शुक्रवार, 20 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 54) :--- 👉 समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें

🔵 लेकिन जो जीवन साधना से वंचित हैं, उनकी तो स्थिति ही अलग है। इनका चित्त रुग्ण है, इनका देखने का ढंग पैथालॉजिकल है। ये अपने देखने का ढंग नहीं बदलना चाहते, बस परिस्थिति को बदलने के लिए उत्सुक रहते हैं। इनका रस जीवन की निन्दा में है। ऐसे में खुद के दोषों को समझना बड़ा मुश्किल होता है। यह जो निन्दकों का समूह है, यह अपने और औरों के जीवन को नुकसान तो भारी पहुँचा सकता है, पर परमात्मा की तरफ एक कदम बढ़ने में मदद नहीं कर सकता।
   
🔴 निन्दकों के समूह, गाँव और शहरों की भीड़ में ही नहीं, आश्रमों और मठों में भी होते हैं। बल्कि वहाँ ये थोड़े ज्यादा पहुँच जाते हैं। इनके सिर में अजीब- अजीब दर्द उठते रहते हैं। जैसे कि फलाँ आदमी ऐसा कर रहा है, ढिकाँ औरत ऐसा कर रही है और कुछ नहीं तो इन्हें अपने पड़ोसी की चिंता और चर्चा परेशान करती है। अब इन्हें कौन समझाये कि तुम्हें किसने ठेका दिया सबकी चिंता का? यहीं आश्रम में क्या तुम इसीलिए आये थे। अरे! तुम तो आये थे यहाँ अपने को बदलने को और यहाँ तुम फिक्र में पड़ जाते हो किसी दूसरे को बुरा ठहराने में। ऐसे लोग किसी और को नहीं अपने आप को धोखा देते हैं।
  
🔵 शिष्यत्व की डगर ऐसे वंचनाग्रस्त लोगों के लिए नहीं है। यह तो उनके लिए है, जो हृदय में सृजन की संवेदना सँजोये हैं। जरा देखें तो सही हम अपने चारों तरफ। संवेदनाओं से निर्मित हुआ है सब कुछ। जो हमारी बगल में बैठा है, उसमें भी संवेदना की धड़कन है और जो वृक्ष लगा हुआ है, उसकी भी जीवन धारा प्रवाहित हो रही है। धरती हो या आसमान हर कहीं एक ही जीवन विविध रूपों में प्रकट है। इस व्यापक सत्य को समझकर जो जीता है, वह शिष्यत्व की साधना करने में सक्षम है। इस साधना के नये रहस्य शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में उजागर होंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/time

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 3)


🔵 तन्त्र विधान की कुछ विधियाँ गुप्त रखी गयी हैं। ताकि अनधिकारी लोग उसका दुरुपयोग करके हानिकार परिस्थितियाँ उत्पन्न न करने पाएँ। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे आक्रामक अभिचारों के विधि-विधान तथा तन्त्र को इसी दृष्टि से कीलित या गोपनीय रखा गया है। एक तरह से इन्हें सौम्य साधना का स्वरूप न मानकर इन पर ‘बैन’ लगा दिया गया है ताकि लोग भ्रान्तिवश इनमें भटकने न लगें। वैदिक प्रक्रियाओं में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं। गायत्री वेदमन्त्र है। उसका नामकरण ही “गाने वाले का त्राण करने वाली” के रूप में हुआ है। फिर उसे मुँह से न बोलने, गुप्त रखने, चुप रहने, कान में कहने जैसा कथन सर्वथा उपहासास्पद है। ऐसा वे लोग कहते हैं जो तन्त्र और वेद में अंतर नहीं समझते। गायत्री मन्त्र का उच्चारण व्यापक विस्तृत होने से उसकी तरंगें वायु मण्डल में फैलती हैं और जहाँ तक वे पहुँचती हैं, वहाँ लाभदायक परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करती हैं। उच्चारण न करने पर तो उस लाभ से सभी वंचित रहेंगे।

🔴 क्या गायत्री की उपासना रात्रि में की जा सकती है? इस विषय पर भी भाँति-भाँति के मत व्यक्त किये जाते हैं एवं जन-साधारण को भ्रान्ति के जंजाल में उलझा दिया जाता है। वस्तुतः गायत्री का दाता सूर्य है सूर्य की उपस्थिति में की गयी उपासना का लाभ अधिक माना गया है। किन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं कि सविता देवता की अनुपस्थिति में- रात्रि होने के कारण उपासना की ही न जा सकेगी। ब्राह्ममुहूर्त को भी एक प्रकार से रात्रि ही कहा जा सकता है। उसमें तो सभी को जल्दी उठकर उपासना करने और सूर्योदय होने पर सूर्यार्घ देकर उसे समाप्त करने की साधारण विधिव्यवस्था है। वस्तुतः सूर्य न कभी अस्त होता है और न देवता शयन करते हैं। इसलिए रात्रि में उपासना करने में कोई हर्ज नहीं। किसी को बहुत ही सन्देह हो तो मौन, मानसिक जप तो बिना संकोच कर सकता है। मानसिक जप पर तो स्नान, स्थान जैसा भी प्रतिबन्ध नहीं है।

🔵 एक और अहम् प्रश्न है कि गायत्री के साकार एवं निराकार रूपों में से किस-किस प्रकार से उपासना प्रयोजन के लिये प्रयुक्त किया जाय? इसका समाधान मात्र यही है कि जिन्हें निराकार रुचता हो, वे सविता के ‘भर्गः’ स्वरूप का ध्यान करें। सूर्य का तेज- प्रकाशवान स्वरूप उसका प्रतीक है। प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता की आकृति माना जाता है। यह मात्र आग का गोला नहीं है। वरन् अध्यात्म की भाषा में ब्रह्म भर्ग से युक्त एवं सचेतन है। उदीयमान सूर्य से तो मात्र उसकी संगति बिठाई जाती है। इसके लिए सूर्य के स्थान पर दीपक को, धूपबत्ती की अथवा गायत्री मन्त्र जिसकी किरणों के साथ जुड़ा हो ऐसे सूर्य चित्र को भी प्रयुक्त कर ध्यान नियोजित किया जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.47

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...