मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

👉 सतयुग की वापसी (भाग 16) 21 Dec

🌹 संवेदना का सरोवर सूखने न दें  

🔴 प्रस्तुत समस्याएँ अगणित हैं। उलझनों, संकटों, विग्रहों का कोई अन्त नहीं। यह सब कहाँ से उत्पन्न होते हैं और क्यों कर निपट सकते हैं? इसकी विवेचना करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मात्र अपने आपे तक, गिने-चुने अपनों तक सीमित रहने वाला किन्हीं अन्यों की चिन्ता नहीं कर सकता और न उदार न्यायनिष्ठा का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में अनाचार के अतिरिक्त और कुछ बन ही न पड़ेगा और उसका प्रतिफल अनेकानेक विग्रहों के रूप में ही आकर रहेगा। यही दुष्प्रवृत्ति जब बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनाई जाती है, तो उसका परिणाम वातावरण को विक्षुब्ध किए बिना नहीं रहता।  

🔵 संवेदना, आत्मीयता के रूप में विकसित होती है। तब मनुष्य दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख, अन्यों के सुख को अपना सुख मानने लगता है। सहानुभूति के रहते ऐसा व्यवहार करना सम्भव नहीं होता है, जिनसे किसी के अधिकारों का अपहरण होता हो अथवा किसी को शोषण का शिकार बनना पड़ता हो। जब प्रचलन इसी प्रकार का रहेगा तो न दुर्व्यवहार ही बन पड़ेगा और न किन्हीं को अकारण त्रास सहना पड़ेगा।

🔴 आमतौर से अपना, अपनों का हितसाधन ही अभीष्ट रहता है। यदि यह आत्मभाव सुविस्तृत होता चला जाए, जनसमुदाय को अपने अंचल में लपेट ले, अन्य प्राणियों को भी अपने कुटुम्बी जैसा माने, अपने जैसा समझे; फिर वैसा ही सोचते रहते बन पड़ेगा, जिससे सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता हो। मात्र आतुरता और निष्ठुरता ही ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जो अनाचार के लिए उकसाती है और उसके फलस्वरूप अगणित संकटों का परिकर विनिर्मित करती है। यदि भाव-संवेदना जीवन्त और सक्रिय बनी रहे तो सृजन और सहयोग के आधार पर उत्थान और कल्याण का सुयोग सर्वत्र ही बन पड़ेगा।   

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 Dec 2016



👉 आज का सद्चिंतन 21 Dec 2016


👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 41) 20 Dec

🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें

🔵 महात्मा गांधी कहा करते थे—‘यदि कोई मुझसे विनोद प्रियता छीन ले तो मैं उसी दिन पागल हो जाऊंगा।’ मुस्कान तथा आह्लाद थकान की दवा है विनोद इनका जनक है। विनोद प्रियता अधिकांश महापुरुषों का गुण रही है। गांधीजी के जीवन का तो यह अनिवार्य पहलू था।

🔴 कलकत्ता में गांधीजी ने खादी प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए कहा—‘आज जो भी खादी खरीदेगा उसका कैशमीमो मैं बनाऊंगा।’ देखते ही देखते खरीददारों की भीड़ एकत्रित हो गई। थोड़ी सी देर में ढाई हजार रुपये की खादी बिक गई।

🔵 आचार्य कृपलानी ने यह चमत्कार देखा तो मजाक में कह उठे—‘लेना-देना कुछ नहीं बनिये ने ढाई हजार रुपये मार लिये।’ गांधीजी कब पीछे रहने वाले थे, चट बोल पड़े—‘यह काम मेरे जैसे बनिये ही कर सकते हैं, प्रोफेसर नहीं।’

🔴 9 अगस्त सन् 1942, प्रातःकाल पुलिस कमिश्नर गांधीजी को गिरफ्तार करने पहुंचा, उन्हें ले जाते हुए पुलिस कमिश्नर ने पास खड़े घनश्यामदास बिड़ला से कहा—‘गांधीजी के लिए आधा सेर बकरी का दूध दिलवा दीजिये।’

🔵 बिड़लाजी ने बापू से पूछा—‘ये लोग आपकी बकरी का दूध मांगते हैं।’ उन्होंने हंसते हुए कहा—‘चार आने धरा लो और दूध दे दो।’

🔴 एक बार एक अंग्रेज पत्रकार ने गांधीजी से पूछा—‘आप देश के महान नेता होकर भी हमेशा रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर क्यों करते हैं?’

🔵 बापू ने उसी क्षण उत्तर दिया—‘इसलिए कि रेल में कोई चौथा दरजा नहीं है।’ पत्रकार यह उत्तर सुनकर सकपका गया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 40) 21 Dec

🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा

🔵 शरीर की भूख बुझाने के लिये जैसे भोजन आवश्यक है उसी प्रकार मानसिक भूख को बुझाने के लिये शिक्षा आवश्यक है। घर के हर व्यक्ति को शिक्षित बनाना चाहिए। जो स्कूल जा सकते हों वे स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें, जिनके लिये यह संभव न हो वे घर पर पढ़ें। बच्चे, जवान या बूढ़े कोई भी क्यों न हों सभी को पढ़ने की रुचि उत्पन्न करनी चाहिये और उसके लिये साधन तथा व्यवस्था का प्रबन्ध करना चाहिए। एक दो घंटे नियमित रूप से गृह पाठशाला चलती रहे। अक्षर ज्ञान हो जाने के उपरान्त ऐसी चुनी हुई पुस्तकें उन्हें देनी चाहिये जिससे शारीरिक, मानसिक, समाजिक, धार्मिक आदि विषयों का आवश्यक ज्ञान क्रमशः बढ़ता रहे।

🔴 जीवन विज्ञान की आवश्यक समस्याओं को वे समझें और उन पर बारीकी के साथ विचार करना सीखें तथा प्रामाणिक व्यक्तियों की उस विषय पर सम्मतियां पढ़ें। रामायण आदि धार्मिक पुस्तकें पढ़ना ठीक है, परन्तु केवल मात्र इतिहास, पुराणों तक ही सीमित न रहना चाहिये। जीवन संग्राम की प्रत्यक्ष समस्याओं को समझना और सुलझाना भी आवश्यक है। यह भी धर्म का ही अंग है। अक्षर ज्ञान शब्द-कोष, व्याकरण आदि द्वारा भाषा का ज्ञान बढ़ाना चाहिये, साथ-साथ आवश्यक विषयों पर सत्संग, विवाद, प्रश्नोत्तर, शंका-समाधान, प्रवचन आदि उपायों की जानकारी, बुद्धिमता, विचार-शक्ति की भी वृद्धि होनी चाहिये। शिक्षा एवं विद्या की वृद्धि का अवसर हर एक को आवश्यक रूप से उसी प्रकार मिलना चाहिये जैसे कि भोजन की व्यवस्था जरूरी होती है।

🔵 स्वास्थ्य और शिक्षा के बाद मनोरंजन का प्रश्न आता है। वह भी एक अनावश्यक प्रश्न है। यदि मनुष्यों को आनन्दित होने, उल्लसित होने, हंसने, प्रसन्न होने, खेलने, मनोविनोद करने का अवसर न मिले तो उसकी मनोभूमि बड़ी कर्कश, चिड़चिड़ी, असहिष्णु और निराशा मय बन जायेगी। जो सदा कोल्हू के बैल की तरह काम में जुते रहते हैं, कैदी की तरह एक नियत क्षेत्र में काम करते रहते हैं, भोजन, मजूरी और निद्रा यही तीन कार्यक्रम जिनके रहते हैं उनकी मानसिक चेतना की सरसता धीरे धीरे सूखती जाती है और वे भीतर बाहर से अनुदार, विरोधी, दोषारोपण करने वाले, अविश्वासी, डरपोक और कायर बन जाते हैं। ऐसे लोगों को दुनियां के प्रति सदा अविश्वास और असन्तोष रहता है। इन प्रवृत्तियों के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होने लगता है, आयु घटने लगती है और बुढ़ापा घेर लेता है।

🌹 *क्रमशः जारी*
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 53)

🌹 कला और उसका सदुपयोग

🔴 दया, करुणा, सेवा, उदारता सहयोग परमार्थ न्याय, संयम और विवेक की भावनाओं का जन मानस में जगाया जाना संसार की सबसे बड़ी सेवा हो सकती है। निष्ठुरता, संकीर्णता और स्वार्थपरता ने ही इस विश्व को नरक बनाया है। यदि यहां स्वर्गीय वातावरण की स्थापना करनी हो तो उसका एक ही उपाय है कि मानवीय अन्तस्तल को निम्न स्तर का न रहने दिया जाय। उसकी प्रसुप्त सद्भावनाओं को जगाया जाय। भावनाशील व्यक्तियों को ही देवता कहा जाता है। जहां देवता स्वभाव के व्यक्ति रहते हैं, वहां ही स्वर्गीय शान्ति और समृद्धि रहती है।

सद्भावनाओं के जगाने वाले और इस दिशा में कुछ ठोस प्रेरणा देने वाले कार्यक्रम नीचे दिये हैं:—

🔵 77. सेवा कार्यों में अभिरुचि—
व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से ऐसे सेवा कार्यों का कुछ न कुछ आयोजन होते रहना चाहिए, जिससे आवश्यकता वाले व्यक्तियों की कुछ सहायता होती रहे और दुखियों को सुख मिले। ईसाई मिशनों में हर जगह चिकित्सा कार्यों को स्थान रहता है। प्राचीन काल में बौद्ध विहारों में भी ऐसी व्यवस्था रहती थी। रामकृष्ण परमहंस मिशन ने भी ऐसे ही चिकित्सालय जगह-जगह बनाये हैं। हम लोग ‘‘तुलसी के अमृतोपम गुण’’ पुस्तक के आधार पर तुलसी के पत्तों में कुछ साधारण वस्तुएं मिला कर औषधियां बना सकते हैं और उनसे अन्य प्रकार की औषधियों की अपेक्षा कहीं अधिक रोगियों की सेवा कर सकते हैं। तुलसी के पौधे बोने और थोड़ा-सा खर्च करने से इस प्रकार की हानि रहित चिकित्सा का क्रम हर जगह चल सकता है। सूर्य चिकित्सा की विधि भी इस दृष्टि से बड़ी उपयोगी हो सकती है।

🔴 सेवा-समितियां जिस प्रकार मेलों का प्रबन्ध, महामारी, दुर्घटना आदि से ग्रस्त लोगों की सहायता या दूसरे प्रकार के सेवा कार्य करती हैं, वैसे ही जन-हित के कोई कार्य हमें भी करते रहने चाहिए ताकि सद्भावनाओं को जगाने में सहायता मिले। अपंग भिक्षुओं के लिए निर्वाह साधन बनाने के प्रबन्ध भी उपयोगी रहेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 21)

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵 एक ही व्यक्ति कई लोगों को कई प्रकार का दिखाई पड़ता है। माता उसे स्नेह भाजन मानती है, पिता आज्ञाकारी पुत्र मानता है, गुरु सुयोग्य शिष्य समझता है, मित्र हँसोड़ साथी समझते हैं, स्त्री प्राणवल्लभ मानती है, पुत्र उसे पिता समझता है, शत्रु वध करने योग्य समझता है, दुकानदार ग्राहक समझता है, नौकर मालिक मानता है, घोड़ा सवार समझता है, पालतू सुग्गा उसे कैदी बनाने वाला जेलर दीखता है। खटमल, पिस्सू उसे स्वादिष्ट खून से भरा हुआ कोठा समझते हैं। यदि इन सभी सम्बन्धियों की माता, पिता, गुरु, मित्र, स्त्री, पुत्र, शत्रु, दुकानदार, नौकर, घोड़ा, सुग्गा, खटमल, पिस्सू आदि की उन मानसिक भावनाओं का चित्र आपको दिखाया जा सके तो आप देखेंगे कि उस एक ही व्यक्ति के सम्बन्ध में यह सब सम्बन्धी कैसी-कैसी विचित्र कल्पना किए हुए हैं, जो एक-दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलतीं।
 
🔴 इनमें से एक भी कल्पना ऐसी नहीं है, जो उस व्यक्ति के ठीक-ठीक और पूरे स्वरूप को प्रकट करती हो। जिसे उससे जितना एवं जैसा काम पड़ता है, वह उसके सम्बन्ध में वैसी ही कल्पना कर लेता है। तमाशा तो यह है कि वह मनुष्य स्वयं भी अपने बारे में एक ऐसी कल्पना किए हुए है। मैं वेश्या हूँ, लखपति हूँ, वृद्ध हूँ, पुत्र रहित हूँ, कुरूप हूँ, गण्यमान्य हूँ, दुःखी हूँ, बुरे लोगों से घिरा हुआ हूँ, आदि नाना प्रकार की कल्पनाएँ कर लेता है और उस कल्पना लोक में जीवन भर विचरण करता रहता है। जैसे दूसरे लोग उसके बारे में अपने मतलब की कल्पना कर लेते हैं, वैसे ही मन भी अपने बारे में इंद्रियों की अनुभूति के आधार पर अपने सम्बन्ध में एक लँगड़ी-लूली कल्पना कर लेता है और उसी कल्पना में लोग नशेबाज की तरह उड़ते रहते हैं। ‘‘मैं क्या हूँ?’’ इस मर्म को यदि वह किसी दिन समझ पाए, तो जाने कि मैंने अपने बारे में कितनी गलत धारणा बना रखी थी।   

🔵 लोग ऐसी ही अपनी-अपनी भावुकता पूर्ण मानसिक उड़ान के हवाई घोड़ों पर चढ़कर सच्चाई के बहुत ऊँचे आकाश में उड़ते रहते हैं और उसी नशे में कोई मन के लड्डू खाया करता है। कोई मन के चने चबाया करता है, कोई शराबी सामने वाली दीवार को गालियाँ देकर अपना सिर फोड़ रहा है और कोई कुत्ते के बाहुपाश में कशकर प्रियतमा को चुंबन-आलिंगन का मजा ले रहा है। हम लोग अज्ञान के नशे में सो रहे हैं। किसी को महलों के सपने आ रहे हैं, कोई भयंकर दुःस्वप्न देखकर भयभीत हो रहा है। किसी शेखचिल्ली की शादी हो रही है, कोई पगला अमीरी और बादशाही बघार रहा है। दुनियाँ के पागल खाने में तरह-तरह की खोपड़ियाँ डोल रही हैं। यह सभी मूर्तियाँ अपने ढंग की विचित्र हैं, सभी अपने को होशियार मान रहे हैं। आप कभी पागलखाने देखने गए हों और अधिक समय तक वहाँ बंद रहने वाले ‘‘बुद्धिमानों’’ की बातें सुनी हों, तो आसानी से दुनियाँदार लोगों के उन स्वप्नों की तुलना कर सकते हैं, जो कि वे दुनियाँ के बारे में सोते समय देखते रहते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "हमारी वसीयत और विरासत" (भाग 2)

🌞 इस जीवन यात्रा के गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता

🔴 हमारी जीवन गाथा सब जिज्ञासुओं के लिए एक प्रकाश स्तम्भ का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है। छद्म जैसा कुछ उसमें है नहीं, असफलता का लाँछन भी उन पर नहीं लगता। ऐसी दशा में जो गंभीरता से समझने का प्रयत्न करेगा कि सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग हो सकता था, शार्टकट के फेर में भ्रम जंजाल न अपनाए गए होते, तो निराशा, खीज़ और थकान हाथ न लगती, तब या तो मँहगा समझकर हाथ ही न डाला जाता, यदि पाना ही था, तो उसका मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता। ऐसा अवसर उन्हें मिला नहीं, इसी को दुर्भाग्य कह सकते हैं। यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता, उसके साथ-साथ आदि से अंत तक गुँथे हुए अध्यात्म तत्त्व-दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही प्रच्छन्न भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है।

🔵 एक और वर्ग है-विवेक दृष्टि वाले यथार्थवादियों का। वे ऋषि परम्परा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे आत्मबल के धनी थे। उन विभूतियों से उनने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था। भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि वास्तविक स्वरूप और विधान क्या है? कहने को तो हर कुंजड़ी अपने बेरों को मीठा बताती है, पर कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन कितने पानी में है ?

🔴 सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना चाहिए। इस आधार पर जिन्हें ऋषि परम्परा के अध्यात्म का स्वरूप समझना हो, उन्हें निजी अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अंत तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत साठ वर्षों में प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी खुली पुस्तक की तरह सामने हैं। इन पर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से जो प्रभावित है, उसका पुनर्जीवन देखना चाहते हैं, प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण, संतोषप्रद और समाधान कारक लगता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 2)

🌞 पुस्तक परिचय

🔴 उन दिनों '' साधक की डायरी के पृष्ठ '' '' सुनसान के सहचर'' आदि शीर्षकों से जो लेख '' अखण्ड- ज्योति '' पत्रिका में छपे, वे लोगों को बहुत रुचे। बात पुरानी हो गई पर अभी लोग उन्हें पढ़ने के लिए उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत है। घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया, पर उन दिनों जो अनुभूतियाँ उठतीं, वे शाश्वत है। उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिए भावनाशील अन्तः करणों को वे अनुभूतियाँ अभी भी हमारी ही तरह स्पंदित कर सकेगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

🔵 एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है- ''हिमालय के हृदय का विवेचन- विश्लेषण। '' बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग ४०० मील परिधि का वह स्थान है, जो प्राय: सभी देवताओं और ऋषियों का तप केन्द्र रहा है। इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग कथाओं के जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास- भूगोल से संगति मिलाई जाये तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं और उस बात में बहुत वजन मालूम पड़ता है, जिसमें इन्द्र के शासन एवं आर्ष- सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बताया गया है। अब वहाँ बर्फ बहुत पड़ने लगी है। ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहाँ आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवास- स्थान बना सके। इसलिए आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण, गंगोत्री, गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गयी है।

🔴 ''हिमालय के हृदय'' क्षेत्र में जहाँ प्राचीन स्वर्ग की विशेषता विद्यमान है वहाँ तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है। हमारे मार्गदर्शक वहाँ रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्त करते हैं। कुछ समय के लिए हमें भी उस स्थान पर का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये। सो इनका जितना दर्शन हो सका, उसका वर्णन अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है। उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे आत्म- शक्ति का ध्रुव कहा जा सकता है। धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियों हैं। अध्यात्म शक्ति का एक ध्रुव हमारी समझ में आया। जिसमें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भरी पड़ी है। सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्ध पुरुषों की  दृष्टि से भी।

🔵 इस दिव्य केन्द्र की और लोगों का ध्यान बना रहे, इस दृष्टि से उसका परिचय तो रहना ही चाहिए, इस दृष्टि से उस जानकारी को मूल्यवान् ही कहा जा सकता है । ब्रह्मवर्चस, शान्तिकुंज, गायत्री नगर का निर्माण उत्तराखण्ड के द्वार में करने का उद्देश्य यही रहा है । जो लोग यहाँ आते हैं, उनने असीम शान्ति प्राप्ति की है । भविष्य में उसका महत्त्व असाधारण होने जा रहा है । उन सम्भावनाओं को व्यक्त तो नहीं किया जा रहा है । अगले दिनों उनसे लोग चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे ।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar.2

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 40) 20 Dec

🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें

🔵 मनुष्य के पसीने में सम्पदायें भरी हुई हैं और पसीने की बूंदों के साथ सम्पदायें टपकती हैं। रुचिपूर्वक आज के कामों में संलग्न होने से बढ़कर तत्काल आनन्द प्राप्त करने का और कोई तरीका नहीं है।

🔴 जिन्हें जीवन से सचमुच प्यार है और वे उस उपलब्धि का बढ़ा-चढ़ा रसास्वादन करना चाहते हैं, उनके लिए जीवन विज्ञानियों का एक ही परामर्श है कि अपनी मस्ती किसी भी कीमत पर न बेची जाय अपनी स्वतन्त्रता में विवेक के अतिरिक्त और किसी को भी हस्तक्षेप न करने दिया जाय।

🔵 अनुकूल परिस्थितियां, लोगों की अनुकम्पायें, समृद्धि की संभावनाओं की आशा रखने में कोई हर्ज नहीं, पर हिम्मत एकाकी चल पड़ने की होनी चाहिए। हमारा सन्तोष और आनन्द इस बात पर केन्द्रित रहना चाहिए कि हमने भले काम किये, दायित्व निभायें और जो किया उसमें पूरा श्रम और मनोयोग लगाया। इस आधार पर हम हर घड़ी प्रमुदित रह सकते हैं भले ही परिणाम इच्छा के अनुरूप हों या प्रतिकूल।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 52)

🌹 कला और उसका सदुपयोग

🔴 75. नाटक और एकांकी— सामूहिक खुले लीला अभिनयों की भांति ही उनका सुधरा और अधिक सुन्दर रूप नाटक मण्डलियों के रूप में बनता है। रासलीलाओं का वर्तमान रूप वैसा ही है। बड़ी नाटक मण्डलियों की बात यहां नहीं की जा रही है। थोड़े से उपकरणों का रंगमंच बनाकर अनेक महापुरुषों के जीवनों की श्रेष्ठ घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों तथा सामाजिक स्थिति का चित्रण करने वाले नाटकों की व्यवस्था करके उन्हें साधारण जनता के मनोरंजन का माध्यम बनाया जा सकता है। ऐसी मण्डलियां व्यवसायिक आधार पर गठित हो सकती हैं। जन स्थिति के अनुरूप खर्च वसूल करके उन्हें सस्ता और लोक प्रिय बनाया जा सकता है।

🔵 छोटे-मोटे आयोजनों में एकांकी अभिनय भी बड़े रोचक और मनोरंजक होते हैं। विद्यालयों में एकांकी अभिनय बड़े सफल होते हैं, उन्हें दूसरे आयोजनों पर भी प्रदर्शित किया जा सकता है। ऐसे एकांकी एवं नाटक लिखे और प्रदर्शित किए जाने चाहिए जो नैतिक एवं विचार क्रान्ति में आवश्यक योगदान दे सकें।

🔴 76. कला के वैज्ञानिक माध्यम— विज्ञान के माध्यम से कुछ कलात्मक माध्यमों का इतना विकास हो गया है कि उनका उपयोग तो जनता करती है पर निर्माण ऊंचे स्तर पर ही हो सकता है। ग्रामोफोन के रिकार्ड और सिनेमा फिल्में इसी प्रकार के दो माध्यम हैं, जिनने जनमानस पर भारी प्रभाव डाला है। ग्रामोफोन का प्रचलन तो रेडियो के विस्तार से घट गया है, पर उत्सवों के अवसरों पर लाउडस्पीकरों द्वारा रिकार्ड अभी भी बजाये जाते हैं और उन्हें लाखों व्यक्ति प्रतिदिन सुनते हैं। इसी प्रकार देश भर में हजारों सिनेमा-घर हैं, जिनमें लाखों फिल्में चल जाती हैं। इन्हें भी करोड़ों व्यक्ति हर साल देखते हैं और जैसे भी संस्कार उन दृश्यों में होते हैं उन्हें देखने वाले ग्रहण करते हैं। मानवीय मस्तिष्क को प्रभावित करने के लिए विज्ञान की यह दो बड़ी कलात्मक देन हैं। पर खेद इसी बात का है कि इनका दुरुपयोग ही अधिक होता है। यदि इनका सदुपयोग हो सका होता तो जन-जागृति एवं चरित्र-निर्माण में भारी योग मिला होता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 39) 20 Dec

🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा

🔵 समय को फिजूल कार्यों में से बचा कर शरीर वस्त्र और मकान को साफ, निर्मल एवं उज्ज्वल रखा जा सकता है। यदि असमानता और पक्षपात चलता रहे तो अमीरी में भी कलह, वैमनस्य और दुर्भाव रहेंगे। यदि निष्पक्षता, समानता और आत्म त्याग रहे तो गरीबी में भी प्रेम एवं संतोष का जीवन व्यतीत होगा। दुनियां में बहुत से अमीर हैं, ठाट-बाट से रहते हैं, शान-शौकत रखते हैं, मौज मजा करते हैं, उनके ऐश-आराम और रहन-सहन की नकल करने की जरूरत नहीं, उनकी तीक्ष्ण बुद्धि, चतुरता, परिश्रम शीलता और जागरूकता की नकल करनी चाहिये, जिन गुणों से उन्हें वैभव मिला है उन गुणों की तरफ देखना चाहिए, उनकी दूषित नीति या फैशनपरस्ती के दोषों को अपनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। सादगी और गरीबी पारिवारिक आनन्द को कायम रखने में किसी प्रकार बाधक नहीं हो सकती। 

🔴 स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन तथा भविष्य-निर्माण का हर एक को अवसर मिलना चाहिये। यह देखते रहना चाहिए कि किसी के ऊपर ऐसा शारीरिक या मानसिक दबाव तो नहीं पड़ रहा है, जिसके कारण उसका स्वास्थ्य नष्ट होता हो। आहार विहार के असंयम के कारण कोई अपने को अस्वस्थता के मार्ग पर तो नहीं बढ़ाये लिये जा रहा है यह ध्यान रखने की बात है। यदि बहुमूल्य, बढ़िया, पौष्टिक भोजन प्राप्त न होता हो, मोटा खोटा खाकर गुजारा करना पड़ता हो तो इसमें कोई चिन्ता की बात नहीं, इससे स्वास्थ्य नष्ट नहीं हो सकता, आहार विहार की व्यवस्था ही वह दोष है जिसके कारण स्वास्थ्य नष्ट होता है। 

🔵 कीमती से कीमती भोजन इस दोष से होने वाले नुकसान को पूरा नहीं कर सकता। भोजन, शयन, व्यायाम, मल त्याग, स्नान सफाई, ब्रह्मचर्य, नियत-परिश्रम आदि का ध्यान रखा जाय तो अस्वस्थता से बचा रहा जा सकता है। यदि कभी बीमारी का अवसर आवे और रोग साधारण हो तो बड़े बड़े डाक्टरों की लम्बी फीसें चुकाने और विलायती दवाओं के लिये घर खाली कर देने की आवश्यकता नहीं है। किसी अनुभवी और सहृदय व्यक्ति की सलाह से मामूली दवादारू के द्वारा रोग-निवारण की कोशिश करनी चाहिये। तेज और जहरीली दवाओं की भरमार से उस समय तो लाभ हो जाता है पर पीछे अनेक उपद्रव उठ खड़े होते हैं। इसलिये उपवास, फलाहार एवं मामूली चिकित्सा से रोग को दूर करना चाहिए। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 20)

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता

🔵 मनुष्यों को नाना प्रकार के दुःखों में रोते हुए और नाना प्रकार के सुखों में इतराते हुए हम देखते हैं। ‘‘दुनियाँ बहुत बुरी है, यह जमाना बड़ा खराब है, ईमानदारी का युग चला गया, चारों ओर बेईमानी छाई हुई है, सब लोग धोखेबाज हैं, धर्म धरती पर से उठ गया।’’ ऐसी उक्तियाँ जो आदमी बार-बार दुहराता है, समझ लीजिए कि वह खुद धोखेबाज और बेईमान है। इसकी इच्छित वस्तुएँ इसके चारों ओर इकट्ठी हो गई हैं और उनकी सहायता से सुव्यवस्थित कल्पना चित्र इसके मन पर अंकित हो गया है। जो व्यक्ति यह कहा करता है दुनियाँ में कुछ काम नहीं है, बेकारी का बाजार गर्म है, उद्योग धंधे उठ गए, अच्छे काम मिलते ही नहीं, समझ लीजिए कि इसकी अयोग्यता इसके चेहरे पर छाई हुई है और जहाँ जाता है, वहाँ के दपर्ण में अपना मुख देख आता है। जिसे दुनियाँ स्वार्थी, कपटी, दम्भी, दुःखमय, कलुषित, दुर्गुणी, असभ्य दिखाई पड़ती है, समझ लीजिए कि इसके अंतर में इन्हीं गुणों का बाहुल्य है। दुनियाँ एक लम्बा-चौड़ा बहुत बढ़िया बिल्लौरी काँच का चमकदार दर्पण है, इसमें अपना मुँह हूबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा है, इसके लिए त्रिगुणमयी सृष्टि में से वैसे ही तत्त्व निकल कर आगे आ जाते हैं।    
   
🔴 क्रोधी मनुष्य जहाँ जाएगा, कोई न कोई लड़ने वाला उसे मिल ही जाएगा। घृणा करने वाले को कोई न कोई घृणित वस्तु मिल ही जाएगी। अन्यायी मनुष्य को सब लोग बड़े बेहूदे, असभ्य और दण्ड देने योग्य दिखाई पड़ते हैं। होता यह है कि अपनी मनोभावनाओं को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा समझता है जैसा वह स्वयं है। साधुओं को असाध्वी स्त्रियों से पाला नहीं पड़ता, विद्याभ्यासियों को सद्ज्ञान मिल ही जाता है, जिज्ञासुयों की ज्ञान पिपासा पूरी होती ही है, सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरतता रहता है। 

🔵 हमारा यह कहने का तात्पर्य कभी नहीं है कि दुनियाँ दूध से धुली हुई है और आप अपने दृष्टि दोष से ही उसे बुरा समझ बैठते हैं। पीछे की पंक्तियों में यह बार-बार दुहराया जा चुका है कि दुनियाँ त्रिगुणमयी है। हर एक वस्तु तीन गुणों से बनी हुई है। उसमें आपसे छोटे दर्जे के बच्चे भी पढ़ते हैं आपकी सम कक्षा में पढ़ने वाले भी हैं और वे भी हैं जो आपसे बहुत आगे हैं। तीनों ही किस्म के लोग यहाँ हैं । सतोगुणी वे विद्यार्थी हैं, जो आपसे ऊँची कक्षा के हैं, रजोगुणी वे हैं, जो सम कक्षा में पढ़ रहे हैं, तमोगुणी पिछली कक्षा वाले को कह सकते हैं। डाकू की तुलना में चोर सतोगुणी है, क्योंकि डाकू की अपेक्षा चोर में उदारता के कुछ अंश अधिक हैं, किंतु चोर और डाकू दोनों से श्रमजीवी मजदूर ऊँचा है, उससे ब्राह्मण बड़ा है और ब्राह्मण से साधु बड़ा है। डाकू से साधु बहुत ऊँचा है, पर जीवनमुक्त आत्माओं से साधु भी उतना ही नीचा है, जितना साधु से डाकू। यह डाकू क्या सबसे नीचा है, नहीं, सर्प से वह भी ऊँचा है। 

🔴 सर्प अपनी सर्पिनी के लिए उदार है, डाकू अपने परिवार में उदारता बरतता है, चोर अपने परिचित के यहाँ चोरी नहीं करता, ब्राह्मण अपनी जाति के कल्याण में दत्तचित्त रहता है, साधु मानव मात्र से उदारता करता है, जीवन मुक्तों को मनुष्य या चींटी के बीच कुछ अंतर दिखाई नहीं पड़ता। वह सर्वत्र एक ही आत्मा को देखता है। तात्पर्य यह कि परमपद पाने से पूर्व हर एक प्राणी अपूर्ण है, उसमें नीच स्वभाव कुछ न कुछ रहेगा ही। जिस दिन सारी नीचता समाप्त हो जाएगी, उस दिन तो वह उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुचकर चरम ध्येय को ही प्राप्त कर लेगा। सृष्टि का हर प्राणी आज के वर्तमान स्वरूप में अपूर्ण है। अपूर्ण का अर्थ है-सदोष। बेशक सब मिलाकर दोष से गुण ज्यादा हैं। अधर्म बेशक मौजूद है, पर उससे धर्म ज्यादा है, अंधेरा बहुत ज्यादा है, पर उससे प्रकाश ज्यादा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "हमारी वसीयत और विरासत" (भाग 1)

🌞 इस जीवन यात्रा के गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता

🔴 जिन्हें भले या बुरे क्षेत्रों में विशिष्ट व्यक्ति समझा जाता है, उनकी जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए घटनाक्रमों को भी जानने की इच्छा होती है। कौतूहल के अतिरिक्त इसमें एक भाव ऐसा भी होता है, जिसके सहारे कोई अपने काम आने वाली बात मिल सके। जो हो कथा-साहित्य से जीवनचर्याओं का सघन सम्बन्ध है। वे रोचक भी लगती हैं और अनुभव प्रदान करने की दृष्टि से उपयोगी भी होती हैं।

🔵 हमारे सम्बन्ध में प्रायः आये दिन लोग ऐसी पूछताछ करते रहे हैं, पर उसे आमतौर पर टालते ही रहा गया है। तो प्रत्यक्ष क्रियाकलाप हैं, वे सबके समाने हैं। लोग तो जादू चमत्कार जानना चाहते हैं। हमारे सिद्ध पुरुष होने-अनेकानेक व्यक्तियों को सहज ही हमारे सामीप्य अनुदानों से लाभान्वित होने से उन रहस्यों को जानने की उनकी उत्सुकता है। वस्तुतः जीवित रहते तो वे सभी किम्वदन्तियां ही बनी रहेंगी, क्योंकि हमने प्रतिबन्ध लगा रखा है कि ऐसी बातें रहस्य के पर्दे में ही रहें। यदि उस दृष्टि से कोई हमारी जीवनचर्या पढ़ना चाहता हो तो उसे पहले हमारी जीवनचर्या के तत्वदर्शन को समझना चाहिए। कुछ अलौकिक विलक्षण खोजने वालों को भी हमारे जीवन क्रम को पढ़ने से संभवतः नई दिशा मिलेगी।

🔴 प्रस्तुत जीवन वृत्तान्त में कौतूहल व अतिवाद न होते हुए भी वैसा सारगर्भित बहुत कुछ है, जिससे अध्यात्म विज्ञान के वास्तविक स्वरूप और उसके सुनिश्चित प्रतिफल को समझने में सहायता मिलती है। उसका सही रूप विदित न होने के कारण लोग-बाग इतनी भ्रान्तियों में फंसते हैं कि भटकाव जन्य निराशा से वे श्रद्धा ही खो बैठते हैं और इसे पाखंड मानने लगते हैं। इन दिनों ऐसे प्रच्छन्न नास्तिकों की संख्या अत्यधिक है जिनने कभी उत्साहपूर्वक पूजा-पत्री की थी- अब ज्यों-त्यों करके चिन्ह पूजा करते हैं। तो भी अब लकीर पीटने की तरह अभ्यास के वशीभूत हो करते हैं। आनन्द और उत्साह सब कुछ गुम गया। ऐसा असफलता के हाथ लगने के कारण हुआ। उपासना की परिणतियां-फलश्रुति पढ़ी-सुनी गई थीं। उसमें से कोई कसौटी पर खरी नहीं उतरी तो विश्वास टिकता भी कैसे?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 1)

🌞 पुस्तक परिचय

🔴 इसे एक सौभाग्य,संयोग ही कहना चाहिए कि जीवन को आरम्भ से अंत तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। उस मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिए वे ऐसे थे जिनमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ- साथ लोक- मंगल का महान प्रयोजन भी जुड़ा है।  

🔵 15 वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई। इधर से भी यह प्रयत्न हुए कि महान गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाय। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म-समर्पण ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएं उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गई। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य और कार्यान्वित किया गया। अपना यही क्रम अब तक चला रहा है। अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक कठपुतली की उछल-कूल कहा जाय तो उचित विश्लेषण ही होगा।

🔴 पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कार मिलन हुआ। उसे ही विलय भी कहा जा सकता है। आरम्भ में 24 वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप 24 गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिये प्रचार और संगठन, लेखन, भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। 4 हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ तन्त्र बनकर खड़ा हो गया, जिससे नवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊंची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिये फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिये, जहां अभी भी आत्म-चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था।

🔵 सन् 58 में एक वर्ष के लिये हिमालय तपश्चर्या के लिये प्रयाण हुआ। गंगोत्री में भागीरथ के तपस्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तपस्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई। भागीरथ की तपस्या गंगावरण को और परशुराम की तपस्या दिग्विजयी महापरशु प्रस्तुत कर सकी थी। नवनिर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धाबिन्दु काम आ सके तो वह उसे भी साधना की सफलता ही कहा जा सकेगा।

🔴 उस एक वर्षीय तप साधना के लिये गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठते रहे। जहां-जहां रहना हुआ, वहां-वहां भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। लिखने का व्यसन रहने से उन प्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं, जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठायें। उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेज दिया गया। छप गईं। अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं भी छपाई गई।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...