रविवार, 13 नवंबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 14 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 17)

🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम

🔵 12. पकाने की पद्धति में सुधार— भाप से भोजन पकाने के बर्तन एवं चक्कियां उपलब्ध हो सकें ऐसी निर्माण और विक्रय की व्यवस्था रहे। इनका मूल्य सस्ता रहे जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़े। अब बाल बियरिंग लगी हुई चक्की बनने लगी हैं जो चलने में बहुत हलकी होती हैं तथा घण्टे में काफी आटा पीसती हैं। इनका प्रचलन घर-घर किया जाय और इनकी टूट-फूट को सुधारने तथा चलाने सम्बन्धी आवश्यक जानकारी सिखाई जाय। खाते-पीते घरों की स्त्रियां चक्की पीसने में अपमान और असुविधा समझने लगी हैं, उन्हें चक्की के स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ समझाये जायें। पुरुष स्वयं पीसना आरम्भ करें। लोग हाथ का पिसा आटा खाने का ही व्रत लें तो चक्की का प्रचलन बढ़ेगा। इसी प्रकार भाप से भोजन पकने लगा तो वह 70 फीसदी अधिक पौष्टिक होगा और खाने में स्वाद भी लगेगा। इनका प्रसार आन्दोलन के ऊपर ही निर्भर है।

🔴 13. सात्विक आहार की पाक विद्या—
तली हुई, भुनी और जली हुई अस्वास्थ्यकर मिठाइयों और पकवानों के स्थान पर ऐसे पदार्थों का प्रचलन किया जाय जो स्वादिष्ट भी लगें और लाभदायक भी हों। लौकी की खीर, गाजर का हलुआ, सलाद, कचूमर, श्रीखण्ड, मीठा दलिया अंकुरित अन्नों के व्यंजन जैसे पदार्थ बनाने की एक स्वतन्त्र पाक विद्या का विकास करना पड़ेगा जो दावतों में भी काम आ सके और हानि जरा भी न पहुंचाते हुए स्वादिष्ट भी लगें। चाय पीने वालों की आदत छुड़ाने के लिये गेहूं के भुने दलिये की या जड़ी बूटियों से बने हुए क्वाथ की चाय बनाना बताया जा सकता है। पान सुपाड़ी के स्थान पर सोंफ और धनिया संस्कारित करके तैयार किया जा सकता है। प्राकृतिक आहार के व्यंजनों की पाक विद्या का प्रसार हो सके तो स्वास्थ्य रक्षा की दिशा में बड़ी सहायता मिले।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 3) 14 Nov

🔵 अनेक प्रकार के योगों में एक ‘‘गृहस्थ योग’’ भी है। गम्भीरता पूर्वक इसके ऊपर जितना ही विचार किया जाता है यह उतना ही अधिक महत्वपूर्ण, सर्व सुलभ तथा स्वल्प श्रम साध्य है। इतना होते हुए भी इससे प्राप्त होने वाली जो सिद्धि है वह अन्य किसी भी योग से कम नहीं वरन् अधिक ही है। गृहस्थाश्रम अन्य तीनों आश्रमों की पुष्टि और वृद्धि करने वाला है, दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है ‘कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास यह तीनों ही आश्रम गृहस्थाश्रम को सुव्यवस्थित और सुख शान्तिमय बनाने के लिये हैं।

🔴  ब्रह्मचारी इसलिये ब्रह्मचर्य का पालन करता है कि उसका भावी गृहस्थ जीवन शक्तिपूर्ण और समृद्ध हो। वानप्रस्थ और संन्यासी लोग, लोक हित की साधना करते हैं, संसार को अधिक सुख शांतिमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह ‘लोक’ और ‘संसार’ क्या है? दूसरे शब्दों में गृहस्थाश्रम ही है। तीनों आश्रम एक ओर—और गृहस्थाश्रम दूसरी ओर- यह दोनों पलड़े बराबर हैं। यदि गृहस्थाश्रम की व्यवस्था बिगड़ जाय तो अन्य तीनों आश्रमों की मृत्यु ही समझिये।

🔵 गृहस्थ धर्म का पालन करना धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। लिखा है कि—संतान के बिना नरक को जाते हैं, उनकी सद्गति नहीं होती। लिखा है कि— सन्तान उत्पन्न किये बिना पितृ ऋण से छुटकारा नहीं मिलता। कहते हैं कि—जिसके सन्तति न हो उनका प्रातःकाल मुख देखने से पाप लगता है। इस प्रकार के और भी अनेक मन्तव्य हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं जिनका तात्पर्य यह है कि गृहस्थ धर्म का पालन करना आवश्यक है। इतना जोर क्यों दिया गया है? इस बात पर जब तात्विक दृष्टि से गंभीर विवेचना की जाती है तब प्रकट होता है कि गृहस्थ धर्म एक प्रकार की योग साधना है जिससे आत्मिक उन्नति होती है, स्वर्ग मिलता है, मुक्ति प्राप्त होती है और ब्रह्म निर्वाण की सिद्धि मिलती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 4) 14 Nov

🌹 समय का सदुपयोग करना सीखें

🔵 सचमुच जो व्यक्ति काम से बचने, जी चुराने के कारण अब के काम को तब के लिए टालकर अपने बहुमूल्य क्षणों को आलस्य-प्रमाद, विलास-विनोद में व्यर्थ नष्ट करते रहते हैं। निश्चय ही समय उन्हें अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। फसल की सामयिक आवश्यकताओं को तत्काल पूरा न कर आगे के लिए टालने वाले किसान की फसल चौपट होना स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी वर्ष के अन्त तक अपनी तैयारी का प्रश्न टालते रहते हैं, सोचते हैं—‘‘अभी तो काफी समय पड़ा है फिर पढ़ लेंगे’’ वे परीक्षा काल के नजदीक आते ही बड़े भारी क्रम को देखकर घबरा जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते।

🔴 फलतः उनकी सफलता की आशा दुराशा मात्र बनकर रह जाती है। कुछ भाग-दौड़ करके सफल भी हो जांय तो भी वे दूसरों से निम्न श्रेणी में ही रहते हैं। अपने वायदे सौदे, लेन-देन आदि को आगे के लिए टालते रहने वाले व्यापारी का काम-धन्धा चौपट हो जाय तो इसमें कोई संदेह नहीं। यही बात वेतन भोगी कर्मचारियों पर भी लागू होती है। टालमटोल की आदत के कारण उन्हें प्रस्तुत कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों एवं अपने बड़े अफसरों का कोपभाजन तो बनना ही पड़ता है, साथ ही विश्वसनीयता भी जाती रहती है।

🔵 कई लोगों में अच्छी प्रतिभा, बुद्धि होती है, शक्ति-सामर्थ्य भी होती है। उन्हें जीवन में उचित अवसर भी मिलते हैं किन्तु टालमटोल की अपने बुरी आदत के कारण वे अपनी इन विशेषताओं से कोई लाभ नहीं उठा पाते और दीन-हीन अवस्था में ही पड़े रहते हैं। साहित्यकार, कलाकार आदि का गया हुआ समय जिसमें वे नव रचना, नव सृजन करके जीविकोपार्जन कर सकते थे, वह लौटकर फिर कभी नहीं आता। निश्चय ही किसी काम को आगे के लिए टालते रहना दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 27)

🌞 दूसरा अध्याय

🔴 ध्यानावस्था में आत्म-स्वरूप को देह से अलग करो और क्रमशः उसे आकाश, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी की परीक्षा में से निकलते हुए देखो। कल्पना करो कि मेरी देह की बाधा हट गई है और अब मैं स्वतंत्र हो गया हूँ। अब तुम आकाश में इच्छापूर्वक ऊँचे-नीचे पखेरुओं की तरह जहाँ चाहे उड़ सकते हो। हवा के वेग से गति में कुछ भी बाधा नहीं पड़ती और न उसके द्वारा जीव कुछ सूखता ही है।

🔵 कल्पना करो कि बड़ी भारी आग की ज्वाला जल रही है और तुम उसमें होकर मजे में निकल जाते हो और कुछ भी कष्ट नहीं होता है। भला जीव को आग कैसे जला सकती है? उसकी गर्मी की पहुँच तो सिर्फ शरीर तक ही थी। इसी प्रकार पानी और पृथ्वी के भीतर भी जीव की पहुँच वैसे ही है जैसे आकाश में। अर्थात् कोई भी तत्त्व तुम्हें छू नहीं सकता और तुम्हारी स्वतन्त्रता में तनिक भी बाधा नहीं पहुँचा सकता।

🔴 इस भावना से आत्मा का स्थान शरीर से ऊँचा ही नहीं होता बल्कि उसको प्रभावित करने वाले पंच-तत्त्वों से भी ऊपर उठता है। जीव देखने लगता है कि मैं देह ही नहीं वरन् उसके निर्माता पंच-तत्त्वों से भी ऊपर हूँ। अनुभव की इस चेतना में प्रवेश करते ही तुम्हें प्रतीत होगा कि मेरा नया जन्म हुआ है। नवीन शक्ति का संचार अपने अन्दर होता हुआ प्रतीत होगा और ऐसा भी न होगा कि पुराने वस्त्रों की तरह भय का आवरण ऊपर से हटा दिया गया है। अब ऐसा विश्वास हो जाएगा कि जिन वस्तुओं से मैं अब तक ही डरा करता था वे मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकतीं। शरीर तक ही उनकी गति है। सो ज्ञान और इच्छा शक्ति द्वारा शरीर से भी इन भयों को दूर हटाया जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part2.5

👉 गृहस्थ-योग (भाग 2) 13 Nov



🔵 ‘योग’ का अर्थ है— ‘जोड़ना’—‘मिलना’। मनुष्य की साधारण स्थिति ऐसी होती है जिसमें वह अपूर्ण होता है। इस अपूर्णता को मिटाने के लिए वह किसी दूसरी शक्ति के साथ अपने आप को जोड़कर अधिक शक्ति का संचय करता है, अपनी सामर्थ्य बढ़ाता है और उस सामर्थ्य के बल से अपूर्णता को दूर कर पूर्णता की ओर तीव्र गति से बढ़ता जाता है, यही योग का उद्देश्य है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हठयोग, राजयोग, जपयोग, लययोग, तन्त्रयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, स्वरयोग, ऋजुयोग, महायोग, कुंडलिनी योग, बुद्धियोग, समत्वयोग, प्राणयोग, ध्यानयोग, सांख्ययोग, जड़योग, सूर्ययोग, चन्द्रयोग, सहजयोग, प्रणवयोग, नित्ययोग आदि 84 प्रसिद्ध योग और 700 अप्रसिद्ध योग हैं।

🔴 इन विभिन्न योगों की कार्य प्रणाली, विधि व्यवस्था और साधना पद्धति एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है तो भी इन सबकी जड़ में एक ही तथ्य काम कर रहा है। माध्यम सबके अलग अलग हैं पर उन सभी माध्यमों द्वारा एक ही तत्व ग्रहण किया जाता है। तुच्छता से महानता की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर, असत् से सत् की ओर, तम से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, जो प्रगति होती है उसी का नाम योग है। अणु आत्मा का परम आत्मा बनाने का प्रयत्न ही योग है। यह प्रयत्न जिन जिन मार्गों से होता है उन्हें योग मार्ग कहते हैं।

🔵 एक स्थान तक पहुंचने के लिये विभिन्न दिशाओं से विभिन्न मार्ग होते हैं, आत्म विस्तार के भी अनेक मार्ग हैं। इन मार्गों में स्थूल दृष्टि से भिन्नता होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टि से पूर्ण रूपेण एकता है। जैसे भूख बुझाने के लिये कोई रोटी, कोई चावल, कोई दलिया, कोई मिठाई, कोई फल, कोई मांस खाता है। यह सब चीजें एक दूसरे से पृथक प्रकार की हैं तो भी इन सबसे ‘‘भूख मिटाना’’ यह एक ही उद्देश्य पूर्ण होता है। इसी प्रकार योग के नाना रूपों का एक ही प्रयोजन है—आत्म भाव को विस्तृत करना—तुच्छता को महानता की पूंछ के साथ बांध देना।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 3) 13 Nov

🌹 समय का सदुपयोग करना सीखें

🔵 फ्रेंकलिन ने कहा है—‘समय को बर्बाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’ इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए मनीषी जैक्सन ने कहा है— ‘सांसारिक खजानों में सबसे मूल्यवान खजाना समय का है।’ उसका सदुपयोग करके दुर्बल सबल बन सकता है, निर्धन धनवान और मूर्ख विद्वान बन सकता है। वह ईश्वर प्रदत्त एक ऐसी सुनिश्चित एवं अमूल्य निधि है जिसमें एक क्षण भी वृद्धि कर सकना किसी के लिए भी असम्भव है। वह किसी का दास नहीं वरन् अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखता।

🔴 समय का मूल्यांकन करते हुए आक्सफोर्ड की प्रसिद्ध घड़ी ‘आल्सीसोल्ज’ के डायल पर महत्वपूर्ण पंक्तियां अंकित हैं। उस पर लिखा हुआ है— ‘हमें जो घण्टे सौंपे गये हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। काल अनन्त है। मनुष्य के हिस्से में काल का केवल एक छोटा सा अंश ही आया है। जीवन की भांति ही बीते हुए समय को भी वापिस कभी नहीं बुलाया जा सकता।’ निःसंदेह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करें।

🔵 वस्तुतः हर कार्य को निर्धारित वक्त पर करना ही समय का सदुपयोग है। जीवन में प्रगति करने का यही राजमार्ग है, पर हममें से कितने ही यह जानते हुए भी समय को बर्बाद करते रहते हैं और किसी काम को आगे के लिए टाल देते हैं। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। बड़ी योजनायें कार्य रूप में परिणित होने की प्रतीक्षा में धरी रह जाती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 16)

🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम

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11 वनस्पतियों का उत्पादन— शाक, फल, वृक्ष और पुष्पों के उत्पन्न करने का आन्दोलन स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से बड़ा उपयोगी हो सकता है। घरों के आस-पास फूल उगाने, छप्परों पर लौकी, तोरई, सेम आदि की बेल चढ़ाने, आंगन में तुलसी का विरवा रोपने तथा जहां भी खाली जगह हो वहां फूल, पौधे लगा देने का प्रयत्न करना चाहिये। केला-पपीता आदि थोड़ी जगह होने पर भी लग सकते हैं। *कोठियों बंगलों में अक्सर थोड़ी जगह खाली रहती है वहां शाक एवं फूलों को आसानी से उगाया जा सकता है। लगाने, सींचने, गोड़ने, मेंड़ बनाने आदि का काम घर के लोग किया करें तो उससे श्रमशीलता की आदत पड़ेगी और स्वास्थ्य सुधरेगा।*

🔴 *किसानों को शाक और फलों की खेती करने की प्रेरणा देनी चाहिये जिससे उन्हें लाभ भी अधिक मिले और स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति भी होने लगे।* जहां-तहां बड़े-बड़े वृक्षों को लगाना लोग पुण्य कार्य समझें। रास्तों के सहारे पेड़ लगाये जांय। बाग बगीचे लगाने की जन रुचि उत्पन्न की जाय। वायु की शुद्धि, वर्षा की अधिकता, फल, छाया, लकड़ी आदि की प्राप्ति, हरियाली से चित्त की प्रसन्नता, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ना, आदि अनेकों लाभ वृक्षों से होते हैं।

🔵 यह प्रवृत्ति जनसाधारण में पैदा करके संसार में हरियाली और शोभा बढ़ानी चाहिये। *आवश्यक वस्तुओं के बीज, गमले, पौधे आदि आसानी से मिल सकें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये। हो सके तो घर-घर जाकर इस सम्बन्ध में लोगों का मार्ग दर्शन करना चाहिये।* जड़ी बूटियों के उद्यान एवं फार्म लगाने का प्रयत्न करना भी स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से आवश्यक है। *पंसारियों की दुकानों पर सड़ी गली, वर्षों पुरानी, गुणहीन जड़ी-बूटियां मिलती हैं। उनसे बनी आयुर्वेदिक औषधियां भला क्या लाभ करेंगी? इस कमी को पूरी करने के लिये जड़ी बूटियों की कृषि की जानी चाहिये* और चिकित्सा की एक बहुत बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...