बुधवार, 2 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 16)

देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी

इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जिनके दिलों में अपने गुरुवर के लिए दीवानापन है। जो गुरु प्रेम के लिए अपना सर्वस्व वारने, न्यौछावर करने के लिए उतावले हैं। जिनका हृदय पल-पल प्रगाढ़ आध्यात्मिक अनुभवों के लिए तड़पता रहता है। इस सूत्र में उनकी तड़प का उत्तर है। सभी महान् साधक अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि आध्यात्मिक अनुभवों के लिए बड़ी ही शुद्ध एवं सूक्ष्म भावचेतना चाहिए। ध्यान रहे सद्गुरु प्रेम का आनन्द अति सूक्ष्म है। गुरुदेव की चेतना से निरन्तर स्पन्दित हो रहे अन्तर्स्वर बहुत धीमे हैं। इन्हें केवल वही सुन सकते हैं, जिन्होंने बेकार की आवाजों और उसके आकर्षण से अपने आपको मुक्त कर लिया है। सद्गुरु की कृपा का स्वाद बहुत ही सूक्ष्म है। इसे केवल वही अनुभव कर सकेंगे, जिनकी स्वाद लेने की क्षमता उत्तेजना की दौड़ ने अभी बर्बाद नहीं हुई है।

साधारण तौर पर सभी इन्द्रियाँ और मन उत्तेजना के लिए आतुर हैं। और उत्तेजना का यह सामान्य नियम है कि उत्तेजना को जितनी बढ़ाओ उतनी ही और ज्यादा उत्तेजना की जरूरत पड़ती है। स्थिति यहाँ तक आ खड़ी होती है कि उत्तेजना की यह दौड़ हमें जड़ बना देती है। उदाहरण के लिए भोजन में तेज उत्तेजनाएँ मन को बहुत भाती है। ज्यादा मिर्च, ज्यादा खटाई का परिणाम और ज्यादा चाहिए बनकर प्रकट होता है। यहाँ तक कि यदि हम बाद में बिना मिर्च या बिना खटाई का भोजन लें तो ऐसा लगता है कि मानो मिट्टी खा रहे हैं। भोजन का सहज स्वाद लुप्त हो जाता है। सभी मानसिक व इन्द्रिय अनुभवों के बारे में भी यही सच है। तेज संगीत सुनने वाले कभी भी प्रकृति के संगीत का आनन्द नहीं ले सकते।

इसीलिए अनुभवी साधक कहते हैं कि यदि सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम तत्त्व को अनुभव करना है तो अपने मन एवं इन्द्रियों को उत्तेजना की दौड़ से बचाये रखो। मानसिक चेतना एवं इन्द्रिय चेतना ज्यों-ज्यों सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम होगी, उसे सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम का स्वाद मिलने लगेगा। शिष्यों का, साधकों का यह चिरपरिचित महावाक्य है कि ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख योनय एवते’ अर्थात् उत्तेजना से जो सुख मिलता है, वह प्रकारान्तर से दुःख को ही बढ़ाता है। उत्तेजना की इच्छा को दूर किये बिना कोई भी व्यक्ति साधना के जगत् में प्रवेश नहीं पा सकता। क्योंकि साधना का तो अर्थ ही सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम का अनुभव है और यह अनुभव स्वयं को सूक्ष्म एवं शुद्ध बनाकर ही पाया जा सकता है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhi
अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (अन्तिम भाग)

सज्जनों की सम्पदा उनके व्यक्तित्व को श्रेष्ठतम बनाने के लिए प्रयुक्त होती है और उसका लाभ समाज को सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में मिलता है। विवेकवान लोग सम्पत्ति को ईश्वर की अमानत मानते हैं और बैंक के खजाञ्ची की तरह अपने मस्तिष्क को सन्तुलित रखते हुए उसे सत्प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करते रहते हैं।  पराई अमानत कुछ समय के लिये सँभालने के लिए चौकीदार का काम मिल जाय या बाँटने-वितरण करने की, गिनने की, ड्यूटी लग जाय तो इसमें अहंकार की क्या बात है? इस तथ्य को शालीनता समझती है। अस्तु वह बरसाती नदियों की तरह उफनती नहीं- समुद्र की तरह मर्यादा में रहती है।

अहंभाव इस अहंकार से सर्वथा विपरीत है। विवेकवान अहं का अर्थ ‘आत्मा’ लेते हैं। अपने को आत्मा मानते हैं। आत्मा का गौरव गिरने न पाये, उससे कोई ऐसा काम न बन पड़े जिससे आत्मा के स्तर को, गौरव को ठेस लगती हो इसका वे सदा ध्यान रखते हैं और कुमार्ग पर एक कदम भी नहीं धरते।  ईश्वर का परम प्रतिष्ठित पुत्र मनुष्य अपनी गरिमा को गिराये और पिता को लजाये इतनी बड़ी भूल कैसे की जा सकती है? वह इस संदर्भ में पूरी तरह सतर्क रहता है।

उसके विचार उस स्तर के उत्कृष्ट होने जैसे परम पवित्र ‘आत्मा’ के लिए उपयुक्त हैं। उसके कार्य ऐसे होते हैं- जिनसे देवत्व की महिमा टपकती हो। आत्मा के ऊपर आच्छादित हो सकने वाले गुण, कर्म, स्वभाव का आवरण ही अहंभाव स्वीकार करता है और इस बात का ध्यान रखता है कि वह प्रकाश स्वरूप है उसकी ज्योति इतनी शुभ्र होनी चाहिए कि समीपवर्ती लोगों के नेत्रों में चमक उत्पन्न हो और सही मार्ग पाने में वस्तुस्थिति समझने में सुविधा मिले। अहं भाव इसी परिधि में सक्रिय रहता है उसके साथ सज्जनता, शालीनता और नम्रता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.17

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...