बुधवार, 7 दिसंबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 8 Dec 2016


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 8 Dec 2016


👉 सतयुग की वापसी (भाग 3) 8 Dec

🌹 लेने के देने क्यों पड़ रहे हैं? 

🔴 यहाँ उपलब्धियों, आविष्कारों के सदुपयोग-दुरुपयोग की विवेचना नहीं की जा रही है, यह स्पष्ट है कि इन दिनों विभिन्न क्षेत्रों में जो प्रगति हुई वह असाधारण एवं अभूतपूर्व है। विकास विस्तार तो हर भले-बुरे उपक्रम पर लागू हो सकता है। इन अर्थों में आज की प्रगतिशीलता की दावेदारी को स्वीकार करना ही पड़ता है। फिर भी एक प्रश्न सर्वथा अनसुलझा ही रह जाता है कि यह तथाकथित प्रगति, अपने साथ दुर्गति के असंख्यों बवण्डर क्यों और कैसे घसीटती, बटोरती चली जा रही है?

🔵 प्रदूषण, युद्धोन्माद, खाद्य-संकट अपराधों की वृद्धि आदि समस्याएँ समस्त तटबन्ध तोड़ती चली जा रही हैं। अस्वस्थता, दुर्बलता, कलह, विग्रह, छल-प्रपञ्च जैसे दोष, व्यवहार तथा चिन्तन को धुआँधार विकृतियों से भरते क्यों चले जा रहे हैं? निकट भविष्य के सम्बन्ध में मूर्द्धन्य विचारक यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि स्थिति यही रही, रेल इसी पटरी पर चलती रही, तो विपन्नता बढ़ते-बढ़ते महाप्रलय जैसी स्थिति में पहुँचा सकती है। वे कहते हैं कि हवा और पानी में विषाक्तता इस तेजी से बढ़ रही है कि उसे धीमी गति से सर्वभक्षी आत्महत्या का नाम दिया जा सकता है।
🔴 बढ़ता हुआ तापमान यदि ध्रुवों की बरफ पिघला दे और समुद्र में भयानक बाढ़ ला दे तो उससे थल निवासियों के लिए डूब मरने का संकट उत्पन्न कर सकता है। वनों का कटना, रेगिस्तान का द्रुतगामी विस्तार, भूमि की उर्वरता का ह्रास, खनिजों के बेतरह दोहन से उत्पन्न हुआ धरित्री असन्तुलन, मौसमों में आश्चर्यजनक परिवर्तन, तेजाबी मेघ वर्षण, अणु विकिरण, बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुरूप जीवनसाधन न बढ़ पाने का संकट जैसे अनेकानेक जटिल प्रश्न हैं। इनमें से किसी पर भी विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि तथाकथित प्रगति ही उन समस्त विग्रहों के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है। वह प्रगति किस काम की, जिसमें एक रुपया कमाने के बदले सौ का घाटा उठाना पड़े।
 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 27)

🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जे. एस्टर ने क्रोध से पीड़ित मनःस्थिति का अध्ययन किया तथा यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि ‘पन्द्रह मिनट के क्रोध से शरीर की जितनी शक्ति नष्ट हो जाती है उससे व्यक्ति नौ घण्टे तक कड़ी मेहनत करने में समर्थ हो सकता है, इसके अतिरिक्त क्रोध शरीर सौष्ठव को भी नष्ट करता है। भरी जवानी में बुढ़ापे का लक्षण, आंखों के नीचे चमड़ी का काला होना, आंखों में लाल रेखाओं का उद्भव तथा शरीर में जहां-तहां नीली नसों का उभरना क्रोध के ही परिणाम है।’

🔴 न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने चूहों के ऊपर एक प्रयोग किया है। उसमें क्रोधी मनुष्य के रक्त को चूहे के शरीर में डाला गया तथा उसके परिणामों का अध्ययन किया गया। 22 मिनट के उपरान्त ही चूहे में आक्रोश का भाव देखा गया, वह मनुष्य को काटने दौड़ा। लगभग 35 मिनट बाद उसने स्वयं को ही काटना शुरू किया और अन्ततः एक घण्टे के बाद मर गया।

🔵 वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि क्रोध के कारण विषाक्तता उत्पन्न होती है जो पाचन-शक्ति के लिए अत्यन्त खतरनाक सिद्ध होता है। क्रोधी स्वभाव की माताओं का दूध भी विषाक्त पाया गया है, उससे बच्चे के पेट में मरोड़ की शिकायत उत्पन्न होती है तथा कभी-कभी तो अधिक विषाक्तता के कारण बच्चे की मृत्यु तक हो जाती है। आमतौर से आत्महत्या की घटनायें भी क्रोध से ही अभिप्रेरित होती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 27) 8 Dec

🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र

🔵 यदि गृहस्थ बन्धन कारक, नरक मय होता तो उससे पैदा होने वाले बालक पुण्यमय कैसे होते। बड़े बड़े योगी यती इस मार्ग को क्यों अपनाते? निश्चय ही गृहस्थ धर्म एक पवित्र, आत्मोन्नति कारक, जीवन को विकसित करने वाला, धार्मिक अनुष्ठान है, एक सत् समन्वित आध्यात्मिक साधना है। गृहस्थ का पालन करने वाले व्यक्ति को ऐसी हीन भावना मन में लाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं हैं कि वह अपेक्षाकृत नीचे स्तर पर है या आत्मिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है या कमजोर है। अविवाहित जीवन और विवाहित जीवन में तत्वतः कोई अन्तर नहीं है।

🔴 यह अपनी-अपनी सुविधा, रुचि और कार्य प्रणाली की बात है, जिसे जिसमें सुविधा पड़ती हो वह वैसा करे। जिसका कार्यक्रम देशाटन का हो उन्हें स्त्री बच्चों का झंझट पालने की आवश्यकता नहीं परन्तु जिन्हें एक स्थान पर रहना हो उसके लिये विवाहित होने में ही सुविधा है। इसमें पिछड़े हुए और बढ़े हुए की कुछ चीज नहीं, दोनों का दर्जा बिल्कुल बराबर है। मानसिक स्थिति और कार्य प्रणाली के आधार पर तुच्छता और महानता होती है। जहां भी ऊंचा दृष्टिकोण होगा वहां ही महानता होगी।

🔵 जीवन का परम लक्ष आत्मा को परमात्मा में मिला लेना है, व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रधानता न देते हुए लोकहित की भावना से काम करना, यही आध्यात्मिक साधना है। इस साधना को क्रियात्मक जीवन में लाने के लिए भिन्न भिन्न तरीके हो सकते हैं। इन तरीकों में से एक तरीका गृहस्थ योग भी है। बालक, घर  में से ही आरम्भिक क्रियाएं सीखता है। जीवन के लिये जितने काम चलाऊ ज्ञान की आवश्यकता है उसका आधे से अधिक भाग घर में ही प्राप्त होता है।

🔴 हमारी सात्विक साधना भी घर से ही प्रारंभ होनी चाहिये। जीवन को उच्च, उन्नत, संस्कृत, संयमित, सात्विक, सेवामय एवं परमार्थ पूर्ण बनाने की सबसे अच्छी प्रयोगशाला अपना घर ही हो सकता है। स्वाभाविक प्रेम, उत्तरदायित्व, कर्तव्य पालन, परस्पर अवलम्बन, आश्रय, स्थान, स्थिर क्षेत्र, लोक लाज आदि अनेक कारणों से यह क्षेत्र ऐसा सुविधाजनक हो जाता है कि आत्मत्याग और सेवामय दृष्टिकोण के साथ काम करना इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक सरल होता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 40)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 54. अश्लीलता का प्रतिकार— अश्लील साहित्य, अर्ध-नग्न युवतियों के विकारोत्तेजक चित्र, गन्दे उपन्यास, कामुकता भरी फिल्में, गन्दे गीत, वेश्यावृत्ति, अमर्यादित कामचेष्टाएं, नारी के बीच रहने वाली शील संकोच मर्यादा का व्यक्ति-क्रम, दुराचारों की भोंड़े ढंग से चर्चा, आदि अनेक बुराइयां अश्लीलता के अन्तर्गत आती हैं। इनसे दाम्पत्य-जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और शरीर एवं मस्तिष्क खोखला होता है। शारीरिक व्यभिचार की तरह यह मानसिक व्यभिचार भी मानसिक एवं चारित्रिक संतुलन को बिगाड़ने में दावाग्नि का काम करता है। उसका प्रतिकार किया जाना चाहिए। ऐसे चित्र, कलेण्डर, पुस्तकें, मूर्तियां तथा अन्य उपकरण हमारे घरों में न रहें जो अपरिपक्व मस्तिष्कों में विकार पैदा करें। शाल और शालीनता की रक्षा के लिए उनकी विरोधी बातों को हटाया जाना ही उचित है।

🔴 55. विवाहों में अपव्यय— संसार के सभी देशों और धर्मों के लोग विवाह शादी करते हैं, पर इतनी फिजूलखर्ची कहीं नहीं होती, जितनी हम लोग करते हैं। इससे आर्थिक सन्तुलन नष्ट होता है, अधिक धन की आवश्यकता उचित रीति से पूरी नहीं हो सकती तो अनुचित मार्ग अपनाने पड़ते हैं। इन खर्चों के लिए धन जोड़ने के प्रयत्न में परिवार की आवश्यक प्रगति रुकती है, अहंकार बढ़ता है तथा कन्याएं माता पिता के लिए भार रूप बन जाती हैं। विवाहों का अनावश्यक आडम्बरों से भरा हुआ और खर्चीला शौक बनाये रहना सब दृष्टियों से हानिकारक और असुविधाजनक है।

🔵 दहेज की प्रथा तो अनुचित ही नहीं अनैतिक भी है। कन्या-विक्रय, वर-विक्रय का यह भोंड़ा प्रदर्शन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रथा के कारण कितनी कन्याओं को अपना जीवन नारकीय बनाना पड़ता है और कितने ही अभिभावक इसी चिन्ता में घुल-घुल कर मरते हैं। इस हत्यारी प्रथा का जितना जल्दी काला मुंह हो सके उतना ही अच्छा है।

🔴 विचारशील लोगों का कर्तव्य है कि वे इस दिशा में साहसपूर्ण जन-नेतृत्व करें। उन रूढ़ियों को तिलांजलि देकर अत्यन्त सादगी से विवाह करें। परम्पराओं से डर कर—उपहास के भय से ही अनेक लोग साहस नहीं कर पाते, यद्यपि वे मन से इस फिजूलखर्ची के विरुद्ध होते हैं। ऐसे लोगों का मार्ग-दर्शन उनके सामने अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही किया जा सकता है। युग-निर्माण परिवार के लोग अपने ही विचारों के वर कन्या तथा परिवार ढूंढ़ें और सादगी के साथ आदर्श विवाहों का उदाहरण प्रस्तुत करें, इससे हिन्दू समाज की एक भारी समस्या हल हो सकेगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 10)

🌹 आकस्मिक सुख-दुःख

दैविकं दैहिकं चापि भौतिकं च तथैव हि।
आयाति स्वयमाहूतो दुःखानामेष संचयः।।   
            
-पंचाध्यायी
(दैविकं) दैविक (अपि च) और (दैहिकं) दैहिक (तथैव च) उसी प्रकार (च) और (भौतिकं) भौतिक (दुखानां) दुःखों का (एष) यह (संचयः) समूह (स्वयमाहूतः) अपने आप बुलाया हुआ (आयाति) आता है।

🔵 अनेक बार ऐसे अवसर आ उपस्थित होते हैं जो प्राकृतिक नियमों के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं। एक मनुष्य उत्तम जीवन बिताता है, पर अकस्मात् उसके ऊपर ऐसी विपत्ति आ जाती है मानो ईश्वर किसी घोर दुष्कर्म का दण्ड दे रहा हो। एक मनुष्य बुरे से बुरे कर्म करता है, पर वह चैन की वंशी बजाता है, सब प्रकार के सुख-सौभाग्य उसे प्राप्त होते हैं। एक निठल्ले को लॉटरी में, जुआ में या कहीं गढ़ा हुआ धन मिल जाता है, किंतु दूसरा अत्यंत परिश्रमी और बुद्धिमान मनुष्य अभाव में ही ग्रसित रहता है। एक व्यक्ति स्वल्प परिश्रम में ही बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता है, दूसरा घोर प्रयत्न करने और अत्यंत सही तरीका पकड़ने पर भी असफल रहता है। ऐसे अवसरों पर ‘प्रारब्ध’, ‘भाग्य’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है। इसी प्रकार महामारी, बीमारी, अकाल मृत्यु, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बिजली गिरना, भूकंप, बाढ़ आदि दैवी प्रकोप भी भाग्य, प्रारब्ध कहे जाते हैं। आकस्मिक दुर्घटनाएँ, मानसिक आपदा, वियोग आदि वे प्रसंग जो टल नहीं सकते, इसी श्रेणी में आ जाते हैं।
          
🔴  यह ठीक है कि ऐसे प्रसंग कम आते हैं, प्रयत्न से उलटा फल होने को आकस्मित घटना घटित हो जाने के अपवाद चाहे कितने ही कम क्यों न हों, पर होते जरूर हैं और वे कभी-कभी ऐसे कठोर होते हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे अवसरों पर हम में से साधारण श्रेणी के ज्ञान रखने वाले बहुत ही भ्रमित हो जाते हैं और ऐसी-ऐसी धारणा बना लेते हैं, जो जीवन के लिए बहुत ही घातक सिद्ध होती है। कुछ लोग तो ईश्वर पर अत्यंत कुपित होते हैं। उसे दोषी ठहराते हैं और भरपूर गालियाँ देते हैं, कई तो नास्तिक हो जाते हैं, कहते हैं कि हमने ईश्वर का इतना भजन-पूजन किया पर उसने हमारी कुछ भी सहायता नहीं की, ऐसे ईश्वर को पूजना व्यर्थ है, कई महामानव लाभ की इच्छा से साधु-संत, देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। यदि संयोगवश इसी बीच में कुछ हानिकर प्रसंग आ गए, तो उस पूजा के स्थान पर निंदा करने लगते हैं।

🔵 ऐसा भी देखा गया है कि ऐसे आकस्मिक प्रसंग आने के समय ही यदि घर में कोई नया प्राणी आया हो, कोई पशु खरीदा हो, बालक उत्पन्न हुआ हो, नई बहू आई हो, तो उस घटना का दोष या श्रेय उस नवागंतुक प्राणी पर थोप दिया जाता है। यह नया बालक बड़ा भाग्यवान् हुआ जो जन्मते ही इतना लाभ हुआ, यह बहू बड़ी अभागी आई कि आते ही सत्यानाश कर दिया, इस श्रेयदान या दोषारोपण के कारण कभी-कभी घर में ऐसे दुःखदायी क्लेश-कलह उठ खड़े होते हैं कि उनका स्मरण होते ही रोमांच हो जाता है। हमारे परिचित एक सज्जन के घर में नई बहू आई, उन्हीं दिनों घर का एक जवान लड़का मर गया। इस मृत्यु का दोष बेचारी नई बहू पर पड़ा, सारा घर यही तानाकसी करता-‘यह बड़ी अभागी आई है, आते ही एक बलि ले ली।’ कुछ दिन तो इस अपमान को बेचारी निर्दोष लड़की विष के घूँट की तरह पीती रही, पर जब हर वक्त का अपमान, घरवालों का नित्यप्रति का दुर्व्यवहार सहन न कर सकी, तो मिट्टी का तेल छिड़क कर जल मरी। बेचारी निरपराध विधवाओं को अभागी, कलमुँही, डायन की उपाधि मिलने का एक आम रिवाज है। इसका कारण भाग्यवाद के सम्बन्ध में मन में जमी हुई अनर्थमूलक धारणा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/aakas

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 9)

🌹 चित्रगुप्त का परिचय

🔵 इस सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण बात जान लेने की है कि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून व्यवस्था है। रिश्वत के मामले में एक चपरासी, एक क्लर्क, एक मजिस्ट्रेट तीन आदमी पकड़े जाएँ, तो तीनों को अलग-अलग तरह की सजा मिलेगी। सम्भव है चपरासी को डाँट-डपट सुना कर ही छुटकारा मिल जाय, पर मजिस्ट्रेट बर्खास्त हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी बड़ी जिम्मेदारी है। एक असभ्य भील शिकार मारकर पेट पालता है, अपराध उसका भी है, परंतु अहिंसा का उपदेश करने वाला पंडित यदि चुपचाप बूचर दुकान में जाता है, तो पंडित को उस भील की अपेक्षा अनेक गुणा पाप लगेगा। कारण यह है कि ज्ञान वृद्धि करता हुआ जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता चलता है, वैसे ही वैसे उसकी अंतःचेतना अधिक स्वच्छ हो जाती है।
          
🔴 मैले कपड़े पर थोड़ी-सी धूल पड़ जाय, तो उसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दूध के समान स्वच्छ धुले हुए कपड़े पर जरा सा धब्बा लग जाए, तो वह दूर से ही चमकता है और बहुत बुरा मालूम पड़ता है। छोटा बच्चा कपड़ों पर टट्टी फिर देता है, पर उसे कोई बुरा नहीं कहता और न बच्चे को कुछ शर्म आती है, किंतु यदि कोई जवान आदमी ऐसा कर डाले, तो उसे बुरा कहा जाएगा और वह खुद भी लज्जित होगा। बच्चे और बड़े ने आचरण एक-सा किया, पर उसके मानसिक विकास में अंतर होने के कारण बुराई की गिनती कम-ज्यादा की गई। इसी प्रकार अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य व्यक्ति को कम पाप लगता है। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला-बुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है, सत्-असत् का कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक प्रबल होता जाता है, अंतःकरण की पुकार जोरदार भी बनती है, इस प्रकार आत्मोन्नति के साथ-साथ सदाचरण की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है।

🔵 हुकुम-उदली करने पर मामूली चपरासी को सौ रुपया जुर्माना हो जाता है, परंतु फौजी अफसर हुक्म-अदूली करे, तो कोर्ट मार्शल द्वारा गोली से शूट कर दिया जाएगा। ज्ञानवान, विचारवान और भावनाशील हृदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं, तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को बहुत भारी पाप की श्रेणी में दर्ज कर देता है। गौदान से लोग वैतरणी पार कर जाते हैं। पर राजा नृप जैसा विवेकवान थोड़ी गलती करने पर ही नरक में जा पहुँचा। अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो यह उतना महत्त्व नहीं रखता, किंतु कर्तव्यच्युत ब्राह्मण तो घोर दण्ड का भागी बनता है। राजा बनना सब दृष्टियों में अच्छा है, पर राजा की जिम्मेदारी भी सबसे ऊँची है। ज्ञानवानों का यह कठोर उत्तरदायित्व है कि सदाचार पर दृढ़ रहें, अन्यथा सात मंजिल ऊँची छत पर से गिरने वाले को जो कष्ट होता है, उन्हें भी वही दुःख होगा।

कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है? पाठकों को यह रहस्य भी आगे के लेखों में समझाया जाएगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.3

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 39)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 53. नर-नारी का भेदभाव— जातियों के बीच बरती जाने वाली ऊंच-नीच की तरह पुरुष और स्त्री के बीच रहने वाली ऊंच-नीच की भावना निन्दनीय है। ईश्वर के दाहिने बांये अंगों की तरह नर-नारी की रचना हुई है। दोनों का स्तर और अधिकार एक है। इसलिए सामाजिक न्याय और नागरिक अधिकार भी दोनों से एक होने चाहिए। प्राचीन काल में था भी ऐसा ही। तब नारी भी नर के समान ही प्रबुद्ध और विकसित होती थी। नई पीढ़ियों की श्रेष्ठता कायम रखने तथा सामाजिक स्तर की उत्कृष्टता बनाये रखने में उसका पुरुष के समान ही योगदान था।

🔴 आज नारी की जो स्थिति है वह अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। उसके ऊपर पशुओं जैसे प्रतिबन्धों का रहना और सामान्य नागरिक अधिकारों से वंचित किया जाना भारतीय धर्म की उदारता, महानता और श्रेष्ठता को कलंकित करने के समान है। पुरुषों के लिए भिन्न प्रकार की और स्त्रियों के लिए भिन्न प्रकार की न्याय-व्यवस्था रहना अनुचित है। दाम्पत्य-जीवन में सदाचार का दोनों पर समान प्रतिबन्ध होना चाहिए। शिक्षा और स्वावलम्बन के लिए दोनों को समान अवसर मिलने चाहिए।

🔵 पुत्र और पुत्रियों के बीच बरते जाने वाले भेद-भाव को समाप्त करना चाहिए। दोनों को समान स्नेह, सुविधा और सम्मान मिले। पिछले दिनों जो अनीति नारी के साथ बरती गई है उसका प्रायश्चित यही हो सकता है कि नारी को शिक्षित और स्वावलम्बी बन सकने में उचित योग्यता प्राप्त करने का अधिकाधिक अवसर प्रदान किया जाय। सरकार ने पिछड़े वर्गों को संविधान में कुछ विशेष सुविधाएं दी है, ताकि वे अपने पिछड़ेपन से जल्दी छुटकारा प्राप्त कर सकें। सामाजिक न्याय के अनुसार नारी को शिक्षा और स्वावलम्बन की दिशा में ऐसी ही विशेष सुविधा मिलनी चाहिए ताकि उनका पिछड़ापन अपेक्षाकृत जल्दी ही प्रगति में बदल सके।

🔴 पर्दा प्रथा उस समय चली जब यवन लोग बहू-बेटियों पर कुदृष्टि डालते और उनका अपहरण करते थे। अब वैसी परिस्थितियां नहीं रहीं तो पर्दा भी अनावश्यक हो गया। यदि उसे जरूरी ही समझा जाय तो स्त्रियों की तरह पुरुष भी घूंघट किया करें! क्योंकि चारित्रिक पतन के सम्बन्ध में नारी की अपेक्षा नर ही अधिक दोषी पाये जाते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 26) 7 Dec

🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र
🔵 पिछले पृष्ठों पर बताया जा चुका है कि परमार्थ और स्वार्थ, पुण्य और पाप, धर्म, अधर्म यह किसी कार्य विशेष पर निर्भर नहीं, वरन् दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। दुनिया का स्थूल बुद्धि-कार्यों का रूप देखकर उसकी अच्छाई-बुराई का निर्णय करती हैं परन्तु परमात्मा के दरबार में काम के बाहरी रूप का कुछ महत्व नहीं वहां तो भावना ही प्रधान है। भावना का आरोपण मनुष्य की आन्तरिक पवित्रता से सम्बन्धित है। बनावट, धोखेबाज और प्रवंचना बाहर तो चल सकती है पर अपनी आत्मा के सामने नहीं चल सकती।

🔴 अन्तःकरण स्वयमेव जान लेता है कि अमुक कार्य किस दृष्टिकोण से किया जा रहा है, वहां कोई छिपाव या दुराव काम नहीं दे सकता। वरन् जो बात सत्य है वह ही मनोभूमि में स्वच्छ पट्टिका पर स्पष्ट रूप से अंकित होती है। जिस कार्य प्रणाली के द्वारा अन्तःकरण में आत्म-त्याग, सेवा, प्रेम एवं सद्भाव का संचार होता हो वह कार्य सच्चा और पक्का परमार्थ है। वह कार्य निस्संदेह स्वर्ग और मुक्ति की ओर ले जाने वाला होगा, चाहे उस कार्य का बाह्य रूप कैसा ही साधारण या असाधारण, सीधा या विचित्र, छोटा या बड़ा क्यों न हो।

🔵 गृहस्थ संचालन के सम्बन्ध में भी दो दृष्टिकोण हैं। एक तो ममता, मालिकी, अहंकार और स्वार्थ का, दूसरा आत्म-त्याग, सेवा, प्रेम और परमार्थ का। पहला दृष्टिकोण बन्धन, पतन, पाप और नरक की ओर ले जाने वाला है। दूसरा दृष्टिकोण मुक्ति, उत्थान, पुण्य और स्वर्ग को प्रदान करता है। शास्त्रकारों ने, सन्त पुरुषों ने, जिस गृहस्थ की निन्दा की है, बन्धन बताया है और छोड़ देने का आदेश दिया है वह आदेश स्वर्ग मय दृष्टिकोण के सम्बन्ध में है। परमार्थ मय दृष्टिकोण का गृहस्थ तो अत्यन्त उच्चकोटि का आध्यात्मिक साधना है। उसे तो प्रायः सभी ऋषि, मुनि, महात्मा, योगी, यती, तथा देवताओं ने अपनाया है और उसकी सहायता से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। इस मार्ग को अपनाने से उनमें से न तो किसी को बन्धन में पड़ना पड़ा और न नरक में जाना पड़ा

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 26) 7 Dec

🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 जिसके साथ मतभेद हुआ या विवाद चला है, उसके ऊपर एकाएक बरस पड़ने से गुत्थी सुलझती नहीं वरन् और भी अधिक उलझ जाती है। लड़ पड़ना किसी को अपना प्रत्यक्ष शत्रु बना लेना है और इस बात के लिए उत्तेजित करना है कि वह भी बदले में वैसा ही अपमानजनक व्यवहार करे। आक्रोश और प्रतिशोध का एक कुचक्र है जो सहज ही टूटता नहीं।

🔴 क्रोध करके हम दूसरे को कितनी क्षति पहुंचा सके, दबाव देकर अपनी मनमर्जी किस हद तक पूरी कर सके—यह कहना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि उससे अपना रक्त-मांस जलने से लेकर मानसिक संतुलन गड़बड़ाने जैसी कितनी ही हानियां तत्काल होती हैं। गलती किसी की कुछ भी क्यों न हो, पर जब दर्शक किसी को आप से बाहर होते देखते हैं तो उसी को दोषी मानते हैं। जो अपनी शालीनता गंवा चुका उसके साथ किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती। इस प्रकार क्रोधी कारण विशेष पर उत्तेजित होते हुए भी अपने आपको अकारण अपराधी बना लेता है।

🔵 दार्शनिक सोना का मत है कि ‘‘क्रोध शराब की तरह मनुष्य को विचार शून्य और लकवे की तरह शक्तिहीन कर देता है। दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड़ता है उसका सर्वनाश ही करके छोड़ता है।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...