला अध्याय

🔴 अध्यात्म शास्त्र कहता है कि- ऐ अविनाशी आत्माओ! तुम तुच्छ नहीं, महान हो। तुम्हें किसी अशक्तता का अनुभव करना या कुछ माँगना नहीं है। तुम अनन्त शक्तिशाली हो, तुम्हारे बल का पारावार नहीं। जिन साधनों को लेकर तुम अवतीर्ण हुए हो, वे अचूक ब्रह्मास्त्र हैं। इनकी शक्ति अनेक इन्द्रवज्रों से अधिक है। सफलता और आनन्द तुम्हारा जन्मजात अधिकार है। उठो! अपने को, अपने हथियारों को और काम को भली प्रकार पहचानो और बुद्धिपूर्वक जुट जाओ। फिर देखें, कैसे वह चीजें नहीं मिलतीं, जिन्हें तुम चाहते हो। तुम कल्पवृक्ष हो, कामधेनु हो, सफलता की साक्षात् मूर्ति हो। भय और निराशा का कण भी तुम्हारी पवित्र रचना में नहीं लगाया गया है। यह लो अपना अधिकार सँभालो।

🔴 यह पुस्तक बतावेगी कि तुम शरीर नहीं हो, जीव नहीं हो, वरन् ईश्वर हो। शरीर की, मन की जितनी भी महान् शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारे औजार हैं। इन्द्रियों के तुम गुलाम नहीं हो, आदतें तुम्हें मजबूर नहीं कर सकतीं, मानसिक विकारों का कोई अस्तित्व नहीं, अपने को और अपने वस्त्रों को ठीक तरह से पहचान लो। फिर जीव का स्वाभाविक धर्म उनका ठीक उपयोग करने लगेगा। भ्रमरहित और तत्त्वदर्शी बुद्धि से हर काम कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। यही कर्म कौशल योग है। गीता कहती है- 'योगः कर्मसु कौशलम्।' तुम ऐसे ही कुशल योगी बनो। लौकिक और पारलौकिक कार्यों में तुम अपना उचित स्थान प्राप्त करते हुए सफलता प्राप्त कर सको और निरन्तर विकास की ओर बढ़ते चलो, यही इस साधन का उद्देश्य है।

ईश्वर तुम्हें इसी पथ पर प्रेरित करे। ..........

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 3

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 जीवन संघर्ष अब इतना कठिन होता जाता है कि सुख शान्ति के साथ जिन्दगी के दिन पूरे कर लेना अब सरल नहीं रहा। हर व्यक्ति अपनी-अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है। चिन्ता, भय, विक्षोभ और परेशानी से उसका चित्त अशान्त बना रहता है। शारीरिक व्यथाएं, मानसिक परेशानियां, पारस्परिक, दुर्भाव, न सुलझने वाली उलझनें, आर्थिक तंगी, अनीति भरे आक्रमण, छल और विश्वासघात, प्रवंचना, विडम्बना, असफलताएं और आपत्तियां, घात-प्रतिघात और उतार-चढ़ाव का जोर इतना बढ़ गया है कि साधारण रीति से जीवन व्यतीत कर सकना कठिन होता जाता है।

🔴 संघर्ष इतना प्रबल हो चला है कि जन-साधारण को निरन्तर विक्षुब्ध रहना पड़ता है। इस प्रबल मानसिक दबाव को कितने ही लोग सहन नहीं कर पाते, फलस्वरूप, आत्म-हत्याओं की, पागलों की, निराश हताश और दीन-दुखियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती ही चली जा रही है।

🔵 व्यक्तिगत जीवन में हर आदमी को निराशा, तंगी और चिन्ता घेरे हुए हैं। सामाजिक जीवन में मनुष्य अपने को चारों और भेड़ियों से घिरी हुई स्थिति में फंसा अनुभव करता है। राजनीति इतनी विषम हो गई है कि उसमें सत्ताधारी लोगों की मनमानी के आगे जनहित को ठुकराया ही जाता रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अविश्वास और भय का इतना बाहुल्य है कि अणु-युद्ध में सारी मानव सभ्यता का विनाश एक-दो घण्टे के भीतर-भीतर ही हो जाने का खतरा नंगी तलवार की तरह दुनिया के सिर पर लटक रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 64)

🔵 वत्स! जीवन को शांतिपूर्वक ग्रहण करो। सभी समय शांत रहो। किसी भी बात पर क्षुब्ध न होओ। तुम्हारा शारीरिक स्वभाव बहुत अधिक क्षुब्धकारी ढंग से राजसिक है। किन्तु राजसिकता को छोड़ो नहीं, उसका अध्यात्मीकरण करो। यही रहस्य है। अपने आप पर इतना अधिकार रखो कि किसी भी मुहूर्त अपनी चंचल वृत्ति को शांत कर ध्यान की अवस्था में रह सको। सर्वतोमुखी बनो। कर्म तुम्हें जिन लोगों के संपर्क में लाता है उनसे तुम्हारा संबंध ऐसा हो कि तुम उनके भीतर की महानता के साक्षी बन सको। और यदि दोष देखना ही हो तो पहले अपने दोषों को देखो न कि तुम्हारे भाई के दोषों को। तात्कालिक क्षणों के अनुभवों से विह्वल न हो जाओ। इस दिन के बाद उस अनुभव का क्या महत्त्व रह जायेगा।

🔴 सारे धार्मिक जीवन का अर्थ है अहंकार की निवृत्ति। इसकी जड़े इतनी गहरी जमी हैं कि किसी असाध्य रोग के कारण को खोज पाने के समान कठिन है। यह हजारों प्रकार के छद्मों में अपने को छिपाता है किन्तु सभी छद्मों में सबसे अधिक धोखेबाज तथा दुष्ट छद्म आध्यात्मिक छद्म है। असावधानी पूर्वक यह विश्वास करते हुए कि तुम आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये कर्म कर रहे हो किन्तु तुम यह पाओगे कि इसके मूल में संभवतः कोई स्वार्थ तुम्हें प्रभावित कर रहा है। अतएव तीक्ष्ण्दृष्टि रखो। केवल व्यक्तित्व को जीत कर तथा उसके विसर्जन द्वारा उच्च अमूर्त को समझा तथा अनुभव किया जा सकता।

🔵 स्वयं के प्रति मर जाना जिससे कि सच्चा आध्यात्मिक जीवन जी सकें यही आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है। कच्छ प्रकाश (दल दल में दिखने वाला अस्थायी प्रकाश) से संतुष्ट रहने वाले बहुत से लोग असल सूर्य को नहीं देख पाते। जब स्वार्थपूर्ण व्यक्तित्व का निराकरण होता है तभी वास्तविक अमरत्व प्राप्त किया जा सकता। इसे स्मरण रखो। निराकार में मन को स्थिर करो। आत्मविजयी व्यक्तित्व में ही परमात्मा  की ज्योति प्रकाशित होती है। जब वह ज्योति पूर्णतः प्रकाशित होती है, तभी निर्वाण की अभिव्यक्ति होती है।
🌹 क्रमशः जारी
*🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर*

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 14)


🌞 पहला अध्याय

🔴 उपरोक्त शंका स्वाभाविक है, क्योंकि हमारी विचारधारा आज कुछ ऐसी उलझ गई है कि लौकिक और पारलौकिक स्वार्थों के दो विभाग करने पड़ते हैं। वास्तव में ऐसे कोई दो खण्ड नहीं हो सकते, जो लौकिक हैं वहीं पारलौकिक हैं। दोनों एक-दूसरे से इतने अधिक बँधे हुए हैं, जैसे पेट और पीठ। फिर भी हम पूरी विचारधारा को उलट कर पुस्तक के कलेवर का ध्यान रखते हुए नये सिरे से समझाने की यहाँ आवश्यकता नहीं समझते। यहाँ तो इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि आत्मदर्शन व्यावहारिक जीवन को सफल बनाने की सर्वश्रेष्ठ कला है। आत्मोन्नति के साथ ही सभी सांसारिक उन्नति रहती हैं। जिसके पास आत्मबल है, उसके पास सब कुछ है और सारी सफलाताएँ उसके हाथ के नीचे हैं।

🔴 साधारण और स्वाभाविक योग का सारा रहस्य इसमें छिपा हुआ है कि आदमी आत्म-स्वरूप को जाने, अपने गौरव को पहचाने, अपने अधिकार की तलाश करे और अपने पिता की अतुलित सम्पत्ति पर अपना हक पेश करे। यह राजमार्ग है। सीधा, सच्चा और बिना जोखिम का है। यह मोटी बात हर किसी की समझ में आ जानी चाहिए कि अपनी शक्ति और औजारों की कार्यक्षमता की जानकारी और अज्ञानता किसी भी काम की सफलता-असफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उत्तम से उत्तम बुद्धि भी तब तक ठीक-ठीक फैसला नहीं कर सकती, जब तक उसे वस्तुओं का स्वरूप ठीक तौर से न मालूम हो जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 2

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति का गुजरना पड़ रहा है वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुतः पतन की है। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है। दिमाग बड़े हो रहे हैं पर दिल दिन-दिन सिकुड़ते जाते हैं। पढ़-लिखकर लोग होशियार तो खूब हो रहे हैं पर साथ ही अनुदारता स्वार्थपरता, विलास और अहंकार भी उसी अनुपात से बढ़े हैं।

🔴 पोशाक, श्रृंगार, स्वादिष्ट भोजन और मनोरंजन की किस्में बढ़ती जाती हैं, पर असंयम के कारण स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। दो-तीन पीढ़ी पहले जैसा अच्छा स्वास्थ्य था वह अब देखने को नहीं मिलता। कमजोरी और अशक्तता हर किसी को किसी-न-किसी रूप में घेरे हुए हैं। डॉक्टर-देवताओं की पूजा प्रदक्षिणा करते-करते लोग थक जाते हैं पर स्वास्थ्य लाभ का मनोरथ किसी बेचारे को कदाचित ही प्राप्त होता है।

🔵 धन बढ़ा है पर साथ ही महंगाई और जरूरतों की असाधारण वृद्धि हुई हैं। खर्चों के मुकाबिले आमदनी कम रहने से हर आदमी अभावग्रस्त रहता है और खर्चे की तंगी अनुभव करता है। पारस्परिक सम्बन्ध खिंचे हुए, संदिग्ध और अविश्वास से भरे हुए हैं। पति-पत्नी, पिता-पुत्र और भाई-भाई के बीच मनोमालिन्य ही भरा रहता है।

🔴 यार-दोस्तों में से अधिकांश ऐसे होते हैं जिनसे विश्वासघात, अपहरण और तोताचश्मी की ही आशा की जा सकती है। चरित्र और ईमानदारी की मात्रा इतनी तेजी से गिर रही है कि किसी को किसी पर विश्वास नहीं होता। कोई करने भी लगे तो बेचारा धोखा खाता है। पुलिस और जेलों की, मुकदमे और कचहरियों की कमी नहीं, पर अपराधी मनोवृत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 63)

गुरुदेव की वाणी ने कहा :-

🔵 वत्स! तुम यह जानते के लिये बाध्य किये जाओगे कि संसार में कुछ ऐसी कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना तुम्हें अवश्य करना पड़ेगा तथा जो तुम्हारे पूर्व कर्मों के कारण अजेय प्रतीत होंगी। उनके कारण झुँझलाइट में अधीर न होओ। यह जान लो कि जहाँ चिन्ता और अपेक्षाएँ है, वहा अन्ध आसक्ति भी है। अपना कार्य करने के पश्चात् अलग हो जाओ। कार्य के अपने कर्मविधान के अनुसार उसे समय के प्रवाह में बहने दो, जैसा कि वह बहेगा ही।

🔴 अपना कार्य समाप्त कर लेने के पश्चात् तुम्हारा नारा हो, दूर रहो! अपनी संपूर्ण शक्ति से कर्म करो तथा उसके पश्चात् अपनी संपूर्ण शक्ति से समर्पित हो जाओ। किसी भी घटना में हतोत्साहित न होओ, क्योंकि कर्मफल शुभ अशुभ जो भी हो सभी गौण हैं। उन्हें त्याग दो! उन्हें त्याग दो!! तथा यह अच्छी तरह स्मरण रखो कि कर्म करने मैं कर्म की दक्षता उद्देश्य नहीं है, उद्देश्य है, कर्म के द्वारा व्यक्तित्व की परिपूर्णता।

🔵  अपने ही कर्मों को तुम वश में नहीं कर सकते, दूसरे के कर्मों पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। उसका कर्म एक प्रकार का है, तुम्हारा कर्म दूसरे प्रकार का। आलोचना न करो, आशा न रखो, भयभीत न होओ। सभी कुछ ठीक हो जायेगा। अनुभव आता जाता है, व्यग्र न होओ। तुम सत्य के धरातल पर खड़े होओ। अनुभव को तुम्हें मुक्त होना सिखाने दो। चाहे जो हो जाय और अधिक बंधन न बाँधो। और क्या तुम इतने मूर्ख हो कि एक ही प्रकार के कर्म में बँध जाओ? क्या मेरे कर्म का क्षेत्र असीम नहीं है?

🔴 कर्मयोग तथा सच्चे कर्म के महान आदर्श को ईर्ष्या तथा आसक्ति से नीचा न करो। बच्चों जैसी भावनाओं को तुम पर अधिकार न करने दो। आशा न रखो, प्रत्याशा न रखो। संसार के प्रवाह तुम्हारे व्यक्तित्व को जहाँ ले जायें ले जाने दो। स्मरण रखो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप समुद्रवत् है तथा उदासीन रहो। मन भी सूक्ष्म रूप में शरीर ही है यह जान लो। इसलिये तुम्हारी तपस्या को मानसिक बनाओ। अपनी सभी मानसिक वृत्तियों को शारीरिक वत्त्ति ही समझो तथा निर्लिप्त रहो। तुम आत्मा हो अपनी आत्मा से ही सरोकार रखो। अपने स्वयं का जीवन जीओ। स्वयं के प्रति सच्चे बनो।

🌹 क्रमशः जारी
*🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर*

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 13)

🌞 पहला अध्याय

🔴 काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार और इन्द्रिय वासनाएँ मनुष्य के आनन्द में बाधक बनकर उसे दुःखजाल में डाले हुए हैं। पाप और बन्धन की यह मूल हैं। पतन इन्हीं के द्वारा होता है और क्रमशः नीच श्रेणी में इनके द्वारा जीव घसीटा जाता रहता है। विभिन्न अध्यात्म पन्थों की विराट साधनाएँ इन्हीं दुष्ट शत्रुओं को पराजित करने के चक्रव्यूह हैं। अर्जुन रूपी मन को इसी महाभारत में प्रवृत्त करने का भगवान का उपदेश है।

🔴 इस पुस्तक के अगले अध्यायों में आत्म दर्शन के लिए जिन सरल साधनों को बताया गया है, उनकी साधना करने से हम उस स्थान तक ऊँचे उठ सकते हैं, जहाँ सांसारिक प्रवृत्तियों की पहुँच नहीं हो सकती। जब बुराई न रहेगी, तो जो शेष रह जाय, वह भलाई होगी। इस प्रकार आत्मदर्शन का स्वाभाविक फल दैवी सम्पत्ति को प्राप्त करना है। आत्म-स्वरूप का, अहंभाव का आत्यन्तिक विस्तार होते-होते रबड़ के थैले के समान बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा-परमात्मा में जा मिलता है।

🔵 इस भावार्थ को जानकर कई व्यक्ति निराश होंगे और कहेंगे-यह तो संन्यासियों का मार्ग है। जो ईश्वर में लीन होना चाहते हैं या परमार्थ साधना करना चाहते हैं, उनके लिए यह साधन उपयोगी हो सकता है। इसका लाभ केवल पारलौकिक है, किन्तु हमारे जीवन का सारा कार्यक्रम इहलौकिक है। हमारा जो दैनिक कार्यक्रम व्यवसाय, नौकरी, ज्ञान-सम्पादन, द्रव्य-उपार्जन, मनोरंजन आदि का है, उसमें से थोड़ा समय पारलौकिक कार्यों के लिए निकाल सकते हैं, परन्तु अधिकांश जीवनचर्या हमारी सांसारिक कार्यों में निहित है। इसलिए अपने अधिकांश जीवन के कार्यक्रम में हम इसका क्या लाभ उठा सकेंगे?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 1)

सन 1958 में परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक!!
 
🌹 निवेदन!

🔵 आत्म-निर्माण परिवार निर्माण और समाज निर्माण का उद्देश्य लेकर युग-निर्माण योजना नामक एक आध्यात्मिक प्रक्रिया ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों द्वारा जून सन् 63 से आरम्भ की गई है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की अभिनव रचना का लक्ष्य पूरा करने के लिये विगत एक वर्ष से यह आन्दोलन सफलतापूर्वक चल रहा है।

🔴 आन्दोलन के आरम्भ में जन साधारण को उसका स्वरूप समझाने के लिये जो लेख लिखे गये थे उनका संग्रह इस पुस्तक में है। इसलिये पाठकों को ऐसा प्रतीत होगा मानो यह कोई विचाराधीन योजना या किसी भावी कार्यक्रम की कल्पना है। पर वस्तु-स्थिति ऐसी नहीं। गत एक वर्ष से यह पुस्तक छपने तक इस शतसूत्री योजना के यह सभी कार्यक्रम तीन हजार शाखाओं से संगठित परिवार के तीस हजार सदस्यों द्वारा बड़े उत्साहपूर्वक कार्यान्वित किये जा रहे हैं।

🔵 प्रगति जिस आशाजनक और उत्साह पूर्ण कार्यक्रम से हो रही है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि किसी समय का यह स्वप्न अगले कुछ ही समय में एक विशाल वृक्ष का रूप धारण करने जा रहा है और युग-निर्माण की बात जो अत्युक्ति जैसी लगती थी अगले दिनों एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में मूर्तिमान होने वाली है।

🔴 नव-निर्माण का यह अभिनव आन्दोलन समय की एक अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण पुकार है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिये यह योजना अपनाये जाने योग्य है। आशा यही है कि पाठक इस शतसूत्री योजना को न्यूनाधिक रूप में अपनाने का प्रयत्न करेंगे। विज्ञजनों से इन संदर्भ में आवश्यक परामर्श सहयोग, मार्ग-दर्शन एवं आशीर्वाद देने की प्रार्थना है, ताकि आन्दोलन को और भी अधिक सुचारु रूप से चलाया जा सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 12)

🌞 पहला अध्याय

🔴 अब तक उसे एक बहिन, दो भाई, माँ बाप, दो घोड़े, दस नौकरों के पालन की चिन्ता थी, अब उसे हजारों गुने प्राणियों के पालने की चिन्ता होती है। यही अहंभाव का प्रसार है। दूसरे शब्दों में इसी को अहंभाव का नाश कहते हैं। बात एक ही है फर्क सिर्फ कहने-सुनने का है। रबड़ के गुब्बारे जिसमें हवा भरकर बच्चे खेलते हैं, तुमने देखे होंगे। इनमें से एक लो और उसमें हवा भरो। जितनी हवा भरती जायेगी, उतना ही वह बढ़ता जाएगा और फटने के अधिक निकट पहुँचता जाएगा।

🔴 कुछ ही देर में उसमें इतनी हवा भर जायगी कि वह गुब्बारे को फाड़कर अपने विराट् रूप आकाश में भरे हुए महान वायुतत्त्व में मिल जाय। यही आत्म-दर्शन प्रणाली है। यह पुस्तक तुम्हें बतावेगी कि आत्म-स्वरूप को जानो, उसका विस्तार करो। बस इतने से ही सूत्र में वह सब महान विज्ञान भरा हुआ है, जिसके आधार पर विभिन्न अध्यात्म पथ बनाये गये हैं। वे सब फल इस सूत्र में बीज रूप में मौजूद हैं, जो किसी भी सच्ची साधना से कहीं भी और किसी भी प्रकार हो सकते हैं।

🔵 आत्मा के वास्तविक स्वरूप की एक बार झाँकी कर लेने वाला साधक फिर पीछे नहीं लौट सकता। प्यास के मारे जिसके प्राण सूख रहे हैं ऐसा व्यक्ति सुरसरि का शीतल कूल छोड़कर क्या फिर उसी रेगिस्तान में लौटने की इच्छा करेगा? जहाँ प्यास के मारे क्षण-क्षण पर मृत्यु समान असहनीय वेदना अब तक अनुभव करता रहा है। भगवान कहते हैं। ''यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्घाम् परमं मम।'' ''जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता, ऐसा मेरा धाम है।'' सचमुच वहाँ पहुँचने पर पीछे को पाँव पड़ते ही नहीं। योग भ्रष्ट हो जाने का वहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। घर पहुँच जाने पर भी क्या कोई घर का रास्ता भूल सकता है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

👉 गायत्री की दैनिक साधना (भाग 2)

🔴 जिन्हें मन्त्र ठीक तरह शुद्ध रूप से याद न हो वे नीचे की पंक्तियों से उसे शुद्ध कर लें।
“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।”

🔵 साधारणतः जप प्रतिदिन का नियम यह होना चाहिए कि कम से कम 108 मन्त्रों की एक माला का नित्य किया जाए। जप के लिए सूर्योदय का समय सर्वश्रेष्ठ है। शौच स्नान से निवृत्त होकर कुश के आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठना चाहिए। धोती के अतिरिक्त शरीर पर और कोई वस्त्र न रहे। ऋतु अनुकूल न हो तो कम्बल या चादर ओढ़ा जा सकता है। जल का एक छोटा पात्र पास में रखकर शान्त चित्त से जप करना चाहिए। होंठ हिलते रहें, कंठ से उच्चारण भी होता रहे, परन्तु शब्द इतने मंद स्वर में रहे कि पास बैठा हुआ मनुष्य भी उन्हें न सुन सके। तात्पर्य यह है कि जप चुपचाप भी हो और कंठ ओष्ठ तथा जिह्वा को भी कार्य करना पड़े।

🔴 शान्त चित्त से एकाग्रतापूर्वक जप करना चाहिए। मस्तिष्क में त्रिकुटी स्थान पर सूर्य जैसे तेजस्वी प्रकाश का ध्यान करना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि उस प्रकाश की तेजस्वी किरणें मेरे मस्तिष्क तथा समस्त शरीर को एक दिव्य विद्युत शक्ति से भरे दे रही है। जप और ध्यान साथ साथ आसानी से हो सकते हैं। आरम्भ में कुछ ऐसी कठिनाई आती है कि जप के कारण ध्यान टूटता है और ध्यान की तल्लीनता से जप में विक्षेप पड़ता है। यह कठिनाई कुछ दिनों के अभ्यास से दूर हो जाती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति 1944 सितम्बर

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? भाग 11)


🌞 पहला अध्याय

🔴 अनेक साधक अध्यात्म-पथ पर बढ़ने का प्रयत्न करते हैं पर उन्हें केवल एकांगी और आंशिक साधन करने के तरीके ही बताये जाते हैं। खुमारी उतारना तो वह है जिस दशा में मनुष्य अपने रूप को भली-भाँति पहचान सके। जिस इलाज से सिर्फ हाथ-पैर पटकना ही बन्द होता है या आँखों की सुर्खी ही मिटती है वह पूरा इलाज नहीं है। यज्ञ, तप, दान, व्रत, अनुष्ठान, जप, आदि साधन लाभप्रद हैं, इनकी उपयोगिता से कोई इन्कार नहीं कर सकता।

🔴 परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। इससे पवित्रता बढ़ती है, सतोगुण की वृद्घि होती है, पुण्य बढ़ता है किन्तु वह चेतना प्राप्त नहीं होता जिसके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का वास्तविक रूप जाना जा सकता है और सारा भ्रम जंजाल कट जाता है। इस पुस्तक में हमारा उद्देश्य साधक को आत्मज्ञान की चेतना में जगा देने का है क्योंकि हम समझते हैं कि मुक्ति के लिए इससे बढ़कर सरल एवं निश्चित मार्ग हो ही नहीं सकता। जिसने आत्म स्वरूप का अनुभव कर लिया, सद्गुण उसके दास हो जाते हैं और दुर्गुणों का पता भी नहीं लगता कि वे कहाँ चले गये।

🔵 आत्म-दर्शन का यह अनुष्ठान साधकों को ऊँचा उठायेगा। इस अभ्यास के सहारे वे उस स्थान से ऊँचे उठ जायेंगे जहाँ कि पहले खड़े थे। इस उच्च शिखर पर खड़े होकर वे देखेंगे कि दुनियाँ बहुत बड़ी है। मेरा भार बहुत बड़ा है। मेरा राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ है। जितनी चिन्ता अब तक थी, उससे अधिक चिन्ता अब मुझे करनी है। वह सोचता है कि मैं पहले जितनी वस्तुओं को देखता था, उससे अधिक चीजें मेरी हैं। अब वह और ऊँची चोटी पर चढ़ता है कि मेरे पास कहीं इससे भी अधिक पूँजी तो नहीं है? जैसे-जैसे ऊँचा चढ़ता है वैसे ही वैसे उसे अपनी वस्तुएँ अधिकाधिक प्रतीत होती जाती हैं और अन्त में सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर वह जहाँ तक दृष्टि फैला सकता है, वहाँ तक अपनी ही अपनी सब चीजें देखता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 62)

🔵 आलोचक कला की दीर्घाओं में विभिन्न चित्रों को देखता है जिसमें कुछ भीषण त्रासदिक होते हैं कुछ अत्यन्त सुन्दर होते हैं। किन्तु वह स्वयं वास्तव में उन चित्रों में अंकित भावनाओं से प्रभावित नहीं होता। तुम भी उसी प्रकार करो। जीवन मानो एक कला  दीर्घा है, अनुभव मानो विभिन्न चित्र हैं जो समय की दीवार पर टंगे हुए हैं। यदि तुम करना चाहते हो तो उनका अध्ययन करो किन्तु किसी भी प्रकार की भावनात्मक रुचि से स्वयं को मुक्त रखो। अध्ययन करो किन्तु उससे अप्रभावित रहो। इसे ध्यान में रखने पर तुम सचमुच ही साक्षी हो जाओगे। जिस प्रकार एक चिकित्सक शरीर या उसके रोगों का अध्ययन करता है उसी प्रकार अपने मन तथा अनुभवों का अध्ययन करो। अपने स्वयं की आलोचना में कठोर बनो तभी तुम वास्तविक उन्नति कर पाओगे।

🔴 रास्ता लम्बा है। (आत्म) शिक्षा की प्रक्रिया में कई जीवन आवश्यक हैं। किन्तु गहन जीवन जी कर व्यक्ति इस चक्करदार रास्ते से बच सकता है जिस पर की उथला जीवन जीनेवाले चलते हैं जिनका जीवन केवल उनके व्यक्तित्व के सतह पर ही होता है। आध्यात्मिक विषयों पर गहराई से लगातार विचार करना, इन्छाओं को उच्चाकाक्षा में बदलना, वासनाओं को आध्यात्मिक भाव से भर देना, ये सब इसके उपाय हैं। जब तक कि तुम्हारा संपूर्ण स्वभाव आध्यात्मिक आदर्श तथा इच्छाओं से परिपूर्ण नहीं हो जाता दिन भर की प्रत्येक घड़ी में सतत तद्रूप होने का दृढ़ निश्चय करो।

🔵 सदैव सावधान रहो। जो सभी शुभ वस्तुओं के दाता हैं उनके प्रति सभी कुछ समर्पित कर दो। जो तुम्हें आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर रखे, फिर चाहे वह मृत्यु का भय ही क्यों न हो, उसे पकड़ रखो। तुम एक नये पौधे हो जिसे सहारे की आवश्यकता है। जो भी वस्तु तुम्हें शक्तिशाली बनाये उसे पकड़ लो। दृढ़ता तथा प्रचण्डता से उससे चिपके रहो। अविचल, निष्ठावान, उद्यत चित्त, सदाचारी बनो तथा प्रत्येक क्षण एवं अवसर का लाभ उठाओ। पथ बहुत लम्बा है। समय भाग रहा है इसलिये जैसा कि मैंने पहले भी बार बार तुमसे कहा है अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को समर्पित कर स्वयं को कार्य में झोंक दो और तब तुम लक्ष्य पर पहुँच जाओगे।

🌹 क्रमशः जारी
*🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर*

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 10)

🌞 पहला अध्याय

🔴 काम क्रोधादि हमें इसलिए सताते हैं कि उनकी दासता हम स्वीकार करते हैं। जिस दिन हम विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देंगे, भ्रम अपने बिल में धँस जायगा। भेड़ों में पला हुआ शेर का बच्चा अपने को भेड़ समझता था, परन्तु जब उसने पानी में अपनी तस्वीर देखी तो पाया कि मैं भेड़ नहीं शेर हूँ। आत्म-स्वरूप का बोध होते ही उसका सारा भेड़पन क्षणमात्र में चला गया। आत्मदर्शन की महत्ता ऐसी ही है, जिसने इसे जाना उसने उन सब दुःख दारिद्रयों से छुटकारा पा लिया, जिनके मारे वह हर घड़ी हाय-हाय किया करता था।

🔴 जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं पर उन सबमें प्रधान अपने आपको जानना है। जिसने अपने को जान लिया उसने जीवन का रहस्य समझ लिया। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों ने अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं। प्रकृति के अन्तराल में छिपी हुई विद्युत शक्ति, ईथर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूँढ़ निकाला है। अध्यात्म जगत के महान अन्वेषकों ने जीवन सिन्धु का मन्थन करके आत्मा रूपी अमृत उपलब्ध किया है। इस आत्मा को जानने वाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इसे प्राप्त करने वाला विश्व विजयी मायातीत कहा जाता है।

🔵 इसलिए हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आपको जाने। मैं क्या हूँ, इस प्रश्न को अपने आपसे पूछे और विचार करे, चिन्तन तथा मननपूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्त करे। अपना ठीक रूप मालूम हो जाने पर, हम अपने वास्तविक हित-अहित को समझ सकते हैं। विषयानुरागी अवस्था में जीव जिन बातों को लाभ समझता है, उनके लिए लालायित रहता है, वे लाभ आत्मानुरक्त होने पर तुच्छ एवं हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं और माया लिप्त जीव जिन बातों से दूर भागता है, उसमें आत्म-परायण को रस आने लगता है। आत्म-साधन के पथ पर अग्रसर होने वाले पथिक की भीतरी आँखें खुल जाती हैं और वह जीवन के महत्वपूर्ण रहस्य को समझकर शाश्वत सत्य की ओर तेजी के कदम बढ़ाता चला जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 61)

🔵 स्वाधीन बनो! सभी उपायों से स्वाधीन बनो!! अपनी संभावनाओं तथा परमात्मा की कृपा पर विश्वास करो। दूसरों पर भरोसा तुम्हें  अधिकाधिक असहाय और दुःखी करेगा। यदि तुम स्वयं पर विश्वास नहीं करोगे तो अत्यन्त पीड़ादायक अनुभव तुम्हें वह करने के लिये बाध्य करेंगे। विधि के विधान में भावुकता या आत्मकरुणा के लिये कोई स्थान नहीं है। वह तुम्हारे पशुस्वभाव को खराद कर आध्यात्मिक आकार में बदल देगा। उसका एक मात्र उद्देश्य है तुम्हारे चरित्र में परिवर्तन करना।  

🔴 फिर विलम्ब क्यों? जिसकी अनुभूति इसी क्षण की जा सकती है उसे आगामी जन्म के लिये क्यों रख छोड़ो? निष्ठावान बनो। प्रचण्ड निष्ठावान बनो। अधिकारी या अनधिकारी होने का प्रश्न नहीं है। तुम्हारी  मुक्ति निश्चित है। क्योंकि उच्च जीवन में तुम्हें बलपूर्वक ठेल दिया जायगा। यही प्रत्येक व्यक्ति की नियति है। ईश्वरत्व को व्यक्त करना ही पड़ेगा।

🔵 उसी प्रकार एक आध्यात्मिक उदासीनता की भी आवश्यकता है। दिन भर में आनेवाली हजारों क्षुब्ध करने वाली घटनाओं की ओर क्यों ध्यान देते हो? स्वाधीन बनो। यह जान लो कि यह सब तुम्हारे उस पूर्वसंस्कार के महाप्रवाह की धाराएँ हैं जिनसे तुम्हें स्वयं को सदैव के लिये अलग कर लेना है। जो होता है होने दो, तुम्हारे विषय में लोग जो भी कहें कहने दो। तुम्हारे लिये यह सब मृगतृष्णा के समान हो जाना चाहिये। यदि सचमुच तुमने संसार का त्याग कर दिया है तो फिर तुम क्षुब्ध कैसे हो सकते हो! अपने आदर्श और प्रयत्नों में स्थिर रहो। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 गायत्री की दैनिक साधना (भाग 1)

🔴 निस्संदेह मन्त्रों में बहुत बड़ा बल मौजूद है और यदि कोई उनका ठीक ठीक उपयोग जान ले तो अपनी और दूसरों की बड़ी सेवा कर सकता है। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है कि -
मंत्र परम लघु जासुबस विधि हरिहर सुर सर्व।
महामत्त गजरात कहँ बस करि अंकुश खर्व॥


🔵 यों तो बहुत से मन्त्र हैं। उनके सिद्ध करने और प्रयोग करने के विधान अलग अलग हैं और फल भी अलग अलग हैं। परन्तु एक मंत्र ऐसा है जो सम्पूर्ण मन्त्रों की आवश्यकता को अकेला ही पूरा करने में समर्थ है। यह गायत्री मन्त्र है। गायत्री मन्त्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद चारों वेदों में है। इसके अतिरिक्त और कोई ऐसा मन्त्र नहीं है जो चारों वेदों में पाया जाता हो। गायत्री वास्तव में वेद की माता है। तत्वदर्शी महात्माओं का कहना है कि गायत्री मन्त्र के आधार पर वेदों का निर्माण हुआ है, इसी महामन्त्र के गर्भ में से चारों वेद उत्पन्न हुए हैं। वेदों के मन्त्र दृष्टा ऋषियों ने जो प्रकाश प्राप्त किया है वह गायत्री से प्राप्त किया है।

🔴 गायत्री मन्त्र का अर्थ इतना गूढ़ गंभीर और अपरिमित है कि उसके एक एक अक्षर का अर्थ करने में एक एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। आध्यात्मिक, बौद्धिक, शारीरिक, साँसारिक, ऐतिहासिक, अनेक दिशाओं में उसका एक एक अक्षर अनेक प्रकार के पथ प्रदर्शन करता है। वह सब गूढ़ रहस्य यहाँ इन थोड़ी सी पंक्तियों के छोटे से लेख में लिखा नहीं जा सकता। यहाँ तो पाठकों को गायत्री का प्रचलित, स्थूल और सर्वोपयोगी भावार्थ यह समझ लेना चाहिए कि-तेजस्वी परमात्मा से सद्बुद्धि की याचना इस मन्त्र में की गई है।

🔵 श्रद्धापूर्वक इस मन्त्र की धारणा करने पर मनुष्य तेजस्वी और विवेकशील बनता है। गायत्री माता अपने प्रिय पुत्रों को तेज और बुद्धि का प्रसाद अपने सहज स्नेह वश प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त अनेक आपत्तियों का निवारण करने की शक्ति गायत्री माता में है। कोई व्यक्ति कैसी ही विपत्ति में फँसा हुआ हो यदि श्रद्धापूर्वक गायत्री की साधना करे तो उसकी आपत्तियाँ कट जाती हैं और जो कार्य बहुत कठिन तथा असंभव प्रतीत होते थे वे सहज और सरल हो जाते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति 1944 सितम्बर

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 9)

🌞 पहला अध्याय

🔵 जीवन को शुद्ध, सरल, स्वाभाविक एवं पुण्य-प्रतिष्ठा से भरा-पूरा बनाने का राजमार्ग यह है कि हम अपने आपको शरीर भाव से ऊँचा उठावें और आत्मभाव में जागृत हों। इससे सच्चे सुख-शांति और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आध्यात्म विद्या के आचार्यों ने इस तथ्य को भली प्रकार अनुभव किया है और अपनी साधनाओं में सर्व प्रथम स्थान आत्मज्ञान को दिया है।

🔴 मैं क्या हूँ? इस प्रश्न पर विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि मैं आत्मा हूँ। यह भाव जितना ही सुदृढ़ होता जाता है उतने ही उसके विचार और कार्य आध्यात्मिक एवं पुण्य रूप होते जाते हैं। इस पुस्तक में ऐसी ही साधनाएँ निहित हैं जिनके द्वारा हम अपने आत्म स्वरूप को पहिचानें और हृदयंगम करें। आत्मज्ञान हो जाने पर वह सच्चा मार्ग मिलता है जिस पर चलकर हम जीवन लक्ष्य को, परमपद को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

🔵 आत्म स्वरूप को पहिचानने से मनुष्य समझ जाता है कि मैं स्थूल शरीर व सूक्ष्म शरीर नहीं हूँ। यह मेरे कपड़े हैं। मानसिक चेतनाएँ भी मेरे उपकरण मात्र हैं। इनसे मैं बँधा हुआ नहीं हूँ। ठीक बात को समझते ही सारा भ्रम दूर हो जाता है और बन्दर मुट्ठी का अनाज छोड़ देता है। आपने यह किस्सा सुना होगा कि एक छोटे मुँह के बर्तन में अनाज जमा था। बन्दर ने उसे लेने के लिए हाथ डाला और मुट्ठी में भरकर अनाज निकालना चाहा। छोटा मुँह होने के कारण वह हाथ निकल न सका, बेचारा पड़ा-पड़ा चीखता रहा कि अनाज ने मेरा हाथ पकड़ लिया है, पर ज्योंही उसे असलियत का बोध हुआ कि मैंने मुट्ठी बाँध रखी है, इसे छोड़ूँ तो सही। जैसे ही उसने उसे छोड़ा कि अनाज ने बन्दर को छोड़ दिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part1.3

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 25 Oct 2016


👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 60)

🔵 मानसिक तथा नैतिक अनुभवों के महत् सातत्य पर विचार करो। तब तुम्हारे सामने यह स्पष्ट हो जायेगा कि जब तक प्रगति पूर्णता में पर्यवसित नहीं होती तब तक मनुष्य का पुन: पुन: जन्म होता ही रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों, इच्छाओं तथा कर्मों द्वारा एक एक संसार का निर्माण कर रहा है जिसका कि वह स्वयं शासक होगा। वस्तुगत अनुभवों के समुद्र की तलहटी का स्पर्श कर तथा उससे परे व्यक्तिगत चेतना के शुद्ध आत्मा की अनुभूति के प्रयत्न में जीव को एक नहीं असंख्य शरीर धारण करने पड़ते है।

🔴 सिद्धियों तथा कोरी विद्या की इच्छा का दमन करो। मिथ्याज्ञान का बढ़ना तथा सिद्धियाँ प्राप्त करना अपने आप में विनाशकारी हैं क्योंकि वे अहंकार को बढ़ाते हैं तथा व्यक्ति को अधिक स्वार्थी बना देते हैं। चेतना का विभिन्न प्रकार से विस्तार आध्यात्मिक प्रक्रिया की एक मानी हुई घटना है। किन्तु यह पूर्णता: आनुसंगिक है। परन्तु जब इसे ही आत्मसाक्षात्कार के लक्ष्य श्रेष्ठ मान लिया जाता है तब यह साधना के मार्ग में हजारों गुण अधिक बाधा उत्पन्न कर देता है।

🔵 जैसे कि तुम एक पागल कुत्ते से सावधान रहते हो उसी प्रकार अहंकार से सावधान रहो। जिस प्रकार कि तुम विष का स्पर्श नहीं करोगे या विषधर साँप से नहीं खेलोगे, उसी प्रकार सिद्धियों, तथाकथित सिद्धियों से दूर रहो। अपने मन तथा बुद्धि की सभी शक्तियों को ईश्वर की ओर मोड़ दो। आध्यात्मिक जीवन का और क्या लक्ष्य होगा ?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 23 Oct 2016



👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 8)

🌞 पहला अध्याय

🔵 आत्म भाव में जगा हुआ मनुष्य अपने आपको आत्मा मानता है और आत्मकल्याण के, आत्म सुख के कार्यों में ही अभिरुचि रखता और प्रयत्नशील रहता है। उसे धर्म संचय के कार्यों में अपने समय की एक-एक घड़ी लगाने की लगन लगी रहती है।

🔴 इस प्रकार शरीर भावी व्यक्ति का जीवन पाप की ओर, पशुत्व की ओर चलता है और आत्मभावी व्यक्ति का जीवन प्रवाह पुण्य की ओर, देवत्व की ओर प्रवाहित होता है। यह सर्व विदित है कि इस लोक और परलोक में पाप का परिणाम दुःखदाई और पुण्य का परिणाम सुखदाई होता है। अपने को आत्मा समझने वाले व्यक्ति सदा आनन्दमयी स्थिति का रसास्वादन करते हैं।

🔵 जिसे आत्मज्ञान हो जाता है वह छोटी घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित, उत्तेजित या अशान्त नहीं होता। लाभ-हानि, जीवन-मरण, विरह-विछोह, मान-अपमान, लोभ-मोह, क्रोध, काम, भोग, राग-द्वेष आदि की कोई घटना उसे अत्यधिक क्षुभित नहीं करती, क्योंकि वह जानता है कि यह सब परिवर्तनशील संसार में नित्य का स्वाभाविक क्रम है।

🔴 मनोवांछित वस्तु या स्थिति सदा प्राप्त नहीं होती, कालचक्र के परिवर्तन के साथ-साथ अनिच्छित घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं, इसलिए उन परिवर्तनों को एक मनोरंजन की तरह, नाट्य रंगमंच की तरह, कौतूहल और विनोद की तरह देखता है। किसी अनिच्छित स्थिति को सामने आया देखकर वह बेचैन नहीं होता। आत्मज्ञानी उन मानसिक कष्टों से सहज ही बचा रहता है जिनसे शरीर भावी लोग सदा व्यथित और बेचैन रहते हैं और कभी-कभी तो अधिक उत्तेजित होकर आत्महत्या जैसे दुःखद परिणाम उपस्थित कर लेते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part1.3

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 7)

🔴 पहला अध्याय

🔵 इससे शरीर और मन का अभिरंजन तो होता है, पर आत्मा को इस लोक और परलोक में कष्ट उठाना पड़ता है। आत्मा के स्वार्थ के सत्कर्मों में शरीर को भी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। तप, त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य, सेवा, दान आदि के कार्यों में शरीर को कसा जाता है। तब ये सत्कर्म सधते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर के स्वार्थ और आत्मा के स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाते, एक के सुख में दूसरे का दुःख होता है। दोनों के स्वार्थ आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं। 

🔴 इन दो विरोधी तत्त्वों में से हमें एक को चुनना होता है। जो व्यक्ति अपने आपको शरीर समझते हैं, वे आत्मा के सुख की परवाह नहीं करते और शरीर सुख के लिए भौतिक सम्पदाएँ, भोग सामग्रियाँ एकत्रित करने में ही सारा जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों का जीवन पशुवत् पाप रूप, निकृष्ट प्रकार का हो जाता है। धर्म, ईश्वर, सदाचार, परलोक, पुण्य, परमार्थ की चर्चा वे भले ही करें, पर यथार्थ में उनका पुण्य परलोक स्वार्थ साधन की ही चारदीवारी के अन्दर होता है। यश के लिए, अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए, दूसरों पर अपना सिक्का जमाने के लिए वे धर्म का कभी-कभी आश्रय ले लेते हैं।

🔵 वैसे उनकी मनःस्थिति सदैव शरीर से सम्बन्ध रखने वाले स्वार्थ साधनों में ही निमग्न रहती है। परन्तु जब मनुष्य आत्मा के स्वार्थ को स्वीकार कर लेता है, तो उसकी अवस्था विलक्षण एवं विपरीत हो जाती है। भोग और ऐश्वर्य के प्रयत्न उसे बालकों की खिलवाड़ जैसे प्रतीत होते हैं। शरीर जो वास्तव में आत्मा का एक वस्त्र या औजार मात्र है, इतना महत्त्वपूर्ण उसे दृष्टिगोचर नहीं होता है कि उसी के ऐश-आराम में जीवन जैसे बहुमूल्य तत्त्व को बर्बाद कर दिया जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 19 Oct 2016



सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 18 Oct 2016

  

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 6)

चित्रगुप्त का परिचय

🔴 बाहरी दुनियाँ में मुलजिम को सजा दिलाने का काम दो महकमों के आधीन है, एक पुलिस, दूसरा अदालत। पुलिस तो मुलजिम को पकड़ ले जाती है और उसके कामों का सबूत एकत्रित करके अदालत के सामने पेश करती है, फिर अदालत का महकमा अपना काम करता है। जज महाशय अपराध और अपराधी की स्थिति के बारे में बहुत दृष्टियों से विचार करते हैं, तब जैसा उचित होता है वैसा फैसला करते हैं। एक ही जुर्म में आए हुए अपराधियों को अलग-अलग तरह की सजा देते हैं। तीन खूनी पकड़ कर लाए गए, इनमें से एक को बिल्कुल बरी कर दिया, दूसरे को पाँच साल की सजा मिली, तीसरे को फाँसी।

🔵 हत्या तीनों ने की थी, पर सजा देते वक्त मजिस्ट्रेट ने बहुत बातों पर विचार किया। जिसे बरी कर दिया गया था, वह मकान बनाने वाला मजदूर था, छत पर काम करते वक्त पत्थर का टुकड़ा उसके हाथ से अचानक छूट गया और वह नीचे सड़क पर चलते एक मुसाफिर के सिर में लगा, सिर फट गया, मुसाफिर की मृत्यु हो गई। जज ने देखा की हत्या तो अवश्य हुई, मजदूर निर्दोष है, उसने जान-बूझकर बुरे इरादे से पत्थर नहीं फेंका था, इसलिए उसे बरी कर दिया गया। दूसरा मुलजिम एक किसान था। खेत काटते हुए चोर को ऐसी लाठी मारी कि वह मर गया। मजिस्ट्रेट ने सोचा-चोरी होते देखकर गुस्सा आना स्वाभाविक है, पर किसान की इतनी गलती है कि मामूली अपराध पर इतना नहीं मारना चाहिए था, इसलिए उसे पाँच साल की सजा मिली। तीसरा मुलजिम एक मशहूर डाकू था। एक धनी पुरुष के घर में रात को घुस गया और उसका कत्ल करके धन-माल चुरा लाया। इसका अपराध जघन्य था इसलिए फाँसी की सजा दी गई।

🔴 तीनों ही अपराधियों ने खून किया था, जुर्म का बाहरी रूप एक-सा था, पर मजिस्ट्रेट सूक्ष्मदर्शी होता है, वह बाहरी बातों को देखकर ही सजा नहीं दे डालता वरन् भीतरी बारीकियों पर भली प्रकार विचार करके तब कुछ फैसला करता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.2

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 6)

🔴 पहला अध्याय

🔵 जीवन की वास्तविक सफलता और समृद्घि आत्मभाव में जागृत रहने में है। जब मनुष्य अपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा और अभिरुचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है, जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। हम देखते हैं कि चोरी, हिंसा, व्यभिचार, छल एवं अनीति भरे दुष्कर्म करते हुए अन्तःकरण में एक प्रकार का कुहराम मच जाता है, पाप करते हुए पाँव काँपते हैं और कलेजा धड़कता है इसका तात्पर्य यह है कि इन कामों को आत्मा नापसन्द करता है।

🔴 यह उसकी रुचि एवं स्वार्थ के विपरीत है। किन्तु जब मनुष्य परोपकार, परमार्थ, सेवा, सहायता, दान, उदारता, त्याग, तप से भरे हुए पुण्य कर्म करता है तो हृदय के भीतरी कोने में बड़ा ही सन्तोष, हलकापन, आनन्द एवं उल्लास उठता है। इसका अर्थ है कि यह पुण्य कर्म आत्मा के स्वार्थ के अनुकूल है। वह ऐसे ही कार्यों को पसन्द करता है। आत्मा की आवाज सुनने वाले और उसी की आवाज पर चलने वाले सदा पुण्य कर्मी होते हैं। पाप की ओर उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती इसलिए वैसे काम उनसे बन भी नहीं पड़ते।

🔵  आत्मा को तत्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। शरीर की मृत्यु होने के उपरान्त जीव की सद्गति मिलने में भी हेतु सत्कर्म ही हैं। लोक और परलोक में आत्मिक सुख-शान्ति सत्कर्मो के ऊपर ही निर्भर है। इसलिए आत्मा का स्वार्थ पुण्य प्रयोजन में है। शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है। इन्द्रियाँ और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस कार्य प्रणाली को अपनाने से मनुष्य नाशवान शरीर की इच्छाएँ पूर्ण करने में जीवन को खर्च करता है और पापों का भार इकट्ठा करता रहता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 59)

गुरुदेव की वाणी ने पुन: मेरी आत्मा से कहा: -

🔵 अपने शरीर से ऐसा व्यवहार करो मानों वह तुमसे भिन्न कोई है। यदि तुम उससे कहो कि ऐसा कर तो वह करेगा। आचार्य ने कहा अंगीठी की सजावट के ऊपर की घड़ी के समान स्वयं को बैठे हुए कल्पना करो तथा तुम्हारे अपने आने जाने को देखो। तुम पाओगे कि उनमें से अधिकांश कितने व्यर्थ तथा निरर्थक हैं। अत: तात्कालिक घटनाओं को अनावश्यक महत्त्व न दो, न ही उनसे आसक्त होओ। यदि भौतिक वस्तुओं का अध्यात्मीकरण नहीं कर सकते तो उनकी उपेक्षा करो।

🔴 दैनंदिन जीवन में आध्यात्मिकता को लाना अवश्य ही बहुत कठिन है, किन्तु परीक्षा वही है। केवल (आध्यात्मिक) ऊँचाइयों में ही नहीं (सांसारिक परिस्थितियों) घाटियों में भी ईश्वर को अपने सामने देखना होगा। सचमुच वह मन कितना एकाग्र होता है जो कि साधारण परिस्थितियों में भी आध्यात्मिकता की झलक देख सकता है।

🔵 अहंकार के थोड़े से भी चिह्न को उखाड़ फेंको। जितना अधिक तुम अपने व्यक्तित्व का अध्ययन करोगे उतना ही अधिक तुम पाओगे कि तुम्हारे कार्यों तथा विचारों में अहंकार ही दौड़ा आ रहा है। अहंकार को केवल जीतना ही नहीं होगा अपितु उसका पूर्णतः दमन करना होगा। आत्मदोष तथा आत्माग्लानि में भी इस दमित अहंकार का अस्तित्व दीख पड़ता है। सच्चा आत्मसाक्षात्कारी पुरुष न तो दूसरों को दोष देता है ने -स्वयं को ही। महत् वस्तुओं से आवृत होने के कारण वह परिस्थितियों की उपेक्षा करता है।

🔴 अपने को मरा हुआ देखो। जीवित अवस्था में भी स्वयं को शरीर से भिन्न कर लो। वस्तुओं के रूप नहीं उनकी आत्मा को देखो। तब तुम्हारी नई और शुद्ध दृष्टि में समस्त जीवन एक नये आलोक में दीख पड़ेगा तथा तुम्हारे सामने उच्चतर और नये रूप में उद्भासित होगा। एकदम नये आध्यात्मिक रूपों में।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 17 Oct 2016




👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 5)

चित्रगुप्त का परिचय

🔴 पिछली पंक्तियों में पाठक पढ़ चुके हैं कि हमारा गुप्त चित्र अंतर्मन ही निरंतर चित्रगुप्त देवता का काम करता रहता है। जो कुछ भले या बुरे काम हम करते हैं, उनका सूक्ष्म चित्र उतार-उतार कर अपने भीतर जमा करता रहता है। सिनेमा की पर्दे पर मनुष्य की बराबर लम्बी-चौड़ी तस्वीर दिखाई देती है, पर उसका फिल्म केवल एक इंच ही चौड़ा होता है। इसी प्रकार पाप-पुण्य का घटनाक्रम तो विस्मृत होता है, पर उसका सूक्ष्म चित्र एक पतली रेखा मात्र के भीतर खिंच जाता है और वह रेखा गुप्त मन के किसी परमाणु पर अदृश्य रूप से जमकर बैठ जाती है। शार्टहैंड लिखने वाले बड़ी बात को थोड़ी सी उल्टी-सीधी लकीरों के इशारे पर जरा से कागज पर लिख देते हैं। कर्मरेखा को ऐसी ही दैवी शार्टहैंड समझा जा सकता है।

🔵 पाठकों को इतनी जानकारी तो बहुत पहले हो चुकी होगी कि मन के दो भाग हैं- एक बहिर्मन, दूसरा अंतर्मन। बाहरी मन तो तर्क-वितर्क करता है, सोचता है, काट-छाँट करता है, निर्णय करता है और अपने इरादों को बदलता रहता है, पर अंर्तमन भोले-भाले किंतु दृढ़ निश्चयी बालक के समान है, वह काट-छाँट नहीं करता वरन् श्रद्धा और विश्वास के आधार पर काम करता है। बाहरी मन तो यह सोच सकता है कि पाप कर्मों की रेखाएँ अपने ऊपर अंकित होने न दूँ और पुण्य कर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर अंकित करूँ। जिससे पाप फल न भोगना पड़े और पुण्य फल का भरपूर आनंद प्राप्त हो, परंतु भीतरी मन ऐसा नहीं है।

🔴 यह सत्यनिष्ठ जज की तरह फैसला करता है, कोई लोभ, लालच, भय, स्वार्थ उसे प्रभावित नहीं करता। कहा जाता है कि मनुष्य के अंदर एक ईश्वरीय शक्ति रहती है, दूसरी शैतानी। आप गुप्त मन को ईश्वरीय शक्ति और तर्क, मन, छल-कपट, स्वार्थ, लोभ में रत रहने वाले बाह्य मन को शैतानी शक्ति कह सकते हैं। बाहरी मन धोखेबाजी कर सकता है, परंतु भीतरी मन तो सत्य रूपी आत्मा का तेज है, वह न तो मायावी आचरण करता है, न छल-कपट। निष्पक्ष रहना उसका स्वभाव है। इसलिए ईश्वर ने उसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा है। दुनिया उसे चित्रगुप्त देवता कहती है। यदि वह भी पक्षपात करता, तो भला इतनी ऊँची जज की पदवी कैसे पा सकता था? हमारा गुप्त मन खुफिया जासूस की तरह हर घड़ी साथ-साथ रहता है और जो-जो भले-बुरे काम किए जाते हैं, उनका ऐमालनामा अपनी खुफिया डायरी में दर्ज करता रहता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.2

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 5)*

🔴 पहला अध्याय

🔵 आत्मा शरीर से पृथक् है। शरीर और आत्मा के स्वार्थ भी पृथक हैं। शरीर के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व इन्द्रियाँ करती हैं। दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन यह सदा ही शारीरिक दृष्टिकोण से सोचते और कार्य करते हैं। स्वादिष्ट भोजन, बढ़िया वस्त्र, सुन्दर-सुन्दर मनोहर दृश्य, मधुर श्रवण, रूपवती स्त्री, नाना प्रकार के भोग-विलास यह इन्द्रियों की आकांक्षाएँ हैं।

🔴 ऊँचा पद, विपुल धन, दूर-दूर तक यश, रौब, दाब यह सब मन की आकांक्षाएँ हैं। इन्हीं इच्छाओं को तृप्त करने में प्रायः सारा जीवन लगता है। जब यह इच्छाएँ अधिक उग्र हो जाती हैं तो मनुष्य उनकी किसी भी प्रकार से तृप्ति करने की ठान लेता है और उचित-अनुचित का विचार छोड़कर जैसे भी बने स्वार्थ साधने की नीति पर उतर आता है। यही समस्त पापों का मूल केन्द्र बिन्दु है।

🔵 शरीर भाव में जाग्रत रहने वाला मनुष्य यदि आहार, निद्रा, भय, मैथुन के साधारण कार्यक्रम पर चलता रहे तो भी उस पशुवत जीवन में निरर्थकता ही है, सार्थकता कुछ नहीं। यदि उसकी इच्छाएँ जरा अधिक उग्र या आतुर हो जायें तब तो समझिये कि वह पूरा पाप पुंज शैतान बन जाता है, अनीतिपूर्वक स्वार्थ साधने में उसे कुछ भी हिचक नहीं होती। इस दृष्टिकोण के व्यक्ति न तो स्वयं सुखी रहते हैं और न दूसरों को सुखी रहने देते हैं।

🔴 काम और लोभ ऐसे तत्त्व हैं कि कितना ही अधिक से अधिक भोग क्यों न मिले वे तृप्त नहीं होते, जितना ही मिलता है उतनी ही तृष्णा के साथ-साथ अशान्ति, चिन्ता, कामना तथा व्याकुलता भी दिन दूनी और रात चौगुनी होती चलती है। इन भोगों में जितना सुख मिलता है उससे अनेक गुना दुःख भी साथ ही साथ उत्पन्न होता चलता है। इस प्रकार शरीर भावी दृष्टिकोण मनुष्य को पाप, ताप, तृष्णा तथा अशान्ति की ओर घसीट ले जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 58)

🔵 संसार जो अशांति का समुद्र है उसमें एक चट्टान की तरह के रहो। विविधता के इस असीम जंगल में सिंह के समान विचरण करो। सर्वशक्तिमत्ता तुम्हारे पीछे है, किन्तु पहले सांसारिक या केवल भौतिक शक्ति प्राप्ति की सभी इच्छाओं का दमन करो। तुम्हारे मार्ग में आने वाली माया की सभी बाधाओं को वैराग्य के खड्ग से दो टुकडे़ कर डालो। किसी पर शासन न करो।  किसी को तुम पर शासन न करने दो ।

🔴 मृत्यु से न डरो क्योंकि इसी क्षण भी मृत्यु तुम्हारा प्राण हरण कर ले तो भी यह जान रखो कि तुम सही मार्ग पर हो। अत: निर्भय हो कर बढ़ चलो। महत् जीवन में मृत्यु एक घटना मात्र है। मृत्यु के परे भी आध्यात्मिक उन्नति की सुविधायें और संभावनायें हैं। व्यक्ति क्या हो सकता है इसका कोई अन्त नहीं। सब कुछ व्यक्तिगत प्रयत्न पर निर्भर करता हैं। ईश्वर की कृपा तो -सदैव हमारे साथ है ही।

🔵 अपने आसपास की सभी वस्तुओं का अध्ययन करो। और तुम पाओगे कि प्रत्येक वस्तु में तुम्हारे लिये एक आध्यात्मिक सन्देश है। एक की ही सर्वोपरि सत्ता है। वह एक जो अनेक के प्रत्येक पक्ष में विद्यमान है। विविधता अपने विक्षेपकारी भेदों द्वारा भले ही तुम्हें छलती रहे तब भी तुम सर्वव्यापी एकत्व की पूजा करो। आभास छलता है जैसी कि कहावत है। किन्तु मनुष्य का यह कर्त्तव्य है की वह छल को पकड़े तथा सभी आभासों के पीछे के सत्य का दर्शन करे।

🔴 प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों का अभिरक्षक है, प्रत्येक व्यक्ति अपने बंधन को तोड़ने वाला है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने लिये सत्य की खोज करनी होगी। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही भूमि पर खड़ा है। प्रत्येक को अपना युद्ध स्वयं लड़ना होगा। क्योंकि अनुभूति सदैव पूर्णत: व्यक्तिगत अनुभव ही है। अन्ततोगत्वा प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का उद्धारकर्ता तथा स्वामी है। क्योंकि परमात्मा जो सर्वदा वर्तमान है वह पूर्ण एकत्व के रूप में व्यक्तित्व के प्रत्येक अंश में उद्भासित हो उठेगा। यही उपदेश है। इसकी ही अनुभूति करनी है और इसकी अनुभूति होने पर वह महान्- लक्ष्य (ईश्वर दर्शन) भी प्राप्त हो जायेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

💎 चार कीमती रत्न 💎

1~ पहला रत्न है: "माफी"🙏
 
तुम्हारे लिए कोई कुछ भी कहे, तुम उसकी बात को कभी अपने मन में न बिठाना, और ना ही उसके लिए कभी प्रतिकार की भावना मन में रखना, बल्कि उसे माफ़ कर देना।

2~ दूसरा रत्न है: "भूल जाना"🙂

अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गए उपकार को भूल जाना, कभी भी उस किए गए उपकार का प्रतिलाभ मिलने की उम्मीद मन में न रखना।

3~ तीसरा रत्न है: "विश्वास"�

हमेशा अपनी महेनत और उस परमपिता परमात्मा पर अटूट विश्वास रखना। यही सफलता का सूत्र है।

4~ चौथा रत्न है: "वैराग्य"

हमेशा यह याद रखना कि जब हमारा जन्म हुआ है तो निश्चित ही हमें एक दिन मरना ही है। इसलिए बिना लिप्त हुवे जीवन का आनंद लेना। वर्तमान में जीना।💫

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शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 16 Oct 2016




👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 57)

🔵 अपनी जड़ता से स्वयं को जगाओ। अपने संपूर्ण स्वभाव का पुनर्निर्माण करो। सर्वव्यापी सौंदर्य के प्रति अपनी आँखे खोलो। प्रकृति  से संपर्क करो। बहुत सी बातें जो तुम्हें अभी ज्ञात नहीं हैं, वह प्रकृति तुम्हें सिखा देगी। वह तुम्हें व्यक्तित्व की महान शांति प्रदान करेगी। तुम्हारे चारों ओर के दृश्य में अदृश्य परमात्मा को देखो। साक्षी बनो। कर्त्ता कर्मफल के भार से दबा होता है। यदि तुम्हें कर्म करना ही फड़े तो कर्म में भी साक्षी बनो।

🔴 आत्मनिरीक्षण तथा आत्मसाक्षात्कार के अतिरिक्त और किसी बात की चिंता न करो तुममें जो सर्वश्रेष्ठ है उसे करो। दूसरों के मतामत की ओर ध्यान न दो। शक्तिशाली बनो। अपने स्वयं की आत्मा को गुरु बनाओ। महान् आदर्श तथा विचारों से उसे लबालब भर दो जिससे कि वह स्वयं सर्वोच्च परमात्मा को अभिव्यक्त करने के लिये व्याकुल हो उठे। एक बार सशक्त हो उठने पर वह स्वयं जाग उठेगा। तब स्वप्न में भी न सोची गई वस्तुएँ तुम्हारे सामने उद्घाटित हो उठेंगी।

🔵 निन्दा से बचो। क्या तुम अपने बंधु के रखवाले हो ? क्या तुम उसके कर्मों के संरक्षक हो ? किसने तुम्हें उसका निर्णायक बनाया है? दूसरों के अनुचित आचरण की सूक्ष्म स्मृति तक को पोंछ डालो। अपने स्वयं की चिन्ता करो। तुम स्वयं में ही बहुत सी निन्दनीय बातें पाओगे। साथ ही बहुत सी ऐसी भी बातें पाओगे जो तुम्हें आनन्द देंगी। प्रत्येक व्यक्ति का उसके अपने आप में उसका अपना संसार होना चाहिये।

🔴 तुम्हारे भीतर के (निम्न) मनुष्य को मर जाने दो जिससे कि परमात्मा प्रकाशित हो सके। किसी भी बात की चिन्ता न कर शांति से रहना क्या अच्छा नहीं है ? मनुष्य पर आस्था न रखो। आस्था रखो भगवान पर। वे तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे तथा तुम्हें आगे ले जायेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 4)

 🔴 पहला अध्याय

🔵 मनुष्य शरीर में रहता है, यह ठीक है, पर यह भी ठीक है कि वह शरीर नहीं है। जब प्राण निकल जाते हैं तो शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें से कोई वस्तु घटती नहीं तो भी वह मृत शरीर बेकाम हो जाता है। उसे थोड़ी देर रखा रहने दिया जाय तो लाश सड़ने लगती है, दुर्गन्ध उत्पन्न होती है और कृमि पड़ जाते हैं। देह वही है, ज्यों की त्यों है, पर प्राण निकलते ही उसकी दुर्दशा होने लगती है। इससे प्रकट है कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है पर वस्तुतः वह शरीर से भिन्न है। इस भिन्न सत्ता को आत्मा कहते हैं। वास्तव में यही मनुष्य है। मैं क्या हूँ? इसका सही उत्तर यह है कि मैं आत्मा हूँ।
🔴 शरीर और आत्मा की पृथकता की बात हम लोगों ने सुन रखी है। सिद्घान्ततः हम सब उसे मानते भी है। शायद कोई ऐसा विरोध करे कि देह से जीव पृथक नहीं है, इस पृथकता की मान्यता सिद्घान्त रूप से जैसे सर्व साधारण को स्वीकार है, वैसे ही व्यवहार में सभी लोग उसे अस्वीकार करते हैं। लोगों के व्यवहार ऐसे होते हैं मानो वे वस्तुतः शरीर ही हैं। शरीर के हानि-लाभ उनके हानि-लाभ हैं। किसी व्यक्ति का बारीकी के साथ निरीक्षण किया जाय और देखा जाय कि वह क्या सोचता है? क्या कहता है? और क्या करता है? तो पता चलेगा कि वह शरीर के बारे में सोचता है, उसी के सम्बन्ध में सम्भाषण करता है और जो कुछ करता है, शरीर के लिए करता है। शरीर को ही उसने 'मैं' मान रखा है।

🔵 शरीर आत्मा का मन्दिर है। उसकी स्वस्थता, स्वच्छता और सुविधा के लिए कार्य करना उचित एवं आवश्यक है, परन्तु यह अहितकर है कि केवल मात्र शरीर के ही बारे में सोचा जाय, उसे अपना स्वरूप मान लिया जाय और अपने वास्तविक स्वरूप को भुला दिया जाय। मनुष्य अपने आपको शरीर मान लेने के कारण शरीर के हानि-लाभों को भी अपने हानि-लाभ मान लेता है और अपने वास्तविक हितों को भूल जाता है। यह भूल-भुलैया का खेल जीवन को बड़ा कर्कश और नीरस बना देता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 4)

चित्रगुप्त का परिचय

🔴 भले-बुरे कर्मों का ग्रे मैटर के परमाणुओं पर यह रेखांकन (जिसे प्रकट के शब्दों में अंतःचेतना का संस्कार कहा जा सकता है) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन, पिछला दिमाग, भीतर चित्र इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। ‘चित्त’ शब्द को जल्दी में लिख देने से ‘चित्र’ जैसा ही बन जाता है। सम्भव है कि चित्त का बिगाड़ कर चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्र एक ही अर्थ के बोधक रहे हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए उन छोटे अंकनों में गुप्त रूप से, सूक्ष्म रूप से, बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे होते हैं, इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त मान लेने से प्राचीन शोध का समन्वय हो जाता है।

🔵 यह चित्रगुप्त निःसंदेह हर प्राणी के हर कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखता रहता है। सबका अलग-अलग चित्रगुप्त है। जितने प्राणी हैं, उतने ही चित्रगुप्त हैं, इसलिए यह संदेह नहीं रह जाता कि इतना लेखन कार्य किस प्रकार पूरा हो पाता होगा। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ‘पौराणिक चित्र गुप्त एक है और यहाँ अनेक हुए’ यह शंका भी कुछ गहरी नहीं है। घटाकाश, मठाकाश का ऐसा ही भेद है। इंद्र, वरुण, अग्नि, शिव, यम, आदि देवता बोधक सूक्ष्मत्व व्यापक समझे जाते हैं। जैसे बगीचे की वायु गंदे नाले की वायु आदि स्थान भेद से अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलतः विश्व व्यापक वायु तत्व एक ही है, वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर अलग-अलग काम करने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व है।

🔴  यह हर व्यक्ति के कर्मों लेखाकिस आधार पर कैसा, किस प्रकार, कितना, क्यों लिखता है? यह अगली पंक्तियों में बताया जाएगा एवं चित्रगुप्त द्वारा लिखी हुई कर्म रेखाओं के आधार पर स्वर्ग-नरक का विवरण और उनके प्राप्त होने की व्यवस्था पर प्रकाश डाला जाएगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.2

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 15 Oct 2016





👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 3)

चित्रगुप्त का परिचय

🔴 आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सच्चाई को खोज निकाला है, डॉक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतः चेतना में होता रहता है। ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिए जाते हैं। संगीतशाला में नाच-गाना हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है।

🔵 तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है वह तुरंत ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता वरन तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है, जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है। ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अंतः चेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में धीरे-धीरे जमा होती जाती हैं। जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं। भारतीय विद्वान् ‘कर्म रेखा’ के बारे में बहुत प्राचीनकाल से जानकारी रखते आ रहे हैं। ‘कर्म रेख नहिं मिटे, करे कोई लाखन चतुराई’ आदि अनेक युक्तियाँ हिंदी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कई रेखाएँ होती हैं,जो अपना फल दिए बिना मिटती नहीं।

🔴 भाग्य के बारे में मोटे तौर से ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है और विधि के लेख को मेंटनहारा अर्थात् उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है। डॉक्टर वीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) का सूक्ष्म दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहाँ के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं, यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं, इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला, तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणुओं का परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला की अक्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत ही कम बनती हैं, किंतु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है। अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रुप से लिपिबद्ध करने वाली प्रमाणित हुईं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 3)


🔴 पहला अध्याय

🔵 जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों का रूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है। चाहे किसी दृष्टि से देखा जाय आत्मज्ञान ही सर्वसुलभ और सर्वोच्च ठहरता है।

🔴 किसी व्यक्ति से पूछा जाय कि आप कौन हैं? तो वह अपने वर्ण, कुल, व्यवसाय, पद या सम्प्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूँ, अग्रवाल हूँ, बजाज हूँ, तहसीलदार हूँ, वैष्णव हूँ आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हों सो नहीं, उत्तर देने वाला यथार्थ में अपने को वैसा ही मानता है। शरीर-भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको वह शरीर ही समझने लगा है।

🔵 वंश, वर्ण, व्यवसाय या पद शरीर का होता है। शरीर मनुष्य का एक परिधान, औजार है। परन्तु भ्रम और अज्ञान के कारण मनुष्य अपने आपको शरीर ही मान बैठता है और शरीर के स्वार्थ तथा अपने स्वार्थ को एक कर लेता है। इसी गड़बड़ी में जीवन अनेक अशान्तियों, चिन्ताओं और व्यथाओं का घर बन जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...