मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 01 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 01 March 2017


👉 गुरुदेव ने मेरी दृष्टि बदल दी

🔵 दिसम्बर का महीना था। वातावरण में हल्की फुल्की ठण्डक थी। बाहर का वातावरण बहुत ही खुशनुमा बना हुआ था। उस खुशी की धूप हमारे परिवार में भी छाई हुई थी। हमारी अधीर प्रतीक्षा को विराम देते हुए नर्स ने आकर सूचना दी- लड़का हुआ है। हम सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे। चूँकि बच्चा सिजरियन विधि से हो रहा था, इसलिए हम सभी चिंतित थे। नर्स के पीछे- पीछे एक हृष्ट- पुष्ट बच्चे को हाथों में लिए परिचारिका आई। उसके हाथ में बँधे नम्बर टैग को दिखाते हुए नर्स ने कहा- इस नम्बर को याद रखेंगे। अभी हम उसे आँख भर देख भी नहीं पाए थे कि परिचारिका उसे लेकर अंदर चली गई। साथ के सभी मित्र- परिजन एक दूसरे को बधाई देने लगे। किसी ने मिठाई मँगवाने की फरमाइश की। इन्कार का सवाल ही नहीं था। मैंने जेब से तत्काल रुपये निकालकर दे दिए। हृदय आनन्द से इस तरह आप्लावित था। कि कोई आसमान के तारे तोड़ लाने को कहते तो मैं उसके लिए भी चल पड़ता।

🔴 अभी अस्पताल की बहुत सारी औपचारिकताएँ पूरी होनी थी, इसलिए बाकी लोगों को वहीं छोड़ मैं वापस आ गया। बहुत सारे काम करने थे, सभी लोगों को खबर देनी थी। मैं अपनी व्यस्तता में खो गया। जब फुर्सत मिली तो सायंकालीन संध्या वंदन का समय हो चला था। अस्ताचलगामी दिवाकर की ओर देख मैं मन- ही कृतज्ञता से भर उठा। उसी समय अचानक अस्पताल से खबर मिली बच्चे की हालत गम्भीर है। इन्क्युबेटर में रखा गया है, ऑक्सीजन दिया जा रहा है।  

🔵 मैं सकते में आ गया। सहसा विश्वास नहीं कर सका। अभी दोपहर को ही स्वस्थ बच्चा देखकर आया था। इसी बीच ऐसा कैसे हो गया। घर में (ससुराल में) लोगों को बताया तो वहाँ रोना- धोना मच गया। पर मेरे पास तो रोने का भी अवसर नहीं था। मैं भागता हुआ अस्पताल पहुँचा। वहाँ डाक्टरों ने बताया बच्चे के नाक और मुँह से पानी आ रहा है। श्वास लेने में कठिनाई हो रही है। हम हर संभव प्रयास कर रहे हैं। ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि हमारा प्रयास सफल हो। अभी 72 घंटे के बाद ही कुछ कहने की स्थिति बन पाएगी। चिन्तित होकर मैंने माताजी की ओर देखा। वे लोग भी चिन्तित थे। पर उन्हें अपने गुरु पर अटूट भरोसा था। माता- पिता (ससुराल के) गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा से दीक्षित थे। मेरा मनोबल बढ़ाते हुए पिताजी ने कहा- बेटा चिन्ता मत कर, गुरुदेव जो करेंगे, भले के लिए ही करेंगे।

🔴 आज इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरी आँखें नम हो रही हैं, पर उस रात मैं रोया नहीं था। पिताजी के कहे वे शब्द मेरे अन्तर में उतरते चले गए। गहन अंतराल में कहीं ये शब्द बार- बार बज रहे थे। इन्हीं शब्दों में डूबते- उतराते खुली आँखों में ही रात बिता दी।

🔵 अगले दिन शाम को एक जूनियर डॉक्टर ने मुझे एकान्त में बुलाकर कहा- देखिए आप बच्चे के पिता हैं, आपको बता दूँ- यह एक हारा हुआ केस है। शायद उन्हें लगा होगा, माताजी के सामने ये बातें बताने पर वे रोने- बिलखने लगेंगी। लेकिन मैं उनके संयमित स्वभाव से परिचित था। मैंने उनको बताया कि डॉक्टर ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने शान्त स्वर में कहा- गुरुदेव हमारे साथ हैं, हम लोग अन्त तक कोशिश करेंगे।

🔴 शाम ६.३० बजे एक नर्स के सत्परामर्श पर हम सभी बच्चे को लेकर शिशु रोगों के लिए प्रसिद्ध फोटो पार्क नर्सिंग होम ले जाने के लिए तैयार हुए। वहाँ पहुँचने तक यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए मैंने अस्पताल से इन्क्युबेटर देने का आग्रह किया, लेकिन वह उपलब्ध न हो सका। बच्चे को गोद में लेकर एक एम्बुलेंस में बैठ गया। इतने छोटे बच्चे को ऑक्सीजन मास्क लगाना संभव नहीं था। एक नर्स ने थिस्ल टिप के बदले कागज का टिप बनाकर ऑक्सीजन पाइप को उसमें लगाकर मुझे पकड़ाते हुए कहा- इसे बच्चे के नाक के पास पकड़े रहें।

🔵 एम्बुलेंस तेजी से बढ़ती जा रही थी, सभी अन्य वाहन उसे रास्ता छोड़ते जाते। मैं बच्चे को एकटक निहार रहा था, कैसे निस्तब्ध सा पड़ा है मेरी गोद में...। इससे आगे मैं सोच नहीं पाता। पीछे की सीट पर माँ और पिताजी (सासू माँ और ससुर जी) बैठे थे। उनके मौन जप का क्रम निरंतर जारी था। गुरु जी के प्रति उनकी अपार श्रद्धा ही शायद मेरे बच्चे का जीवन लौटा लाए। मैंने भी आँखें मूँद लीं। ‘हे गुरुदेव, इतने छोटे बच्चे को इतना कष्ट क्यों’! मन- ही इतना कहते हुए मेरी आँखों में आँसू छलक आए; और एक बूँद टपक कर बच्चे के देह पर गिरा। यही वह क्षण था- पूरे अन्तर्मन को मथता हुआ एक विचार कौंधा, जितने अपनेपन से मैं इस बच्चे के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ, सबके लिए प्रार्थना करते समय भी मुझमें इतना ही अपनापन होना चाहिए। इस विचार- तरंग के बाद रुलाई स्वतः बंद हो गई। मन जैसे कोई अवलंबन पाकर निश्चिन्त सा हो गया कि सबका भला- बुरा देखने वाला एक है। जो होगा अच्छा ही होगा।

🔴 इन्हीं विचारों के उधेड़- बुन में एम्बुलेंस पार्क नर्सिंग होम पहुँच गई। वहाँ पहुँचते ही बच्चे को जाँच के लिए उपयुक्त कक्ष में ले जाया गया। १५ मिनट बाद हमें बताया गया कि बच्चे का एक नासाछिद्र पूरा बन्द है और एक आंशिक रूप से खुला हुआ है। नाक- मुँह से पानी बहने का यही कारण है। ठुड्डी भी छोटी है तथा फेरेञ्जियल पैरालिसिस हो गया है। जिसके कारण श्वास- नली और भोजन नली का सम्पर्क ठीक से नहीं बन पा रहा है। इसलिए बच्चा कुछ भी निगलने में असमर्थ है। दो विशिष्ट चिकित्सक डॉ० अशोक घोष (सर्जरी) और डॉ० अशोक राय (मेडिसिन) की देख- रेख में इलाज शुरू हुआ। यहाँ हाइजीनिक कारणों से बाहरी कोई वस्तु अन्दर ले जाने पर पाबन्दी थी। मैं अगले दिन गुरु देव का दिया हुआ ताबीज लेकर गया। नियम जानते हुए भी मुझसे रहा नहीं गया। बच्चे की देख−भाल करने वाली नर्स मणिमाला को बुलाकर मैंने अनुनय भरे स्वर में पूछा- आप मेरे गुरुदेव द्वारा दिए हुए इस ताबीज को मेरे बेटे के माथे से स्पर्श कराकर ला देंगी? उसने मुस्कुराते हुए ताबीज ले ली। थोड़ी देर बाद वापस करते हुए उसने कहा- वैसे मेरे हाथ से आज तक कोई केस खराब नहीं हुआ है; फिर भी आपके इच्छानुसार मैंने इस ताबीज को बच्चे के सारे शरीर में स्पर्श करा दिया है। सब कुछ करने वाले तो वही हैं, हम तो केवल प्रयास भर करते हैं।

🔵 इसी तरह प्रतिदिन शाम को बच्चे को ताबीज का स्पर्श कराता रहा। चौथे दिन डॉ० घोष से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने गुरु देव के विषय में भी जानना चाहा। मेरे बताने पर उन्होंने कहा- अब बच्चे को मेरे इलाज की आवश्यकता नहीं। भविष्य में कभी (४- ५ साल बाद) जरूरत पड़े तो मेरे पास अवश्य आएँ। उन्होंने अपना सेवा शुल्क (प्रति विजिट ५००/- रुपये) लेने से मना करते हुए कहा कि सर्जरी की जरूरत ही नहीं पड़ी। नाक के छिद्र स्वतः ही खुल गए।

🔴 इसके बाद का इलाज डॉ० राय ने किया। कुल १३ दिनों तक इलाज चला। इस बीच सभी के व्यवहार में कुछ बदलाव आ गया था। वहाँ के सभी डॉक्टर और नर्सें मुझे कुछ अतिरिक्त सम्मान देने लगे थे। मैंने इसे गुरुदेव का ही सम्मान माना। अन्तिम दिन जब नर्सिंग होम से बच्चे को वापस लाने के लिए गया तो वहाँ की बहुत सारी नर्सें इकट्ठी होकर मुझसे मिलने आईं और अनुरोध किया- भाई साहब हमारे लिए कुछ कहकर जाएँ। अचानक इस प्रकार के अनुरोध से मैं स्तम्भित रह गया। फिर कुछ सँभलते हुए कहा- हम गायत्री परिवार के हैं। गुरु देव कहते हैं गायत्री की मूल शिक्षा है- सभी के लिए सद्बुद्धि की कामना। आप भी यही कामना करें। बस मैं तो इतना ही जानता हूँ।

🔵 डॉ० राय की फीस भी वहाँ के प्रबंधन ने लेने से इनकार कर दिया। आज ११ साल बाद भी कभी बच्चे को नर्सिंग होम नहीं ले जाना पड़ा। पूर्ण अन्तःकरण से मैं यह विश्वास करता हूँ कि गुरुदेव की सूक्ष्म सत्ता हमें सदा संरक्षण देती रहती है। मैं नतमस्तक हूँ उनके इस स्नेह के प्रति। 

🌹 अनुज चक्रवर्ती कोलकाता (प.बंगाल)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/gurudev.1

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 8)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं  

🔴 यदि प्रतिगामी, प्रतिभावान समझे जाते, तो अब तक यह दुनिया उन्हीं के पेट में समा गई होती और भलमनसाहत को चरितार्थ होने के लिए कहीं स्थान ही न मिलता। काया और छाया दोनों देखने में एक जैसी लग सकती है; पर उनमें अन्तर जमीन-आसमान जैसा होता है। मूँछें मरोड़ने, आँखें तरेरने और दर्प का प्रदर्शन करने वालों की कमी नहीं। ठगों और जालसाजों की करतूतें भी देखते ही बनती हैं। इतने पर भी उनका अन्त कुकुरमुत्तों जैसी विडम्बना के साथ ही होता है। यों इन दिनों तथाकथित प्रगतिशील ऐसे ही अवाञ्छनीय हथकण्डे अपनाते देखे गए हैं, पर उनका कार्य क्षेत्र विनाश ही बनकर रह जाता है। कोई महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक उत्कृष्टता का पक्षधर प्रगतिशील कार्य उनसे नहीं बन पड़ता।           

🔵 यह विवेचना इसलिए की जा रही है कि जिनको बोलचाल की भाषा में प्रगतिशील कहा जाने लगा है, उनकी वास्तविकता समझने में किसी को भ्रम न रह जाए, कोई आतंक को प्रतिभा न समझ बैठे। वह तो उत्कृष्टता के साथ साहसिकता का नाम है। वह जहाँ भी होती है, वहाँ कस्तूरी की तरह महकती है और चन्दन की तरह समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है।  

🔴 गाँधी जी के परामर्श एवं सान्निध्य से ऐसी प्रतिभाएँ निखरीं, एकत्रित हुईं एवं कार्य क्षेत्र में उतरीं कि उस समुच्चय ने देश के वातावरण में शौर्य-साहस के प्राण फूँक दिये। उनके द्वारा जो किया गया, सँजोया गया, उसकी चर्चा चिरकाल तक होती रहेगी। देश की स्वतन्त्रता जैसी उपलब्धि का श्रेय, उसी परिकर को जाता है, जिसे गाँधी जी के व्यक्तित्व से उभरने का अवसर मिला, उनमें सचमुच जादुई शक्ति थी।  

🔵 इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री चर्चिल भारत के वायसराय को परामर्श दिया करते थे कि वे गाँधी जी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न आने दें। उनके समीप पहुँचने से वह उनके जादुई प्रभाव में फँसकर, उन्हीं का हो जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 काशीफल का दान

🔴 कटक (उडीसा) के समीप एक गाँव में एक सभा का आयोजन किया गया उसमें हजारों संभ्रांत नागरिक और आदिवासी एकत्रित थे। गाँधी जी को हिंदी में भाषण का अभ्यास था, किंतु इस आशंका से कि कही ऐसा न हो यह लोग हिंदी न समझ पायें उडिया अनुवाद का प्रबंध कर लिया गया था।

🔵 भाषण कुछ देर ही चला था कि भीड़ ने आग्रह किया गाँधी जी आप हिंदी में ही भाषण करे। सीधी-सच्ची बातें जो हृदय तक पहुँचती हैं, उनके लिए बनावट और शब्द विन्यास की क्या आवश्यकता आपकी सरल भाषा में जो माधुर्य छलकता है उसी से काम चल जाता है, दोहरा समय लगाने की आवश्यकता नहीं।

🔴 गाँधीजी की सत्योन्मुख आत्मा प्रफुल्ल हो उठी। उन्होंने अनुभव किया कि सत्य और निश्छल अंत:करण का मार्गदर्शन भाषा-प्रान्त के भेदभाव से कितने परे होते है ? आत्मा बुद्धि से नहीं हृदय से पहचानी जाती है। समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, फिर चाहे उसकी योग्यता नगण्य-सी क्यों न हो। आत्मिक तेजस्विता ही लोक-सेवा की सच्ची योग्यता है- यह मानकर वे भाषण हिंदी में करने लगे।

🔵 लोगों को भ्रम था कि गाँधी जी की वाणी उतना प्रभावित नही कर सकेगी पर उनकी भाव विह्वलता के साथ सब भाव-विह्वल होते गए। सामाजिक विषमता, राष्ट्रोद्धार और दलित वर्ग के उत्थान के लिए उनका एक-एक आग्रह श्रोताओं के हृदय में बैठता चला गया।

🔴 भाषण समाप्त हुआ तो गाँधी जी ने कहा- ''आप लोगों से हरिजन फंड के लिये कुछ धन मिलना चाहिए। हमारी सीधी सादी सामाजिक आवश्यकताएँ आप सबके पुण्य सहयोग से पूरी होनी है।'' गांधी जी के ऐसा कहते ही रुपये-पैसों की बौछार होने लगी, जिसके पास जो कुछ था देता चला गया।

🔵 एक आदिवासी लड़का भी उस सभा में उपस्थित था। अबोध बालक, पर आवश्यकता को समझने वाला बालक। जेब में हाथ डाला तो हाथ सीधा पार गया। एक भी पैसा तो उसके पास न था जो बापू की झोली में डाल देता किंतु भावनाओ का आवेग भी तो उसके सँभाले नहीं सँभल सका। जब सभी लोग लोक-मंगल के लिए अपने श्रद्धा-सुमन भेंट किए जा रहे हों, वह बालक भी चुप कैसे रह सकता था ?

🔴 भीड को पार कर घर की ओर भागता हुआ गया और एक कपडे मे छुपाए कोई वस्तु लेकर फिर दौडकर लौट आया। गाँधी जी के समीप पहुँचकर उसने वह वस्तु गांधी जी के हाथ मे सौंप दी। गाँधी ने कपडा हटाकर देखा-बडा-सा गोल-मटोल काशीफल था।

🔵 गाँधी जी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस बच्चे की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा-कहाँ से लाए यह काशीफल ?

🔴 ''मेरे छप्पर मे लगा था बापू।" लडके ने सरल भाव से कहा-हमने अपने दरवाजे पर इसकी बेल लगाई है, उसका ही फल है और तो मेरे पास कुछ नहीं है, ऐसा कहते हुए उसने दोनो जेबें खाली करके दिखा दी।

🔵 आँखें छलक आई भावनाओं के साधक की। उसने पूछा बेटे- आज फिर सब्जी किसकी खाओगे ?

🔴 ''आज नमक से खा लेंगे बापू! लोक-मंगल की आकांक्षा खाली हाथ न लौट जाए, इसलिये इसे स्वीकार कर लो।'' बच्चे ने साग्रह विनय की।

🔵 गांधी जी ने काशीफल भंडार में रखते हुए कहा-मेरे बच्चो! जब तक तुम्हारे भीतर त्याग और लोक-सेवा का भाव अक्षुण्ण है, तब तक अपने धर्म और अपनी संस्कृति को कोई दबाकर नहीं रख सकेगा।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 56, 57

👉 प्रकृति की चोरी

🔵 काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में सम्मिलित होने, एक बार गाँधीजी इलाहाबाद आये और पं0 मोती लाल नेहरू के यहाँ आनन्द भवन में ठहरे। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होकर गाँधीजी हाथ मुँह धो रहे थे और जवाहरलाल नेहरू पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधीजी जितना पानी लिया करते थे वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा।

🔴 इस पर गाँधीजी बड़े खिन्न हुए और बात चीत का सिलसिला टूट गया। जवाहरलालजी ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा— ध्यान न रहने से मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप से खर्च कर दिया और अब मुझे दुबारा फिर लेना पड़ रहा है। यह मेरा प्रमाद है।

🔵 पं0 नेहरू हंसे और कहा— यहाँ तो गंगा-जमुना दोनों बहती हैं। रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है आप थोड़ा अधिक पानी खर्च कर लें तो क्या चिन्ता की बात है।

🔴 गाँधी जी ने कहा— गंगा-जमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहतीं। प्रकृति में कोई चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उसके लिए अनिवार्यतः आवश्यक हो। ऐसा न करने से दूसरों के लिए कमी पड़ेगी और वह प्रकृति की एक चोरी मानी जायगी।

🌹 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964

👉 सन्धिकाल की विषमवेला में वरिष्ठों का दायित्व

🔵 मनःस्थिति की विपन्नता ने आज मनुष्य को जर्जर बनाकर रख दिया है। अवांछनीय प्रचलनों ने परिस्थितियों को अत्यन्त कष्टदायी बना दिया है। व्यक्ति मानवी गरिमा से गिरकर बहुत नीचे आ गया है। उसकी शालीनता सदाशयता न जाने कौन ले गया? समाज व्यवस्था की भी ऐसी ही दुर्गति हो रही है। सहकारिता सद्भावना की, वसुधैव कुटुम्बकम् की हिल-मिलकर रहने और हँस-बाँटकर खाने की प्रथा घटते-घटते लुप्तप्राय होती जा रही है। मनुष्य कलेवर में नर पशुओं और नर-पिशाचों के झुण्ड ही विचरण करते देखे जाते हैं। समाज को अन्धी भेड़ों का समूह अथवा भूत-पलीतों की चाण्डाल चौकड़ी जैसा ही कुछ नाम दिया जा सकता है।

🔴 ऐसी विपन्न-वेला में स्रष्टा एक ही नीति अपना सकता है- अवांछनीयता की गलाई-उत्कृष्टता की ढलाई। यही दो गतिविधियाँ हैं जो युगसन्धि की इस वेला में सम्पन्न होती देखी जा सकेंगी। अवांछनीयता को गलते-समाप्त होते भी देखा जा सकेगा, साथ ही दूसरा कार्य नवसृजन का भी चलता देखा जा सकेगा। इसे उज्ज्वल भविष्य की ढलाई कहा जाएगा। दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती अभी भी देखी जा सकती हैं, पूर्णता की स्थिति में अब तीव्र गति से सम्पन्न होती देखी जा सकेंगी। जब भी ऐसा परिवर्तन होता है, मूलतः प्रकृत्ति के सम्बन्ध में ही है, किन्तु उसकी चपेट में मनुष्य आये बिना नहीं रहता। रोग मारने में आखिर रोगी को भी कई प्रकार की व्यथाएँ चिकित्सा द्वारा पहुँच ही जाती हैं।

🔵 तीव्र एण्टीबायोटिक स्तर की दवाएँ यही तो करती हैं। उद्देश्य निर्दोष रहने पर भी कड़वी दवा खिलाने से लेकर सुई लगाने और शल्य क्रिया करने तक के कई कष्टकर कार्य चिकित्सक के हाथों ही होते रहते हैं। वैसा ही कुछ अवतारी सत्ता के हाथों अगले दिनों होने जा रहा है। इन शेष बचे वर्षों में मनःस्थिति उलटने में जहाँ अग्रगामी युगशिल्पी अपने मूर्धन्य कौशल का परिचय देंगे, वहाँ अदृश्य जगत् में हो रहे प्रकृति प्रवाह भी अपना काम करेंगे। वे परिवर्तन में सहायता करने के लिए गलाई-ढलाई में सहायक रहने के लिए ही प्रकट होगा, किन्तु उनके स्वरूप ज्वार-भाटे की तरह, अन्धड़-तूफान की तरह विचित्र ही नहीं भयावह भी होंगे। उनकी चपेट में गेहूँ के साथ घुन पिसने, सूखे के साथ गीला जलने जैसे दृश्य भी उपस्थित होंगे।

🔴 युगान्तरीय चेतना तूफानी परिवर्तन साथ लेकर आ रही है। दूसरी ओर अन्धकार को चुनौती देने वाला प्रभात भी उसी उषाकाल में अपने आगमन की जानकारी दे रहा है। इस युगसन्धि की वेला में आत्मकल्याण, लोकमंगल और ईश्वरीय अनुग्रह के त्रिविध वरदान उस साधना से उन सभी को सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं, जो महाकाल ने विशिष्टों के लिए निर्धारित किए हैं। महानता के वरण का ठीक यही समय है।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 19

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 24)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 यह बात सत्य है कि मानव जीवन में अनुपात दुःख-क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच-बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है, और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा बनी रहती है। प्रसन्नता जीवन के लिए संजीवनी तत्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिए। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।

🔵 प्रसन्नता वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिए निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं। किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखिये— तो क्या आप उसके लिए प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा—‘‘कि प्रयत्न तो अधिक करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती।’’ निःसन्देह मनुष्य की यह असफलता आश्चर्य  ही नहीं दुःख का विषय है।।

🔴 कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य सम्पूर्ण अणु-क्षण एकमात्र, प्रसन्नता प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते जो कुछ भी अच्छा-बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 2)

🌹 चेतना की सत्ता एवं उसका विस्तार

🔵 इस संसार में जड़ के साथ चेतन भी गुँथा हुआ है। काम करती तो काया ही दीखती है, पर वस्तुत: उसके पीछे सचेतन की शक्ति काम कर रही होती है। प्राण निकल जाएँ तो अच्छी-खासी काया निर्जीव हो जाती है। कुछ करना-धरना तो दूर, मरते ही सड़ने-गलने का क्रम आरंभ हो जाता है, और बताता है कि जड़ शरीर तभी तक सक्रिय रह सकता है, जब तक कि उसके साथ ईश्वरीय चेतना जुड़ी रहती है। दोनों के पृथक् होते ही समूचे खेल का अंत हो जाता है।      

🔴 एकाकी चेतना का अपना अस्तित्व तो है। उसकी निराकार सत्ता सर्वत्र समाई हुई है। साकार होती तो किसी एक स्थान पर, एक नाम-रूप के बंधन में बँधकर रहना पड़ता और वह ससीम बनकर रह जाती। इसलिये उसे भी अपनी इच्छित गतिविधियाँ चलाने के लिये किन्हीं शरीर कलेवरों का आश्रय लेना पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करना संभव है। निराकार तो प्रकृति की लेसर, एक्स-किरणें आदि अनेक धाराएँ काम करती हैं, पर उनको समझ सकना खुली आँखों से नहीं वरन् किन्हीं सूक्ष्म उपकरणों के सहारे ही संभव हो पाता है। गाड़ी के दो पहिए मिल-जुलकर ही काम चलाते हैं। इसी प्रकार इस संसार की विविध गतिविधियाँ विशेषत: प्राणिसमुदाय की इच्छित हलचलों के पीछे अदृश्य सत्ता ही काम करती है, जिसे ईश्वर आदि नामों से जाना जाता है।   

🔵 विराट ब्रह्मांड में संव्याप्त सत्ता को विराट् ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। वही सर्वव्यापी, न्यायकर्ता, सत्-चित्-आनंद आदि विशेषणों से जाना जाता है। उसी का एक छोटा अंश जीवधारियों के भीतर काम करता है। मनुष्य में इस अंश का स्तर ऊँचा भी है और अधिक भी, इसलिये उसके अंतराल में अनेक विभूतियों की सत्ता प्रसुप्त रूप में विद्यमान पाई जाती है। यह अपने निजी पुरुषार्थ के ऊपर अवलंबित है कि उसे विकसित किया जाए या ऐसे ही उपेक्षित रूप में-गई-गुजरी स्थिति में वहीं पड़ी रहने दिया जाए।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 6)

🌹 दीक्षा क्या? किससे लें?

🔴 बस यही मनुष्यता की दीक्षा और मनुष्यता की ऊपरी परिधि में प्रवेश करने का शुभारंभ है। इसी का नाम अपने यहाँ गायत्री मंत्र की दीक्षा है। ये दीक्षा आवश्यक मानी गई है और दीक्षा ली जानी चाहिए। लेकिन दीक्षा के लिए व्यक्ति का कोई उतना ज्यादा महत्त्व नहीं है। व्यक्ति जब दीक्षा देता है, अपने आप को व्यक्ति गुरु बनाता है और अपने शरीर के साथ में शिष्य के शरीर को जोड़ने लगता है, तो उसका नाम गुरूडम है। गुरुडम का कोई मूल्य नहीं है।

🔵 गुरुडम से नुकसान भी है। यदि व्यक्ति समर्थ नहीं है, शुद्ध और पवित्र नहीं है और निर्लोभ नहीं है और उसकी आत्मा उतनी ऊँची उठी हुई नहीं है, घटिया आदमी है; तब उसके साथ में सम्बन्ध मिला लिया जाए, तो वह शिष्य भी उसी तरह का घटिया होता हुआ चला जाएगा। गुरु का उत्तरदायित्त्व उठाना सामान्य काम नहीं है। गुुरु दूसरा भगवान् का स्वरूप है और भगवान् के प्रतीक रूप में सबसे श्रेष्ठ जो मनुष्य हैं, व्यक्तिगत रूप से सिर्फ उन्हें ही दीक्षा देनी चाहिए, अन्य व्यक्तियों को दीक्षा नहीं देनी चाहिए।   

🔴 उन्हें (दीक्षा देने वालों को) भगवान् के साथ सम्बन्ध मिला देने का काम करना चाहिए। विवाह सिर्फ उसी आदमी को करना चाहिए, जो अपनी बीबी को प्यार देने और उसके लिए रोटी जुटाने में समर्थ है। विवाह संस्कार तो कोई भी करा सकता है, पण्डित भी करा सकता है। दक्षिणा दे करके विवाह करा ले, बात खतम। लेकिन पण्डित जी कहने लगे कि इस लड़की से जो एम.ए. पास है और जो पीएच. डी. है, मैं ब्याह करूँगा।

🔵 लेकिन उसके लिए अपने  पास जवानी भी होनी चाहिए, पैसे भी होने चाहिए, अनेक बातें होनी चाहिए। अगर ये सब न हों, तो कोई लड़की कैसे ब्याह करने को तैयार हो जाएगी? दीक्षा को एक तरह का आध्यात्मिक विवाह ही कहते हैं। आध्यात्मिक विवाह करना हर आदमी के वश की बात नहीं है। बीबी का पालन करना, बच्चे पैदा करना और बीबी की रखवाली करना हरेक का काम है क्या? नहीं, हरेक का काम नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/8

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 64)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 उत्तरकाशी में जैसा जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक था, जहाँ-तहाँ वैसे अनेकों ऋषि आश्रम संव्याप्त थे। शेष ऋषि अपने-अपने हिस्से की शोध तपश्चर्याएँ करने में संलग्न रहते थे। देवताओं के स्थान वहाँ थे, जहाँ आज-कल हम लोग अब रहते हैं। हिमयुग के उपरांत न केवल स्थान ही बदल गए, वरन् गतिविधियाँ बदलीं तो क्या, पूरी तरह समाप्त ही हो गईं, उनके चिह्न भर शेष रह गए हैं।

🔵 उत्तराखण्ड में जहाँ-तहाँ देवी-देवताओं के मंदिर तो बन गए हैं ताकि उन पर धनराशि चढ़ती रहे और पुजारियों का गुजारा होता चले, पर इस बात को न कोई पूछने वाला है न बताने वाला कि ऋषि कौन थे? कहाँ थे? क्या करते थे? उसका कोई चिह्न भी अब बाकी नहीं रहा। हम लोगों की दृष्टि में ऋषि परम्परा की तो अब एक प्रकार से प्रलय ही हो गई।

🔴 लगभग यही बात उन बीसियों ऋषियों की ओर से कही गई, जिनसे हमारी भेंट कराई गई। विदाई देते समय सभी की आँखें डबडबाई सी दीखीं। लगा कि सभी व्यथित हैं। सभी का मन उदास और भारी है, पर हम क्या कहते? इतने ऋषि मिलकर जितना भार उठाते थे, उसे उठाने की अपनी सामर्थ्य भी तो नहीं है। उन सबका मन भारी देखकर अपना चित्त द्रवित हो गया। सोचते रहे। भगवान ने किसी लायक हमें बनाया होता तो इन देव पुरुषों को इतना व्यथित देखते हुए चुप्पी साधकर ऐसे ही वापस न लौट जाते। स्तब्धता अपने ऊपर भी छा गई और आँखें डबडबाने लगीं, प्रवाहित होने लगीं। इतने समर्थ ऋषि, इतने असहाय, इतने दुःखी, यह उनकी वेदना हमें बिच्छू के डंक की तरह पीड़ा देने लगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 65)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔵 जो लोग अपने को शरीर मान बैठते हैं, इन्द्रिय तृप्ति तक अपना आनन्द सीमित कर लेते, वासना और तृष्णा कि पूर्ति ही जिनका जीवनोद्देश्य बन जाता है,उनके लिए पैसा, अमीरी, बड़प्पन,प्रशंसा, पदवी पाना ही सब कुछ हो सकता है। वे आत्म- कल्याण की बात भुला सकते हैं और लोभ- मोह की सुनहरी हथकड़ी- बेड़ी चावपूर्वक पहने रह सकते हैं। उनके लिए श्रेय पथ पर चलने की सुविधाजनक स्थिति न मिलने का बहाना  सही हो सकता है। अंत:करण की आकांक्षाएँ ही साधन जुटाती हैं। जब भौतिक सुख सम्पत्ति ही लक्ष्य बन गया, तो चेतना का सारा प्रयास उन्हें जुटाने में लगेगा। उपासना तो फिर हल्की सी खिलवाड़ रह जाती है। कर ली तो ठीक, न कर ली तो ठीक।

🔴 कौतूहल की दृष्टि से लोग देखा करते हैं कि लोग इनका थोड़ा तमाशा देख लें, कुछ मिलता है या नहीं- थोड़ी देर अनमनी तबियत से चमत्कार मिलने की दृष्टि से उल्टी- पुल्टी पूजा- पत्री चलाई तो उन पर विश्वास नहीं जमा, सो छूट गई, छूटनी भी थी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में, जीवनोद्देश्य प्राप्त करने की तीव्र लगन के अभाव में कोई आत्मिक प्रगति नहीं कर सकता। यह सब तथ्य हमें अनायास ही विदित थे। सो शरीर यात्रा और परिवार व्यवस्था जमाये भर रहने के लिए जितना अनिवार्य रूप से आवश्यक था उतना ही ध्यान उस ओर दिया। उन प्रयत्नों को मशीन का किराया भर चुकाने की दृष्टि से किया। अन्त:करण लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तत्पर रहा सो भौतिक प्रलोभनों और आकर्षणों में भटकने की कभी जरुरत नहीं हुई।

🔵 जब अपना स्वरूप आत्मा की स्थिति में होने लगा और अन्त:करण परमेश्वर का परम पवित्र निवास दीखने लगा तो चित्त अंतर्मुखी हो गया। सोचने का तरीका इतना भर सीमित रह गया कि परमात्मा के राजकुमार आत्मा को क्या करना, किस दिशा में चलना चाहिए? प्रश्न सरल थे और उत्तर भी सरल। केवल उत्कृष्ट जीवन जीना चाहिए और केवल आदर्शवादी कार्य- पद्धति अपनानी चाहिए। जो इस मार्ग पर चले नहीं, उन्हें बहुत डर लगता है कि यह रीति- नीति अपनाई तो बहुत संकट आवेगा और गरीबी, तंगी, भर्त्सना और कठिनाई सहनी पड़ेगी। मित्र शत्रु हो जायेंगे और घर वाले विरोध करेंगे, अपने को भी आरम्भ में ऐसा ही लगा और अनुभव हुआ।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 28 Feb 2017


👉 मैं अभागन उन्हें पहचान न पाई

🔵  सन् २००९ ई. की गुरु पूर्णिमा के दिन अपने पति और बेटे के साथ मैं हरिद्वार पहुँची। दो कुली को साथ लेकर हम तीनों प्लेटफार्म से बाहर आए। सड़कों पर सन्नाटा छाया हुआ था। जगह- जगह सेना के जवान तैनात थे। हमारे बाहर निकलते ही सेना के एक गश्ती दल ने रोककर कहा- शहर में धारा १४४ लागू है। एक साथ पाँच लोगों का घर से निकलना मना है। तुरन्त वापस जाओ। वरना गिरफ्तार कर लिए जाओगे, पर हमारा शान्तिकुञ्ज पहुँचना बहुत ही जरूरी था। हमें अगले दिन से आरम्भ होने वाली विशेष साधना के लिए उसी दिन संकल्प लेना था। पति और बेटे को वहीं छोड़कर मैं सड़क की ओर बढ़ी। पतिदेव ने टोका- कहाँ जा रही हो? मैंने कहा- आगे जाकर देखती हूँ, शायद कोई सवारी मिल जाए। मेरा जवाब सुनकर वे मुझ पर बरस पड़े- तुमने सुना नहीं कि धारा १४४ लागू है। यहाँ कोई तेरा बाप बैठा है, जो तुझे ले जाएगा। मैंने तमककर कहा- हाँ हैं न बाप! वही तो ले जाएँगे।

🔴 बाहर निकलकर काफी देर तक खड़ी रही, पर कोई सवारी नहीं मिली। मैंने घड़ी देखी- बीस मिनट बीत चुके थे। शाम होने से पहले पहुँचना जरूरी था। कुछ देर और रुकी रही तो संकल्प का समय निकल जाएगा। यह सोचकर मुझे रोना आ गया। हे गुरुदेव! अब क्या करूँ? तुमने बुलाया, तो मैं आ गई। अब तुम्हीं कुछ ऐसा करो कि संकल्प ले सकूँ।   

🔵  मुझे रोते देख गश्ती दल वाले आकर पूछताछ करने लगे। मैं उन लोगों को समझाने का प्रयास कर रही थी कि मेरा आज ही शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। सभी यही कहते- पैदल चले जाओ, मगर मैं उतनी दूर तक पैदल चल नहीं सकती थी और हमारे साथ सामान भी बहुत सारे थे।

🔴 करीब ४५ मिनट बाद सामने से एक रिक्शा वाला आता हुआ दिखा। उसने पीला कुर्ता पहन रखा था। कन्धे पर पीला झोला भी लटकाये हुए था। पास आने पर मैंने उसे रोकते हुए कहा- बाबा मुझे शांतिकुंज जाना है, चलोगे क्या? रिक्शा वाला बोला- बैठ जाओ, पहुँचा देता हूँ। मैंने कहा- मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा बेटा और पति हैं। कुछ सामान भी है। उसने कहा- ले आओ।

🔵  वापस आकर मैंने बेटे से कहा- जल्दी से सामान उठाओ, एक रिक्शा वाला जाने को तैयार है। इतना सुनते ही मेरे पति बेटे से कहने लगे- तुम्हारी माँ तो पागल हो गई है। धारा १४४ में रिक्शे वाले को कौन जाने देगा। इतने में रिक्शा वाला भी हमारे पास आकर बोला- चलना है तो चलो, नहीं तो मैं जा रहा हूँ। मैंने इन दोनों से कहा- कोई जाए या न जाए, मैं तो जाती हूँ। मेरे रिक्शा पर बैठने के बाद वे दोनों भी सामान के साथ आ बैठे।

🔴 रिक्शा अभी थोड़ी ही दूर चला था कि गश्ती दल वालों से सामना हुआ। उन्होंने रिक्शा किनारे लगवाकर कहा- पैदल जाना हो तो जाओ, रिक्शा नहीं जायेगा। रिक्शावाला कुछ देर तो चुपचाप खड़ा रहा, फिर उसने नजर बचाकर निकलने की कोशिश की। लेकिन गश्ती दल वालों ने उसे निकलने नहीं दिया। जब तीन बार ऐसा ही हुआ, तो उसने सिपाहियों से कहा- अब तुम लोग हाँ कहो या ना कहो, मुझे तो इन्हें शांतिकुंज ले ही जाना है। सिपाहियों ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा- बाबा, हम तो नियम से बँधे हैं, यदि तुम्हें जाने दें, तो साहब हमें सस्पेंड कर देंगे।

🔵  रिक्शे वाले ने कहा- तुम्हें कोई सस्पेंड नहीं करेगा। कहाँ हैं तुम्हारे साहब? ले चलो मुझे उनके पास। एक सिपाही रिक्शे वाले को साथ लेकर अन्दर गया। देखते ही साहब कड़ककर बोले- क्या बात है? रिक्शावाले ने बताया- बाबूजी इनका शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। महिला हैं, इतनी दूर पैदल कैसे चलेंगी? साथ में सामान भी है। दोनों की बहस में दस मिनट बीत गए। अंत में बाबा ने कहा- रिक्शा नहीं जा सकती, तो आप ही पहुँचाइये। आपके पास तो सरकारी गाड़ी भी है।

🔴 इस बात पर पास ही बैठे बड़े साहब को हँसी आ गई। वे बोल पड़े- अरे जाने दो इसे, पागल है, मानेगा नहीं। रिक्शा आगे बढ़ चला। बाबा ने शांतिकुंज के गेट पर पहुँचकर रिक्शा रोका। मैंने बाबा से कहा- तुम भी चलो, सुबह हवन करके चले जाना। बाबा मुस्कराने लगे। अब मेरा ध्यान बाबा के चेहरे की तरफ गया। मैं यह देखकर चौंक पड़ी कि बाबा का चेहरा पूज्य गुरुदेव से मिलता- जुलता है। पूजा घर में मैं देर तक गुरुदेव का फोटो देखती रहती हूँ। मुझे लगा कहीं ये गुरुदेव ही तो नहीं। वहीं कद- काठी, वही ललाट, वैसे ही ऊपर की तरफ लहराते बाल। फर्क सिर्फ इतना था कि बाबा की तरह उनकी दाढ़ी नहीं थी।

🔵  तभी बाबा के बोलने से मेरा ध्यान टूटा। वे कह रहे थे- सामान अन्दर ले जाओ, देर हो रही है। मैंने कहा- पहले भाड़ा तो दे दूँ। वे बोले- एक बार में सारा सामान नहीं जा सकेगा। तुम लोग थोड़ा सामान अन्दर रखकर आ जाओ, तब तक मैं बाकी के सामान देखता हूँ।

🔴 वापस आकर मैंने देखा कि सामान तो गेट के पास ही रखा है, लेकिन न तो वहाँ कोई रिक्शा है और न ही रिक्शे वाले बाबा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना पैसे लिए ही बाबा चले कैसे गये। अचानक मन में यह सवाल उठा- कहीं ये पूज्य गुरुदेव ही तो नहीं थे। हरिद्वार स्टेशन के पास धारा १४४ होने के बावजूद एक रिक्शे वाले का आना, पुलिस वालों को मनाकर हमें शांतिकुंज पहुँचाना अनायास ही नहीं हुआ। यह गुरुदेव की ही लीला है।

🔵  बात समझ में आते ही मैंने दोनों हाथों से सिर पीट लिया- हाय अभागन! तुमने उन्हें पहले ही क्यों नहीं पहचाना? मैं बिलख उठी- हाय गुरुदेव! मुझे छलावा देकर चले गए। अपने बारे में बता दिया होता, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता। यह अभागन भी तुम्हारे चरणों की धूल अपने माथे से लगाकर अपना जीवन सफल बना लेती। 

🌹 नीता बेन देवेन्द्र भाई जानी अहमदाबाद (गुजरात)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 7)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं    

🔴 शक्ति की सर्वत्र अभ्यर्थना होती है, पर यदि उसका बहुमूल्य अंश खोजा जाए, तो उसे प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। विज्ञान उसी का अनुयायी है। सम्पदा उसी की चेरी है। श्रेय और सम्मान वही जहाँ-तहाँ से अपने साथ रहने के लिए घसीट लाती है। गौरव-गाथा उन्हीं की गायी जाती है। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय इसी विभूति के धनी लोगों में से कुछ होते हैं।          

🔵 आदर्शवादी प्रयोजन, सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थ-परायणता को यदि मिला दिया जाए, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिए जाने में कोई अत्युक्ति न होगी।  

🔴 कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। सच्चाई तो इस कथन में भी हो सकती है; पर यदि उसके साथ प्रतिभाभरी जागरूकता-साहसिकता को भी जोड़ दिया जाए, तो सोना और सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतों जैसी शक्ति-सम्पन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कही जा सकती है। 

🔵 आतंक का प्रदर्शन, किसी भी भले-बुरे काम के लिए, दूसरों पर हावी होकर उनसे कुछ भी भला-बुरा करा लेने के, डाकुओं जैसे दुस्साहस का नाम प्रतिभा नहीं है। यदि ऐसा होता, तो सभी आतंकवादी, अपराधियों को प्रतिभावान कहा जाता; जबकि उनका सीधा नाम दैत्य या दानव है। दादागीरी, आक्रमण की व्यवसायिकता अपनी जगह काम करती तो देखी जाती है; पर उसके द्वारा उत्पीड़ित किए गए लोग शाप ही देते रहते हैं। हर मन में उनके लिए अश्रद्धा ही नहीं, घृणा और शत्रुता बनती है। भले ही प्रतिशोध के रूप में उसे कार्यान्वित करते न बन पड़े। सेर को सवासेर भी मिलता है। ईंट का जवाब पत्थर से मिलता है, भले ही उस क्रिया को किन्हीं मनुष्यों द्वारा सम्पन्न कर लिया जाए अथवा प्रकृति अपनी परम्परा के हिसाब से उठने वाले बबूले की हवा स्वयं निकाल दे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सच्ची लगन सफलता का मूल

🔵 दक्षिण भारत के एक छोटे-से गाँव की एक कुटिया में बैठा हुआ वह व्यक्ति निरंतर लेखन-कार्य में निमग्न था, उसे न खाने की सुध थी न पानी की। आस-पास, पास-पडो़स मे क्या हो रहा है ? उसे यह भी पता नहीं, कुटिया में कौन आता-जाता है ? भोजन कौन दे जाता ? जूठे पात्रों को कौन उठा ले जाता? बिस्तर कौन संभाल जाता है ? इसका कुछ भी ध्यान नहीं। लेखन के आवश्यक उपकरण कगज, दवात, स्याही आदि कहाँ से आते है? कब आते है ?  कौन लाता है ? इसका कुछ भी भान नहीं है नित्यक्रिया शौच, लघुशंका आदि के उपरात स्नान, ध्यान, भोजन आदि स्वभाववश हो जाते थे। पुनः अपनी लेखनी उठाई और अपनी साधना में निमग्न। प० वाचस्पति जी मिश्र अपने सुप्रसिद्ध वेदांत ग्रंथ "भामती" के प्रणयन मे इस प्रकार निरत थे।

🔴 तन्मयता और सच्ची लगन वह गुण है जो व्यक्ति को उसके निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। सफलता के अन्य सूत्र भी हैं उनकी भी आवश्यकता पडती है, परंतु जैसे दीपक जलने के लिये तेल सबसे आवश्यक उपकरण है, वैसे ही सफलता के लिए सच्ची और प्रगाढ़ लगन। मनुष्य में यदि इसका अभाव रहा तो सारे उपकरण रहते हुए भी कुछ नहीं कर सकेंगे। देखने में लगेगा कुछ हो रहा है। ऐसी मनःस्थिति में किये गये लँगडे़ लूले काम भला कहीं सफल होते हैं ?

🔵 पं० वाचस्पति जी मिश्र में ऐसी ही तन्मयता और निष्ठा थी। एक रात को बैठे वे लिख रहे थे अपने ग्रन्थ को। दीपक का तेल समाप्त सा हो रहा था। लौ भी फीकी पड़ रही थी। इतने में दो हाथ उधर से उठे। आशय यह था कि दीपक तेज किया जाय। इसी प्रयत्न में दीपक बुझ गया। उन हाथों ने फिर बत्ती जलाई। संयोग था कि उस समय पंडित जी का ग्रन्थ पूरा हो चला था। अन्यथा अनेक वर्षों तक वे ऐसी बाधाओं को जान भी न सके थे। लिखना और लेखनी बंद करके सोचना बस चिंतन की यह तन्मयता ही उनका जीवन था। दीपक भी कुछ होता है, यह लिखते समय उनके ध्यान में कभी नहीं आया।

🔴 ग्रंथ पूरा हो गया था। सरस्वती के पुत्र का ध्यान भंग हुआ दीपक जलाकर जाती हुई पत्नी को उन्होंने देखा और पूछा-देवि तुम कौन हो ? यहाँ किसलिए आईं थीं ? आप

🔵 मैं आपकी चरण सेविका हूँ। पिछले चालीस-पचास वर्षों से आपकी ही सेवा कर रही हूँ, उस नारी ने विनम्रतापूवंऊ उत्तर दिया- ''आज दीपक बुझ जाने से कार्य में विघ्न पड़ा इसके लिए क्षमा करें। भविष्य में ऐसा कष्ट न आने दूँगी।

🔴 मेरी सेविका ? पंडित जी इसका रहस्य न समझ सके पवित्रता की प्रतिमूर्ति अपने पतिदेव के आश्चर्य का आशय समझ गई वह आगे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः बोल उठी "पिता अपनी पुत्री का हाथ जिस पुरुष के हाथ में दे देता है, वह उसकी सेविका ही होती है। आप तो विवाह मंडप में भी हाथों मे कुछ पन्ने लिये हुए
उनके ही चिंतन में लीन थे। इस कुटिया में भी जब से आई आपको अपने लेखन से अवकाश कहाँ ?

🔵 "तो फिर तुम मुझसे क्या चाहती हो ?"

🔴 कभी चाहती थी कि संसार में नाम रखने का कुछ आधार होता किंतु अब तो शरीर भी जर्जर हो चुका, अतः आपकी सेवा सुश्रूभा में ही मुझे परम सुख है।

🔵 तुम्हारा नाम ? पंडित जी ने पूछा- भामती, नन्हा-सा उत्तर था। पंडितजी ने अपनी लेखनी उठाई और उस ग्रंथ के ऊपर लिख दिया- "भामती" बोले, लो संसार में जब तक भारतीय संस्कृति और उसकी गरिमा जीवित रहेगी तुम्हारा नाम अमर रहेगा। सचमुच पंडित वाचस्पति की सच्ची निष्ठा "भामती"  आज भी कायम है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 54, 55

👉 इन्द्रासन प्राप्त हुआ

🔵 नहुष को पुण्य फल के बदले में इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवें, ऐसे कोई विरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुये बिना अछूते न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अन्तःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेज ही दिया।

🔴 इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उसने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।

🔵 आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।

🔴 दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही डाला- “दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।

🔵 इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-भद्रे! तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?

🔴 शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।

🔵 देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता।
 
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965

👉 विपत्ति में अधीर मत हूजिए। (अन्तिम भाग)

🔵 विपत्तियों का शिकार किसे नहीं बनना पड़ा? त्रिलोकेश इन्द्र ब्रह्म हत्या के भय से वर्षों घोर अन्धकार में पड़े रहे। चक्रवर्ती महाराज हरिश्चन्द्र डोम के घर जाकर नौकरी करते रहे। उनकी स्त्री अपने मृत बच्चे को जलाने के लिये कफ न तक नहीं प्राप्त कर सकी। जगत के आदि कारण, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों तक घोर जंगलों में रहना पड़ा। वे अपने पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ को पावभर आटे के पिंड भी न दे सके। जंगल के इंगुदी फलों के पिंडों से ही उन्होंने चक्रवर्ती राजा की तृप्ति की।

🔴 शरीरधारी कोई भी ऐसा नहीं है जिसने विपत्तियों के कड़वे फलों का स्वाद न चखा हो। सभी उन अवश्य प्राप्त होने वाले कर्मों के स्वाद से परिचित हैं। फिर हम अधीर क्यों हों हमारे अधीर होने से हमारे आश्रित भी दुःखी होंगे, इसलिये हम धैर्य धारण करके क्यों नहीं उन्हें समझावें? जो होना होगा। बस, विवेकी और अविवेकी में यही अन्तर है। जरा, मृत्यु और व्याधियाँ दोनों को ही होती हैं किन्तु विवेकी उन्हें अवश्यंभावी समझ कर धैर्य के साथ सहन करता है और अज्ञानी व्याकुल होकर विपत्ति से विफल होकर विपत्तियों को और बढ़ा लेता है- महात्मा कबीर ने इस विषय पर क्या ही रोचक पद्य रचना की है यथा-
ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।
मौत, बुढ़ापा, आपदा, सब काहु को होय॥


🔵 जो धैर्य का आश्रय नहीं लेते, वे दीन हो जाते हैं, परमुखापेक्षी बन जाते हैं। इससे वे और भी दुःखी होते हैं। संसार में परमुखापेक्षी बनना दूसरे के सामने जाकर गिड़गिड़ाना, दूसरे से किसी प्रकार की आशा करना, इससे बढ़कर दूसरा कष्ट और कोई नहीं है। इसलिए विपत्ति आने पर धैर्य धारण किये रहिए और विपत्ति के कारणों को दूर करने एवं सुविधा प्राप्त करने के प्रयत्न में लग जाइए। जितनी शक्ति अधीर होकर दुखी होने में खर्च होती है उससे आधी शक्ति भी प्रयत्न में लगा दी जाय तो हमारी अधिकांश कठिनाइयों का निवारण हो सकता है।

🌹 समाप्त
🌹 अखंड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 9

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 23)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा. आत्माराम और अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि योग से अपने हृदय और नाड़ी आदि में गति पर नियन्त्रण रखकर उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। यह क्रिया मस्तिष्क से विचारों की तरंगें उत्पन्न करके की जाती है। अध्ययनशील व्यक्तियों में यह क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है इसलिए यदि शरीर देखने में दुबला है तो उसमें अरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएं अधिक पाई जायेंगी।

🔵 ‘‘मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर बचा नहीं रह सकता। इससे साफ हो जाता है कि मस्तिष्क ही शरीर में जीवन का मुख्य आधार है उसे जितना स्वस्थ और परिपुष्ट रखा जा सके मनुष्य उतना ही दीर्घजीवी हो सकता है।’’ उक्त वैज्ञानिकों की यदि यह सम्मति सही है तो ऋषियों के दीर्घजीवन का मूल कारण उनकी ज्ञान वृद्धि ही मानी जायेगी और आज के व्यस्त और दूषित वातावरण वाले युग में सबसे महत्वपूर्ण साधन भी यही होगा कि हम अपने दैनिक कार्यक्रमों में स्वाध्याय को निश्चित रूप से जोड़कर रखें और अपने जीवन की अवधि लम्बी करते चलें।

🔴 जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं। क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य-जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 1)

🌹 सार संक्षेप

🔵 मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन-विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।      

🔴 आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी।   

🔵 यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी-आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखेे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते-देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा-नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 5)

🌹 नर-पशु से नर-नारायण

🔴 मनुष्यों को बहुत सुविधाएँ दी गयी हैं। मनुष्यों को बोलना आता है, मनुष्यों को पढ़ना आता है, लिखना आता है, सोचना आता है। उसको इतनी बुद्धि मिली हुई है, जिससे उसने प्रकृति के अनेक रहस्यों को ढूँढ़ करके प्रकृति को अपने अनुकूल बना लिया है और जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, उससे अपना काम लेना शुरू कर दिया है। जबकि दूसरे जीव और जन्तुओं को प्रकृति की शक्तियों के ऊपर नियंत्रण कर पाना तो दूर, उनका मुकाबला करने की भी सामर्थ्य नहीं है। ठंड पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े व मच्छर मर जाते हैं। गर्मी पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े मर जाते हैं। प्रकृति का मुकाबला करने तक की शक्ति नहीं है और प्रकृति को अपने वश में करने की शक्ति कहाँ? 

🔵 ऐसा चिंतन और ऐसा मन, ऐसी विशेषताएँ और ऐसी विभूतियाँ और ऐसी सिद्धियाँ जो मनुष्यों को मिली हैं, उसे मनुष्यों को भगवान् ने अनायास ही नहीं दी हैं। पक्षपाती नहीं है भगवान्। किसी भी जीव के साथ में पक्षपात करे और किसी से न करे, ये कैसे हो सकता है? सारी की सारी योनियाँ और सभी जीव भगवान् को समान रूप से प्यारे थे। क्या कीड़े- मकोड़े क्या मनुष्य ? सभी तो उसके बालक हैं। कोई पिता अपने बालकों के साथ क्यों पक्षपात करेगा ? किसी को ज्यादा क्यों देगा? किसी को कम क्यों देगा? कोई न्यायशील पिता- सामान्य मनुष्य तक ऐसा नहीं कर सकता, तो भगवान् किस तरीके से ऐसा कर सकता है? 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 63)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
🔴 सतयुग के प्रायः सभी ऋषि शरीरों से उसी दुर्गम हिमालय क्षेत्र में निवास करते आए हैं। जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीर चर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रिया-कलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।

🔵  पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था, अब उनका संदेश सुनने की बारी थी। दीखने को हल्के से प्रकाश पुंज की तरह दीखते थे, पर जब अपना सूक्ष्म शरीर सही हो गया, तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत दीखने लगा। ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं, वे लगभग वैसे ही थे। शिष्टाचार पाला गया। उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने हाथ का स्पर्श जैसा सिर पर रखा और उतने भर से रोमांच हो उठा। आनन्द और उल्लास की उमंगें फूटने लगीं।

🔴 बात काम की चली। हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूल शरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गई हैं। फूटे हुए खण्डहरों के अवशेष हैं। जब हम लोग दिव्य दृष्टि से उन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति को देखते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक का पूरा ऋषि क्षेत्र था। उस एकांत में मात्र तपश्चर्या की विधा पूरी होती थी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 64)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔵 उपासना में ऊबने और अरूचि कि अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री से मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ठ वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है। यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्ठी जलाने के लिए ईंधन भर समझा। महत्त्वाकाँक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के लिए, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ।

🔴  शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो तो अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया। उपासना में ऊबने और अरुचि की अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री को मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ट वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है।

🔵 यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्टी जलाने का ईंधन भर समझा। महत्त्वाकांक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के ली, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ। शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो वह अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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रविवार, 26 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 27 Feb 2017


👉 शक्तिपात से पल मात्र में हुआ कायाकल्प

🔵 उन दिनों मैं राजकीय रेलवे पुलिस में डी.आई.जी. के पद पर कार्यरत था। मेरे कई मित्रों ने पूज्य गुरुदेव के बहुआयामी व्यक्तित्व के विषय में इतना कुछ कहा कि हरिद्वार जाकर उनसे मिलने की इच्छा जाग उठी। इसलिए जब यू.पी. पुलिस के साथ सहयोग बैठक के क्रम में हरिद्वार का कार्यक्रम बना, तो मन ललक उठा- कुछ ही देर के लिए सही, समय मिल जाता तो उनसे भी मिल लेता।

🔴 सहयोग बैठक के व्यस्त कार्यक्रमों के कारण शांतिकुंज जाने का समय निकल पाएगा, इसमें कुछ संदेह- सा लग रहा था। फिर भी मैंने उत्तर प्रदेश के संबंधित अधिकारी से अनुरोध किया कि मेरी शान्तिकुञ्ज जाने की प्रबल इच्छा है। अतः वहाँ जाने के लिए मुझे थोड़े समय का अवकाश दिया जाय। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार बैठक के बीच में दो घण्टे का अवकाश था। उतना ही समय मिल पाया। अनुमति मिल जाने से मुझे काफी खुशी हुई। मैं इतने से ही खुश हो रहा था कि भागते दौड़ते ही सही, आचार्यश्री के दर्शन तो कर लूँगा। क्या पता, फिर बाद में कभी मौका मिले या नहीं।

🔵 शान्तिकुञ्ज पहुँचा, तो पता चला कि गुरुदेव सूक्ष्मीकरण साधना में हैं। अब वे किसी से मिलते- जुलते नहीं हैं। वन्दनीया माताजी, शैल जीजी, डॉ. साहब -- इन तीनों के अलावा और कोई मिल नहीं सकता। यह जानकर बड़ी निराशा हुई। इतने दिनों से सोच रखा था, लेकिन यहाँ आकर भी दर्शन नहीं हुए। अपने- आप पर बहुत कोफ्त हुई। चाहता, तो कभी खुद ही कार्यक्रम बनाकर आ सकता था। किसी ने कहा- माता जी से मिल लीजिए, अब तो सारी शक्तियाँ उन्हीं के पास हैं। मन में एक उम्मीद बँधी, माताजी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करूँगा। शायद दर्शन हो ही जाएँ। माताजी से मिला। विगलित स्वर में उनसे विनती की- एकबार आचार्यश्री से मिलवा दें, बड़ी उम्मीद लेकर आया हूँ।

🔴 माताजी ने आँखें मूँद लीं, कुछ देर मौन रहीं, फिर उठकर अन्दर चली गईं। मैं चुपचाप बैठा भगवान से प्रार्थना करने लगा- हे भगवान बड़ी मुश्किल से अधिकारियों को मनाकर यहाँ तक आया हूँ। अब मुझ पर इतना अनुग्रह तो कर ही दो कि मैं उनसे मिल सकूँ। पल भर के लिए ही सही एक बार उनके दर्शन तो करा दो, प्रभु! मैं उधेड़बुन में पड़ा अकेला बैठा हुआ था। थोड़ी देर बाद माताजी लौट आईं। उन्होंने हँसते हुए मुझसे कहा- जाओ बेटा, मिल लो। गुरुदेव ने तुम्हें बुलाया है।

🔵 मैं उठकर तेजी से चल पड़ा। जिस कमरे में गुरुदेव बैठे थे, उसके अन्दर जाते ही तेज प्रकाश से आँखें चकाचौंध हो गईं। पूरा कमरा एक अलौकिक प्रकाश से भरा था। थोड़ी देर में आँखें उस प्रकाश की अभ्यस्त हुईं तो कमरे में फर्श से लेकर छत तक फैले उस प्रकाश के बीच मुझे पूज्य गुरुदेव दिखे, उनके अंग- अंग में प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। मैंने उनकी ओर देखा, लेकिन क्षण भर के लिए भी उनसे आँखें नहीं मिला सका।

🔴 मैंने महसूस किया कि उनकी आँखों से दिव्य प्रकाश की किरणें निकलकर मेरे अन्दर प्रविष्ट हो रही हैं। इस प्रक्रिया के प्रारंभिक क्षण तो असह्य- से थे, किन्तु शनैः शनैः वह प्रकाश मेरे संपूर्ण शरीर के लिए सहनीय होने लगा। अब मैं पूज्य गुरुदेव को आसानी से देख पा रहा था। वे शांत, प्रफुल्लित बैठे थे। वे मेरी ओर गहरी नजरों से देखकर मुस्कराये। फिर उन्होंने कहा- यह दिव्य प्रकाश तुम्हारे लिए अभेद्य रक्षा कवच का काम करेगा। सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तुम जो चाहोगे, वही होगा। अब कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

🔵 .....और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। पहले मेरी कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और सख्ती के कारण प्रशासनिक तथा राजनैतिक जगत की कुछ बड़ी हस्तियाँ मेरे विरुद्ध हो गई थीं, लेकिन, पूज्य गुरुदेव द्वारा किए गए उस शक्तिपात से मेरे सभी विरोधी एक- एक कर धराशाई होते चले गए और गुरुकृपा से मेरी चर्चा ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा के उदाहरण के रूप में होने लगी। 

🌹 शिवमूर्ति राय सेवानिवृत्त डी.जी.पी., (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 6)

🌹 सर्वोपरि उपलब्धि-प्रतिभा  

🔴 शक्ति की सर्वत्र अभ्यर्थना होती है, पर यदि उसका बहुमूल्य अंश खोजा जाए, तो उसे प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। विज्ञान उसी का अनुयायी है। सम्पदा उसी की चेरी है। श्रेय और सम्मान वही जहाँ-तहाँ से अपने साथ रहने के लिए घसीट लाती है। गौरव-गाथा उन्हीं की गायी जाती है। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय इसी विभूति के धनी लोगों में से कुछ होते हैं।          

🔵 दूरदर्शिता, साहसिकता और नीति-निष्ठा का समन्वय प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होता है। ओजस, तेजस् और वर्चस, उसी के नाम हैं। दूध गर्म करने पर मलाई ऊपर तैरकर आ जाती है। जीवन के साथ जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से निपटने का जब कभी अवसर आता है, तो प्रतिभा ही प्रधान सहयोगी की भूमिका निभाती देखी जा सकती है। 

🔴 सफलताओं में, उपलब्धियों में अनेकों विशेषताओं के योगदान की गणना होती है, पर यदि उन्हें एकत्रित करके एक ही शब्द में केन्द्रित किया जाए, तो प्रतिभा कहने भर से काम चल जाएगा और भी खुलासा करना हो, तो उसे अपने को, दूसरों को, संसार को और वातावरण को प्रभावित करने वाली सजीव शक्ति वर्षा भी कह सकते हैं।

🔵 अन्यान्य उपलब्धियों का अपना-अपना महत्त्व है। उन्हें पाने वाले गौरवान्वित भी होते हैं और दूसरों को चमत्कृत भी करते हैं, पर स्मरण रखने की बात यह है कि यदि परिष्कृत प्रतिभा का अभाव हो, तो प्राय: उनका दुरुपयोग ही बन पड़ता है। दुरुपयोग से अमृत भी विष बन जाने की उक्ति अप्रासंगिक नहीं है। शरीर बल से सम्पन्नों को आततायी, आतंकवादी, अनाचारी, आक्रमणकारी, अपराधी के रूप में उस उपलब्धि का दुरुपयोग करते और अपने समेत अन्यान्यों को संकट में धकेलते देखा जाता है। सम्पदा अर्जित करने वाले उसका सही उपयोग न बन पड़ने पर विलास, दुर्व्यसन उद्धत् अपव्यय, विग्रह खड़े करने वाले अहंकार-प्रदर्शन आदि में खर्च करते देखे गये हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अभेद आदर-निर्विकार न्याय

🔵 इस युग में भी जब कि बुद्धि-विकास तेजी से हो रहा है, लोगों में ऊँच-नीच, छूत-अछूत, छोटे-बड़े का भाव देखकर हर विचारशील व्यक्ति को कष्ट होता है। उस परिस्थिति में तो और भी जब कि सामाजिक न्याय के लिए भी पक्षपात होता है। साधारण कर्मचारी से लेकर बडे-बडे पदाधिकारी और न्यायाधीशों में भी इस तरह की प्रवंचना देखने मे आती है तो उन महापुरुषों की यादें उभर आती हैं, जिन्होंने कर्तव्यपरायणता से अपने पद को सम्मानित किया, आज की तरह उस पर कलंक का टीका नहीं लगाया।

🔴 बंबई हाईकोर्ट के जज गोंविद रानाडे को कौन नहीं जानता ? पर इसके लिए नहीं कि वे अंग्रेजी युग के सम्माननीय जज थे वरन इसलिये कि उन्होंने पद की अपेक्षा कर्तव्य पालन को उच्च माना और उसकी पूर्ति में कभी हिचक न होने दी।

🔵 एक बार की बात हैं- रानाडे साहब अपने कमरे में पुस्तक पढ़ रहे थे, तो उस समय कोई अत्यत दीन और वेषभूषा से दरिद्र व्यक्ति उनसे मिलने गया अफसरों के लिये इतना ही काफी होता है अपने पास से किसी को भगा देने के लिए। कोई अपना मित्र संबंधी, प्रियजन हो तो सरकारी काम की भी अवहेलना कर सकते है पर न्याय के लिए हर-आम की बात गौर से सुन लेना, अब शान के खिलाफ माना जाता है।

🔴 रानाडे इस दृष्टि से निर्विकार थे। उन्होंने अपने चपरासी से कहा-उस व्यक्ति को आदरपूर्वक भीतर ले आओ। कोइ छोटी जाति का आदमी था। नमस्कार कर एक ओर खडा हो गया। कहने लगा हुजूर मेरी एक प्रार्थना है।

🔵 "सो तो मैं सुनूँगा।" जज साहब ने सौम्य शब्दों में कहा- "पहले आप कुर्सी पर बैठिए।"

🔴 "हुजूर मैं छोटी जाति का आदमी हूँ आपके सामने कैसे बैठ जाऊ, यो ही खडे-खडे अर्ज कर देता हूं।"

🔵 रानाडे जानते थे, इनके साथ हर जगह उपेक्षापूर्ण बर्ताव होता है, इसीलिए वह यहाँ भी डर रहा है। उनके लिए यह बडा दुःख था कि मनुष्य-मनुष्य में भेद जताकर उसका अनादर करता है। परिस्थितियों में किसी को हीन स्थिति मिली तो इसका यह अर्थ नही होता है कि उन्हें दुतकारा जाए और सामाजिक न्याय से वंचित रखा जाए। भेद किया जाए तो हर व्यक्ति दूसरे से छोटा है। जब चाहे, जो चाहे जिसका अनादर कर सकता है। ऐसा होने लगे तो संसार में प्रेमा-आत्मीयता और आदर का लेशमात्र स्थान न बचे।

🔴 जज साहब ने उसे पहले आग्रहपूर्वक कुर्सी पर बैठाया और फिर अपनी बात कहने के लिए साहस बंधाया था।

🔵 बंबई नगरपालिका के विरुद्ध अभियोग था। साधारण व्यक्ति होने के कारण सुनवाई न हुई थी, वरन् उसे जहाँ गया डॉट- फटकार ही मिली थी। आजकल वैसा नही होता तो बहानेबाजी, रिश्वतखोरी की बाते चलती हैं दोनों एक-सी है। फिर जितना उपर बढो़ सुनवाई की संभावना भी उतनी ही मंद पड़ती जाती है।

🔴 जज साहब ने बात ध्यान से सुनी और कहा- "मैं सब कुछ आज ही ठीक कर दूँगा।" आश्वासन पाकर उस दीन जन की आँखें भर आईं। जज साहब ने उसी दिन उस बेचारे का वर्षों का रुका काम निबटाया। यह भी हिदायत दी कि किसी को निम्न वर्ग वाला, अशिक्षित या अछूत मानकर उपेक्षित और न्याय से वंचित न रखा जाए।

🔵 जज साहब की यह आदर्शवादिता यदि आज के पदाधिकारियों में होती तो भारतीय लोकतंत्र उजागर हो जाता।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 52, 53

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 22)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘हैल्थ’ का शाब्दिक अर्थ ‘शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से पुष्ट होना लिखा है। अर्थात् मस्तिष्क जितना पुष्ट रहता है शरीर उतना ही पुष्ट होगा और मस्तिष्क के पुष्ट होने का एक ही उपाय है ज्ञान वृद्धि। शास्त्रकारों ने भी ज्ञान वृद्धि को ही अमरता का साधन कहा है। भारतीय ऋषि-मुनियों का दीर्घजीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सभी ऋषि दीर्घ जीवी हुए हैं उनके जीवन क्रम में ज्ञानार्जन ही सबसे बड़ी विशेषता रही है। इसके लिए तो उन्होंने वैभव विलास का जीवन तक ठुकरा दिया था। वे निरन्तर अध्ययन में लगे रहते थे जिससे उनका नाड़ी संस्थान कभी शिथिल न होने पाता था और वे दो-दो, चार-चार सौ वर्ष तक हंसते-खेलते जीते रहते थे।

🔵 पुराणों के अध्ययन  से पता चलता है कि वशिष्ठ, विश्वामित्र, दुर्वासा, व्यास आदि की आयु कई-कई सौ वर्ष की थी। जामवन्त की कथा लगती कपोल कल्पित है पर अमेरिकी वैज्ञानिकों का कथन सत्य है तो उस कल्पना को भी निराधार नहीं कहा जा सकता है। कहते हैं जामवन्त बड़ा विद्वान था। वेद उपनिषद् उसे कण्ठस्थ थे वह निरन्तर पढ़ा ही करता था और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उससे लम्बा जीवन प्राप्त किया था। वामन अवतार के समय वह युवक था। रामचन्द्र का अवतार हुआ तब यद्यपि उसका शरीर काफी वृद्ध हो गया था पर उसने रावण के साथ युद्ध में भाग लिया था। उसी जामवन्त के कृष्णावतार में भी उपस्थित होने का वर्णन आता है।

🔴 दूर की क्यों कहें ‘पेंटर मार्फेस’ ने ही अपने भारत के इतिहास में ‘नूमिस्देको गुआ’ नामक एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन किया है जो सन् 1566 ई. में 370 की आयु में मरा था। इस व्यक्ति के बारे में इतिहासकार ने लिखा है कि मृत्यु के समय भी उसे अतीत की घटनाएं इतनी स्पष्ट याद थीं जैसे अभी वह कल की बाते हों। यह व्यक्ति प्रतिदिन 6 घण्टे से कम नहीं पढ़ता था। डा. लेलार्ड कार्डेल लिखते हैं—‘‘मैंने शिकागो निवासिनी श्रीमती ल्यूसी जे. से भेंट की तब उनकी आयु 108 वर्ष की थी। मैं जब उनके पास गया तब वे पढ़ रही थीं। बात-चीत के दौरान पता चला कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज है वे प्रतिदिन नियमित रूप से पढ़ती है।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (अंतिम भाग)

🌹 उदारता अपनाई ही जाए

🔵 समय को अत्यन्त दुरूह समझा जा रहा है और मान्यता बनती जा रही है कि यह बढ़ते हुए कदम मानवी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी समापन करके रहेेंगे। क्या हम सब अगले ही दिनों सामूहिक आत्महत्या का यह विनाश आयोजित करके रहेंगे?      

🔴 स्थिति को कैसे बदला जाये? इसके सम्बन्ध में तरह तरह के उत्पादनों, उपकरणों, निर्धारणों की बात सोची जाती है। वैज्ञानिक, मनीषी, सत्ताधारी, शक्तिशाली, अपने-अपने ढंग से यह भी सोचते हैं कि प्रस्तुत अनर्थ को यदि सुसंरचना में बदला जा सके, तो इसकी तैयारी के लिए बड़े साधन, बड़े-बड़े आधार खड़े किये जाने चाहिए। ऐसी योजनाएँ भी आए दिन सुनने को मिलती हैं और जताई-बताई भी जाती है कि अधिक साधन सम्पन्न संसार विनिर्मित करने के लिए बड़े लोग कुछ बड़े कदम उठाने, बड़े विधान बनाने जा रहे हैं। इतने पर भी निराशा को हटाने में राई रत्ती भी सफलता मिलती दीख नहीं पड़ती, क्योंकि वस्तुत: मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। 

🔵 यदि मानसिकता को आदर्शवादी उत्कृष्टता के साथ न जोड़ा जा सका, तो स्थिति सुधरेगी, सुलझेगी नहीं, वरन् विपत्तियाँ और भी नजदीक आती, और भी रौद्र रूप धारण करती चली जायेंगी। समस्याओं का सामाधान भले ही आज हो या आज से हजार वर्ष बाद, पर उसका समाधान मात्र एक ही उपाय से सम्भव होगा, कि मन:स्थिति में संव्याप्त अवाञ्छनीयता को पूरी तरह बुहार फेंका जाये जो प्रस्तुत उलटे प्रवाह को अपनी प्रचण्ड शक्ति के सहारे उलटकर सीधा कर सके।    

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 4)

🌹 नर-पशु से नर-नारायण

🔴 भारतीय धर्म के अनुसार मनुष्यों को दो बार जन्म लेने वाला होना चाहिए। एक बार जन्म सभी कीट- पतंगों और जीव- जन्तुओं का हुआ करता है। एक बार जन्म का अर्थ है- शरीर का जन्म। शरीर के जन्म का अर्थ है- शरीर से सम्बन्धित रहने वाली इच्छाओं और वासनाओं, कामनाओं और आवश्यकताओं का विकास और उनकी पूर्ति। दूसरा जन्म है- जीवात्मा का जन्म, उद्देश्य का जन्म और परमात्मा के साथ आत्मा को जोड़ देने वाला जन्म। इसी का नाम मनुष्य है। जो मनुष्य पेट के लिए जिया, सन्तान उत्पन्न करने के लिए जिया, वासना और तृष्णा के लिए जिया, वो उसी श्रेणी में भावनात्मक दृष्टि से रखा जा सकता है, जिस श्रेणी में पशु और पक्षियों को रखा गया है, कीड़े और मकोड़ों को रखा गया है। 

🔵 कीड़े, मकोड़ों का भी उद्देश्य यही है- पेट पाले, बच्चा पैदा करे, दूसरा उनके सामने कोई लक्ष्य नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, कोई उद्देश्य नहीं। जिन लोगों के सामने यही दो बातें हैं, उनको इसी श्रेणी में गिना जायेगा। चाहे वो विद्वान् हों, पढ़े- लिखे हों, लेकिन जिनका अन्तःकरण इन दो ही क्रियाओं के पीछे लगा हुआ हैं, दो ही महत्त्वाकाँक्षाएँ हैं, उन्हें पशु योनि से आगे कुछ नहीं कह सकते, उनको नर- पशु कहा जायेगा।

🔴 भारतीय धर्म की एक बड़ी विशेषता यह है, जिसने नर को पशु की योनि में पैदा होने के लिए इनकार नहीं किया, लेकिन इस बात पर जोर दिया है कि जैसे- जैसे मानवीय चेतना का विकास होना चाहिए, उस हिसाब से उसको मनुष्य के रूप में विकसित होना चाहिए और मनुष्यता की जिम्मेदारियों को अपने सिर पर वहन करना चाहिए। मनुष्य की जिम्मेदारियाँ क्या हैं? मनुष्य की वे जिम्मेदारियाँ जो जीवात्मा की जिम्मेदारी है। भगवान् के उद्देश्यों को लेकर के मनुष्य को पैदा किया गया है, उसको पूरा करने की जिम्मेदारियाँ हैं। भगवान् ने मनुष्य को कुछ विशेष उद्देश्य से बनाया और उसके पीछे उसका विशेष प्रयोजन था। ऐसा न होता, तो जो अन्य कीड़े और मकोड़ों को, जीव और जन्तुओं को सुख- सुविधाएँ दी थीं, उससे ज्यादा मनुष्यों को क्यों दी होतीं?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 62)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 पिछली बार जो तीन परीक्षाएँ ली थीं, इस बार इनमें से एक से भी पाला नहीं पड़ा। जो परीक्षा ली जा चुकी है, उसी को बार-बार लेने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई। गंगोत्री तक का रास्ता ऐसा था जिसके लिए किसी से पूछताछ नहीं करनी थी। गंगोत्री से गोमुख के 14 मील ही ऐसे हैं जिनका रास्ता बर्फ पिघलने के बाद हर साल बदल जाता है, चट्टानें टूट जाती हैं और इधर-उधर गिर पड़ती हैं। छोटे नाले भी चट्टानों से रास्ता रुक जाने के कारण अपना रास्ता इधर से उधर बदलते रहते हैं। नए वर्ष का रास्ता यों तो उस क्षेत्र से परिचित किसी जानकार को लेकर पूरा करना पड़ता था या फिर अपनी विशेष बुद्धि का सहारा लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ते और रुकावट आ जाने पर लौटकर दूसरा रास्ता खोजने का क्रम चलता रहा। इस प्रकार गोमुख जा पहुँचे।

🔵 आगे के लिए गुरुदेव का संदेशवाहक साथ जाना था वह भी सूक्ष्म शरीरधारी था। छाया पुरुष यों वीरभद्र स्तर का था। समय-समय पर वे उसी से अनेकों काम लिया करते थे। जितनी बार हमें हिमालय जाना पड़ा, तब नन्दन वन एवं और ऊँचाई तक तथा वापस गोमुख पहुँचाने का काम उसी के जिम्मे था। सो उस सहायक की सहायता से हम अपेक्षाकृत कम समय में और अधिक सरलता पूर्वक पहुँच गए। रास्ते भर दोनों ही मौन रहे।

🔴  नन्दन वन पहुँचते ही गुरुदेव का सूक्ष्म शरीर प्रत्यक्ष रूप में सामने विद्यमान था। उनके प्रकट होते ही हमारी भावनाएँ उमड़ पड़ीं। होंठ काँपते रहे। नाक गीली होती रही। ऐसा लगता रहा मानों अपने ही शरीर का कोई खोया अंग फिर मिल गया हो और उसके अभाव में जो अपूर्णता रहती हो सो पूर्ण हो गई हो। उनका सिर पर हाथ रख देना हमारे प्रति अगाध प्रेम के प्रकटीकरण का प्रतीक था। अभिवादन आशीर्वाद का शिष्टाचार इतने से ही पूर्ण हो गया। गुरुदेव ने हमें संकेत किया, ऋषि सत्ता से पुनः मार्गदर्शन लिए जाने के विषय में हृदय में रोमांच हो उठा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 63)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔵 साधनात्मक जीवन की तीन सीढ़ियाँ हैं। तीनों पर चढ़ते हुए एक लंम्बी मंजिल पार कर ली गई। (१) मातृवत् परदारेषु (२) परद्रव्येषु लोष्ठवत् की मंजिल सरल थी, वह अपने- आप से सम्बन्धित थी। लड़ना अपने से था, संभालना अपने को था, तो पूर्व जन्मों के संस्कार और समर्थ गुरू की सहायता से इतना सब आसानी से बन गया। मन उतना ही दुराग्रही दुष्ट न था, जो कुमार्ग पर घसीटने की हिम्मत करता। यदा- कदा उसने इधर- उधर भटकने की कल्पना भर की। जब प्रतिरोध का डंडा जोर से सिर पर पड़ा ,, तो सहम गया और चुपचाप सही राह चलता रहा। मन से लड़ते, झगड़ते, पाप और पतन से भी बचा लिया गया।  

🔴 अब जबकि सभी खतरे टल गये तब संतोष की साँस ले सकते हैं। दास कबीर ने झीनी- झीनी बीनी चदरिया, जतन से ओढ़ी थी और बिना दाग- धब्बे ज्यों की त्यों वापिस कर दी। परमात्मा को अनेक धन्यवाद कि उसने  सही राह पर हमें चला दिया और उन्हीं पदचिन्हों को ढ़ूढ़ते तलाशते, उन्हीं आधारों को मजबूती के साथ पकड़े हुए उस स्थान तक पहुँच गये, जहाँ लुढ़कने और गिरने का खतरा नहीं रहता। 

🔵 अध्यात्म की कर्मकाण्डात्मक प्रक्रिया बहुत कठिन नहीं होती। संकल्प बल मजबूत हो, श्रद्धा और निष्ठा भी कम न पड़े तो मानसिक उव्दिग्नतानहीं होती और शांतिपूर्वक मन लगने लगता है। और उपासना के विधि- विधान गड़बड़ाए बिना अपने ढ़र्रे पर चलते रहते हैं। मामूली दुकानदार सारी जिन्दगी एक ही दुकान पर, एक ही ढर्रे से पूरी दिलचस्पी के साथ काट लेता है। न मन डूबता है न अरुचि होती है। पान- सिगरेट के  दुकानदार १२- १४ घण्टे अपने धन्धे को उत्साह और शान्ति के साथ आजीवन करते रहते हैं, तो हमें ६- ७ घण्टे प्रतिदिन की गायत्री साधना २४ वर्ष तक चलाने का संकल्प तोड़ने की आवश्यकता क्यों पड़ती। मन उनका उचटता है जो उपासना को पान- बीड़ी की खेती- बाड़ी का, मिठाई- हलवाई के धन्धे से भी कम लाभदायक समझते हैं। बेकार के अरुचिकर कामों में मन नहीं लगता

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 26 Feb 2017


👉 खण्डित होने से बचा समयदान का संकल्प

🔴 बात सन् 1990 ई. की है। पूज्य गुरुदेव ने महाप्रयाण से कुछ दिन पूर्व अपने नैष्ठिक साधकों को बुलाकर कहा था कि बेटे, हमें अब मिशन का कार्य तीव्र गति से करना है और ऐसे में हमारा स्थूल शरीर अधिक उपयुक्त नहीं जान पड़ता है, अतः अब हम इस स्थूल काया को छोड़ना चाहते हैं। तब साधकों ने कहा-गुरुजी, जब आप शरीर से नहीं रहेंगे तो इस मिशन को गति कौन प्रदान करेगा। मिशन का कार्य कैसे होगा? तब गुरुजी ने कहा-बेटे हम सूक्ष्म शरीर से कार्य करेंगे। स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर के द्वारा हम मिशन के कार्य को और अधिक तीव्र गति से कर पाएँगे।
   
🔵 यह प्रसंग अखण्ड ज्योति पत्रिका में प्रकाशित एक लेख का है। इस लेख को पढ़कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि पूज्य गुरुदेव अपने सूक्ष्म शरीर से कैसे कार्य करते होंगे। लेकिन जब मेरे जीवन में एक अविस्मरणीय घटना घटी, तो यह बात समझ में आ गई कि किस प्रकार गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से तरह-तरह के काम किया करते हैं।
   
🔴 सन् 2009 में मैं पहली बार शान्तिकुञ्ज आया था। यहाँ की आध्यात्मिक ऊँचाइयों से प्रभावित मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि अपने क्षेत्र में भी पाँच कुण्डीय गायत्री महायज्ञ करवाऊँगा। पंचकुण्डीय यज्ञ में पू. गुरुदेव कदम-कदम पर सूक्ष्म रूप से सहायता करते रहे। अगले वर्ष पुनः शान्तिकुञ्ज आकर नौ दिवसीय साधना सत्र करने के बाद एक मासीय युग शिल्पी सत्र पूरा किया और लगे हाथों यहाँ की डिस्पेन्सरी में तीन माह के लिए समयदान करना शुरू कर दिया। अभी समयदान की अवधि पूरी भी नहीं हुई थी कि एक विकट समस्या खड़ी हो गयी। वह रविवार का दिन था। तारीख थी 23 अक्टूबर 2010। रात के लगभग दस बजे मेरे घर से फोन आया कि पिताजी के बाएँ हाथ में पैरालाइसिस हो गया है। यह सुनकर मैं सकते में आ गया। अपने-आपको जैसे तैसे सहज करके मैंने यह जानने की कोशिश की कि अचानक यह अटैक कैसे हो गया। माँ ने बताया कि शाम के लगभग ४ बजे जब पिताजी गेहूँ की बोरी उठाने लगे, तो उन्हें लगा कि उनका बायाँ हाथ पूरी तरह से सुन्न हो गया है। उन्होंने माताजी को बुलाकर कहा कि उनका बायाँ हाथ काम नहीं कर रहा है। यह सुनकर माताजी घबरा उठीं। उन्होंने पिताजी का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे दबाना और झटकना शुरू किया। लेकिन इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।
   
🔵 घर के सभी सदस्य अपना-अपना काम छोड़कर पिताजी के पास इकट्ठे हो गए। आपस में विचार करके सबने यही तय किया कि तुरंत किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। थोड़ी देर बाद ही उन्हें मुजावरपुर के डॉ. श्री नृपाल सिंह सिगड़ोरे के पास ले जाया गया। जाँच करने पर पता चला कि पिताजी का ब्लडप्रेशर नार्मल से बहुत ही कम हो चुका है। डॉक्टर साहब ने बताया कि लो ब्लडप्रेशर ही पैरालाइसिस की वजह है। उन्होंने यह भी कहा कि बाँए अंग का पैरालाइसिस बहुत ही गंभीर होता है। लम्बे इलाज के बाद भी यह बड़ी मुश्किल से ठीक हो पाता है। दवा देकर डॉक्टर ने कुछ दिनों तक बेड रेस्ट का सुझाव दिया।
   
🔴 घर वापस आने के बाद पिताजी ने सारी बात फोन पर बताकर मुझे शांतिकुंज से तुरंत घर वापस आने को कहा। पिताजी के बारे में जानकर मेरा मन चिंता से भर उठा था। सुबह की ट्रेन से ही मेरा वापस जाना जरूरी था, लेकिन समयदान का संकल्प खंडित हो जाने का भय मुझे खाए जा रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि करूँ  तो क्या करूँ। ऊपर से विभागीय अनुमति मिलने की भी संभावना नहीं दिख रही थी क्योंकि प्रभारी डॉक्टर गायत्री शर्मा पिछले कुछ दिनों से शांतिकुंज में नहीं थीं। गाँव वापस जाने को लेकर अनिश्चय की स्थिति में ही मैंने घर फोन मिलाकर माँ-पिताजी को कहा कि वे आज से ही घर में दीपक जलाकर नित्य कम से कम तीन माला गायत्री मंत्र का जप शुरू कर दें। मैंने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा कि आप लोग चिन्ता मत कीजिए। पूज्य गुरुदेव की कृपा से सब ठीक हो जाएगा। पिताजी के स्वास्थ्य लाभ के लिए माताजी ने उसी दिन से गायत्री महामंत्र का जप आरम्भ कर दिया। इधर मैंने भी अपनी प्रातःकालीन साधना के दौरान माता गायत्री से पिताजी को शीघ्र स्वस्थ कर देने की प्रार्थना की। फिर मैं पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी के समाधि स्थल पर सिर टिकाकर उनसे प्रार्थना करने लगा कि वे मेरी इतनी कठिन परीक्षा न लें। यदि मेरा यह समयदान का संकल्प पूरा नहीं हुआ तो मेरी आत्मा मुझे हमेशा धिक्कारती रहेगी। किन्तु यदि मेरे पिताजी की बीमारी इसी प्रकार बनी रहती है तो आत्मा पर बोझ रखकर भी मुझे वापस जाना ही पड़ेगा। अब इस दुविधा से मुझे आप ही उबार सकते हैं।
   
🔵 अब मेरे डिस्पेन्सरी जाने का समय हो चुका था। वहाँ जाकर दिन भर तो मरीजों के दुःख बाँटने मेंं लगा रहा लेकिन शाम को आवास पर वापस आते ही एक बार फिर से चिन्तातुर हो गया। पूरा ध्यान घर की परिस्थितियों पर ही लगा था। तभी शाम को साढ़े पाँच बजे घर से पिताजी का फोन आया। उनकी आवाज प्रसन्नता से भरी हुई थी। उन्होंने बताया कि उन्होंने मेरे कहे अनुसार दीप जलाकर गायत्री मंत्र की तीन माला का जप पूरा कर लिया है और जप के पूरा होते-होते उन्हें लगभग 80 प्रतिशत आराम मिल चुका है।
   
🔴 यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पिताजी से सुनकर भी सहज ही विश्वास नहीं हो रहा था कि सिर्फ तीन माला गायत्री जप से ही पैरालाइसिस जैसी घातक बीमारी लगभग 80 प्रतिशत ठीक हो गई। गुरुसत्ता की इस असीम अनुकम्पा से मेरी आँखें भर आईं। मैं अपने-आप से कहने लगा-गुरुसत्ता ने अपने परिजनों को ठीक ही यह आश्वासन दिया है कि तुम मेरा काम करो और मैं तुम्हारा काम करूँगा। एक हफ्ते बाद ही घर से पिताजी का दूसरा फोन आया कि अब उनका हाथ पूरी तरह से काम करने लगा है और मेरे गाँव आने की आवश्यकता नहीं रह गई है। पावन गुरुसत्ता की इस असीम कृपा के लिए हमारा शत-शत नमन।  

🌹 डॉ. राजेश कुमार चौरिया, चारगाँव, छिन्दवाड़ा (म. प्र.) 
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 5)

🌹 सर्वोपरि उपलब्धि-प्रतिभा  

🔴 संसार सदा से ऐसा नहीं था, जैसा कि अब सुन्दर, सुसज्जित, सुसंस्कृत और समुन्नत दीखता है। आदिकाल का मनुष्य भी वनमानुषों की तरह भूखा-नंगा फिरता था। ऋतु-प्रभावों से मुश्किल से ही जूझ पाता था। जीवित रहना और पेट भरना ही उसके लिए प्रधान समस्या थी और इतना बन पड़ने पर वह चैन की साँस भी लेता था। संसार तब इतना सुन्दर कहाँ था? यहाँ खाई-खंदक टीले, ऊसर, बंजर, निविड़ वन और अनगढ़ जीव-जन्तु ही जहाँ-तहाँ दीख पड़ते थे। आहार, जल और निवास तक की सुविधा न थी, फिर अन्य साधनों का उत्पादन और उपयोग बन पड़ने की बात ही कहाँ बन पाती होगी?         

🔵 आज का हाट-बाजारों उद्योग-व्यवसायों विज्ञान-आविष्कारों सुविधा-साधनों अस्त्र-शस्त्र सज्जा-शोभा शिक्षा और सम्पदा से भरा-पूरा संसार अपने आप ही नहीं बन गया है। उसने मनुष्य की प्रतिभा विकसित होने के साथ-साथ ही अपने कलेवर का विस्तार भी किया है। श्रेय मनुष्य को दिया जाता है, पर वस्तुत: दुनियाँ जानती है कि वहाँ सब कुछ सम्पदा और बुद्धिमत्ता का ही खेल है। इससे दो कदम आगे और बढ़ाया जा सके, तो सर्वतोमुखी प्रगति का आधार एक ही दीख पड़ता है प्रतिभा-परिष्कृत प्रतिभा। इसके अभाव में अस्तित्व जीवित लाश से बढ़कर और कुछ नहीं रह जाता।

🔴 सम्पदा का इन दिनों बहुत महत्त्व आँका जाता है; इसके बाद समर्थता, बुद्धिमत्ता आदि की गणना होती है। पर और भी ऊँचाई की ओर नजर दौड़ाई जाए, तो दार्शनिक, शासक, कलाकार, वैज्ञानिक, निर्माता एवं जागरूक लोगों में मात्र परिष्कृत प्रतिभा का ही चमत्कार दीखता है। साहसिकता उसी का नाम है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता के रूप में उसे जाना जा सकता है। यदि किसी को वरिष्ठता या विशिष्टता का श्रेय मिल रहा हो, तो समझना चाहिए कि यह उसकी विकसित प्रतिभा का ही चमत्कार है। इसी का अर्जन सच्चे अर्थों में वह वैभव समझा जाता है, जिसे पाकर गर्व और गौरव का अनुभव किया जाता है। व्यक्ति याचक न रहकर दानवीर बन जाता है। यही है वह क्षमता, जो अस्त्र-शस्त्रों की रणनीति का निर्माण करती है और बड़े से बड़े बलिष्ठों को भी धराशायी कर देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...