शुक्रवार, 31 मार्च 2017

👉 आज का सद्चिंतन 1 April 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 1 April 2017


👉 अनावश्यक वस्तुओं का क्या करूँ?

🔴 बल्लभाचार्य के समय में अनेक वैष्णव भक्त हुए पर उनमें कुंभनदास का नाम आज भी बडी़ श्रद्धा से लिया जाता है। यद्यपि वह परिवार में रहते थे पर परिवार उनमें नहीं। कषि कार्य करने के बाद भी वह इतना समय बचा लेते थे कि जिसमें भक्ति के अनेक सुंदर-सुंदर गीतों की रचना कर सकें।

🔵 जब वे अपने भक्ति-रस से पूर्ण गीतों को मधुर कंठ से गाते थे तो राह चलते लोग खड़े होकर सुनने लगते थे। भगवान् के भक्त निर्धनता को वरदान समझते हैं। उनका विश्वास है कि अभाव का जीवन जीने वाले भक्तों की ईश्वर को याद सदैव आती रहती है।

🔴 हाँ कुंभनदास भी भौतिक संपदाओं से वंचित थे। वह इतने निर्धन थे कि मुख देखने के लिए एक दर्पण तक न खरीद सकते थे। स्नान के बाद जब कभी चंदन लगाने की आवश्यकता होती तो किसी पात्र में जल भरकर अपना चेहरा देखते थे।

🔵 जल से भरे पात्र को सामने रखे कुंभनदास तिलक लगा रहे थे कि महाराजा मानसिंह उनके दर्शन हेतु पधार गये। महाराजा ने आकर अभिवादन में 'जय श्रीकृष्ण' कहा-उत्तर में भक्त ने भी उन्हें पास बैठने का संकेत देते हुए 'जय श्री कृष्ण' कहा। पर जल्दी में उस पात्र का जल फैल गया। अतः कुंभनदास ने अपनी पुत्री से पुनः जल भरकर लाने को कहा। राजा को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। उन्हें यह जानकर बडा दुःख हुआ कि भगवान् का भक्त एक छोटी-सी वस्तु दर्पण के अभाव में कैसा कष्ट उठा रहा है ? राजा मानसिंह ने अपने महल में एक सेवक भेजकर स्वर्णजटित दर्पण मँगवाया और भक्त के चरणों मे अर्पित कर क्षमा माँगी।

🔴 कुंभनदास बोले-'राजन्! हम जैसे निर्धन व्यक्ति के घर में इतनी मूल्यवान वस्तु क्या शोभा दे सकती है ?
 
🔵 मेरी तरफ से यह तुच्छ भेंट तो आपको स्वीकार ही करनी पडेगी। आपको जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उनकी सूची दे दीजिए। घर जाकर मैं आपकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखकर समस्त वस्तुओं की व्यवस्था करवा दूँगा। राजा मानसिंह ने आग्रह के स्वर में अपनी बात कही।

🔴 'राजन् निश्चिंत रहिए और अपनी जनता के प्रति उदार तथा कर्तव्य की भावना बनाए रखिए। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, भगवान् की कृपा से सब प्रकार आनंद है। आप देखते नहीं भगवान का नाम स्मरण हेतु माला, आचमन और पूजन के लिए पंचपात्र बैठने के लिए आसन आदि सभी उपयोगी वस्तुऐं तो हैं। कृपया आप यह दर्पण वापिस ले जाइए। जिस दिन भक्त भी इसी प्रकार का भोग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगेंगे उन दिन उनकी भक्ति समाप्त हो जायेगी।

👉 गायत्री चालीसा का अनुष्ठान

🔵 जो लोग अधिक कार्य व्यस्त हैं, जो अस्वस्थता या अन्य कारणों से नियमित साधन नहीं कर सकते वे गायत्री चालीसा के 108 पाठों का अनुष्ठान कर सकते हैं। 9 दिन नित्य 12 पाठ करने से करने से नवरात्रि में 108 पाठ पूरे हो सकते हैं प्रायः डेढ़ घण्टे में 12 पाठ आसानी से हो जाते हैं। इसके लिए किसी प्रकार के नियम, प्रतिबन्ध, संयम, तप आदि की आवश्यकता नहीं होती। अपनी सुविधा के किसी भी समय शुद्धता पूर्वक उत्तर को मुख करके बैठना चाहिए और 12 पाठ कर लेने चाहिए। अन्तिम दिन 108 या 24 गायत्री चालीसा धार्मिक प्रकृति के व्यक्तियों में प्रसाद स्वरूप बाँट देना चाहिए।

🔴 स्त्रियाँ, बच्चे, रोगी, वृद्ध पुरुष तथा अव्यवस्थित दिनचर्या वाले कार्य व्यस्त लोग इस गायत्री चालीसा के अनुष्ठान को बड़ी आसानी से कर सकते हैं। यों तो गायत्री उपासना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में उसका फल विशेष होता है। गायत्री को भू-लोक की कामधेनु कहा गया है। यह आत्मा की समस्त क्षुधा पिपासाओं को शान्त करती है। जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाने की सामर्थ्य से परिपूर्ण होने के कारण उसे अमृत भी कहते हैं। गायत्री का स्पर्श करने वाला व्यक्ति कुछ से कुछ हो जाता है इसलिए उसे पारसमणि भी कहते हैं। अभाव, कष्ट, विपत्ति, चिंता, शोक एवं निराशा की घड़ियों गायत्री का आश्रय लेने से तुरन्त शाँति मिलती है, माता की कृपा प्राप्त होने से पर्वत के समान दीखने वाले संकट राई के समान हलके हो जाते हैं और अन्धकार में भी आशा की किरणें प्रकाशमान होती हैं।

🔵 गायत्री को शक्तिमान, सर्वसिद्धि दायिनी सर्व कष्ट निवारिणी कहा गया है। इससे सरल, सुगम, हानि रहित, स्वल्परमसाध्य एवं शीघ्र फलदायिनी साधना और कोई नहीं है। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। अभीष्ट अभिलाषा की पूर्ति में कोई कर्म फल विशेष बाधक हो तो भी किसी न किसी रूप में गायत्री साधना का सत् परिणाम साधक को मिलकर रहता है। उलटा या हानिकारक परिणाम होने की तो गायत्री साधना में कभी कोई सम्भावना ही नहीं है। यों तो गायत्री साधना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में तो यह उपासना विशेष रूप से श्रेयष्कर होती है। इसलिए श्रद्धापूर्वक अथवा परीक्षा एवं प्रयोग रूप में ही सही-उसे अपनाने के लिए हम प्रेमी पाठकों से अनुरोध करते रहते हैं। गायत्री साधना के सत्य परिणामों पर हमारा अटूट विश्वास है। जिन व्यक्तियों ने भी यदि श्रद्धापूर्वक माता का अंचल पकड़ा है उन्हें हमारी ही भाँति अटूट विश्वास प्राप्त होता है।

🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1996

👉 अपनी नवरात्रि की साधना को प्रखर करे

🔵 जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा के सूत्रों के समग्र समावेश का एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिए, जिसमें कि आत्म निर्माण के साथ परिवार एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के भी बखूबी निर्वाह की समग्र रूपरेखा निर्मित हो। यदि इस तरह भावी जीवन की एक स्पष्ट एवं परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानकर चलना चाहिए कि श्रेष्ठ गतिविधियों को अपनाते हुए ही हम अपनी श्रेष्ठ सम्भावनाओं को साकार कर सकते हैं और ईश्वरीय अनुग्रह के सुपात्र-अधिकारी बन सकते हैं।

🔴 अपनी नवरात्रि की साधना को प्रखर करने के लिए कुछ साधना सूत्रों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इनमें प्रमुख है-उपवास, ब्रह्मचर्य, कठोर बिछौने पर शयन करना, किसी से सेवा न लेना एवं दिनचर्या को पूर्णतया नियमित एवं अनुशासित रखना।

🔵 इसके साथ मानसिक धरातल पर दिन भर उपासना के क्षणों के भावप्रवाह को बनाये रखने का प्रयास करें। अपने दैनिक कर्तव्य-दायित्व में संलग्न रहते हुए अधिक से अधिक अपने ईष्ट चिंतन में निमग्न रहें। ईर्ष्या-द्वेष, परिचर्चा-निन्दा आदि से दूर ही रहें। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखें। विपरीत परिस्थितियों को आदिशक्ति जगज्जननी माँ गायत्री व परम कृपालु गुरुदेव का कृपा प्रसाद मानकर प्रसन्न रहने का प्रयास करें।

🔴 सबके प्रति आत्मीयतापूर्ण सद्भाव रखें। सृष्टि के सभी प्राणी जगन्माता गायत्री की संतानें हैं। सबमें माँ ही समाई है, ऐसी भावानुभूति में जीने का प्रयास करें। स्वयं संयम, स्वाध्याय, साधना एवं सेवा के सत्मार्ग पर बढ़ें, दूसरों को भी इस पर बढ़ने के लिए प्रेरित करें। अपने स्तर पर सत्पात्र की सहायता करें।

🔵 इस भावभूमि में उपरोक्त सूत्रों के साथ सम्पन्न नवरात्रि की साधना निश्चित रूप से साधक पर गायत्री महाशक्ति एवं गुरुसत्ता के अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली सिद्ध होगी और साधक अभीष्ट सिद्धि के साथ अनुष्ठान को सम्पन्न होते देखेगा। पूर्णाहुति के दिन साधक हवन में अवश्य भाग ले। प्रत्येक आहुति के साथ भाव करे कि देव परिवार के सदस्यों के सामूहिक साधनात्मक पुरुषार्थ से चहुँओर संव्याप्त विषम प्रवाह छँट रहा है और उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावनाएँ साकार हो रही हैं।

🌹 ~अखण्ड ज्योति मार्च 2004

👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 2)

🔵 क्या नौ दिन काफी मात्र नहीं हैं? नहीं- नौ दिन काफी नहीं हैं। यह अभ्यास है सारे जीवन को कैसा जिया जाना चाहिए, उसका। आप इस शिविर में आकर और कुछ सीख पाए कि नहीं पर एक बात अवश्य नोट करके जाना। क्या? वह है अध्यात्म की परिभाषा- अध्यात्म अर्थात् “साइंस ऑफ सोल”। अपने आपको सुधारने की विधा, अपने आपको सँभालने की विधा, अपने आपको समुन्नत करने की विधा। आपने तो यह समझा है कि अध्यात्म अर्थात् देवता को जाल में फँसाने की विधा, देवता की जेब काटने की विधा। आपने यही समझ रखा है न। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप जो सोचते हैं बिल्कुल गलत है। जब तक बेवकूफी से भरी बेकार की बातें आप अपने दिमाग में जड़ जमाए बैठे रहेंगे, झख ही झख मारते रहेंगे।

🔴 खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फँस गया। दाना फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिये के तरीके से फँसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास सिद्धान्त यही है? मैं आपसे ही पूछता हूँ, जरा बताइए तो सही।

🔵 आप देवियों को क्या समझते हैं? हम तो मछली समझते हैं । आटे की गोली बनाकर फेंकी व बगुले की तरह झट से उसे निगल लिया । धन्य हैं आप। आपके बराबर दयालु कोई नहीं हो सकता । मछली को पकड़ा तो कहा कि बहनजी आइए जरा। आपको सिंहासन पर बैठाएँगे आपकी आरती उतारेंगे और आपका जुलूस निकालेंगे। ऐसी ऐसी बाते करते हैं और जीवन भर इसी प्रवंचना में उलझे रहते हैं। देवियाँ कौन हैं? मछलियाँ । देवता कौन हैं? कबूतर। आप कौन हैं? बहेलिया । यही धन्धा है। चुप । बहेलिये का मछली मार का धन्धा करता है कहता है हम भजन करते हैं हम देवी के भक्त हैं । हम आस्तिक हैं। चुप, खबरदार। कभी मत कहना ऐसी बात। इसी को भजन कहते हैं तो हम यह कहेंगे कि यह भजन नहीं हों सकता आप ध्यान रखिएगा। आप अपने ख्यालातों को सही कीजिए अपने विचारों को सही कीजिए, अपने सोचने के तरीके को बदलिए यह हम आपको कहते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1992 पृष्ठ 55

👉 याद करते ही आ पहुँचे शान्तिकुंज के देवदूत

🔴 सन् २००१ ई. की बात है। मुझे कुछ ऐसी बीमारी हो गई कि मैं अन्दर ही अन्दर कमजोर होती जा रही थी। कुछ ही दिनों में चलना- फिरना कठिन हो गया। कई जगहों पर इलाज करवाया, मगर बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी। स्थिति जब असहाय- सी हो गई, तो दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दिखाया गया। वहाँ काफी दिनों तक इलाज चला मगर वहाँ भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया। उतने महँगे इलाज से भी जब स्वस्थ न हो सकी, तो घर के लोग काफी निराश हो गए। तभी किसी ने उड़ीसा से आए हुए एक डाक्टर के बारे में बताया। काफी नाम था उनका। उन्हीं के पास इलाज शुरू हुआ। वहाँ भी एक साल बीत गया,

🔵 सभी डाक्टर अंतिम रूप में जवाब दे चुके थे। सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कितना भी इलाज कर लिया जाए, चलना- फिरना सम्भव न हो सकेगा। इलाज से केवल इतना ही किया जा सकता है कि आगे तकलीफ न बढ़े। उनका कहना था कि स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के बीच का सम्बन्ध ठीक से स्थापित नहीं हो पा रहा है, जिससे हाथ पैर की पेशियों को मस्तिष्क से आदेश प्राप्त नहीं हो रहा। इसी वजह से उनमें गति नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। सारे कामकाज, सारी सामाजिक गतिविधियाँ स्थगित पड़ी थीं। घर में पड़े- पड़े दिन भर समय काटना मुझे बोझ- सा लगने लगा। कोई इष्ट मित्र मिलने आते तो लगता उन्हें जाने न दूँ, पकड़ कर अपने पास बैठाए रखूँ। अब तो मिलने के लिए भी कोई कभी कभी ही आते थे।

🔴 अक्सर मन में यह प्रश्र उठता रहता कि क्या इसी तरह पूरी जिन्दगी कटेगी। निराशा की इसी स्थिति में एक दिन पूजा स्थल पर गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर फूट- फूट कर रोने लगी। रोते- रोते दुःख और हताशा के आवेग में मैं फट पड़ी। पिता होकर बेटी का यह दुःख साल भर से देख रहे हैं। आपको दया नहीं आती, क्या मैं इसी तरह अकेली पड़ी रहूँगी? इतने दिन हो गए मैं बीमार पड़ी हूँ और शान्तिकुञ्ज से कोई देखने तक नहीं आया। रोते- रोते मैं यहाँ तक कह गई कि मैं आपकी बेटी हूँ। इस तरह निकम्मी बनकर पड़ी नहीं रह सकती। या तो उठा ही लीजिए, नहीं तो पूरी तरह से ठीक कर दीजिये। अगर मैं ठीक हो गई, तो दूने उत्साह से आपका काम करूँगी।

🔵 इसी तरह रोते- रोते मन का गुबार निकालती हुई कब शांत होकर सो गई, मुझे पता ही नहीं चला। शाम को समाचार मिला कि शांतिकुंज से दो प्रतिनिधि आए हुए हैं। कुछ ही देर में वे शक्तिपीठ से लड्डा जी और दो अन्य प्रतिनिधियों को साथ लेकर मेरे आवास पर आए। वे आते ही मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े कि पिछले तीन माह से कोई हिसाब नहीं मिला है। न ही कोई प्रगति रिपोर्ट मिली। मैंने अपनी स्थिति बताई और कहा कि ये सारी सूचनाएँ और हिसाब- किताब श्रीमती पूर्णिमा के पास है, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में सब काम- काज वही देख रही हैं। लड्डा जी ने जोर देकर कहा कि इसी वक्त चलिये पूर्णिमा जी के पास। मैंने अपनी असमर्थता जताई- मैं चल नहीं सकती। उन्होंने अनसुना करते हुए कहा- चलो उठो तैयार हो जाओ, जल्दी।

🔴 मैं स्लीपिंग गाउन पहने लेटी थी। उनके आने पर बिस्तर पर बैठकर बातें कर रही थी। मैंने कहा- कपड़े बदल लेती हूँ। लड्डा जी ने कहा कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं। इसी तरह चलो, मुझे ये सारी जानकारियाँ अभी, इसी वक्त चाहिए। शायद उन्हें लग रहा था कि मैं बहाना बना रही हूँ। मुझे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। मुझे तो बिस्तर से उठने में, घर के अन्दर चलने- फिरने में भी तकलीफ होती है। कैसे समझाऊँ इन्हें? किसी तरह संयत स्वर में मैंने कहा- थोड़ी देर बैठिए, मैं चलती हूँ आपके साथ।

🔵 लड्डा जी क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने एक- एक शब्द पर जोर देते हुए कहा- चलना तो तुमको अभी पड़ेगा। सहसा मुझे ऐसा लगा जैसे उनके भीतर सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव ही प्रविष्ट हो गए हैं। मैं अचम्भे से उनके चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा आभास हुआ, जैसे सामने लड्डा जी नहीं स्वयं गुरुदेव ही खड़े हैं। उन्होंने मुझे बाँह पकड़ कर उठाया और बिस्तर से उठाकर लगभग घसीटते हुए पूजा घर में ले गए। उन्होंने मेरे माथे पर तिलक लगाकर शान्तिपाठ के साथ अभिसिंचन किया।

🔴 मेरे पूरे शरीर में जैसे बिजली की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने कहा- अब चलो। मैंने जल्दी में शरीर पर एक शाल डाला और उनके साथ चल पड़ी। मैं आगे- आगे जा रही थी, मेरे ठीक पीछे लड्डा जी थे। और पीछे वे सारे परिजन, जो साथ आए थे। हम सभी पूर्णिमा के घर पहुँचे। उसने सारी रिपोर्ट लाकर दी। फिर बात- चीत के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा- तुम इतने दिनों से शक्तिपीठ क्यों नहीं आती हो? मैंने बताया- साल भर से मैं बीमार थी। चलना- फिरना मुश्किल हो गया है।

🔵 इतना कहते ही मुझे ध्यान आया कि अभी पूर्णिमा के घर तक तो बड़े आराम से चलकर आ गई हूँ और प्राण ऊर्जा से भरी हुई हूँ। अपने- आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए मैंने कहा- कल मैं जरूर आऊँगी।

🔴 अगले दिन सुबह पाँच बजे शक्तिपीठ जाकर मैंने हवन किया और उसी समय मेरी लम्बी बीमारी की इतिश्री हो गई। आदरणीय लड्डा जी को माध्यम बनाकर मुझे पल भर में नया जीवन देने वाली गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।                   
  
🌹 श्रीमती रेखा थम्मन सोनारी, जमशेदपुर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/yaaden.1

👉 नवरात्रि पर्व और गायत्री की विशेष तप−साधना

🔵 गायत्री का विज्ञान और भी अधिक महत्वपूर्ण है उसके शब्दों का गुँथन स्वर शास्त्र के अनुसार सूक्ष्म विज्ञान के रहस्यमय तथ्यों के आधार पर हुआ है। इसका जप ऐसे शब्द कंपन उत्पन्न करता है जो उपासक की सत्ता में उपयोगी हलचलें उत्पन्न करे−प्रसुप्त दिव्य शक्तियों को जगाये और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने की उमंग उत्पन्न करे। गायत्री जप के कम्पन साधक के शरीर से निसृत जाकर समस्त वातावरण में ऐसी हलचलें उत्पन्न करते हैं जिनके आधार पर संसार में सुख−शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न हो सकें।

🔴 भारतीय धर्म की उपासना में प्रातः सायं की जाने वाली ‘संध्या विधि’ मुख्य है। संख्या कृत्य यों सम्प्रदाय मद में कई प्रकार किये जाते हैं, पर उन सब में गायत्री का समावेश अनिवार्य रूप से होता है। गायत्री को साथ लिए बिना संध्या सम्पन्न नहीं हो सकती। गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। यज्ञोपवीत धारण करते समय गुरु मन्त्र देने का विधान है। देव मन्त्र कितने ही हैं। सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं पर जहाँ तक गुरु मन्त्र शब्द का सम्बन्ध है वह गायत्री के साथ ही जुड़ा हुआ है। कोई गुरु किसी अन्य मन्त्र की साधना सिखाये तो उसे गुरु का दिया मन्त्र तो कहा जा सकता है, पर जब भी गुरु मन्त्र शब्द को शास्त्रीय परंपरा के अनुसार प्रयुक्त किया जायगा तो उसका तात्पर्य गायत्री मन्त्र से ही होगा। इस्लाम धर्म में कलमा का −ईसाई धर्म में बपतिस्मा का जो अर्थ है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मंत्र गायत्री को प्राप्त है।

🔵 साधना की दृष्टि से गायत्री को सर्वांगपूर्ण एवं सर्व समर्थ कहा गया है। अमृत, पारस, कल्प−वृक्ष और कामधेनु के रूप में इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है। पुराणों में ऐसे अनेकानेक कथा प्रसंग भरे पड़े हैं जिनमें गायत्री उपासना द्वारा भौतिक ऋद्धियाँ एवं आत्मिक सिद्धियाँ प्राप्त करने का उल्लेख है। साधना विज्ञान में गायत्री उपासना को सर्वोपरि माना जाता रहा है। उसके माहात्म्यों का वर्णन सर्वसिद्धिप्रद कहा गया है और लिखा है कि तराजू के एक पलड़े पर गायत्री को और दूसरे पर समस्त अन्य उपासनाओं को रखकर तोला जाय तो गायत्री ही भारी बैठती है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की−देवताओं और ऋषियों की उपासना पद्धति गायत्री ही रही है। उसे सर्वसाधारण के लिए उपासना अनुशासन माना गया है और उसकी उपेक्षा करने वाली की कटु शब्दों में भर्त्सना हुई है।

🔴 सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिए की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप से महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविन्द हिन्दू धर्म के पाँच प्रधान आधार माने गये हैं, इनमें गायत्री प्रथम है। बाल्मीक रामायण और श्रीमद्भागवत में एक−एक शब्द का सम्पुट लगा हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों में वर्णित रामचरित्र और कृष्णचरित्र को गायत्री का कथा प्रसंगात्मक वर्णन बताया जाता है इन सब कथनोपकथनों का निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री मन्त्र के लिए भारतीय धर्म में निर्विवाद रूप से सर्वोपरि मान्यता मिली है।

🔵 उसमें जिन तथ्यों का समावेश है उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में मानव जाति का सार्वभौम मन्त्र माने जाने की पूरी−पूरी सम्भावना है। देश धर्म, जाति समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर उसे सर्वजनीय उपासना कहा जा सकता है। जब कभी मानवी एकता से सूत्रों को चुना जाय तो आशा की जानी चाहिए गायत्री को महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा। हिन्दू धर्म के वर्तमान बिखराव को समेटकर उसके केन्द्रीकरण की एक रूपता की बात सोची जाय तो उपासना क्षेत्र में गायत्री को ही प्रमुखता देनी होगी।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति फरवरी 1976

👉 नवरात्रि अनुष्ठान

🔵 नवरात्रि अनुष्ठान में मन को एकाग्र तन्मय बनाने के साथ जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। मातृभाव में ध्यान तुरंत लग जाता है व जप स्वतः होठों से चलता रहता है। ध्यान तब माला की गिनती की ओर नहीं जाता। उँगलियों से माला के मन के बढ़ते जाते हैं, ध्यान मातृसत्ता का अनन्त स्नेह व ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिन्तन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिन्ताओं से जितना खाली रखा जा सके-अस्तव्यस्तता से जितना मुक्त हुआ जा सकें, उसके लिए प्रयासरत रहना चाहिएं आत्मचिन्तन में अब तक के जीवन की समीक्षा करके उसकी भूलों को समझने और प्रायश्चित के द्वारा परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान की गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण करना चाहिए।

🔴 उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्त्तव्य अपने क्रियाकलापों में अधिकतम मात्रा में कैसे जुड़ा रह सकता है, उसका ढांचा स्वयं ही खड़ा करना चाहिए और उसे दृढ़तापूर्वक निबाहने का संकल्प करना चाहिए। भावी जीवन की रूपरेखा ऐसी निर्धारित की जाय जिसमें शरीर और परिवार के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए आत्मकल्याण के लिए कुछ करते रहने की गुंजाइश बनी रहे। साधना-स्वाध्याय-संयम-सेवा, यही है आत्मोत्कर्ष के चार चरण। इनमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके और एक भी ऐसा नहीं है जिस अकेले के बल पर आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा किया जा सके।

🔵 अस्तु मनन और चिन्तन द्वारा इन्हें किस प्रकार कितनी मात्रा में अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखा गया, इस पर अति गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहना चाहिए। यदि इससे भावी जीवन की कोई परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानना चाहिए कि श्रेष्ठता भरी गतिविधियाँ अपनाते हुए ही भगवान की शरण में पहुँच सकना और उनका अनुग्रह प्राप्त करना सम्भव हो सकता है।

🔴 गायत्री परम सतोगुणी-शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। वर्ष की दो नवरात्रियों को गायत्री माता के दो आयातित वरदान मानकर हर व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस अवधि में उनका कोमल प्राण धरती पर प्रवाहित होता है, वृक्ष वनस्पति नवलल्लव धारण करते हैं, जीवन-जन्तुओं में नई चेतना इन्हीं दिनों आती है। विधिपूर्वक सम्पन्न नवरात्रि साधना से स्वास्थ्य की नींव तक हिल जाती हैं एवं असाध्य बीमारियाँ तक इस नवरात्रि अनुष्ठान से दूर होती देखी गयी हैं।

अखण्ड ज्योति मार्च 1996

👉 आज का सद्चिंतन 31 March 2017


गुरुवार, 30 मार्च 2017

👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 1)

परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी चैत्र नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में। 

11 अप्रैल 1981 को शाँतिकुँज हरिद्वार में आयोजित नवरात्रि सत्र में उनका समापन व्याख्यान।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

🔴 मित्रो! नवरात्रि अब समाप्त होने जा रही है। आइए जरा विचार करें, इन दिनों हमने क्या किया व किस लिए किया? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर ठीक तरह से सोच लेंगे तो यह संभावना भी साकार होती चली जायेगी कि इससे हमें क्या मिलना चाहिए व क्या फायदा होना चाहिए? आपकी सारी गतिविधियों पर हमने दृष्टि डाली व उसमें से निष्कर्ष निकालते हैं कि आपको अपने स्वाभाविक ढर्रे में हेर फेर करना पड़ा है। स्वाभाविक ढर्रा यह था कि आप बहुत देर तक सोये रहते थे। दिन में जब नींद आ गई सो गए, रात्रि देर तक जागते रहे । अब? अब हमने आपको दबोच दिया है कि सबेरे साढ़े तीन बजे उठना चाहिए। उठना ही पड़ेगा। नहाने का मन नहीं है। नहाना ही पड़ेगा। ये क्या है? यह हमने आपको दबोच दिया व पुराने ढर्रे में आमूलचूल हेरफेर कर दिया है।

🔵 आप क्या खाते थे हमें क्या मालूम ? आप नीबू का अचार भी खाते थे, चटनी भी खाते थे, जाने क्या-क्या खाते थे। हमने आपको दबोच दिया कहा-यह नहीं चल सकता। यह खाना पड़ेगा व अपने पर अंकुश लगाना पड़ेगा। टाइम का आपका कोई ठिकाना नहीं था। जब चाहा तब बैठ गए मन आया तो पूजा कर ली नहीं आया तो नहीं ही करी। अब आपको व्रत संकल्प के बंधनों में बाँधकर हमने दबोच दिया कि सत्ताईस माला तो नियमित रूप से करनी ही होगी। ढाई घंटे तो बैठना ही पड़ेगा। संकल्प लेने के बाद उसे पूरा नहीं करेंगे तो गायत्री माता नाराज होंगी, आपको पाप लगेगा, आप नरक में जायेंगे, अनुष्ठान खण्डित हो जायेगा, यह डर दिखाकर आपको दबोच दिया गया। पूर्व की गतिविधियों में हेर फेर करके आपको इस बात के लिए मजबूर जब किया गया कि जो आदतें अपने स्वभाव में नहीं है, उनका पालन भी करना आना चाहिए।

🔴 क्या नौ दिन काफी मात्र नहीं हैं? नहीं- नौ दिन काफी नहीं हैं ।यह अभ्यास है सारे जीवन को कैसा जिया जाना चाहिए, उसका। आप इस शिविर में आकर और कुछ सीख पाए कि नहीं पर एक बात अवश्य नोट करके जाना। क्या? वह है अध्यात्म की परिभाषा- अध्यात्म अर्थात् “साइंस ऑफ सोल”। अपने आपको सुधारने की विधा, अपने आपको सँभालने की विधा, अपने आपको समुन्नत करने की विधा। आपने तो यह समझा है कि अध्यात्म अर्थात् देवता को जाल में फँसाने की विधा, देवता की जेब काटने की विधा। आपने यही समझ रखा है न। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप जो सोचते हैं बिल्कुल गलत है।


🔵 जब तक बेवकूफी से भरी बेकार की बातें आप अपने दिमाग में जड़ जमाए बैठे रहेंगे, झख ही झख मारते रहेंगे। खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फँस गया। दाना फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिये के तरीके से फँसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास सिद्धान्त यही है? मैं आपसे ही पूछता हूँ, जरा बताइए तो सही।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.55

👉 आज का सद्चिंतन 30 March 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 March 2017


👉 राष्ट्र-हित के लिए सर्वस्व का त्याग 30 Mar

🔴 स्वतंत्रता के अमर पुजारी महाराणा प्रताप मेवाड रक्षा का अंतिम प्रयास करते हुए भी निराश हो चले थे। सारा राज्य-वैभव समाप्त हो गया। अकबर की विशाल सेना का मुकाबला मुट्ठी भर राजपूत ही कर रहे थे। अपने शौर्य, पराक्रम और वीरता से उन्होंने दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे, परंतु बेचारे करते क्या ? इधर अल्पसंख्यक राजपूत, उधर टिड्डी दल की तरह मुगलों की अपरमित सेना। जब एक सेना समाप्त हो जाती, दूसरी पुनः लडने के लिये भेज दी जाती। जब एक जगह को रसद पानी समाप्त हो जाता, दूसरे जगह से शीघ्र ही सहायतार्थ पहुँचा दिया जाता। अकबर की इस विशाल सेना और अतुल साधन का मुकाबला महाराणा अपने थोडे़ सैनिक और अल्प-साधनों से अब तक करते आ रहे थे।

🔵 अंत में समय ऐसा आ गया जब सारा धन और सारी सेना समाप्त हो गई। अब न पास में पैसा रहा और न अन्य साधन ही, जिससे पुनः सेना तैयार करते। मातृभूमि की रक्षा के लिये उपाय सोचे बिना नहीं चूके, परंतु क्या करते अब एक भी वश नहीं चल रहा था। उधर सेना बढ़ती ही चली आ रही थी। अरावली की पहाडियों में छिपकर जीवन बिता लेने की कोई सूरत न दीख रही थी। शत्रुदल वहाँ भी अपनी टोह लगाए बैठा हुआ था।

🔴 अपने जीवन की ऐसी विषम घडि़यों में एक दिन महाराणा व्यथित हृदय एकांत में विचार करने लगे- ''अब मातृभूमि की रक्षा न हो सकेगी। माँ की रक्षा न कर सकने वाले मुझ अभागे को इस समय देश का त्याग कर कम से कम अपनी रक्षा तो कर ही लेनी चाहिए, जिससे भविष्य में कभी दिन लौटे और पुनः माँ को शत्रु के हाथों से स्वतंत्र कर सकूँ।''

🔵 दूसरे दिन प्रात: अपने परिवार और बचे-खुचे साथियों सहित वे सिंध प्रदेश की तरफ चल दिए। अभी थोडी ही दूर गए ही होंगे कि पीछे से किसी ने आर्त्त भरी आवाज लगाई- 

🔴 "राणा ठहरो' हम अभी जीवित है।" राणा ने पीछे मुड़कर देखा तो राज्य के पुराने मंत्री भामाशाह दौडते-हॉफते हुए उनकी ओर चले आ रहे है। उन्होंने अभी-अभी राणा के देश त्याग का समाचार पाया था।

🔵 समीप पहुँचकर आँखें डबडबाते हुये भामा बोले- 'राजन्! आप निराश हो जायेंगे तो आशा फिर किसके सहारे जीवित रहेगी' मुख मलीन किए हुए राणा प्रताप बोले, मंत्रिवर! देश रक्षा के मेरे सारे साधन समाप्त हो चले। किसी साधन की खोज में ही कहीं चल पड़ा हूँ। यदि सुयोग हुआ तो फिर लौट सकूँगा, वर्ना सदा के लिये मातृभूमि से नाता तोड़ के जा रहा हूँ।"

🔴 स्वतंत्रता के पुजारी और मेवाड़ के सिंह की बातें बूढे भामाशाह के कलेजे में तीर जैसी जा चुभी। वे हाथ जोडकर बोले- "अपने घोड़े की बाग को मोडिये और नए सिरे से लडा़ई की तैयारी पूरी कीजिए। इसमें जो कुछ भी खर्च पड़ेगा उसे मैं दूँगा। मेरे पास आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त धनराशि पड़ी हुई है। जिस दिन मेवाड़ शत्रु के हाथों चला जायेगा, उस दिन वह अतुल सपत्ति भी तो उसी की हो जाएगी। फिर इससे अधिक सुयोग और क्या हो सकता है" जब मातृ-भूमि से उपार्जित कमाई का एक-एक पैसा उसकी रक्षा मे लगा दिया जाए।

🔵 भामाशाह के इस अपूर्व त्याग और देशभक्ति की बातें सुनकर महाराणा प्रताप का दिल भर आया। वे वापस लौटे और उस संपत्ति से एक विशाल सेना तैयार करके शत्रु से जा डटे और सफलता प्राप्त की। कहते हैं कि भामाशाह ने इतनी संपत्ति अर्पित की जिससे महाराणा की पच्चीस हजार सेना का बारह वर्ष तक खर्च चला था। भामाशाह चले गए और राणा भी अब नहीं हैं, पर उनकी कृतियाँ अब भी है और सदा रहेंगी। देश को जब भी आवश्यकता पडेगी, उनकी प्रेरणाएँ अनेक राणा तैयार करेगी और उसी प्रकार अनेक भामाशाह भी पैदा होते रहेंगे जो अपनी चिर-संचित पूँजी को मातृभूमि के रक्षार्थ अर्पण करते रहेंगे।

बुधवार, 29 मार्च 2017

👉 आज का सद्चिंतन 29 March 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 March 2017


👉 संपत्ति में परिवार ही नही समाज भी हिस्सेदार

🔴 प्रसिद्ध साहित्यकार एवं दैनिक 'मराठा' के संपादक आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे अपने पीछे एक वसीयत लिख गए। अपनी लाखों रुपये की संपत्ति का सही उपयोग की इच्छा रखने वाले अत्रे काफी दिनों से यह विचार कर रहे थे। परिवार के उत्तराधिकारी सदस्यों को तो अपनी संपति का वही भाग देना चाहिए, जो उनके लिए आवश्यक हो। जो संपत्ति बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाती है जिसमें पसीना नहीं बहाना पडता, उसके खर्च के समय भी कोई विवेकशीलता से काम नहीं लेता और थोडे समय में ही लाखों की सपत्ति चौपट कर दी जाती है।

🔵 आचार्य अत्रे का हृदय विशाल था और दृष्टिकोण विस्तृत। उनका परिवार केवल भाई, भतीजे और पत्नी तक ही सीमित न था। वह तो संपूर्ण धरा को एक कुटुंब मानते थे। अत: उस कुटुंब के सदस्यो की सहायता करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। इसी भावना ने उन्हें विवश किया कि जीवन भर की जुडी हुई कमाई केवल अपने ही कहे जाने वाले पारिवारिक सदस्यों पर न खर्च की जाए वरन् उसका बहुत बड़ा भाग उन लोगो पर खर्च करना चाहिए, जिन्हें सचमुच आवश्यकता है।

🔴 आचार्य ने अपनी वसीयत में स्पष्ट लिखा है कि मुझे कोई भी पैतृक संपत्ति प्राप्त नहीं हुई थी। मैंने अपने परिश्रम से ही सारी संपत्ति अर्जित की है, जिस पर मेरा अधिकार है। मैंने जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई हैं, उनमें किसी का नाम नहीं है। अतः मै अपनी संपत्ति महाराष्ट्र की जनता को सौंपता हूँ।

🔵 इस प्रकार आचार्य अत्रे ने महाराष्ट्र की जनता हेतु लगभग ५० लाख रुपये का दान दे दिया है और श्री एस० ए० डांगे. श्री डी० एस० देसाई. बैंकिंग विशेषज्ञ श्री वी० पी० वरदे तथा अपने निजी मित्र राव साहब कलके को ट्र्स्टी बनाया गया है। वसीयत में उन्होंने यह भी इच्छा प्रकट की कि 'मराठा' और 'सांज मराठा' का एक कर्मचारी भी ट्रस्टी रखा जाए, जिसका सेवा-काल दस साल से कम न हो।

🔴 श्री अत्रे ने वसीयत में पत्नी को केवल पाँच सौ रुपये मासिक और तीन नौकर रखने की सुविधा दी है। भाई को कुछ रुपये प्रतिमास तथा बहन को भी मासिक वृत्ति देने की व्यवस्था की गई है। उन्होंने अपनी समृद्ध पुत्रियाँ मे कुछ भी नहीं दिया है।

🔵 उनके निवास स्थान 'शिव शक्ति' के केवल एक भाग में रहने के लिये पत्नी को अधिकार दिया है। कुछ भाग को अतिथि-गृह बनाया जायेगा और सुभाष हाल को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सुरक्षित रखा जायेगा। ट्रस्टीज ने यह अनुरोध किया है कि यदि संभव हो तो एक अंग्रेजी दैनिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर दे। लाखों रुपयो की संपत्ति की देखमाल के लिए प्रत्येक ट्रस्टी से कफी समय देना होगा, अतः उन्हों दो ट्र्स्टीज को पाँच-पाँच सौ रुपया प्रतिमाह वेतन लेने के लिये भी लिखा है। अन्य ट्र्स्टी मार्ग व्यय तथा दैनिक भत्ता मात्र प्राप्त कर सकते हैं।

🔴 शिक्षा प्रेमी अत्रे ने अपने गाँव के स्कूल के लिए पाँच हजार रुपये का दान तथा पूना विश्वाविद्यालय को मराठी लेकर बी० ए० में उच्च अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को पाँच हजार रुपये के पुरस्कार की व्यवस्था की है। इस प्रकार उदारमना अत्रे ने अपनी संपति महाराष्ट्र के लोगो के कल्याण हेतु सौंपकर पूँजीपतियो के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है।

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 48)

🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से

🔴 मस्तिष्क में हर समय सद्विचार ही छाये रहें इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सद्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद, पुराण, गीता, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊंचे विचारों वाले साहित्यकारों की पुस्तकें सद्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती हैं। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती हैं और सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती हैं आजकल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयों और वाचनालयों की कमी। आत्म-कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।

🔵 समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान-अन्धकार होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अंधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता— पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत् दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के दोष से स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ का कुछ सूझते और होने लगता। विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य को विपत्ति संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना स्वाभाविक ही है।

🔴 अन्धकार के समान अज्ञान में भी एक अनजान भय समाया रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को दूर के पेड़-पौधे, ठूंठ, स्तूप तथा मील के पत्थर तक चोर-डाकू, भूत-प्रेत आदि से दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में जब भी जो चीज दिखाई देगी वह शंकाजनक ही होगी, विश्वास अथवा उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय पेशाब, शौच आदि के लिए आने-जाने वाले अपने माता-पिता, बेटे-बेटियां तक अन्धकाराच्छन्न  होने के कारण चोर, डाकू या भूत-चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं और कई बार तो लोग उनकी पहचान न कर सकने के कारण टोक उठते हैं या भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन पता चलने पर भूत-चुड़ैल अथवा चोर-डाकू नहीं निकले जो कि न पहचानने से पूर्व थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बने। भय का निवास वास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका निवास होता है उस अज्ञान में जो अंधेरे के कारण वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 28) 29 March

🌹 प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत 

🔵 स्वयं का भार वहन करना भी आमतौर से कठिन काम माना जाता है। फिर अनेकों का भार वहन करते हुए उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने को लक्ष्य पूरा करना तो और भी अधिक कठिन पड़ना चाहिये, पर यह कठिनाई या असमर्थता तभी तक टिकती है, जब तक अपने मेें सामर्थ्य की कमी रहती है। उसका बाहुल्य हो तो मजबूत क्रेनें रेलगाड़ी के पटरी से उतरे डिब्बों को अंकुश में लपेटकर उलटकर सीधा करतीं और यथास्थान चलने योग्य बनाकर अच्छी स्थिति में पहुँचा देती हैं।                   

🔴 इक्कीसवीं सदी में उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ किये जाने हैं, जितना कि पिछले दो महायुद्धों की विनाश-विभीषिका में ध्वंस हुआ है; जैसे कि वायु-प्रदूषण ने जीवन-मरण का संकट उत्पन्न किया है; विषमताओं और अनाचारजन्य विभीषिकाओं ने भी संकट उत्पन्न किये हैं। शक्ति तो इन सभी में खर्च हुई, पर ध्वंस की अपेक्षा सृजन के लिये कहीं अधिक सामर्थ्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसका यदि संचय समय रहते किया जा सके तो समझना चाहिये कि दुष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण के कारण उन असंख्य समस्याओं का समाधान संभव होगा जो इन दिनों हर किसी को उत्तेजित, विक्षुब्ध और आतंकित किये हुए हैं।       
    
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

सोमवार, 27 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 28 March 2017


👉 यह विनम्रता

🔵 बात उन दिनों की है जब महामना मदनमोहन मालवीय जी जीवित थे। विश्वविद्यालय के कुछ छात्र एक दिन नौका बिहार कर रहे थे, उनकी कुछ असावधानी के कारण नाव को काफी क्षति पहुँच गई अब वह इस स्थिति में न रह गई, जो उससे काम लिया जा सके।

🔴 बेचारा मल्लाह उसी के सहारे जीविकोपार्जन करता। चार बच्चे, पत्नी और स्वयं इस प्रकार कुल छह आदमियों का पेट पालन कर रहा था। छात्रो की इस उच्छृंखलता पर मल्लाह को बहुत गुस्सा आया। आना भी स्वाभाविक ही था। अब वह किसके सहारे बच्चों का पालन -पोषण करता। 

🔵 अपने आवेश को वह रोक न सका। तरह-तरह की भली-बुरी गालियाँ बकता हुआ मालवीय जी के यहाँ चल दिया।

🔴 संयोगवश उस दिन मालवीय जी अपने निवास स्थान पर ही थे। कोई आवश्यक मीटिंग चल रही थी। विश्वविद्यालय के सभी वरिष्ठ अधिकारी और काशी नगरी के प्राय सभी गणमान्य व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे।

🔵 मल्लाह गालियाँ बडबडाता हुआ वहाँ भी पहुँच गया जहाँ बैठक चल रही थी। रास्ते के कई लोग जो उसकी गालियाँ सुन रहे थे उसे वहां जाने से रोकना चाहा; परंतु असफल रहे। वह न केवल छात्रों को ही गालियाँ देता वरन् मालवीय जी को भी भलाचुरा कह रहा था। उसका इस तरह का बडबडाना सुनकर सब लोगों का ध्यान उधर आकर्षित हो गया। मीटिंग में चलती हुई बातों का क्रम भंग हो गया। उसका चेहरा यह स्पष्ट बतला रहा था कि किसी कारणवश बेतरह क्रुद्ध और दुखित है। मालवीय जी ने भी उसे ध्यानपूर्वक देखा और उसके आंतरिक कष्ट को समझा।

🔴 अपने स्थान से वे सरल स्वभाव से उठे और जाकर विनम्रता से बोले- ''भाई! लगता है जाने-अनजाने में हमसे कोई गलती हो गई है। कृपया अपनी तकलीफ बतलावें। जब तक अपने कष्ट की बतलावेंगे नहीं, हम उसे कैसे समझ सकेगे '

🔵 मल्लाह को यह आशा न थी कि उसकी व्यथा इतनी सहानुभूति पूर्वक सुनने को कोई तैयार होगा। उसका क्रोध शांत हो गया तथा अपने ही अभद्र व्यवहार पर मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा और लज्जित भी होने लगा। उसने सारी घटना बताई और अपनी आशिष्टता के लिये क्षमा माँगने लगा।

🔴 मालवीय जी ने कहा- 'कोई बात नही लडकों से जो आपकी क्षति हुई है उसे पूरा कराया जायेगा पर इतना आपको भी भविष्य के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी प्रिय-अप्रिय धटना पर इतना जल्दी इतनी अधिक मात्रा में क्रुद्ध नही हो जाना चाहिए। पहली गलती तो विद्यार्थियों ने की और दूसरी आप कर रहे हैं। गलती का प्रतिकार गलती से नहीं किया जाता, आप संतोषपूर्वक अपने घर जायें। आपकी नाव की मरम्मत हो जायेगी। मल्लाह अपने घर चला गया। उपस्थित सभी लोग मालतीय जी की शिष्टता, विनम्रता और सहनशीलता को देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्होंने लोगों से कहा- ''भाई! नासमझ लोगों से निपट लेने का इससे सुंदर तरीका और कोई नहीं। यदि हम भी वैसी ही गलती करें और मामूली-सी बात पर उलझ जाएँ तो फिर हममें और उनमें अंतर ही क्या रह जायेगा ? सभी लोगों ने बात की वास्तविकता को हृदय से स्वीकार किया और इस घटना से बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण की।

🔵 बाद में मालवीय जी के आदेशानुसार उन लडकों के दड स्वंरूप उस नाव की पुन: मरम्मत करवा दी।

👉 हमारी चेतावनी को अनदेखा नहीं करे

🔶 अगले दिन बहुत ही उलट-पुलट से भरे हैं। उनमें ऐसी घटनायें घटेंगी ऐसे परिवर्तन होंगे जो हमें विचित्र भयावह एवं कष्टकर भले ही लगें पर नये संसार की अभिनव रचना के लिए आवश्यक हैं। हमें इस भविष्यता का स्वागत करने के लिए-उसके अनुरूप ढलने के लिए-तैयार होना चाहिये। यह तैयारी जितनी अधिक रहे उतना ही भावी कठिन समय अपने लिये सरल सिद्ध होगा।

🔷 भावी नर संहार में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अधिक पिसना पड़ेगा। क्योंकि महाकाल का कुठाराघात सीधा उन्हीं पर होना है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायश्च दुष्कृताम्” की प्रतिज्ञानुसार भगवान को युग-परिवर्तन के अवसर पर दुष्कृतों का ही संहार करना पड़ता है। हमें दुष्ट दुष्कृतियों की मरणासन्न कौरवी सेना में नहीं, धर्म-राज की धर्म संस्थापना सेना में सम्मिलित रहना चाहिये। अपनी स्वार्थपरता, तृष्णा और वासना को तीव्र गति से घटाना चाहिए और उस रीति-नीति को अपनाना चाहिये जो विवेकशील परमार्थी एवं उदारचेता सज्जनों को अपनानी चाहिये।

🔶 संकीर्णताओं और रूढ़ियों की अन्य कोठरी से हमें बाहर निकलना चाहिए। अगले दिनों विश्व-संस्कृति, विश्व-धर्म, विश्व-भाषा, विश्व-राष्ट्र का जो भावी मानव समाज बनेगा उसमें अपनी-अपनी महिमा गाने वालों और अपनी ढपली अपना राग गाने वालों के लिये कोई स्थान न रहेगा। पृथकतावादी सभी दीवारें टूट जायेंगी और समस्त मानव समाज को न्याय एवं समता के आधार पर एक परिवार का सदस्य बन कर रहना होगा। जाति लिंग या सम्पन्नता के आधार पर किसी को वर्चस्व नहीं मिलेगा। इस समता के अनुरूप हमें अभी से ढलना आरम्भ कर देना चाहिये।

🔷 धन-संचय और अभिवर्धन की मूर्खता हमें छोड़ देना ही उचित है, बेटे पोतों के लिए लम्बे चौड़े उत्तराधिकार छोड़ने की उपहासास्पद प्रवृत्ति को तिलाँजलि देनी चाहिये क्योंकि अगले दिनों धन का स्वामित्व व्यक्ति के हाथ से निकल कर समाज, सरकार के हाथ चला जायगा। केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार एवं सद्गुणों की सम्पत्ति ही उत्तराधिकार में दे सकने योग्य रह जायगी। इसलिए जिनके पास आर्थिक सुविधायें हैं वे उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में समय रहते खर्च करदें ताकि उन्हें यश एवं आत्म-संतोष का लाभ मिल सके। अन्यथा वह संकीर्णता मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी डकैती की तरह उनके लिये बहुत ही कष्ट-कारक सिद्ध होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -मार्च 1967 पृष्ठ 34
 

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 48)

 🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से

🔴 असद्विचारों के जाल में फंस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार असद्विचारों के पाश में फंस गए हैं तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सही है कि असद्विचारों में फंस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा कोई भी भवरोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचार से मुक्त होने के भी अनेक उपाय हैं। पहला उपाय तो यही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फंसाते रहे हैं। यही कारण हैं—कुसंग, अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण।

🔵 खराब मित्रों और संगी-साथियों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते हैं। अस्तु ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में संपर्कजन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाई अनुभव हो सकती है। लेकिन नहीं, आत्म-कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बन्धन तोड़कर फेंक देना होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के कुसंग की सहायता ली जा सकती है। बुरे और अविचारी मित्रों के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ लिए जा सकते हैं अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एक मात्र उसी से सम्पर्क में चले जाना चाहिए।

🔴 असद्विचारों के जन्म और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन पाठन भी है। जासूसी, अपराध और अश्लील श्रृंगार से भरे सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते हैं। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाया मस्तिष्क पर पड़ती हैं, वह ऐसी रेखायें बना देती हैं जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार विचारों को भी उत्तेजित करते हैं। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है। इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है। 

🔵 बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आए और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म हो। गन्दे साहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचित हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद्साहित्य का पठन-पाठन वर्जित रखना चाहिए। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 26)

🌹 प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत 

🔵 अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान-अनुदान देवी-देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहें और जो इनके लिये ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनायें। वस्तुत: देवत्व आत्म-जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।                   

🔴 कहते हैं कि भगवान् शेष शैय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों का भगवान् उन बचकानों की बेहूदी धमा-चौकड़ी से तंग आकर आँखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाता है, पर जो मनस्वी उसकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिये द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्टनिवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण व सुग्रीव की तरह वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है। 

🔵 इच्छाशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़कर इस संसार में और कोई नहीं। इसी को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग-मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि-सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर उपलब्ध किये जाते रहते हैं।          
    
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 गुरु गायत्री दोऊ खड़े प्रारब्ध करै पार

🔴 यह उस समय की घटना है, जब मैं लखीमपुर में रहता था। मेरा पुश्तैनी मकान पलिया कला, लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश) में है। क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने के कारण मेरा खान- पान सब उसी हिसाब से था। सन् १९७५ में मैंने जगद्गुरु  शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी महाराज से शिव मंत्र की दीक्षा ले ली थी। वे उस समय बहुत प्रसिद्ध थे। श्री राम जन्म भूमि का शिलान्यास उन्होंने ही किया था। मैं दीक्षा लेकर नियमित शिव मंत्र का जाप किया करता था। लेकिन मुझे अपने में कोई परिवर्तन महसूस नहीं हुआ था।

🔴 मेरे जीवन का स्वर्णिम समय तब आया जब लखनऊ अश्वमेध यज्ञ होने वाला था। रजवन्दन का कार्यक्रम चल रहा था। गाँव में प्रचार- प्रसार हो रहा था। मेरे परिचित एक डाक्टर साहब थे, उन्हीं के द्वारा मुझे इस कार्यक्रम की जानकारी मिली। मैंने  पुनः गायत्री मंत्र से दीक्षा ली और घर में देव स्थापना भी कराई। इस प्रकार नियमित गायत्री मंत्र का जप करने लगा। धीरे- धीरे खुद- ब मेरा खान- पान सात्विक हो गया। अब मैंने धर्म के असली स्वरूप को देखा, धीरे- धीरे साधना की ओर रुचि बढ़ी। मगर पिछले दुष्कृत्यों का फल भोगना शेष था, जो शारीरिक रोग के रूप में प्रकट हुआ। मेरे पेट में पथरी जमा हो गयी थी, जिसका ऑपरेशन आवश्यक था। लखनऊ के डॉ० सन्दीप अग्रवाल से चेकअप कराने गया था। घर में किसी को नहीं बताया था, मगर डाक्टर की सलाह पर मैंने उसी समय ऑपरेशन कराना तय कर लिया और अगले दिन २ दिसम्बर १९९२ को वहाँ एडमिट हो गया।

🔵 ऑपरेशन तय हो जाने के बाद से मैं निरंतर पूज्य गुरुदेव का ध्यान करते हुए मानसिक गायत्री जप करता रहा। ऑपरेशन के पहले रोगी को बेहोश किया जाता है। मुझे भी बेहोशी की सूई दी गई, पर मैं बेहोश नहीं हुआ। चुपचाप आँखें बंद कर पड़ा रहा और सब कुछ सुनकर अनुभव करता रहा।

🔴 ऑपरेशन की प्रक्रिया शुरू हुई पर आश्चर्य की बात है कि मुझे दर्द का अहसास बिल्कुल नहीं हो रहा था। डॉ० सन्दीप नर्स से कुछ बातें करने लगे। उनके हाथ ऑपरेशन की प्रक्रिया में संलग्र थे। ध्यान बँट जाने से अचानक हाथ गलत दिशा में चल गया। जिसके कारण मेरी आर्टरी (खून की नस) बीच में कट गई। वे बोल उठे- अरे! बहुत गलत हो गया, आर्टरी कट गई। नस कटने से खून का फव्वारा डॉ० संदीप के मुँह पर पड़ने लगा। उन्होंने जल्दी में कहा- ग्लुकोज की पूरी बोतल खोल दो। सभी अपनी- अपनी तरह से उपाय करने लगे। इतने में डॉ० संदीप बोले- ‘‘डॉ० राना हैड गॉन’’।

🔵 इसके बाद मैंने अपने आपको बिल्कुल दूसरी ही दुनिया में पाया। न अस्पताल, न चिकित्सक, न मुझे ऑपरेशन की कोई सुध। हरिद्वार के प्रसिद्ध चंडी मंदिर के नजदीक गंगा नदी में, एक छोटे से शिवालय के पास अथाह जल राशि का स्रोत फूट रहा था। चक्र सा भँवर बना हुआ था। उस भँवर से एक प्रकाशपुँज निकलकर आसमान में दृष्टि सीमा से परे तक गया हुआ था। मैं उस प्रकाश के रास्ते आकाश की ओर चला जा रहा था। उस समय मुझे चिन्ता, शोक, दुःख कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। मैं बहुत प्रसन्नचित्त था। इसी बीच अचानक मैंने देखा कि उसी रोशनी के रास्ते ऊपर से परम पूज्य गुरुदेव आ रहे हैं। वे पीले खद्दर का कुर्ता एव सफेद रंग की धोती पहने हुए हैं। उस प्रकाश मार्ग के बीच मुझे देख गुरु देव आश्चर्य से बोले ‘‘अरे! डॉ० राना, तुम यहाँ कैसे? जाओ, अभी तुम्हें बहुत काम करने हैं। उनके इतना कहते ही मैं पुनः लखनऊ के उस ऑपरेशन रूम में पहुँच गया।

🔴 शरीर में ऑपरेशन वाले स्थान पर बिजली के झटके सा अनुभव हुआ और पूरी तरह चेतना लौट आयी। पुनः ऑपरेशन रूम की सारी हलचलें स्पष्ट रूप से अनुभव होने लगीं। वहाँ असिस्टेंट और नर्स से डॉ० संदीप की बातचीत से ही पता चला कि मैं अचेत हो गया था। शायद उन्हें मेरे जीवित होने में भी संदेह था; और अभी- अभी वे आश्वस्त हुए कि मैं जीवित हूँ। ऑपरेशन की प्रक्रिया फिर से शुरू हुई। अन्त में जब टाँका लगाकर पट्टी बाँधी गई तब तक मैं गायत्री मंत्र का मानसिक जप करता रहा।

🔵 ऑपरेशन के तीसरे दिन टाँका कटा। उस दिन बाबरी मस्जिद प्रकरण के कारण सभी जगह कर्फ्यू लगा हुआ था। मैं अपनी गाड़ी खुद चलाकर मन में गायत्री मंत्र जपता हुआ सकुशल अपने घर बलरामपुर पहुँच गया था।

🔴 अपनी पिछली करनी का फल तो असमय मौत ही थी, पर गुरुदेव ने कृपा कर हमें अपनाया और वह मार्ग दिखाया जिससे इस जीवन का सदुपयोग जान सकूँ। उनकी इस अहैतुकी कृपा से मैं आजीवन कृतार्थ हूँ।                     
    
🌹  डॉ० कृष्ण कुमार राना पहलवारा (उत्तरप्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से

रविवार, 26 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 27 March 2017


👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 26)

🌹 प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत 

🔵 बच्चों को लोरी गाकर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटाकर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग और दुर्व्यसन में आलस्य-प्रमाद का आदी बनाकर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्ध-मृत या अर्ध-विक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा है। ऐसे व्यक्ति पग-पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते देखे जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर से ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिये आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को उससे कहीं अधिक हल्की अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर उठानी पड़ती हैं। परमार्थ-कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता जितना कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरंतर पतन और पराभव ही हाथ लगता है।                  

🔴 हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिये अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरूक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम संपन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुत: मनुष्य की क्षमता और दक्षता गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।          
    
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞a

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 47)

🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से

🔴 कोई सद्विचार तभी तक सद्विचार हैं जब तक उसका आधार सदाशयता है। अन्यथा वह असद्विचारों के साथ ही गिना जायेगा। चूंकि वे मनुष्य के जीवन और हर प्रकार और हर कोटि के असद्विचारों विष की तरह की त्याज्य हैं। उन्हें त्याग देने में ही कुशल, क्षेम, कल्याण तथा मंगल है।

🔵 वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सान्निहित हो सद्विचार ही होते हैं। सेवा एक सद्विचार है। जीव मात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग और बलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर सेवा करता है, तभी उसका कुछ हितसाधन कर सकता है। स्वार्थी और सांसारिक लोग सोच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कितनी समझ है, जो अपनी हित-हानि करके अकारण ही दूसरों का हित साधन करता रहता है। निश्चय ही मोटी आंखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा-व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी। किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में वह जितना त्याग करता है, वह उस सुख—उस शान्ति की तुलना में एक तृण से भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।

🔴 एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर  लगने पर भी अपना वह हर विचार सद्विचार ही है जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं परलोक ही है। इसकी प्राप्ति एकमात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म-कल्याण और आत्म-शान्ति के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिए। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 युग बदल रहा है-हम भी बदलें

🔷 भले ही लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं पर सोच और कर यही रहे हैं कि वे किसी प्रकार अपनी वर्तमान सम्पत्ति को जितना अधिक बढ़ा सकें, दिखा सकें उसकी उधेड़ बुन में जुटे रहें। यह मार्ग निरर्थक है। आज की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि किसी प्रकार गुजारे की बात सोची जाए। परिवार के भरण-पोषण भर के साधन जुटाये जायें और जो जमा पूँजी पास है उसे लोकोपयोगी कार्य में लगा दिया जाए। जिनके पास नहीं है वे इस तरह की निरर्थक मूर्खता में अपनी शक्ति नष्ट न करें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक साधन मौजूद हैं, जो उसी पूँजी के बल पर अपने वर्तमान परिवार को जीवित रख सकते हैं वे वैसी व्यवस्था बना कर निश्चित हो जायें और अपना मस्तिष्क तथा समय उस कार्य में लगायें, जिसमें संलग्न होना परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय लग सकता है।

🔶 समय ही मनुष्य की व्यक्तिगत पूँजी है, श्रम ही उसका सच्चा धर्म है। इसी धन को परमार्थ में लगाने से मनुष्य के अन्तःकरण में उत्कृष्टता के संस्कार परिपक्व होते हैं। धन वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसे व्यक्तिगत समझना एक पाप एवं अपराध है। जमा पूँजी में से जितना अधिक दान किया जाए वह तो प्रायश्चित मात्र है। सौ रुपये की चोरी करके कोई पाँच रुपये दान कर दें तो वह तो एक हल्का सा प्रायश्चित ही हुआ। मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिए। इधर कमाता और उधर अच्छे कर्मों में खर्च करता रहे यही भलमनसाहत का तरीका है।

🔷 जिसने जमा कर लिया उसने बच्चों को दुर्गुणी बनाने का पथ प्रशस्त किया और अपने को लोभ-मोह के माया बंधनों में बाँधा। इस भूल का जो जितना प्रायश्चित कर ले, जमा पूँजी को सत्कार्य में लगा दे उतना उत्तम है। प्रायश्चित से पाप का कुछ तो भार हल्का होता ही है। पुण्य परमार्थ तो निजी पूँजी से होता है। वह निजी पूँजी है- समय और श्रम। जिसका व्यक्तिगत श्रम और समय परमार्थ कार्यों में लगा समझना चाहिए कि उसने उतना ही अपना अन्तरात्मा निर्मल एवं सशक्त बनाने का लाभ ले लिया।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -जुलाई 1967 पृष्ठ 53

👉 धैर्य हो तो नैपोलियन जैसा

🔴 सन् १८०७ की बात है। नैपोलियन बोनापार्ट की सेनाएँ नदी के किनारे खडी़ थीं। दुश्मन ने उसे चारों तरफ ऐसे घेर रखा था जैसे पिंजडे़ में शेर। दाहिनी तरफ आस्ट्रियन फौजें थीं, पीछे जर्मन। रूस की दिशाल सेना आगे अडी़-खडी़ थी। नैपोलियन के लिये फ्रांस से संबध बनाए रखना भी कठिन हो गया।

🔵 यह स्थिति ऐसी ही थी जैसे कोई व्यक्ति स्वयं तो बीमार हो पत्नी, बच्चे भी बीमार हो जाए। मकान गिर जाए और नौकरी से भी एकाएक नोटिस मिल जाए। घात-प्रतिघात चारों ओर से आते है। मुसीबत को अकेले आना कमी पसंद नहीं लालची मेहमान की तरह बाल बच्चे लेकर आते हैं। संकटों की सेना देखते ही सामान्य लोग बुरी तरह घबडा़ उठते, नियंत्रण खो बैठते और कुछ का कुछ कर डालते हैं। आपात काल में धीरज और धर्म को परख कर चलने को चेतावनी इसलिए दी गई है कि मनुष्य इतना उस समय न धबडा जाए कि आई मुसीबत प्राणघातक बन जाए।

🔵 नैपोलियन बोनापार्ट-धैर्य का पुतला, उसने इस सीख को सार्थक कर यह दिखा दिया कि घोर आपत्ति में भी मनुष्य अपना मानसिक संतुलन बनाए रखे तो वह भीषण संकटों को भी देखते-देखते पार कर सकता है।

🔴 नैपोलियन ने घबडा़ती फौज को विश्राम की आज्ञा दे दी। उच्च सेनाधिकारी हैरान थे कहीं नैपोलियन का मस्तिष्क तो खराब नही हो गया। उनका यह विश्वास बढ़ता ही गया, जब नैपोलियन को आगे और भी विलक्षण कार्य करते देखा। जब उसकी सेनाएँ चारों ओर से घिरी थीं उसने नहर खुदवानी प्रारंभ करा दी। पोलैंड और प्रसिया को जोड़ने वाली सडक का निर्माण इसी समय हुआ। फ्रेंच कालेज की स्थापना और उसका प्रबंध नैपोलियन स्वयं करता था। फ्रांस के सारे समाचार इन दिनो नैपोलियन के साहसप्रद लेखों से भरे होते थे। फ्रांस, इटली और स्पेन तक से सैनिक इसी अवधि में भरे गये नैपोलियन ने इस अवधि में जितने गिरिजों का निर्माण कराया उतना वह शांति काल में कभी नही करा सका, लोग कहते थे नैपोलियन के साथ कुछ प्रेत रहते हैं, यही सब इतना कम करते हैं पर सही बात तो यह है कि नैपोलियन यह सब काम खुद से करता था। उसका शरीर एक स्थान पर रहता था पर मन दुश्मन पर चौकसी भी रखता था और पूर्ण निर्भीक भाव से इन प्रबंधो में भी जुटा रहता था।

🔵 नैपोलियन की इतनी क्रियाशीलता देखकर दुश्मन सेनाओं के सेनापतियों ने समझा कि नैपोलियन की सेना अब आक्रमण करेगी, अब आक्रमण करेगा। वे बेचारे चैन से नही सोये, दिन रात हरकत करते रहे, इधर से उधर मोर्चे जमाते रहे। डेढ-दो महीनों में सारी सेनाएं थककर चूर हो गईं। नैपोलियन ने इस बीच सेना के लिए भरपूर रसद, वस्त्र, जूते और हथियार भर कर रख लिए।

🔴 तब तक बरसात आ गई। दुश्मन सेनाएँ जो नैपोलियन की उस अपूर्व क्रियाशीलता से भयभीत होकर अब तक थक चुकी थीं विश्राम करने लगी। उन्होंने कल्पना भी न की थी कि वर्षा ऋतु में भी कोई आक्रमण कर सकता है।

🔵 आपत्तिकाल में धैर्य इसलिये आवश्यक है कि उस घडी में सही बात सूझती है कोई न कोई प्रकाश का ऐसा द्वार मिल जाता है, जो न केवल संकट से पार कर देता है वरन् कई सफलताओ के रहस्य भी खोल जाता है।

🔴 वर्षा के दिन जब सारी सेनाएँ विश्राम कर रही थी, नैपोलियन ने तीनों तरफ से आक्रमण कर दिया और दुश्मन की फौजों को मार भगाया। बहुत-सा शस्त्र और साज-सामान उसके हाथ लगा जिससे उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 99

शनिवार, 25 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 26 March 2017


👉 मन से भय की भावनाएँ निकाल फेंकिए

🔴 भयभीत होना एक अप्राकृतिक बात है। प्रकृति नहीं चाहती कि मनुष्य डर कर अपनी आत्मा पर बोझ डाले। तुम्हारे सब भय, तुम्हारे दु:ख, तुम्हारी नित्यप्रति की चिंताएँ, तुमने स्वयं उत्पन्न कर ली हैं। यदि तुम चाहो, तो अंत:करण को भूत-प्रेत-पिशाचों की श्मशान भूमि बना सकते हो। इसके विपरीत यदि तुम चाहो तो अपने अंत:करण को निर्भयता, श्रद्धा, उत्साह के सद्गुणों से परिपूर्ण कर सकते हो। अनुकूलता या प्रतिकूलता उत्पन्न करने वाले तुम स्वयं ही हो। तुम्हें दूसरा कोई हानि नहीं पहुँचा सकता, बाल भी बाँका नहीं कर सकता। तुम चाहो, तो परम निर्भय, नि:शंक बन सकते हो। तुम्हारे शुभ-अशुभ वृत्तियाँ, यश-अपयश के विचार, विवेक-बुद्धि ही तुम्हारा भाग्य-निर्माण करती है।                              

🔵 भय की एक शंका मन में प्रवेश करते ही, वातावरण को संदेह-पूर्ण बना देती है। हमें चारों ओर वही चीज नजर आने लगती है, जिससे हम डरते हैं। यदि हम भय की भावनाएँ हमेशा के लिए मनमंदिर से निकाल डालें, तो उचित रूप से तृप्त और सुखी रह सकते हैं। आनंदित रहने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि अंत:करण भय की कल्पनाओं से सर्वथा मुक्त रहे।

🔴 आइए, हम आज से ही प्रतिज्ञा करें कि हम अभय हैं। भय के पिशाच को अपने निकट न आने देंगे। श्रद्धा और विश्वास के दीपक को अंत:करण में आलोकित रखेंगे और निर्भयतापूर्वक परमात्मा की इस पुनीत सृष्टि में विचरण करेंगे। 

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति -मार्च 1946 पृष्ठ 1

👉 अखंड ब्रह्मचर्य और उसका प्रभाव

🔴 सारे देश में भारतीय धर्म व संस्कृति के व्यापक प्रचार अनेको वैदिक संस्थाओं की स्थापना, शास्त्रार्थों में विजय और वेदों के भाष्य आदि अनेक अलौकिक सफलताओं से आश्चर्यचकित एक सज्जन महर्षि दयानंद के पास गए, पूछा-भगवन् आपके शरीर  में इतनी शक्ति कहाँ से आती हैं ? आहार तो आपका बहुत ही कम है।''

🔵 महर्षि दयानद ने सहज भाव से उत्तर दिया- ''भाई संयम और ब्रह्मचर्य से कुछ भी असंभव नहीं। आप नहीं जानते, जो व्यक्ति आजीवन ब्रह्मचर्य से रहता है उसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के परखने की बुद्धि आ जाती है। उसमें ऐसी शक्ति आ जाती है जिससे वह बडा़ काम कर दिखाए। मैं जो कुछ कर सका अखंड ब्रह्मचर्य की कृपा का ही फल है।''

🔴 ''क्षमा करे महात्मन्! एक बात पूछने की इच्छा हो रही है। आज्ञा हो तो प्रश्न करूँ "उस व्यक्ति ने बडे संकोच से कहा। इस पर महर्षि ऐसे हँस पडे कि जैसे वे पहले ही जान गए हों, यह व्यक्ति क्या पूछना चाहता है ? उन्होंने उसकी झिझक मिटाते हुए कहा-''तुम जो कुछ भी पूछना चाहो, निःसंकोच पूछ सकते हो।''

🔵 उस व्यक्ति ने पूछा- 'महात्मन्! कभी ऐसा भी समय आया है क्या ? जब आपने भी काम पीडा अनुभव की हो। महर्षि दयानद ने एक क्षण के लिए नेत्र बंद किए फिर कहा- 'मेरे मन में आज तक कभी भी काम विकार नहीं आया। यदि मेरे पास कभी ऐसे विचार आए भी तो वह शरीर में प्रवेश नही कर सके। मुझे अपने कामों से अवकाश ही कहाँ मिलता है, जो यह सब सोचने का अवसर आए।''

🔴 स्वप्न में तो यह संभव हो सकता है ? उस व्यक्ति ने इसी तारतम्य में पूछा- 'क्या कभी रात्रि में भी सोते समय आपके मन में काम विकार नहीं आया ?

🔵 महर्षि ने उसी गंभीरता के साथ बताया- जब कामुक विचार को शरीर में प्रवेश करने का समय नहीं मिला, तो वे क्रीडा कहाँ करते ? जहाँ तक मुझे स्मरण है, इस शरीर से शुक्र की एक बूंद भी बाहर नहीं गई है। यह सुनकर गोष्ठी में उपस्थित सभी व्यक्ति अवाक् रह गये।

🔴 जिज्ञासु उस रात्रि को स्वामी जी के पास ही ठहर गया। उनका नियम था वे प्रति दिन प्रातःकाल ताजे जल से ही स्नान करते थे। उनका एक सेवक था जो प्रतिदिन स्नान के लिए ताजा पानी कुँए से लाता था। उस दिन आलस्यवश वह एक ही बाल्टी पानी लाया और उसे शाम के रखे वासी जल में मिलाकर इस तरह कर दिया कि स्वामी जी को पता न चले कि यह पानी ताजा नहीं। 

🔵 नियमानुसार स्वामी जी जैसे ही स्नान के लिए आए और कुल्ला करने के लिये मुंह में पानी भरा, वे तुरंत समझ गए। सेवक को बुलाकर पूछा, क्यों भाई! आज बासी पानी और ताजे पानी में मिलावट क्यों कर दी ?

🔴 सेवक घबराया हुआ गया और दो बाल्टी ताजा पानी ले आया। यह खबर उस व्यक्ति को लगी तो उसे विश्वास हो गया-जो बातें साधारण मनुष्य के लिए चमत्कार लगती हैं, अखंड ब्रह्मचर्य से वही बातें सामान्य हो जाती है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 99, 100

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 46)


🌹 सर्वश्रेष्ठ साधना

🔴 परमुखापेक्षी रहना मानवीय व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं। परावलम्बी होना कोई विवशता नहीं है। वह तो मनुष्य की दुर्बल वृत्ति ही है। मैं अपनी इस दुर्बल वृत्ति का त्याग कर दूंगा और स्वयं अपने परिश्रम तथा उद्योग द्वारा अपने मनोरथ सफल करूंगा। परावलम्बी व्यक्ति पराधीन रहता है और पराधीन व्यक्ति संसार में कभी भी सुख और शान्ति नहीं पा सकता, मैं साधना द्वारा अपनी आन्तरिक शक्तियों का उद्घाटन करूंगा, शारीरिक शक्ति का उपयोग और इस प्रकार स्वावलम्बी बनकर अपने लिए सुख-शान्ति की स्थिति स्वयं अर्जित करूंगा।’’ निश्चय ही इस प्रकार के अनुकूल विचारों की साधना से मनुष्य की परावलम्बन की दुर्बलता दूर होने लगेगी और उसके स्थान पर स्वावलम्बन का सुखदायी भाव बढ़ने और दृढ़ होने लगेगा।

🔵 सुख शान्ति का अपना कोई अस्तित्व नहीं। यह मनुष्य के विचारों की ही एक स्थिति होती है। यदि अपने अन्तःकरण में उल्लास, उत्साह, प्रसन्नता एवं आनन्द अनुभव करने की वृत्ति जगा ली जाय और दुख, कष्ट और अभाव की अनुभूति की हठात् उपेक्षा दूर की जाय तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य सुख-शान्ति के लिए लालायित बना रहे। मैं आनन्द रूप परमात्मा का अंश हूं, मेरा सच्चा स्वरूप आनन्दमय ही है, मेरी आत्मा में आनन्द के कोष भरे हैं, मुझे संसार की किसी वस्तु का आनन्द अपेक्षित नहीं है। जो आनन्दरूप, आनन्दमय, और आनन्द का उद्गम आत्मा है, उससे दुःख, शोक अथवा ताप संताप का क्या सम्बन्ध? किन्तु यह सम्भव तभी है, जब तदनुरूप विचारों की साधना में निरत रहा जाय, उनकी सृजनात्मक शक्ति को सही दिशा में नियोजित रखा जाय। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...