सोमवार, 14 मार्च 2016

 

मित्रो! गायत्री मंत्र कितना सामर्थ्यवान मंत्र है ! मैं चाहता था कि उस सामर्थ्य का लाभ उठाने के लिए मेरे बाद दूसरे आदमी भी रहे होते तो मजा आ जाता। अभी जो लोग रोज गालियाँ दिया करते हैं और कहते हैं कि हमको तीन साल गायत्री मंत्र जप करते हो गये, पर इससे कोई फायदा नहीं हुआ। यदि मैं अपने पीछे ऐसे आदमी छोड़कर मरा होता जो मेरे ही तरीके से गरदन ऊँची करके लोगों से यह कहने में समर्थ रहे होते कि अध्यात्म बड़े काम का है और यह बहुत उपयोगी है, फायदेमंद है और शक्तिशाली है और बड़ा चमत्कारी है। जैसे कि हम हिम्मत के साथ कहते हैं कि आप में से भी ऐसे आदमी होते और हम आपको यह सिखाते कि अध्यात्म क्या हो सकता है?

गायत्री क्या हो सकती है? उपासना क्या हो सकती है और उपासना के आधार क्या हो सकते हैं? बेटे! मैंने इसलिए शिविर में आपको बुलाया था कि गायत्री उपासना के जो पाँच अंग, पाँच कोश- अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश हैं, इन पाँचों कोशों की उच्चस्तरीय उपासना, जो इसमें जुड़ी हुई है, उसे सामान्य प्रकिया में भी जोड़कर रखा है। यह ऊँचे स्तर की भी है। इसे मैं आपको समझाना चाहता था कि इन पाँचों कोशों का अनावरण कैसे किया जाता है। अभी तक जो ज्ञान आपको दिया गया, वह यह समझकर दिया गया कि अभी आप बालक हैं। समय आएगा तो मैं समझादुँगा, सिखा दूँगा।

मित्रो ! सोचता हूँ, अब शुरूआत तो करूँ, आपको पट्टीपूजन तो कराऊँ, ओलम- बाहरखड़ी तो सिखाऊँ, अक्षरज्ञान तो सिखाऊँ, गिनती गिनना तो सिखाऊँ। फिर पीछे फिजिक्स सिखा दूँगा, केमिस्ट्री सिखा दूँगा, रेखागणित सिखा दूँगा, गणित सिखा दूँगा। ये सब चीजें मैंने छिपाकर रखी थीं। अभी मैंने आपको गिनतियाँ याद कराई थीं और पहाड़े याद कराए थे और आपको जप करना सिखाया, अनुष्ठान करना सिखाया, माला घुमाना सिखाया था, प्राणायाम करना सिखाया था और इनकी विधि सिखाई थी, कर्मकांड सिखाया था।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/kihloneneaadhiyatmka.2

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 24)

अन्तरात्मा की इस शुद्ध भावदशा में ही आत्मा की सम्पदा प्रकट होती है। सूर्य की रश्मियों की भाँति ही आत्मा की सम्पत्तियां साधक में प्रकट होती है। यहीं पर शिष्य के जीवन में, साधक के जीवन में सच्चा स्वामित्व विकसित होता है। इसी स्वामित्व की चाहत शिष्य के जीवन में होनी चाहिए। दुनियावी जीवन में हम स्वामित्व की चाहत तो रखते हैं पर यह चाहत होती धन, साधन, भवन-सम्पत्ति का स्वामी बनने की। स्वयं का स्वामी भला कौन होना चाहता है? हालांकि जो स्वयं का स्वामी है, अपना मालिक है वही सच्चे अर्थों में स्वामी है। बाकी सब तो धोखा है। धन, दुकान-मकान का मालिक बनकर हम केवल गुलाम बनते हैं।

इस अटपटे वचन को समझने के लिए सूफी सन्त फरीद के जीवन की एक घटना को समझ लेना ठीक रहेगा। बाबा फरीद अपने शिष्यों के साथ एक गाँव से गुजर रहे थे। वहीं रास्ते में एक आदमी अपनी गाय को रस्सी से बांधे लिए जा रहा था। फरीद ने उस आदमी से थोड़ी देर रुकने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर वह रुक गया। अब बाबा फरीद ने अपने शिष्यों से पूछा- इन दोनों में मालिक कौन है- गाय या आदमी। शिष्यों ने कहा- यह भी कोई बात हुई, जाहिर है, आदमी गाय का मालिक है।

फरीद ने फिर कहा- यदि गाय के गले की रस्सी काट दी जाय तो कौन किसके पीछे दौड़ेगा- गाय आदमी के पीछे या फिर आदमी गाय के पीछे। शिष्यों ने कहा- जाहिर है आदमी गाय के पीछे भागेगा। तो फिर मालिक कौन हुआ? फरीद ने शिष्यों से कहा, यह जो रस्सी तुम्हें दिखाई पड़ती है गाय के गले में, यह दरअसल आदमी के गले में है। आत्मा की सम्पत्ति को छोड़कर बाकी हर सम्पत्ति हमारे गले का फंदा बन जाती है। यथार्थ में आत्म सम्पदा ही सच्ची सम्पदा है। सच्चे शिष्य ही इसे पाने में समर्थ होते हैं। शिष्यत्व की यह सामर्थ्य किस तरह बढ़े- इसका विवरण अगले पृष्ठों में अनावृत्त होगा।


क्रमशः जारी 
डॉ. प्रणव पण्डया 
देखा जब उस वृद्ध को तो जिन्दगी बदल गई


एक सेठ के एक इकलौता पुत्र था पर छोटी सी उम्र मे ही गलत संगत के कारण राह भटक गया! परेशान सेठ को कुछ नही सूझ रहा था तो वो ईश्वर के मन्दिर मे गया और ईश दर्शन के बाद पुजारी को अपनी समस्या बताई !

पुजारी जी ने कहा की आप कुछ दिन मन्दिर मे भेजना कोशिश पुरी करेंगे की आपकी समस्या का समाधान हो आगे जैसी सद्गुरु देव और श्री हरि की ईच्छा !

सेठ ने पुत्र से कहा की तुम्हे कुछ दिनो तक मन्दिर जाना है नही तो तुम्हे सम्पति से बेदखल कर दिया जायेगा, घर से मन्दिर की दूरी ज्यादा थी और सेठ उसे किराये के गिनती के पैसे देते थे! अब वो एक तरह से बंदिश मे आ गया!

मंदिर के वहाँ एक वृद्ध बैठा रहता था और एक अजीब सा दर्द उसके चेहरे पर था और रोज वो बालक उस वृद्ध को देखता और एक दिन मन्दिर के वहाँ बैठे उस वृद्ध को देखा तो उसे मस्ती सूझी और वो वृद्ध के पास जाकर हँसने लगा और उसने वृद्ध से पुछा हॆ वृद्ध पुरुष तुम यहाँ ऐसे क्यों बैठे रहते हो लगता है बहुत दर्द भरी दास्तान है तुम्हारी और व्यंग्यात्मक तरीके से कहा शायद बड़ी भूलें की है जिंदगी मे?

उस वृद्ध ने जो कहा उसके बाद उस बालक का पूरा जीवन बदल गया! उस वृद्ध ने कहा हाँ बेटा हँस लो आज तुम्हारा समय है पर याद रखना की जब समय बदलेगा तो एक दिन कोई ऐसे ही तुम पर हँसेगा! सुनो बेटा मैं भी खुब दौड़ा मेरे चार चार बेटे है और उन्हे जिंदगी मे इस लायक बनाया की आज वो बहुत ऊँचाई पर है और इतनी ऊँचाई पर है वो की आज मैं उन्हे दिखाई नही देता हुं! और मेरी सबसे बड़ी भुल ये रही की मैंने अपने बारे मे कुछ भी न सोचा! अपने इन अंतिम दिनो के लिये कुछ धन अपने लिये बचाकर न रखा इसलिये आज मैं एक पराधीनता का जीवन जी रहा हुं! पर मुझे तो अब इस मुरलीधर ने सम्भाल लिया की यहाँ तो पराधीन हुआ हुं कही आगे जाकर पराधीन न हो जाऊँ!

बालक को उन शब्दो ने झकझोर कर रख दिया! बालक - मैंने जो अपराध किया है उसके लिये मुझे क्षमा करना हॆ देव! पर हॆ देव आपने कहा की आगे जाकर पराधीन न रहूँ ये मेरी कुछ समझ मे न आया?

वृद्ध - हॆ वत्स यदि तुम्हारी जानने की ईच्छा है तो बिल्कुल सावधान होकर सुनना अनन्त यात्रा का एक पड़ाव मात्र है ये मानवदेह और पराधीनता से बड़ा कोई अभिशाप नही है और आत्मनिर्भरता से बड़ा कोई वरदान नही है! अभिशाप की जिन्दगी से मुप्ति पाने के लिये कुछ न कुछ जरूर कुछ करते रहना! धन शरीर के लिये तो तपोधन आत्मा के लिये बहुत जरूरी है!

नियमित साधना से तपोधन जोडिये आगे की यात्रा मे बड़ा काम आयेगा! क्योंकि जब तुम्हारा अंतिम समय आयेगा यदि देह का अंतिम समय है तो धन बड़ा सहायक होगा और देह समाप्त हो जायेगी तो फिर आगे की यात्रा शुरू हो जायेगी और वहाँ तपोधन बड़ा काम आयेगा!

और हाँ एक बात अच्छी तरह से याद रखना की धन तो केवल यहाँ काम आयेगा पर तपोधन यहाँ भी काम आयेगा और वहाँ भी काम आयेगा! और यदि तुम पराधीन हो गये तो तुम्हारा साथ देने वाला कोई न होगा!
उसके बाद उस बालक का पुरा जीवन बदल गया!
इसलिये नियमित साधना से तपोधन इकठ्ठा करो!

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...