शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 11 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 11 Feb 2017


👉 घट-घट में बसै गुरु की चेतना

🔴 करीब २२- २३ साल पहले की बात है। तब मैं कॉलेज में पढ़ा करती थी। फरवरी का महीना था। मैं अपनी माँ के साथ ग्राम हर्री,जिला अनूपपुर में अन्नप्राशन संस्कार कराने गई थी। कार्यक्रम शाम का था। लौटने में थोड़ी देर हो गई। शहडोल की आखिरी बस छः बजे थी। हम जल्दी- जल्दी बस स्टैण्ड पहुँचे। लेकिन पता चला कि बस अभी ५ मिनट पहले ही जा चुकी है। यह सुनकर हम माँ बेटी दोनों के प्राण सूख गए। इसके बाद कोई दूसरी बस नहीं थी। माँ को वापस घर जैतहरी जाना था और मुझे शहडोल जाना था, क्योंकि मैं पढ़ाई कर रही थी। दूसरे दिन प्रैक्टिकल था। इसलिए जाना जरूरी था। माँ की बस आधा घंटे बाद थी, लेकिन वह हमें न अकेले छोड़ सकती थी न वापस साथ ले जा सकती थी। बस छूटने के थोड़ी देर बाद एक कार आई। उसे रुकने के लिए हाथ दिया।

🔵 क्योंकि कार में बैठे व्यक्ति बैंक मैनेजर थे जिनसे जान पहचान थी। लेकिन वे रुके नहीं, आगे बढ़ गए। अब कोई साधन नहीं था। थोड़ी ही देर में घर के तरफ की बस आनेवाली थी। चिंता थी कि उसे भी न छोड़ना पड़ जाए। इसलिए हम और परेशान हो रहे थे। कोई उपाय न देखकर हम दोनों मिलकर गुरु देव से प्रार्थना करने लगे कि गुरु देव हमें कोई रास्ता बताइए। इस स्थिति में अब क्या करें? आप ही कोई उपाय कीजिए। जाड़े का समय था। धीरे- धीरे अँधेरा बढ़ता जा रहा था। हम लोगों की परेशानी भी बढ़ती जा रही थी।

🔴 तभी अचानक दूसरी ओर से एक कार हमारे सामने आकर रुकी। हमने देखा ये तो मैनेजर साहब हैं। वे बोले- बेटा क्या बात है? कहाँ जाना है? मुझे लगा तुम लोगों को मेरे सहयोग की जरूरत थी। मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं करीब दो किलोमीटर आगे चला गया था। लेकिन मुझे आभास हुआ कि तुम्हें सहयोग की जरूरत हैं इसलिए वापस चला आया। गुरु जी के असीम स्नेह को अनुभव कर हम धन्य हो गए। उसी दिन मैं यह जान पाई कि बच्चों की कितनी चिन्ता रहती है उन्हें। इस सज्जन में हमारे प्रति विशेष सद्भावना जगाकर 2 कि०मी० मी० से वापस बुला लाए।
  
🔵 मैनेजर साहब ने कहा- बेटी कहाँ तक जाओगी? मैंने कहा- चाचाजी मुझे शहडोल जाना है। मेरी बस छूट गई है। आप कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कहा- वैसे तो बुढ़ार तक जाना है, बैठो मैं छोड़ देता हूँ। आगे देखता हूँ। मेरी माँ मुझे कार में बैठाकर निश्चिन्त होकर दूसरी बस से घर के लिए रवाना हो गई। मैं जैसे ही बुढ़ार बस स्टैण्ड के पास पहुँची तो वहीं पर छूटी हुई बस भी खड़ी थी। बस का कण्डक्टर जोर- जोर से चिल्ला रहा था। शहडोल की आखिरी बस है। शहडोल की सवारी बस में आ जाएँ। मैं कार से उतर कर बस में बैठकर सकुशल अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच गई। उस दिन की घटना से मेरा रोम- रोम गुरु देव के प्रति कृतज्ञ हो उठा। ऐसा था उनका साथ, संरक्षण, सहयोग जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते।
  
🌹 श्यामा राठौर शांतिकुंज (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 34) 11 Feb

🌹 साप्ताहिक और अर्द्ध वार्षिक साधनाएँ    

🔴 मोटर के पहियों में भरी हवा धीरे-धीरे कम होने लगती है। उसमें थोड़े समय के बाद नई हवा भरनी पड़ती है। रेल में कोयला-पानी चुकता है तो दुबारा भरना पड़ता है। पेट खाली होता है तो नई खुराक लेनी पड़ती है। जीवन का एक सा ढर्रा नीरस बन जाता है, तब उसमें नई स्फूर्ति संचारित करने के लिये नया प्रयास करना पड़ता है। पर्व-त्यौहार इसीलिये बने हैं कि एक नया उत्साह उभरे और उस आधार पर मिली स्फूर्ति से आगे का क्रिया-कलाप अधिक अच्छी तरह चले। रविवार की छुट्टी मनाने के पीछे भी नई ताजगी प्राप्त करना और अगले सप्ताह काम आने के लिये नई शक्ति अर्जित करना है। संस्थाओं के विशेष समारोह भी इसी दृष्टि से किये जाते हैं कि उस परिकर में आई सुस्ती का निराकरण किया जा सके। प्रकृति भी ऐसा ही करती रहती है। घनघोर वर्षा और खिलखिलाती वसन्त ऋतु ऐसी ही नवीनता भर जाती है। विवाह और निजी पुरुषार्थ की कमाई इन दो आरम्भों को भी मनुष्य सदा स्मरण रखता है उनमें उत्साहवर्द्धक नवीनता है।

🔵 जीवन साधना का दैनिक कृत्य बताया जा चुका है। उठते आत्मबोध, सोते तत्त्वबोध। प्रथम पहर भजन, तीसरे पहर मनन, ये चार विधायें नित्यकर्मों में सम्मिलित रहने लगे तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों आधार बन पड़ते हैं। चार पाये की चारपाई होती है और चार दीवारों की इमारत। चार दिशायें, चार वर्ण, चार आश्रमों , अन्त:करण चतुष्टय प्रसिद्ध हैं। प्रज्ञायोग की दैनिक साधना में उपरोक्त चार आधारों का सन्तुलित समन्वय है। उन सभी में कर्मकाण्ड घटा हुआ है और भाव चिन्तन बढ़ा हुआ। इससे लम्बे कर्मकाण्डों की उलझन में उद्देश्य से भटक जाने की आशंका नहीं रहती । भावना और आकांक्षा सही बनी रहने पर बुद्धि द्वारा निर्धारण सही होते रहते हैं। स्वभाव और कर्म-कौशल का क्रम भी सही चलता रहता है। नित्यकर्म की नियमितता स्वभाव का अंग बनती है और फिर जीवन क्रम उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है।                          

🔴 जीवन साधना के दो विशेष पर्व हैं- एक साप्ताहिक दूसरा अर्द्ध वार्षिक। साप्ताहिक व्रत आमतौर से लोग रविवार, गुरुवार को रखते हैं। पर परिस्थितियों के कारण यदि कोई अन्य दिन सुविधाजनक पड़ता है तो उसे भी अपनाया जा सकता है। अर्द्धवार्षिक में आश्विन और चैत्र की दो नवरात्रियाँ आती हैं। इनमें साधना नौ दिन की करनी पड़ती है। इन दो पर्वों की विशेष उपासना को भी अपने निर्धारण में सम्मिलित रखने से बीच में जो अनुत्साह की गिरावट आने लगती है, उसका निराकरण होता रहता है। इनके आधार पर जो विशेष शक्ति उपार्जित होती है, उससे शिथिलता आने का अवसाद निपटता रहता है।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आराम नही काम चाहिए

🔴 एशिया के उद्योगशील और समृद्ध देशों में इन दिनों जापान की सर्वत्र चर्चा है। जानना चाहिये कि वही की समृद्धि का मूल कारण दैवी अनुकंपा नहीं वह श्रम और ईमानदारी है, जिसे जापानी नागरिक अपनी विरासत समझते है।

🔵 कुछ समय पूर्व एक अमेरिकन फर्म ने जापान में अपना व्यापार खोला। अमेरिका एक संपत्र देश है, वहाँ थोडे समय काम करके कम परिश्रम में भी लोग क्स्स्फी पैसा कमा लेते है, पर यह स्थिति जापान में कहाँ, वहाँ के लोग मेहनत-कश होते है, परिश्रम को वे शारीरिक संपत्ति मानते है। "जो मेहनत नही करता, वह अस्वस्थ होता है और समाज को विपन्न करता है" यह धारणा प्रत्येक जपानी नागरिक में पाई जाती है।

🔴 फर्म बेचारी को इसका क्या पता था? दूसरे देश में जाकर लोग आमतौर से अपने देश की उदारता ही दिखाने का प्रयास करते हैं। अमेरिका के उद्योगपति ने भी वही किया। उसने कर्मचारी जापानी ही रखने का फैसला किया, साथ ही यह भी निश्चय किया कि अमेरिकन कानून के अनुसार सप्ताह में केवल ५ दिन काम होगा। शनिवार और रविवार की छुट्टी रहेगी।

🔵 साहब बहादुर का विश्वास था कि इस उदारता से जापानियों पर बडा़ असर होगा, वे लोग प्रसन्न होकर दुआएँ देगे। पर एक दिन जब उन्होंने देखा कि फर्म के सभी कर्मचारी विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिक से अधिक सहूलियतें दी गई हैं, फिर भी कर्मचारी विरोध कर रहे हैं, फर्म के मैनेजर एकाएक यह बात समझ नहीं सके।

🔴 यह तो अल्पबुद्धि के लोग होते हैं, जो अधिक आराम पाना सौभाग्य मानते हैं, पर आलस्य और अकर्मण्यता के कारण जो रोग और दारिद्रय छाए रहते हैं, उनकी ओर कदाचित् ध्यान ही नहीं जाता। यह बात समझ ली गई होती, तो आज सैकड़ों भारतवासी भी रोग, अस्वस्थता और कर्ज आदि से बच गए होते।

🔵 यह गुरु मंत्र कोई जापानी भाइयों से सीखे। आखिर विरोध का कारण जानने के लिये मैनेजर साहब ने कर्मचारियों के पास जाकर पूछा- ''आप लोगों को क्या तकलीफ है''।

🔴 तकलीफ! उन लोगों ने उत्तर दिया- 'तकलीफ यह है कि हमें दो छुट्टियाँ नही चाहिए। हमारे लिए एक ही छुट्टी पर्याप्त है।'' ऐसा क्यों ?'' पूछने पर उन्होंने आगे बताया आप जानते होंगे कि अधिक आराम देने से हमारी खुशी बढे़गी तो यह आपका भ्रम हे। अधिक छुट्टियाँ होने से हम आलसी बन जाएँगे। परिश्रम करने में हमारा मन नहीं लगेगा और उसका दुष्प्रभाव हमारे वैयक्तिक और राष्ट्रीय जीवन पर पड़ेगा। हमारा स्वास्थ्य खराब होगा। छुट्टी के कारण इधर उधर घूमने में हमारा अपव्यय बढेगा। जो छुट्टी हमारा स्वास्थ्य गिराए और हमे आर्थिक भार से दबा दे- ऐसी छुट्टी हमारे जीवन में बिलकुल नहीं खपती।

🔵 अमेरिक उद्योगपति उनकी इस दूरदर्शिता और आदर्शवाद पर मुस्कराए बिना न रह सके। उन्हें कहना ही पडा़ जापनी भाइयों! आपकी समृद्धि और शीघ्र सफलता का रहस्य हम आज समझे। सचमुच परिश्रम और पुरुषार्थ ही समृद्धि की कुंजी है। आप लोग कभी निर्धन ओर अस्वस्थ नहीं रह सकते।''

🔴 न जाने यह बात हमारे देश वाले कब तक सीख पाएँगे ?

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 21, 22

👉 बन्दा बैरागी की साधना

🔴 बन्दा वैरागी भी इसी प्रकार समय की पुकार की अवहेलना कर, संघर्ष में न लगकर एकान्त साधना कर रहे थे। उन्हीं दिनों गुरुगोविन्दसिंह की बैरागी से मुलाकात हुई। उन्होंने एकान्त सेवन को आपत्तिकाल में हानिकारक बताते हुए कहा- "बन्धु! जब देश, धर्म, संस्कृति की मर्यादाएँ नष्ट हो रही है और हम गुलामी का जीवन बिता रहे है, आताताइयों के अत्याचार हम पर हो रहे है उस समय यह भजन, पूजन, ध्यान, समाधि आदि किस काम के हैं?"

🔵 गुरुगोविन्दसिंह की युक्तियुक्त वाणी सुनकर बन्दा वैरागी उनके अनुयायी हो गए और गुरु की तरह उसने भी आजीवन देश को स्वतन्त्र कराने, अधर्मियों को नष्ट करने और संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसी उद्देश्य के लिए बन्दा वैरागी आजीवन प्रयत्नशील रहे। मुसलमानों द्वारा वैरागी पकड़े गये, उन्हें एक पिंजरें में बन्द किया गया। मौत या धर्म परिवर्तन की शर्त रखी गई, लेकिन वे तिल मात्र भी विचलित नहीं हुए। अन्तत: आतताइयों ने उनके टुकड़े- टुकडे कर दिये। बन्दा अन्त तक मुस्कराते ही रहे। भले ही बन्दा मर गये परन्तु अक्षय यश और कीर्ति के अधिकारी बने।

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 18

👉 हम अपने भीतर झाँक ना सीखें

🔵 व्यक्ति दूसरों के विषय में अधिकाधिक जानने का प्रयास करे अथवा उनकी भावनाओं से परिचित होना चाहे, उससे पहले अपने विषय में अधिकाधिक जान लेना चाहिए। अपने मन की भाषा को, आकांक्षाओं को-भावनाओं को बहुत स्पष्ट रूप से समझा, सुना और परखा जा सकता है। अपने बारे में जानकर अपनी सेवा करना, आत्म सुधार करना अधिक सरल है, बनिस्बत इसके कि हम औरों को-सारी दुनिया को बदलने का प्रयास करें। जितना हम अपने अन्तःकरण का परिमार्जन और सुधार कर लेंगे, यह संसार हमें उतना ही सुधरा हुआ परिलक्षित होने लगेगा।

🔴 हम दर्पण में अपना मुख देखते हैं एवं चेहरे की मलिनता को प्रयत्नपूर्वक साफ कर उसे सुन्दर बना डालते हैं। मुख उज्ज्वल-साफ और अधिक सुन्दर निकल आता है। मन की प्रसन्नता बढ़ जाती है। अन्तःकरण भी एक मुख है। उसे चेतना के दर्पण में देखने और उसे भली-भाँति परखने से उसकी मलिनताएँ भी दिखाई देने लगती हैं, साथ ही सौन्दर्य भी। कमियों को दूर करना, मलिनता को मिटाना और आत्म निरीक्षण द्वारा पर्त दर पर्त्त गन्दगी को हटाकर आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को प्रकट करना ही सच्ची उपासना है। जब सारी मलिनताएँ निकल जाती हैं तो आत्मा का उज्ज्वल, साफ और सुन्दर स्वरूप परिलक्षित होने लगता है। फिर बहिरंग में सभी कुछ अच्छा-सत्, चित् आनन्दमय नजर आने लगता है।

🔵 हमें अपने आपसे प्रश्न करना चाहिए-क्या हमारे विचार गन्दे हैं? कामुकता के चिन्तन में हमारा मन रस लेता है, क्या हमें इन्द्रियजन्य वासनाओं से मोह है, क्या हम उस परमसत्ता के हमारे बीच होते हुए भी भयभीत हैं? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ है तो हमें अपने सुधार में जुट जाना चाहिए। वस्तुतः अपना सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जिस दिन हमें अपने ऊपर के प्रश्नों का उत्तर नहीं में मिलने लगेगा, उस दिन से हम संसार के सबसे सुखी व्यक्ति बन जाएँगे।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 11

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 6)

🌹 सभी मानसिक स्फुरणाएं विचार नहीं

🔴 अतएव आवश्यक है कि किसी विचार से रचनात्मक सम्बन्ध स्थापित करने से पूर्व इस बात ही पूरी परख कर लेनी चाहिए कि जिसे हम विचार समझकर अपने व्यक्तित्व का अंग बनाये ले रहे हैं, वह वास्तव में विचार है भी या नहीं? कहीं ऐसा न हो कि वह आपका कोई मनोविकार हो और तब आपका व्यक्तित्व उसके कारण दोषपूर्ण बन जाय। प्रत्येक शुभ तथा सृजनात्मक विचार व्यक्तित्व को उभारने और विकसित करने वाला होता है। और प्रत्येक अशुभ तथा ध्वंसात्मक विचार मनुष्य का जीवन गिरा देने वाला है।

🔵 किसी भी शक्ति का उपयोग रचनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों ही रास्तों से होता है। विज्ञान की शक्ति से मनुष्य के जीवन में असाधारण परिवर्तन हुआ। असम्भव को सम्भव बनाया विज्ञान ने। किन्तु आज विज्ञान के विनाशकारी स्वरूप को देखकर मानवता का भविष्य ही अन्धकारमय दिखाई देता है। जनमानस में बहुत बड़ा भय व्याप्त है। ठीक इसी तरह विचारों की शक्ति भी है। उनके पुरोगामी होने से मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुल जाता है और प्रतिगामी होने पर वही शक्ति उसके विनाश का कारण बन जाती है। गीताकार ने इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए लिखा है ‘‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन’’ विचारों का केन्द्र मन ही मनुष्य का बन्धु है और यही शत्रु भी। 

🔴 आवश्यकता इस बात की है कि विचारों को निम्न भूमि से हटाकर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाया जाय जिससे मनुष्य दीन-हीन, क्लेश एवं दुखों से भरे नारकीय जीवन से छुटकारा पाकर इसी धरती पर स्वर्गीय जीवन की उपलब्धि कर सके। वस्तुतः सद्विचार ही स्वर्ग की और कुविचार ही नरक की एक परिभाषा है। अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, असन्तुलित बनाते हैं उन्हीं के अनुसार दुष्कर्म होने लगते हैं। और उन्हीं में फंसा हुआ व्यक्ति नारकीय यन्त्रणाओं का अनुभव करता है। जबकि सद्विचारों में डूबे हुए मनुष्य को धरती स्वर्ग जैसी लगती है। विपरीतताओं में भी वह सनातन सत्य के आनन्द का अनुभव करता है। साधन सम्पत्ति के अभाव, जीवन के कटु क्षणों में भी वह स्थिर और शान्त रहता है। शुद्ध विचारों के अवलम्बन से ही सच्चा सुख मिलता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 14)

🌹 दुरुपयोग के रहते अभाव कैसे मिटे

🔵 पुरातन काल में साधन आज की अपेक्षा निश्चित ही बहुत कम थे। वैज्ञानिक अविष्कारों का तो तब सिलसिला तक नहीं चला था। इतने पर भी उन दिनों इतनी अधिक प्रसन्नता एवं सहकारिता का अनुभव होता था, जिसे देखते हुए वह समय सतयुग कहलाता था। मिल बाँटकर खाने की नीति अपनाए जाने पर जो था उसी में भली प्रकार काम चल जाता था, न कहीं विग्रह था, न संकट। ऐसे वातावरण में अभावों की अनुभूति तो हो ही कैसे सकती है?

🔴 मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएँ अत्यन्त स्वल्प हैं। उन्हें कुछ ही घण्टे के साधारण श्रम से सुविधापूर्वक उपलब्ध किया जा सकता है। हैरान तो वह तृष्णा करती है, जिसके पीछे दुरुपयोग की ललक लालसा जुड़ी होती है। यदि उस बौद्धिक विभ्रम से निपटा जा सके, तो गुजारे में कमी पड़ने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, मनुष्य सहज ही इतना अधिक उपार्जन करता रह सकता है कि दूसरों की सहायता करने का भी सुयोग बनता रहे।

🔵 अनाचार की वृद्धि का एक ही कारण है, अनावश्यक एवं अतिशय मात्रा में सज्जा सजाना, विलासिता के साधन जुटाना एवं संग्रह की लिप्सा से लालायित रहना। आग में ईंधन पड़ने की तरह हविश बढ़ती ही जाती है। विलासिता और अहन्ता के व्यामोह में, जो कमाया गया था, वह कम पड़ता ही रहता है, साथ ही यह उत्सुकता चल पड़ती है कि किसी प्रकार अपनों या दूसरों के हक का जितना भी कुछ छीना झपटा जा सके, उसमें कोताही न की जाये।

🔴 इस प्रकार की ललक, संचय तो बहुत कर लेती है, पर उसका सदुपयोग सूझ नहीं पड़ता। भाव संवेदना एवं चिन्तन में उत्कृष्टता न होने पर मात्र अनियन्त्रित उपयोग ही एक मात्र मार्ग रह जाता है, जिसकी गहरी खाई कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी प्रभुता पाकर भी पटती नहीं है। इस मन:स्थिति में सन्तोष कहाँ? चैन कैसा? प्रसन्नता और प्रफुल्लता का अनुभव कर सकना तो कोसों पीछे रह जाता है।   

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 एक विशेष समय (भाग 2)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 पहला कदम आपको जो बढ़ाना पड़ेगा, वो यह बढ़ाना पड़ेगा कि जिस तरीके से सामान्य मनुष्य जीते हैं, उसी तरीके से जीने से इन्कार कर दें और यह कहें-हम तो विशेष व्यक्ति और महामानवों के तरीके से जीयेंगे। पेट तो ऐसे ही भरना है। केवल मात्र पेट ही भरना रहा तो गन्दे तरीके से हम क्यों भरें? शेष तरीके से हम क्यों न भरें? हम जो बाकी पेट भरने के अलावा कार्य कर सकते हैं, वह क्यों न करें? यह प्रश्न हमारे सामने ज्वलंत रूप से आ खड़ा होगा और हमको यह आवश्यकता मालूम पड़ेगी कि हम अपनी मनःस्थिति में हेर-फेर कर डालें, अपनी मनःस्थिति को बदल डालें और हम लौकिक आकर्षणों की अपेक्षा ये देखें कि इन्हीं में भटकते रहने की अपेक्षा भगवान् का पल्ला पकड़ लेना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् का सहयोगी बन जाना ज्यादा लाभदायक है। भगवान् को अपने जीवन में रमा देना ज्यादा लाभदायक है। संसार का इतिहास बताता है कि भगवान् का पल्ला पकड़ने वाले और भगवान् को अपना सहयोगी बनाने वाले कभी घाटे में नहीं रहे और न रहेंगे। ये विश्वास करें तो यह एक बहुत बड़ी बात है। जानना चाहिये, हमने एक बहुत बड़ा प्रकाश पा लिया।

🔵 अगर हम यह अनुभव कर सकें कि अब मनःस्थिति बदलनी है और सांसारिकता का पल्ला पकड़े रहने की अपेक्षा भगवान् की शरण में जाना है। ये हमारा दूसरा कदम होगा, ऊँचा उठने के लिये। तीसरा वाला कदम आत्मिक उत्थान के लिये हमारा ये होना चाहिये कि हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमारी कामनाएँ, हमारी इच्छाएँ बड़प्पन के केन्द्र से हटें और महानता के साथ जुड़ जायें। हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ ये नहीं होनी चाहिए कि हम वासनाओं को पूरा करते रहेंगे जिन्दगी भर और हम तृष्णा के लिये अपने समय, बुद्धि को खर्च करते रहेंगे और हम अपनी अहंता को, ठाठ-बाट को, रौब को और बड़प्पन को लोगों के ऊपर रौब-गालिब करने के लिये तरह-तरह के ताने-बाने बुनते रहेंगे। अगर हमारा मन इस बात को मान जाये और हमारा अंतःकरण स्वीकार कर ले, ये बचकानी बातें हैं, छिछोरी बातें हैं, छोटी बातें हैं। छिछोरापन, बचकानापन और ये छोटापन, क्षुद्रता का अगर हम त्याग कर सकें तो एक बात हमारे सामने खड़ी होगी कि अब हमको महानता ग्रहण करनी है।

🔴 महापुरुषों ने जिस तरीके से आचरण किये थे, महापुरुषों का चिंतन करने का जो तरीका था, वही तरीका हमारा होना चाहिये और हमारी गतिविधियाँ उसी तरीके से होनी चाहिये, जैसे कि श्रेष्ठ मनुष्यों की रही हैं और रहेंगी। ये विश्वास करने के बाद में हमको अपनी क्रियापद्धति में, दृष्टिकोण में ये मान्यताएँ ले आने के पश्चात्, इच्छाओं और आकांक्षाओं का केन्द्र बदल देने के बाद हमको व्यावहारिक जीवन में भी थोड़े से कदम उठाने चाहिये। साधकों के लिये यही मार्ग है। 

🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/ek_vishesh_samay

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 100)

🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा

🔴 2. उप जातियों के प्रथम संगठन:-- प्रगतिशील भटनागर सभा, प्रगतिशील श्रीवास्तव सभा, प्रगतिशील सक्सेना सभा जैसे छोटे संगठन अलग-अलग से बनेंगे। लेकिन वे अन्ततः ‘प्रगतिशील कायस्थ सभा’ के अन्तर्गत रहेंगे। इसी प्रकार अन्य जातियों के भी उप-जातियों के अलग-अलग संगठन होने चाहिए, ताकि उसी समुदाय के अन्तर्गत विवाह करने वाले या उसे छोड़कर अन्यों में करने वाले लोगों का विवाह सम्बन्ध करने में सुविधा रह सके। उप-जातियों के यह पृथक-पृथक संगठन अन्ततः अपनी मूल जाति के केन्द्रीय संगठन के अन्तर्गत रहेंगे। आरम्भिक गठन उप-जातियों के द्वारा शुरू करना चाहिए और पीछे उन सब प्रतिनिधियों को लेकर एक मूल जाति की प्रगतिशील सभा गठित कर लेनी चाहिए। जैसी—ब्राह्मणों की सनाढ्य गौड़, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, सारस्वत, औदीच्य, श्रीमाली, गौतम आदि उप-जातियों की अलग सभाएं बन गईं तो उनके दो-दो प्रतिनिधि लेकर एक केन्द्रीय प्रगतिशील ब्राह्मण सभा बना दी जायगी।

🔵 3. सदस्यता की शर्त:-- इन संगठनों के सदस्यों की भर्ती सामाजिक सुधारों को, विशेषतया विवाहों में होने वाले अपव्यय को रोकने के प्रति आस्थावान होने की शर्त पर की जानी चाहिए। भले ही 24 सूत्रीय आदर्श विवाहों की रूपरेखा को वे आज पूरी तरह कार्यान्वित करने की स्थिति में न हों, पर विचारों की दृष्टि से तो उसके औचित्य को पूर्णतया मानना ही चाहिए और अवसर आने पर समर्थन भी उन्हीं बातों का करना चाहिए। 24 सूत्रों में से कोई पूरी तरह न निभ सके तो उसे अपनी कमजोरी ही मानना चाहिए और उसके लिए दुःख एवं लज्जा अनुभव करनी चाहिए। उस दुर्बलता का उन्हें समर्थन कदापि न करना चाहिए।

🔴 ऐसे आस्थावान व्यक्तियों की सहमति:--
प्रतिज्ञा का एक फार्म होगा, जिस पर सदस्यगण अपने हस्ताक्षर करेंगे। इन हस्ताक्षर कर्त्ताओं के प्रार्थना-पत्र क्षेत्रीय संगठन द्वारा स्वीकार किये जाने पर उन्हें सदस्य घोषित किया जायगा और उन्हें प्रमाण-पत्र दिया जायगा। अवांछनीय, व्यक्तियों के सदस्यता-पत्र अस्वीकृत कर दिये जायेंगे। पीछे भी कभी कोई सदस्य संगठन को कलंकित करने वाले काम करता पाया गया तो उसकी सदस्यता क्षेत्रीय संगठन की सिफारिश पर केन्द्रीय संगठन रद्द कर देगा। सदस्यता की कोई फीस नहीं होगी। वयस्क नर-नारी सभा का सदस्य बन सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 48)

🌹 ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार

🔴 सूक्ष्म शरीर से अन्तःप्रेरणाएँ उमगाने और शक्तिधारा प्रदान करने का काम हो सकता है, पर जनसाधारण को प्रत्यक्ष परामर्श देना और घटनाक्रमों को घटित करना स्थूल शरीरों का ही काम है। इसलिए दिव्य शक्तियाँ किन्हीं स्थूल शरीर धारियों को ही अपने प्रयोजनों के लिए वाहन बनाती हैं। अभी तक मैं एक ही मार्गदर्शक का वाहन था, पर अब वे हिमालयवासी अन्य दिव्य आत्माएँ भी अपने वाहन के काम ले सकती थीं और तद्नुसार प्रेरणा, योजना एवं क्षमता प्रदान करती रह सकती थीं। गुरुदेव इसी भाव वाणी में मेरा परिचय उन सबसे करा रहे थे। वे सभी बिना लोकाचार, शिष्टाचार निबाहे, बिना समय-क्षेप किए एक संकेत में उस अनुरोध की स्वीकृति दे रहे थे। आज रात्रि की दिव्य यात्रा इसी रूप में चलती रही। प्रभात होने से पूर्व ही वे मेरी स्थूल काया को निर्धारित गुफा में छोड़कर अपने स्थान को वापस चले गए।

🔵 आज ऋषि लोक का पहली बार दर्शन हुआ। हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों-देवालय, सरोवरों, सरिताओं का दर्शन तो यात्रा काल में पहले से भी होता रहा। उस प्रदेश को ऋषि निवास का देवात्मा भी मानते रहे हैं, पर इससे पहले यह विदित न था कि किस ऋषि का किस भूमि से लगाव है? यह आज पहली बार देखा और अंतिम बार भी। वापस छोड़ते समय मार्गदर्शक ने कह दिया कि इनके साथ अपनी ओर से सम्पर्क साधने का प्रयत्न मत करना। उनके कार्य में बाधा मत डालना। यदि किसी को कुछ निर्देशन करना होगा, तो वे स्वयं ही करेंगे। हमारे साथ भी तो तुम्हारा यही अनुबंध है कि अपनी ओर से द्वार नहीं खटखटाओगे।

🔴 जब हमें जिस प्रयोजन के लिए जरूरत पड़ा करेगी, स्वयं ही पहुँचा करेंगे और उसी पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटा दिया करेंगे। यही बात आगे से तुम उन ऋषियों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हो, जिनके कि दर्शन प्रयोजनवश तुम्हें आज कराए गए हैं। इस दर्शन को कौतूहल भर मत मानना, वरन् समझना कि हमारा अकेला ही निर्देश तुम्हारे लिए सीमित नहीं रहा। यह महाभाग भी उसी प्रकार अपने सभी प्रयोजन पूरा कराते रहेंगे, जो स्थूल शरीर के अभाव में स्वयं नहीं कर सकते। जनसम्पर्क प्रायः तुम्हारे जैसे सत्पात्रों-वाहनों के माध्यम से कराने की ही परम्परा रही है। आगे से तुम इनके निर्देशनों को भी हमारे आदेश की तरह ही शिरोधार्य करना और जो कहा जाए सो करने के लिए जुट पड़ना। मैं स्वीकृति सूचक संकेत के अतिरिक्त और कहता ही क्या? वे अंतर्ध्यान हो गए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 48)

🌞  हिमालय में प्रवेश (सुनसान की झोंपड़ी)

🔵 यह जागृत था या स्वप्न? सत्य था या भ्रम? मेरे अपने विचार थे या दिव्य संदेश? कुछ समझ नहीं पा रहा था। आंखें मलीं सिर पर हाथ फिराया। जो सुना, देखा था, उसे ढूंढ़ने का पुनः प्रयत्न किया। पर कुछ मिल नहीं पा रहा था, कुछ समाधान हो नहीं रहा था।

🔴 इतने में देखा कि उछलती हुई लहरों पर थिरकते हुये अनेक चन्द्र प्रतिबिम्ब एक रूप होकर चारों ओर से इकट्ठे हो रहे हैं और मुसकराते हुए कुछ कह रहे हैं। इनकी बात सुनने की चेष्टा की तो नन्हे बालकों जैसे वे प्रतिबिम्ब कहने लगे—हम इतने चन्द्र तुम्हारे साथ खेलने के लिये, हंसने-मुस्कराने के लिये मौजूद हैं। क्या तुम हमें अपना सहचर न मानोगे? क्या हम अच्छे साथी नहीं हैं? मनुष्य! तुम अपनी स्वार्थी दुनिया में से आये हो, जहां जिससे जिसकी ममता होती है, जिससे जिसका स्वार्थ सधता है वह प्रिय लगता है। जिससे स्वार्थ सधा वह प्रिय, वह अपना। जिससे स्वार्थ न सधा वह पराया, वह बिराना। यही तुम्हारी दुनिया का दस्तूर है न उसे छोड़ो। हमारी दुनिया का दस्तूर सीखो। यहां संकीर्णता नहीं, यहां ममता नहीं, यहां स्वार्थ नहीं, यहां सभी अपने हैं। सब में अपनी ही आत्मा है ऐसा सोचा जाता है। तुम भी इसी प्रकार सोचो। फिर हम इतने चन्द्र बिम्बों के सहचर रहते तुम्हें सूनापन प्रतीत ही न होगा।

🔵 तुम तो यहां कुछ साधन करने आये हो न! साधना करने वाली इस गंगा को देखते नहीं, प्रियतम के प्रेम में तल्लीन होकर उससे मिलने के लिये कितनी तल्लीनता और आतुरता से चली जा रही है। रास्ते के विघ्न उसे कहां रोक पाते हैं? अन्धकार और अकेलेपन को वह कहां देखती है? लक्ष की यात्रा से एक क्षण के लिये भी उसका मन कहां विरत होता है? यह साधना का पथ अपनाना है, तो तुम्हें भी यही आदर्श अपनाना होगा। जब प्रियतम को पाने के लिए तुम्हारी आत्मा भी गंगा की धारा की तरह द्रुतगामी होती तो कहां भीड़ में आकर्षण लगेगा और कहां सूनेपन में भय लगेगा? गंगा तट पर निवास करना है तो गंगा की प्रेम-साधना भी सीखो—साधक!

🔴 शीतल लहरों के साथ अनेक चन्द्र बालक नाच रहे थे। मानों अपनी मथुरा में कभी हुआ—रास, नृत्य प्रत्यक्ष हो रहा हो। लहरें गोपियां बनीं, चन्द्र ने कृष्ण का रूप धारण किया, हर गोपी के साथ एक कृष्ण! कैसा अद्भुत रास-नृत्य यह आंखें देख रही थीं। मन आनन्द से विभोर हो रहा था। ऋतम्भरा प्रज्ञा कह रही थी—देख, देख अपने प्रियतम की झांकी देख। हर काया में एक आत्मा उसी तरह नाच रही है जैसे गंगा की शुभ लहरों के साथ एक ही चन्द्रमा के अनेक बिम्ब नृत्य कर रहे हैं। सारी रात बीत गई। ऊषा की अरुणिमा प्राची से प्रकट होने लगी। जो देखा वह अद्भुत था। सूनेपन का भय चला गया। कुटो की ओर पैर धीरे-धीरे लौट रहे थे। सूनेपन का प्रश्न अब भी मस्तिष्क में मौजूद था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...