सोमवार, 21 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 22 Nov 2016


👉 गृहस्थ-योग (भाग 11) 22 Nov

🌹 *गृहस्थ में वैराग्य*

🔵 वीरता भागने में नहीं, वरन् लड़ने में है। यदि गृहस्थाश्रम में अधिक कठिनाइयां हैं तो उनसे डर कर दूर रहना रचित नहीं। पानी में घुसे बिना तैरना कैसे सीखा जायेगा? कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं अखाड़े में जाकर व्यायाम करने की कठिनाई में पड़ना नहीं चाहता, परन्तु पहलवान बनना चाहता हूं, तो उसकी यह बात बालकों जैसी अनगढ़ होगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह के दावघातों को देखना, उनसे परिचित होना, उनसे लड़कर विजय प्राप्त करना इन्हीं सब अभ्यासों के लिए वर्णाश्रम धर्म तत्वदर्शी आचार्य गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि आश्रम बताते हैं।

🔴 सम्पूर्ण देवर्षि इसी महान् गुफा में से उत्पन्न और विकसित हुए हैं। जरा कल्पना तो कीजिये- यदि गृहस्थ धर्म- जिसे निर्बुद्धि लोग माया या बन्धन तक कह बैठते हैं न होता तो राम, कृष्ण, बुद्धि, ईसा, मुहम्मद, गांधी कहां से आते? सीता, सावित्री, अनुसूया, मदालसा, दमयन्ती, पार्वती, आदि सतियों का चरित्र कहां से सुन पड़ता? इतिहास के पृष्ठों पर जगमगाते हुए उज्ज्वल हीरे किस प्रकार दिखाई देते? अन्य तीनों आश्रम बच्चे हैं गृहस्थ उनका पिता है। पिता को बन्धन कहना, नरक बताना त्याज्य ठहराना एक प्रकार की विवेक हीनता है।

🔵 उत्तर दायित्व का भार पड़े बिना कोई व्यक्ति वास्तविक, गम्भीर, जिम्मेदार और भारी भरकम नहीं होता। अल्हड़ बछड़े बहुत कूदते फांदते और दुलत्तियां उड़ाते हैं परंतु जब कन्धे पर भार पड़ता है तो बड़ी सावधानी से एक एक कदम रखना पड़ता है। हाथी जब गहरे पानी में धंसता है तो अपना एक पैर भली प्रकार जमा लेता है तब दूसरे को आगे रखता है। उसकी सारी सावधानी और होशियारी उस समय एक स्थान पर केन्द्रीभूत हो जाती है। जिस चित्तवृत्ति निरोध को, एकाग्रता को पातंजलि ने योग बताया है वह एकाग्रता कोरी बातूनी जमावन्दी से नहीं आती, उसके लिये एक प्रेरणा जिम्मेदारी चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 11) 21 Nov

🌹 प्रगति की महत्वपूर्ण कुंजी : नियमितता

🔵  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व भी इस गुण से पूरी तरह ओत-प्रोत था। उनके समय और कार्य की सुनियोजित पद्धति सुनियोजित क्रम अनुकरणीय था। जिस समय उन्होंने गीता का शब्दकोश तैयार किया जो गीता-माता नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है, तो सहयोगियों ने जिज्ञासावश प्रश्न किया कि वह इतने व्यस्त जीवन में यह समय साध्य, चिन्तनपरक कार्य कैसे कर सके। बापू का जवाब था—मेरा जीवन व्यस्त तो है पर अस्त-व्यस्त नहीं। मैं इस कार्य में नियमित 20 मिनट का समय नियोजित करता था। उसी नियमबद्धता, सुनियोजित कार्य-पद्धति का प्रतिफल है कि यह कार्य सफलतापूर्वक कम समय में सम्पन्न हो सका।

🔴  निश्चित ही जिन लोगों का जीवनक्रम अस्त-व्यस्त और अनियमित रहता है, वे न तो अपने जीवन का सही उपयोग कर पाते हैं और न ही समुचित विकास। ऐसे व्यक्ति प्रायः असफल ही देखे जाते हैं। मानवी प्रगति में इस गुण का अभाव एक बड़ी बाधा है। अनियमित व्यक्ति हवा में उड़ते रहने वाले पत्तों की तरह कभी इधर-उधर कुदकते-फुदकते रहते हैं। निश्चित दिशा-धारा नियोजित क्रम के अभाव में उनका परिश्रम और समय बेतरह बरबाद होता रहता है।

🔵  धीमी चाल से चलने वाले स्वल्प क्षमताशील प्राणी कछुए ने सतत् प्रयत्न व नियमबद्धता को अपनाकर बाजी जीती थी। जब कि बेतरतीब इधर-उधर भटकने वाला खरगोश अधिक क्षमतावान होते हुए भी पराजित और अपमानित हुआ। सामर्थ्य प्रतिभा का जितना महत्व है, उससे अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक यह है कि जो कुछ उपलब्ध है उसी को योजनाबद्ध रूप से नियमित व्यवस्था क्रम अपनाकर सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। जो ऐसा कर पाते हैं, वे ही क्रम-विकास के सुप्रशस्त राजपथ पर चलते हुए उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 शहर से दूर एक घने ...

🔵 शहर से दूर एक घने जंगल में एक आम का पेङ था और एक लंबा और घना नीम का पेङ था।

🔴 नीम का पेङ अपने पडोसी पेङ से बात तक नहीं करता था। उसको अपने बङे होने पर घमंड था।

🔵 एक बार एक रानी मधुमख्खी नीम के पेड़ के पास पहुची और उसने कहाँ “नीम भाई में आपके यहाँ पर आपने शहद का छत्ता बना लू ” तब नीम के पेड़ ने कहाँ “नहीं जा जाकर कही और अपना छत्ता बना”।

🔴 इतना सुनकर आम के पेड़ ने कहाँ “भाई छत्ता क्यों नहीं बना लेने देते यह तुम्हारे पेड़ पर सुरक्षित रह सकेंगी।” इतने पर नीम के पेड़ ने आम के पेड़ को जवाब दिया कि मुझे तुम्हारी सलाह कि आवश्यकता नहीं हें।

🔵 रानी मधुमख्खी ने फिर से आग्रह किया तो भी नीम के पेड़ ने मना कर दिया।

🔴 रानी मधुमख्खी आम के पेड़ के पास गई और कहने लगी क्या मै आपकी शाखा पर अपना छत्ता बना लूँ। इस पर आम के पेड़ ने उसे सहमति दे दी रानी मधुमख्खी ने छत्ता बना लिया और सुखपूर्वक रहने लगी।

🔵 अभी कुछ दिनों बाद कुछ व्यक्ति वहाँ पर आये और कहने लगे कि इस आम के पेड़ को काटते हें तभी एक व्यक्ति कि नजर मधुमख्खी के छत्ते पर पड़ी और उसने कहाँ यदि हम इस पेड़ को काटते हें तो यह मधुमख्खी हमें नहीं छोडेगी। अतः हम नीम के पेड़ को काटते हें | इससे हमको कोई खतरा नहीं हें। और लकडियां भी हमे अधिक मात्रा में मिल जाएँगी।

🔴 यह सब बाते सुनकर नीम डर गया अब वह कर भी क्या सकता था।

🔵 दूसरे दिन सभी व्यक्ति आये और पेड़ काटने लगे तो नीम ने कहाँ “ मुझे बचाओ – मुझे बचाओ नही तो ये लोग मुझको काट डालेंगे”।

🔴 तब मधुमख्खियो ने उन लोगों पर हमला कर दिया और उन्हें वहाँ से भगा दिया।

🔵 नीम के पेड़ ने मधुमख्खियो को धन्यवाद दिया तो इस पर मधुमख्खियो ने कहाँ “धन्यवाद हमें नही आम भाई को दो यदि वह हमसे नहीं कहते तो हम आपको नहीं बचाते”।

🔴 सीख…“कभी कभी बड़े और महान होने का एहसास हमें घमंडी और क्रूर बना देता हें | जिससे हम अपने सच्चे साथियों से दूर हो जाते हें।”

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 35)

🌞 तीसरा अध्याय

🔴 उच्च आध्यात्मिक मन से आई प्रेरणा भी इसी प्रकार अध्ययन की जा सकती है। इसलिए उन्हें भी अहम् से भिन्न माना जाएगा। आप शंका करेंगे कि उच्च आध्यात्मिक प्रेरणा का उपयोग उस प्रकार नहीं किया जा सकता, इसलिए सम्भव है वे प्रेरणाएँ 'अहम्' वस्तुएँ हों? आज हमें तुमसे इस विषय पर कोई विवाद नहीं करना है, क्योंकि तुम आध्यात्मिक मन की थोड़ी बहुत जानकारी को छोड़कर अभी इसके सम्बन्ध में और कुछ नहीं जानते। साधारण मन के मुकाबिले में वह मन ईश्वरीय भूमिका के समान है।

🔵 जिन तत्त्वदर्शियों ने अहम् ज्योति का साक्षात्कार किया है और जो विकास ही उच्च, अत्युच्च सीमा तक पहुँच गये हैं, वे योगी बतलाते हैं कि अहम् आध्यात्मिक मन से ऊपर रहता है और उसको अपनी ज्योति से प्रकाशित करता है, जैसे पानी पर पड़ता हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब सूर्य जैसा ही मालूम पड़ता है। परन्तु सिद्घों का अनुभव है कि वह केवल धुँधली तस्वीर मात्र है। चमकता हुआ आध्यात्मिक मन यदि प्रकाशबिम्ब है, तो 'अहम्' अखण्ड ज्योति है, (जो) उस उच्च मन में होता हुआ आत्मिक प्रकाश पाता (देता) है, इसी से वह (आध्यात्मिक मन) इतना प्रकाशमय प्रतीत होता है।

🔴 ऐसी दशा में उसे (आध्यात्मिक मन को) ही 'अहम्' मान लेने का भ्रम हो जाता है। असल में वह भी 'अहम्' है नहीं। 'अहम्' उस प्रकाश मणि के समान है, जो स्वयं सदैव समान रूप से प्रकाशित रहती है, किन्तु कपड़ों से ढकी रहने के कारण अपना प्रकाश बाहर लाने में असमर्थ होती है। ये कपड़े जैसे-जैसे हटते जाते हैं, वैसे ही वैसे प्रकाश अधिक स्पष्ट होता जाता है। फिर भी कपड़ों के हटने या उनके और अधिक मात्रा में पड़ जाने के कारण मणि के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.3

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 24)

🌹 अशिक्षा का अन्धकार दूर किया जाय

🔵 26. नये स्कूलों की स्थापना— जहां स्कूलों की आवश्यकता है, वहां उसकी पूर्ति के लिये प्रयत्न किये जांय। जन सहयोग से नये विद्यालयों की स्थापना तथा आरम्भ करके पीछे उन्हें सरकार के सुपुर्द कर देने की पद्धति अच्छी है। स्कूल की इमारतों के लिये खाली जमीनें या मकान लोगों के बिना मूल्य प्राप्त करना, या जन सहयोग से नये सिरे से बनाना, उत्साही प्रयत्नशील लोगों की प्रेरणा से सुविधापूर्वक हो सकता है। अध्यापकों का खर्च भी फीस की तरह सहायता देकर लोग आसानी से चला सकते हैं। धनीमानी लोग इस दिशा में कुछ विशेष उत्साह दिखा सकें ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिये।

🔴 27. रात्रि पाठशाला चलाई जाएं— ऐसी रात्रि पाठशालाएं भी चलाई जांय जिनमें साधारण पढ़े-लिखे काम-काजी लोग अपने शिक्षा को आगे बढ़ा सकें। स्वल्प शिक्षित लोग जो अपनी पढ़ाई समाप्त कर चुके हैं और काम-काज में लग गये हैं, उनके लिए शिक्षा सम्बन्धी उन्नति के द्वारा प्रायः रुके हुए ही पड़े रहते हैं। इस कठिनाई को दूर किया जाना चाहिए। निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए जिस प्रकार प्रारम्भिक शिक्षा आवश्यक है, उसी प्रकार स्वल्प शिक्षितों को सुशिक्षित बनाने के ऐसे प्रयत्न भी चलने चाहिए जिनमें रात्रि को फुरसत के समय दो घण्टे पढ़ने की सुविधा प्राप्त कर लोग आगे उन्नति कर सकें। प्राइवेट पढ़कर परीक्षा देने की सुविधा कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में होती है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन पुरुषों के लिए और महिला विद्यापीठ की परीक्षायें स्त्रियों के लिए उपयोगी रहती हैं। प्राइमरी, मिडिल और हाई स्कूल तक की प्राइवेट परीक्षाएं सरकारी शिक्षा-विभाग भी स्वीकार कर लेता है। जहां जैसी सुविधा हो वहां उसी प्रकार की ऐसी पाठशालाएं चलें। ऐसी पाठशालाओं का खर्च चलाने के लिए छात्रों से फीस भी ली जा सकती है।

🔵 28. शिक्षित ज्ञानऋण चुकायें— शिक्षित लोग पांच व्यक्तियों को शिक्षित करना अपना एक ज्ञान-ऋण जैसा उत्तरदायित्व मानें, और उसे चुकाने के लिए प्रतिज्ञाएं लेकर जुट जावें, ऐसा लोक शिक्षण करना चाहिए। जिस प्रकार धनी लोग कुछ दान-पुण्य करते रहते हैं उसी प्रकार शिक्षा रूपी धन से भी दान-पुण्य करने की प्रथा आरम्भ करनी चाहिये।
तीर्थ यात्रा करके जब तक कोई व्यक्ति घर आकर कुछ दान-पुण्य, कथा, ब्रह्मभोज नहीं करता तब तक उसकी तीर्थ-यात्रा सफल नहीं मानी जाती। इसी प्रकार ज्ञान-ऋण चुकाये बिना किसी की शिक्षा को सफल एवं सार्थक न माने जाने की मान्यता जागृत की जाय। सरकारी टैक्स या उधार लिया हुआ कर्जा चुकाया जाना जिस प्रकार आवश्यक माना जाता है उसी प्रकार हर शिक्षित पांच अशिक्षितों को शिक्षित बनाने के लिए समय दान या धन दान देकर अपने को ऋणमुक्त करने का प्रयत्न करें। जो लोग समय नहीं दे सकते वे धन देकर अध्यापकों के वेतन के लिए दान दिया करें, यह भी हो सकता है और इस प्रकार भी ज्ञान-ऋण चुक सकता है।


🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 10) 21 Nov

🌹 गृहस्थ में वैराग्य

🔵 गृहस्थ आश्रम की निन्दा करते हुए कोई कोई सज्जन ऐसा कहते हुए सुने जाते हैं कि— ‘‘घर गृहस्थी में पड़ना माया के बन्धन में फंसना है।’’ उनकी दृष्टि में घर गृहस्थी माया का पिटारा है और बिना गृहस्थी रहना स्वर्ग की निशानी है। परन्तु विचार करने पर प्रतीत होता है कि उपरोक्त कथन कुछ विशेष महत्व का नहीं है कारण यह है कि माया का बन्धन बाहरी वस्तुओं का बाहरी मनुष्यों में नहीं वरन् अपनी मनोवृत्तियों में है यदि मन अपवित्र है, काम, क्रोध, लोभ से भरा हुआ है तो जो बातें गृहस्थ में होती हैं वही संन्यास से बाहर भी हो सकती हैं।

🔴 हमने देखा है कि बहुत से बाबाजी कहलाने वाले महाराज भिक्षा मांग मांग कर धन जोड़ते हैं, मरने पर उनके पास प्रचुर धनराशि निकलती है। हमने देखा है कि गृह-विहीन लोगों की इन्द्रियां भी लोलुप होती हैं। शब्द, रस, रूप, गन्ध, स्पर्श में वे लोलुप रुचि प्रकट करते हैं, उनके आकर्षण से आकर्षित होते हैं। अपनी वस्तुओं से—कुटी, वस्त्र, पुस्तक, पात्र, शिष्य, साथी आदि से—ममता रखते हैं। यही सब बातें ही दूसरे रूप में गृहस्थों में होती है।

🔵 वैराग्य, त्याग, विरक्ति, इन महत्त्वों का सीधा सम्बन्ध अपने मनोभावों से हैं। यदि भावनाएं संकीर्ण हों, कलुषित हों, स्वार्थमयी हों तो चाहे जैसी उत्तम सात्विक स्थिति में मनुष्य क्यों न रहे मन का विकार वहां भी पाप की दुराचार की पुष्टि करेगा। यदि भावनाएं उदार एवं उत्तम हैं तो अनमिन और अनिष्टकारक स्थिति में भी मनुष्य पुण्य एवं पवित्रता उत्पन्न करेगा। महात्मा इमर्सन कहा करते थे कि ‘‘मुझे नरक में भेज दिया जाय तो मैं वहां अपने लिए स्वर्ग बना लूंगा।’’ वास्तविक सत्य यही है, हर आदमी अपनी भीतरी स्थिति का प्रतिविम्ब दुनियां के दर्पण में देखता है।

🔵 यदि उनके मन में माया है, तो घर, बाहर, वन, आरण्य, मन्दिर, स्वर्ग सब जगह माया ही माया है, माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं। यदि मन साफ है, पवित्रता, प्रेम और परमार्थ की दृष्टि है तो घर का एक कोना पुनीत तपोवन से किसी भी प्रकार कम न रहेगा। राजा जनक प्रभृति अनेकों ऋषि हुए हैं जिन्होंने गृहस्थ में रहने की साधना की और परम पद पाया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 10) 21 Nov

🌹 प्रगति की महत्वपूर्ण कुंजी : नियमितता
🔵 जीवन के बहु आयामी विकास के लिए जो सद्गुण आवश्यक हैं, उनमें नियमितता प्रधान ही नहीं अनिवार्य भी है। समय और कार्य की योजनाबद्ध रूप से संयत दिनचर्या बनाने और उस पर आरूढ़ रहने का नाम ही ‘नियमितता’ है। इस तरह व्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर चलने से शरीर और मन को उसमें संलग्न रहने की उमंग रहती है तथा प्रवीणता भी बढ़ती है। फलतः सूझबूझ के साथ निश्चित किया गया कार्य सरलता और सफलतापूर्वक भली प्रकार सम्पन्न होता चला जाता है।

🔴 संसार में विविध क्षेत्रों में जिन महामानवों ने प्रगति की, सफलता पाई उनके जीवन-पटल की गहनता-गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का केन्द्रीय आधार नियमितता ही रही है।

🔵 राष्ट्रभाषा के कुशल शिल्पी, तत्कालीन सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसकी महत्ता बताते हुए एक स्थान पर लिखा है कि जो लोग अवनति, असफलता का हर समय रोना रोया करते हैं, निश्चित ही उनने साफल्य प्रदायिनी विद्या ‘नियमितता’ की आराधना नहीं की। उन्होंने अपने निज के विकास का श्रेय भी इसी को दिया है। रेलवे की नौकरी, अन्यान्य गृह-कार्य, सामाजिक कार्य करते हुए उनने जिस विशाल ज्ञान राशि का संचय किया तथा परवर्ती काल में साहित्यिक क्षेत्र में जो असामान्य प्रगति की, उसका आधार यही है।

🔴  हरिभाऊ उपाध्याय ने अपने एक संस्मरण परक लेख में आचार्य द्विवेदी जी की नियमबद्धता की चर्चा करते हुए लिखा है कि आचार्य जी के हर कार्य का नियत समय था। उसमें भूल-चूक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसका पालन वह इतनी दृढ़ता से करते थे कि उनके सहयोगी, मिलने वाले उनके कार्य विशेष को देखकर अपनी घड़ी मिला लेते। क्योंकि उन सभी को विश्वास रहता था कि द्विवेदी जी के प्रत्येक कार्य का सुनिश्चित समय है, उसमें हेर-फेर का कोई स्थान नहीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...