मंगलवार, 15 नवंबर 2016

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 29)

🌞 तीसरा अध्याय

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्घिर्यो बुद्घेः परतस्तु सः॥   
-गीता 3/42॥

🔴 शरीर से इन्द्रियाँ परे (सूक्ष्म) हैं। इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है। आत्मा तक पहुँचने के लिए क्रमशः सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी। पिछले अध्याय में आत्मा को शरीर और इन्द्रियों से ऊपर अनुभव करने के साधन बताये गये थे। इस अध्याय में मन का स्वरूप समझने और उससे ऊपर आत्मा को सिद्घ करने का हमारा प्रयत्न होगा। प्राचीन दर्शनशास्त्र मन और बुद्घि को अलग-अलग गिनता है।

🔵 आधुनिक दर्शनशास्त्र मन की ही सर्वोच्च श्रेणी को बुद्घि मानता है। इस बहस में आपको कोई खास दिलचस्पी लेने की आवश्यकता नहीं है। दोनों का मतभेद इतना बारीक है कि मोटी निगाह से वह कुछ भी प्रतीत नहीं होता। दोनों ही मन तथा बुद्घि को मानते हैं। दोनों ही स्थूल मन से बुद्घि को सूक्ष्म मानते हैं। हम पाठकों की सुविधा के लिए बुद्घि को मन की ही उन्नत कोटि में गिन लेंगे और आगे का अभ्यास आरम्भ करेंगे।

🔴 अब तक तुमने यह पहचाना है कि हमारे भौतिक आवरण क्या हैं? अब इस पाठ में यह बताने का प्रयत्न किया जाएगा कि असली अहम् 'मैं ' से कितना परे है। वह सूक्ष्म परीक्षण है। भौतिक आवरणों का अनुभव जितनी आसानी से हो जाता है, उतना सूक्ष्म शरीर में से अपने वास्तविक अहम् को पृथक कर सकना आसान नहीं है। इसके लिए कुछ अधिक योग्यता और ऊँची चेतना होनी चाहिए।

🔵 भौतिक पदार्थों से पृथकता का अनुभव हो जाने पर भी अहम् के साथ लिपटा हुआ सूक्ष्म शरीर गड़बड़ में डाल देता है। बहुत से लोग मन को ही आत्मा समझने लगे हैं। आगे हम मन के रूप की व्याख्या न करेंगे, पर ऐसे उपाय बतावेंगे जिससे स्थूल शरीर और भद्दे 'मैं' के टुकड़े-टुकड़े कर सको और उनमें से तलाश कर सको कि इनमें अहम् कौन-सा है? और उनमें भिन्न वस्तुएँ कौन-सी हैं? इस विश्लेषण को तुम मन के द्वारा कर सकते हो और उसे इसके लिए मजबूर कर सकते हो कि इन प्रश्नों का सही उत्तर दे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 16 Nov 2016


👉 गृहस्थ-योग (भाग 5) 16 Nov

🔵 भगवान् मनु का कथन है कि— ‘‘पुरुष उसकी पत्नी और सन्तान मिलाकर ही एक ‘पूरा मनुष्य’ होता है।’’ जब तक यह सब नहीं होता तब तक वह अधकचरा, अधूरा और खंडित मनुष्य है। जैसे प्रवेशिका परीक्षा पास किये बिना कालेज में प्रवेश नहीं हो सकता, उसी प्रकार गृहस्थ की शिक्षा पाये बिना वानप्रस्थ संन्यास आदि में प्रवेश करना कठिन है। आत्मीयता का दायरा क्रमशः ही बढ़ता है। अकेले से, पति पत्नी दो में, फिर बालक के साथ तीन में, सम्बन्धियों में, पड़ौसियों में, गांव, प्रदेश, राष्ट्र, विश्व में यह आत्मीयता क्रमशः बढ़ती है।

🔴 आगे चलकर सारी मनुष्य जाति में आत्म भाव फैलता है फिर पशु पक्षियों में, कीट पतंगों में, जड़ चैतन्य में यह आत्म भाव विकसित हो जाता है। जो प्रगति एक से बढ़कर दो में, दो से तीन में हुई थी, वही उन्नति धीरे धीरे आगे बढ़ती जाती है और मनुष्य सम्पूर्ण चर अचर में आत्म सत्ता को ही समाया देखता है, उसे परमात्मा की दिव्य ज्योति सर्वत्र जगमगाती दीखती है। पत्नी तक अपने मन को जितने अंशों में फैलाया जाता है उतने अंशों में अपनी खुदगर्जी पर संयम होता है। बाल बच्चों के होने पर यह आत्म संयम और अधिक बढ़ता है अन्त में जीव पूर्णतया आत्म संयमी हो जाता है।

🔵 दूसरे के लिए अपने आप को भूलने का अभ्यास क्रमशः इतना अधिक पुष्ट हो जाता है कि अपना कुछ रहता ही नहीं, सब कुछ बिराना हो जाता है। ‘‘मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर’’ की ध्वनि अपने अन्दर से निकलने लगती है। खुदी मिटती जाती है और खुदा मिटता जाता है। ‘‘मैं’’ का अन्त होने से ‘‘तू’’ ही शेष रहता है। गृहस्थ योग की छोटी सी सर्व सुलभ साधना जब अपनी विकसित अवस्था तक पहुंचती है तो आत्मा, परमात्मा बन जाता है। अपूर्णता से छुटकारा पाकर पूर्णता उपलब्ध करता है और योग का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 6)

🌹 काम को टालिये नहीं:

🔵 कोई व्यक्ति यह कहकर ऋण चुकाने से इन्कार नहीं कर सकता कि साहब रुपये तो मेरी जेब में हैं परन्तु देने को जी नहीं चाहता। दुनिया ऐसे आदमी को क्या कहेगी? पास में पैसा होते हुए भी केवल यह बहाना करना कि देने की इच्छा नहीं है। यह बेवकूफी और मक्कारी दोनों का ही मिश्रण कहा जायगा। परन्तु जब हम कष्टसाध्य कर्तव्यों और कठिन कार्यों को न करने या बाद में करने को ठानते हैं तो हमारी स्थिति उस बुद्धिहीन व्यक्ति की तरह होती है।
🔴 आज का काम कल पर न टालना एक प्रशंसनीय सद्गुण है उसी प्रकार श्रम साध्य कार्य को सबसे पहले करने का निश्चय सफलता का स्वर्णिम सूत्र है। ऐसे आगत कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। देर-सवेर उन कार्यों का पूरा करना ही पड़ता है फिर क्या जरूरी है कि हम दूसरे कामों में लगे रहकर कठिन कार्यों का बोझ अपने मन मस्तिष्क पर बनाये रखें।

🔵 सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए कि कहीं हममें कठिन कार्यों को टालने, श्रम साध्य कर्तव्यों से बचने की आदत तो नहीं पड़ गयी है। आत्म-निरीक्षण के द्वारा ऐसी स्थिति का पता चले तो दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि जिन कार्यों को हम सबसे पीछे डालते रहे हैं उन्हें ही सबसे पहले कर लें। परीक्षा में कठिन प्रश्नों को सर्वप्रथम हल करके आसान सवालों का उत्तर उनके बाद करने की पद्धति सफलता प्राप्त करने का आसान उपाय है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 19)

🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम

🔵 15. नशेबाजी का त्याग— नशेबाजी की बुराइयों को समझाने के लिए और इस बुरी आदत को छुड़ाने के लिए सभी प्रचार साधनों का उपयोग किया जाय। पंचायतों, धार्मिक समारोहों एवं शुभ कार्यों के अवसर पर इस हानिकारक बुराई को छुड़ाने के लिए प्रतिज्ञाएं कराई जायें।

🔴 16. व्यायाम और उसका प्रशिक्षण— आसन, व्यायाम, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, खेल-कूद, सवेरे का टहलना, अंग संचालन, मालिश आदि की विधियां सिखाने के लिए ‘वर्ग’ चलाये जांय। सामूहिक व्यायाम करने के लिये जहां सम्भव हो वहां दैनिक व्यवस्था की जाय। व्यायाम अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र है। चारपाई पर पड़े हुए रोगी भी कुछ खास प्रकार के अंग-संचालन, हलके व्यायाम करते हुए कठिन रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। बूढ़े आदमी अपने बुढ़ापे को दस-बीस साल आगे धकेल सकते हैं। कमजोर प्रकृति के व्यक्ति, छोटे बच्चे, विद्यार्थी, किशोर, तरुण स्त्रियां, लड़कियां, यहां तक कि गर्भवती स्त्रियों के लिए भी उनकी स्थिति के उपयुक्त व्यायाम बहुत ही आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार का ज्ञान हम लोग प्राप्त करें और उसको सर्व साधारण को दें। समय-समय पर ऐसे आयोजन करते रहें जिन्हें देखकर लोगों में इस प्रकार की प्रेरणा स्वयं पैदा हो।

🔵 अखाड़े, व्यायामशाला, क्रीड़ा-प्रांगण आदि स्वास्थ्य-संस्थानों की जगह-जगह स्थापना की जानी चाहिए। लाठी, भाला, तलवार, छुरा, धनुष आदि हथियार चलाने की शिक्षा जहां स्वास्थ्य सुधारती है, व्यायाम की आवश्यकता पूर्ण करती है, वहीं वह मनोबल और साहस भी बढ़ाती एवं आत्म रक्षा की क्षमता उत्पन्न करती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण देने वाले तैयार करना तथा लोगों में उसके लिए आवश्यक उत्साह पैदा करना हमारा काम होना चाहिए। कुश्ती, दौड़, तैराकी, रस्साकशी, लम्बी कूद, ऊंची छलांग, कबड्डी, गेद आदि का दंगल, एवं प्रतियोगिता आयोजनों और पुरस्कार व्यवस्था करवाने से भी इन कार्यों में लोगों का उत्साह बढ़ता है। ऐसे सम्मेलन यदि ईर्ष्या-द्वेष से बचाये रखे जांय और गलत प्रतिस्पर्धा न होने दी जाय तो पारस्परिक प्रेम भाव बढ़ाने एवं गुण्डागर्दी के विरुद्ध एक शक्ति प्रदर्शन का भी काम दे सकते हैं।

🔴 डम्बल, मुगदर, लेजम, खींचने के स्प्रिंग, तानने के रबड़ के घेरे, गेंद बल्ला, आदि व्यायाम सम्बन्धी उपकरण तथा साहित्य हर जगह मिल सके ऐसी विक्रय व्यवस्था भी हर जगह रहनी चाहिए। ‘फर्स्ट एड’ की शिक्षा का प्रबन्ध हर जगह रहना चाहिए और उसे विधिवत् सीखने तथा रैड क्रास सोसाइटी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए उत्साह पैदा करना चाहिए। स्काउटिंग की भी भावना और शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...