बुधवार, 11 जनवरी 2017

👉 देने से ही मिलेगा

🔵 किसी को कुछ दीजिए या उसका किसी प्रकार का उपकार कीजिए तो बदले में उस व्यक्ति से किसी प्रकार की आशा न कीजिए। आपको जो कुछ देना हो दे दीजिए। वह हजार गुणा अधिक होकर आपके पास लौट आवेगा। परन्तु आपको उसके लौटने या न लौटने की चिन्ता ही न करनी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए, देते रहिए। देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। यह बात सीख लीजिए कि सारा जीवन दे रहा है। प्रकृति देने के लिए आप को बाध्य करेगी। इसलिए प्रसन्नतापूर्वक दीजिए। आज हो या कल, आपको किसी न किसी दिन त्याग करना पड़ेगा ही।

🔴 जीवन में आप संचय करने के लिए आते हैं परन्तु प्रकृति आपका गला दबाकर मुट्ठी खुलवा लेती है। जो कुछ आपने ग्रहण किया है वह देना ही पड़ेगा, चाहे आपकी इच्छा हो या न हो। जैसे ही आपके मुँह से निकला कि ‘नहीं, मैं न दूँगा।’ उसी क्षण जोर का धक्का आता है। आप घायल हो जाते हैं। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जीवन की लम्बी दौड़ में प्रत्येक वस्तु देने, परित्याग करने के लिए बाध्य न हो। इस नियम के प्रतिकूल आचरण करने के लिए जो जितना ही प्रयत्न करता है वह अपने आपको उतना ही दुखी अनुभव करता है।

🔵 हमारी शोचनीय अवस्था का कारण यह है कि परित्याग करने का साहस हम नहीं करते इसी से हम दुखी हैं। ईंधन चला गया उसके बदले में हमें गर्मी मिलती है। सूर्य भगवान समुद्र से जल ग्रहण किया करते हैं उसे वर्षा के रूप में लौटाने के लिए आप ग्रहण करने और देने के यन्त्र हैं। आप ग्रहण करते हैं देने के लिए। इसलिए बदले में कुछ माँगिए नहीं। आप जितना भी देंगे, उतना ही लौटकर आपके पास आवेगा।

🌹 ~स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति 1961 फरवरी पृष्ठ 1

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 5) 12 Jan

🌹 अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना

🔴 ‘‘साधना से सिद्धि’’ का सिद्धान्त सर्वमान्य है। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय? अन्यान्य इष्टदेवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा, जाना गया है। इनमें सन्देह होने का कारण भी स्पष्ट है। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम है। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने? अनेक आकार-प्रकार और गुण-स्वभाव का उसे कैसे देखा गया? मान्यता यदि यथार्थ है तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिये।         

🔵 यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिये कि यह मान्यताओं की ही चित्र-विचित्र अभिव्यक्तियाँ है। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाय? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जाग्रत देवता माना जाये। उसके ऊपर चढ़े कषाय-कल्मषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाये। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला-कलूटा दिख पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दीखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना भी कहा जा सकता है। 

🔴 अध्यात्म विज्ञान के तत्त्ववेत्ताओं ने अनेक प्रकार के साधना-उपचार बताये हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक उनका विश्लेषण-विवेचन किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह प्रतीक पूजा और कुछ नहीं। मात्र आत्मपरिष्कार का ही बालबोध स्तर का प्रतिपादन है। पात्रता और प्रखरता का अभिवर्द्धन ही योग और तप का लक्ष्य है। पात्रता एक चुम्बक है जो अपने उपयोग की वस्तुओं-शक्तियों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करती रहती है। मनुष्य में विकसित हुए देवत्व का चुम्बक संसार में संव्याप्त शक्तियों और परिस्थितियों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। जलाशय गहरे होते हैं। सब ओर से पानी सिमटकर इकठ्ठा होने के लिये उनमें जा पहुँचता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 68)

🌹 बौद्धिक क्रान्ति की तैयारी

🔴 युग-निर्माण योजना तीन भागों में विभक्त है। उसके तीन प्रधान कार्यक्रम हैं। (1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन, (3) सभ्य समाज। इन तीन आयोजनों द्वारा व्यक्ति और समाज का उत्कर्ष सम्भव है। यह तीन कार्यक्रम ही आन्दोलनों के रूप में परिणित किये जाते। इनकी पूर्ति के लिए जहां जिस प्रकार की क्रम व्यवस्था बन सकती हो वह बनाई जानी चाहिए।

🔵 यह निश्चित है कि जन आदर्शों को हम विश्वव्यापी बनाना चाहते हैं उनका आरम्भ हमें अपने निज के जीवन से करना होगा। हमारा अपना जीवन आदर्श, सुविकसित सुखी सुसंस्कृत एवं सम्मानास्पद बने तभी उसे देखकर दूसरे लोग उस प्रकाश को ग्रहण करने में तत्पर हो सकते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया है कि जीवन जीने की कला—व्यवहारिक अध्यात्म को सिखाने के लिए एक सर्वांगीण प्रबन्ध किया जाय। यह प्रशिक्षण योजना इसी आश्विन मास से गायत्री तपोभूमि में आरम्भ कर दी गई है। एक-एक महीने के शिविर यहां नियमित रूप से होते रहेंगे। इनकी रूपरेखा नीचे दी जा रही है—

🔴 (1) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन की दृष्टि से यह एक-एक महीने के शिविर लगाये जायेंगे। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक इनका क्रम चला करेगा। जिनकी धर्मपत्नियां भी आ सकती हों वे उन्हें भी लाने का प्रयत्न करें। वयस्क बच्चे भी इस शिक्षण का लाभ उठा सकते हैं।

🔵 (2) शिक्षार्थियों के निवास के लिए स्वतन्त्र कमरे मिलेंगे। भोजन व्यय तथा बनाने का कार्य शिक्षार्थी स्वयं करेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 14) 11 Jan

🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये

🔵 इन चिन्ताओं के कारण उत्पन्न हुए विक्षेपों का कारण क्या है? जीवन के प्रति, सुलझे हुए दृष्टिकोण का अभाव। जीवन के प्रति यदि सहज दृष्टिकोण अपनाकर चला जायेगा, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को दिन और रात की तरह स्वाभाविक समझा जायेगा तो कोई कारण नहीं है कि प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाय। दृष्टिकोण इच्छाओं— आकांक्षाओं के सम्बन्ध में किसी विचारक का कथन है आप जैसे है वैसे ही आपकी दुनिया है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपके अभ्यन्तर की छाया है। बाहर जो कुछ है वह गौण है क्योंकि वह सब आपकी मनःस्थिति का ही प्रतिबिम्ब है। महत्वपूर्ण तो यह है कि आप भीतर से क्या है? भीतर से आप जो कुछ भी हैं उसी के अनुरूप आपकी दुनिया ढल जायेगी। जो कुछ आप जानते हैं, अनुभव द्वारा प्राप्त हुआ है और जो कुछ आप भविष्य में जान सकेंगे वह भी आपके अनुभव द्वारा ही प्राप्त होगा तथा आपके व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बन जायेगा’’

🔴 इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जीवन और जगत के प्रति मनुष्य की अपनी दृष्टि ही उसकी दुनिया का निर्माण करती है। इसीलिये परिस्थितियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि मनःस्थिति। इसीलिए सौन्दर्य, हर्ष और उल्लास अथवा दुःख और विषाद और पीड़ा का अनुभव मनुष्य बाहरी कारणों से अनुभव करता है। अस्तु, प्रस्तुत प्रतिकूलताओं का समाधान करने के लिए स्थिर चित्त से तन्मय होता तो उपयुक्त है किन्तु इसके लिए चिन्तित होने, निराश हो जाने से कोई बात नहीं बनती। चिन्ता और निराशा तो समाधान के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करती हैं। प्रतिकूलताओं को देखकर घबड़ाना और उनके लिए चिन्तित होते रहना व्यर्थ ही नहीं हानिकारक भी है।

🔵 ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है’’ इस सिद्धान्त को यदि जीवन का मूल मन्त्र बना लिया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि पुरुषार्थ परायण होकर अभीष्ट प्रकार की सफलता सम्पादित की जा सकती है। कहते हैं मनुष्य का भाग्य उसके हाथ एवं मस्तक की रेखाओं पर लिखा होता है। तार्किक बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है पर थोड़ी गहराई में चलें तथा उक्त कथन का गम्भीरता से विश्लेषण करें तो यही तथ्य निकलता है कि मनुष्य को हाथ अर्थात् पुरुषार्थ का प्रतीक तथा मस्तिष्क अर्थात् बुद्धिरूपी दो ऐसी सम्पदाएं प्राप्त हैं जिनका भली भांति सदुपयोग करके मन चाही दिशा में सफलताएं अर्जित की जा सकती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 3

पहले थ्योरी समझें

🔴 पूजा और पाठ किस चीज का नाम है? दीवार को गिरा देने का, इसी ने हमारे और भगवान के बीच में लाखों कि०मी० की दूरी खड़ी कर दी है, जिससे भगवान हमको नहीं देख सकता और हम भगवान को नहीं देख सकते। हम इस दीवार को गिराना चाहते है। उपासना का वास्तव में यही मकसद है। छेनी और हथौड़े को जिस तरह से हम दीवार गिराने के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसी तरीके से अपनी सफाई करने के लिए पूजा−पाठ के, भजन के कर्मकाण्ड का, क्रियाकृत्य का उपयोग करते है। भजन उसी का उद्देश्य पूरा करता है। यह मैं आपको फिलॉसफी समझाना चाहता था। अगर आप अध्यात्म की फिलॉसफी समझ जाएँ, इस थ्योरी को समझ जाएँ तो आपको प्रेक्टिस से फायदा हो सकता है।

🔵 नहीं साहब, हम तो प्रेक्टिस में इम्तिहान देंगे, थ्योरी में नहीं देंगे, किसका इम्तिहान देना चाहते हैं? हम तो साहब वाइवा देंगे और थ्योरी के परचे आएँगे तो? थ्योरी, थ्योरी के झगड़े में हम नहीं पड़ते, हम तो आपकी सुना सकते हैं। हम फिजिक्स जानते है। देखिए ये हाइड्रोजन गैस बना दी। देखिए, ये शीशी इसमें डाली और ये शीशी इसमें डाली, बस ये पानी बन गया। अच्छा अब आप हमको साइंस में एम०एस- सी० की उपाधि दीजिए। गैस क्या होती है? गैस, गैस क्या होती है हमें नहीं मालूम। इस शीशी में से निकाला और इस शीशी में डाला, दोनों को मिलाया, पानी बन गया। अब आपको शिकायत क्या है इससे? नहीं साहब, आपको साइंस जाननी पड़ेगी , फिजिक्स पढ़नी पड़ेगी, तब सारी बातें जानेंगे। नहीं साहब, जानेंगे नहीं।

🔴 बेटे, आपको जानना चाहिए और करना चाहिए। जानकारी और करना दोनों के समन्वय का नाम एक समग्र अध्यात्मवाद होता है। मैंने आपको अध्यात्म के बारे में इन थोड़े से शब्दों में समझाने की कोशिश की कि आप क्रिया- कृत्यों के साथ साथ आत्मसंकेतोपचार की प्रक्रिया को मिलकर रखे तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है। बच्चों को यहीं करना पड़ता है। पूजा का हर काम बड़ा कठिन है। नहीं साहब! सरल बता दीजिए। सरल तो एक ही काम है और वह है मरना। मरने से सरल कोई काम नहीं है। जिंदगी, जिंदगी बड़ी कठिन है। जिंदगी के लिए आदमी को संघर्ष करना पड़ता है, लड़ना पड़ता है।

🔵 प्रगति के लिए हर आदमी को लड़ना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा। मरने के लिए क्या करना पड़ता है? मरने के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ता। छत के ऊपर चढ़कर चले जाओ और गिरो, देखो अभी खेल खत्म। गंगाजी में चले जाओ, झट से डुबकी मारना, बहते हुए चले जाओगे। बेटे, मरना ही सरल है। पाप ही मरता है, पतन ही सरल है। अपने आपका विनाश ही सरल है। दियासलाई की एक तीली से अपने घर को आग लगा दीजिए। आपका घर जो पच्चीस हजार रुपए का था, एक घटे में जलकर राख हो जाएगा। तमाशा देख लीजिए। आहा.... गुरुजी! देखिए हमारा कमाल, हमारा चमत्कार। क्या चमत्कार हैं? देखिए पच्चीस हजार रुपए का सामान था हमारे घर में, हमने दियासलाई की एक तीली से जला दिया। कमाल है न। वाह भई वाह। बहादुर को तो ऐसा, जो एक तीली से पच्चीस हजार रुपए जला दे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य 

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 20) 11 Jan

🌹 गायत्री शाप मोचन

🔴 कई जगह ऐसा उल्लेख मिलता है कि गायत्री-मंत्र को शाप लगा हुआ है। इसलिए शापित होने के कारण कलियुग में उसकी साधना सफल नहीं होती। ऐसा उल्लेख किसी आर्ष ग्रन्थ में कहीं भी नहीं है। मध्यकालीन छुट-पुट पुस्तकों में ही एक-दो जगह ऐसा प्रसंग आया है। इनमें कहा गया है कि गायत्री को ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र ने शाप दिया है कि उसकी साधना निष्फल रहेगी, जब तक उसका शाप मोचन नहीं हो जाता। इस प्रसंग में ‘शाप मुक्तो भव’ वर्ग के तीन श्लोक भी हैं। उन्हें पाठ कर तीन वमची जल छोड़ देने भर से शाप-मोचन का प्रकरण समाप्त हो जाता है।

🔵 यह प्रसंग बहुत ही आश्चर्यजनक है। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार गायत्री ब्रह्माजी की अविच्छिन्न शक्ति है। कहीं-कहीं तो उन्हें ब्रह्मा-पत्नी भी कहा गया है। वशिष्ठ वे हैं जिनने गायत्री के तत्वज्ञान को देवसत्ता से हस्तगत करके मनुष्योपयोगी बनाया। वशिष्ठजी के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी थी। स्वर्ग में गायत्री को कामधेनु कहा गया है और उसके पृथ्वी संस्करण का नाम नन्दिनी दिया गया। वशिष्ठ की प्रमुख शक्ति वही थी। इसके आधार पर उन्होंने ऋषियों में वरिष्ठता प्राप्त की एक बार प्रतापी राजा विश्वामित्र से विग्रह हो जाने पर नन्दिनी के प्रताप से उनके धुर्रे बिखेर दिये। उसी ब्रह्मशक्ति से प्रभावित होकर राजा विश्वामित्र विरक्त बने और गायत्री की प्रचंड साधना में संलग्न रहकर गायत्री मन्त्र के दृष्ट्वा, साक्षात्कार कर्ता, निष्णान्त एवं सिद्ध पुरुष बने। गायत्री के विनियोग संकल्प में सविता देवता, गायत्री छन्द, विश्वामित्र ऋषि का वाचन होता है। इससे स्पष्ट है कि गायत्री विद्या के अन्तिम पारंगत ऋषि होने का श्रेय विश्वामित्र को ही प्राप्त है।

🔴 प्रस्तुत प्रतिपादनों में स्पष्ट है कि ब्रह्मा-वशिष्ठ और विश्वामित्र—तीनों की ही आराध्य एवं शक्ति निर्झरिणी गायत्री ही रही है। उसी के प्रताप से उन्होंने वर्चस्व पाया है। विष्णु के कमल नाभि से उत्पन्न होने के उपरान्त आकाशवाणी द्वारा निर्दिष्ट गायत्री की उपासना करके ही ब्रह्माजी सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त कर सके और उसी महाविद्या के व्याख्यान में उन्होंने चार मुखों से चार वेदों का सृजन किया। ब्रह्माजी गायत्री के ही मूर्तिमान संस्करण कहे जा सकते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...