रविवार, 12 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 13 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 13 Feb 2017


👉 एक ही दिन में मिले तीन जीवनदान

🔴 बचपन से ही साधना में मेरी गहरी रुचि थी। ध्यान मुझे स्वतः सिद्ध था। तरह- तरह के अनुभव होते थे, जिन्हें किसी से कहने में भी मुझे डर लगता था। पर धीरे- धीरे उनका अर्थ समझ में आने लगा। एक दिन न जाने कहाँ से एक महात्मा मस्तीचक आए और धूनी जलाकर बैठ गए। उनका नाम था- बाबा हरिहर दास। उनसे प्रभावित होकर मैंने दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- मैं तुम्हारा गुरु नहीं हो सकता हूँ। तुम्हारे गुरु इस धरती पर अवतरित हो चुके हैं। मेरा उद्धार भी तुम्हारे गुरु के द्वारा ही होना है। एक दिन वे मथुरा से यहाँ आएँगे और इसी मिट्टी की कुटिया में आकर मेरा उद्धार करेंगे।

🔵 बाबा हरिहर दास ने जिस दिन मुझे यह बात बताई, उस दिन के पहले से ही मेरे सपने में एक महापुरुष का आना शुरू हो चुका था। वे खादी के धोती- कुर्ते में नंगे पाँव आया करते थे। उनके चेहरे से अलौकिक आभा टपकती रहती थी। जब भी वे मेरे सपने में आते, मैं यंत्रचालित- सा उनके चरणों में अपना माथा टेक देता। फिर वे मेरा सिर सहलाकर मुझे आशीर्वाद देते और बिना कुछ कहे वापस चले जाते।

🔴 वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। लेकिन एक रात ऐसी भी आयी, जब उन्होंने अपना मौन तोड़ दिया। अंतरंगता से आप्लावित शब्दों में उन्होंने मुझसे कहा- अभी कितने दिन यहाँ रहना है। मैं वहाँ तुम्हारी राह देख रहा हूँ।
  
🔵 तभी से एक अनजानी- सी बेचैनी मेरे भीतर घर कर गई। अब तक मुझे इसका आभास हो चुका था कि यही मेरे पूर्व जन्म के गुरु हैं। लेकिन प्रश्र यह था कि इस अवतारी चेतना को मैं कहाँ खोजूँ? कुछ ही दिनों बाद दैवयोग से मैं मथुरा पहुँचा। वहीं पर मुझे मिले बार- बार मेरे सपने में आने वाले मेरे परम पूज्य गुरुदेव- युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य!

🔴 पहली ही मुलाकात में उनसे मुझे ऐसा प्यार मिला कि मैं उन्हीं का होकर रह गया। उनके पास रहते- रहते करीब चार वर्ष बीत गए थे। आचार्यश्री के मार्गदर्शन में साधना और उपासना के बल पर मैं अपने जीवन में होने वाली अनेक घटनाओं के बारे में जानने लग गया था।

🔵 इसी क्रम में एक दिन मुझे अपनी मृत्यु के समय का ज्ञान हो गया। तब मैंने पूज्य गुरुदेव से कहा- इस शरीर से आपकी सेवा अगले तीन- चार महीने तक ही हो सकेगी। गुरुदेव ने पूछा- ऐसा क्यों? मैंने मुस्कुराते हुए कहा- मेरी मृत्यु होने वाली है। मरने के बाद भूत बनकर शायद आपकी सेवा कर सकूँ, पर इस शरीर से तो सेवा नहीं हो पाएगी। जवाब में पूज्य गुरुदेव भी मुस्कराने लगे। उन्होंने कहा- तुम्हें इसी शरीर से मेरा काम करना है।

🔴 कुछ दिन और बीत गए। मृत्यु को कुछ और करीब आया जानकर मैंने पूज्य गुरुदेव के सामने फिर से यही बात दुहराई। गुरुदेव झल्ला उठे। उन्होंने डपटते हुए पूछा- अच्छा बता, तेरी मृत्यु कैसे होगी? मैंने कहा- आज से ठीक दो महीने बाद मुझे एक साँप काट लेगा और उसी से मेरी मृत्यु हो जाएगी।  मेरी बात सुनकर उनकी झल्लाहट कुछ और बढ़ गई। उन्होंने कहा- तू अपना काम करता चल। मरने की बकवास छोड़ दे। मुझे लगा कि गुरुदेव का इशारा शरीर की नश्वरता की ओर है। मैं भी करीब आती हुई मौत को भूलकर अपने काम में मगन हो गया।

🔵 महीने- डेढ़ महीने बाद तो मैं इस बात को पूरी तरह से भूल गया था कि मौत मेरी तरफ तेजी से बढ़ती आ रही है। आखिरकार वह दिन भी आ ही गया जिसे नियति ने मेरी मृत्यु के लिए निर्धारित कर रखा था। सुबह के समय मैं, शरण जी तथा दो- तीन अन्य परिजनों के साथ नीम के पेड़ के नीचे बैठा था। गुरुदेव सामने के कमरे में थे। हम सब उनके बाहर निकलने का ही इन्तजार कर रहे थे। समय बीतता जा रहा था, पर वे बाहर निकलने का नाम नहीं ले रहे थे। विलम्ब होता देख मैं उधर जाने की सोच ही रहा था कि अचानक पेड़ से एक भयंकर विषधर सर्प मेरे सिर पर गिरा। उसी क्षण मुझे अपनी ध्यानावस्था में देखा हुआ दृश्य याद आ गया कि आज मुझे मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता है। पर आश्चर्य! उस काले साँप का फन मेरी आँखों के आगे नाच रहा था। उस काले साँप ने दो- तीन बार अपने फन से मेरे सिर पर और छाती पर प्रहार किया, पर काट नहीं सका। ऐसा लगा कि किसी ने उसके फन को नाथ कर रख दिया है।

🔴 अपने जीवन में समय को पूरी तरह से साध लेने वाले मेरे गुरुदेव समय के बीत जाने पर भी आज कमरे से बाहर क्यों नहीं निकले, यह बात अब मेरी समझ में आ चुकी थी। डसने की कोशिश में असफल हुआ वह साँप धीरे- धीरे मेरे शरीर पर सरकता हुआ नीचे आ गया। अब तक वहाँ कुछ और लोग भी जमा हो गए थे। सबने मिलकर उस साँप को मार दिया। तब तक वहाँ इस बात को लेकर कोहराम मच गया कि शुक्ला जी को साँप ने काट खाया है। गुरुदेव अपने कमरे से निकले। इन सारी बातों से अनजान बनते हुए उन्होंने पूछा -क्या हुआ शुक्ला? मैंने मरे हुए साँप को दिखाते हुए कहा- यह सर्प मेरा काल बनकर आया था। लगता है मैं बच गया। गुरुदेव ने गंभीर स्वर में कहा- इस सर्प को मारना नहीं चाहिए था। किसने मारा? किसी ने मुँह नहीं खोला। सभी सिर झुकाए खड़े रहे। वातावरण को सहज बनाने के लिए गुरुदेव बोले- खैर, जाने दो। स्नान कर लो। पूज्यवर की शक्ति सामर्थ्य से अभिभूत होकर मैं स्नान करने के लिए चल पड़ा।

🔵 उस दिन भी रोज की भाँति ही दोपहर के बाद वाले कार्यक्रम में परम वन्दनीया माताजी के गायन में मुझे तबले पर संगत करनी थी। मंच पर सारी व्यवस्था हो चुकी थी। तबला, हारमोनियम रखे जा चुके थे। माताजी के लिए माइक सेट करना था। जैसे ही मैंने माइक को पकड़कर उठाना चाहा, मेरा हाथ माइक से चिपक गया। माइक में २४० बोल्ट का करंट दौड़ रहा था। अपनी पूरी ताकत लगाकर मैंने हाथ झटकना चाहा, पर झटक नहीं सका। फिर मैं चीखकर बोला- लाइन काटो। मुझे लगा कि अब मेरी मृत्यु निश्चित है। सुबह साँप से तो मैं बच गया था, पर बिजली के इस करंट से बचना असंभव है। लेकिन मेरे और मेरी मौत के बीच तो पूज्य गुरुदेव की तपश्चर्या की ताकत दीवार बनकर खड़ी थी। उन्होंने भेदक दृष्टि से बिजली के तार की ओर देखा और तार का कनेक्शन कट गया। माइक ने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं झटके से नीचे गिर पड़ा। सब लोग दौड़कर मेरे पास आ गए। पूज्य गुरुदेव भी स्थिर चाल से चले आ रहे थे। लोगों ने उन्हें रास्ता दिया। उन्होंने पास आकर पूछा- कैसे हो बेटे? बोलना चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं सका। ऐसा लग रहा था, जैसे पूरे शरीर को लकवा मार गया हो।

🔴 डॉक्टर बुलाये गए। उन्होंने कहा- बिजली का झटका बहुत जोर का लगा है। इसका असर मस्तिष्क पर भी पड़ सकता है। ठीक होने में कम से कम तीन महीने तो लग ही जाएँगे। डॉक्टर के चले जाने के बाद पूज्य गुरुदेव ने कहा -इसके सारे शरीर में सरसों के तेल से मालिश करो।

🔵 संगीत का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। मैं अकेले में बिस्तर पर लेटा हुआ गुरुसत्ता की सर्वसमर्थता पर मुग्ध हो रहा था। कुछ ही घण्टों के दौरान दो बार काल मुझे निगलने के लिए आया और दोनों बार उन्होंने मुझे मौत के मुँह से बाहर निकाल लिया। मैं उनके प्रति कृतज्ञता के भाव में डूबता जा रहा था कि न जाने कब आँखों में गहरी नींद समाती चली गई। आधी रात के बाद अचानक मेरी नींद टूटी। ऐसा लगा कि कोई मेरी छाती पर बैठकर मुझे जान से मारने की कोशिश कर रहा है और मैं अब कुछ ही क्षणों का मेहमान हूँ। एक ही दिन में तीसरी बार मैं अपनी मृत्यु को करीब से देख रहा था। दोपहर बाद के बिजली के झटके ने मेरी सारी ताकत पहले ही निचोड़ ली थी। इसीलिए चाहकर भी मैं कोई प्रतिकार नहीं कर सका। जब मुझे लगा कि अगली कोई भी साँस मेरी अन्तिम साँस साबित हो सकती है, तो मेरे मुँह से सिर्फ दो ही शब्द निकले- हे गुरुदेव! उनका नाम लेना भर था कि मेरी छाती पर सवार मेरा काल शून्य में विलीन हो गया। इस प्रकार परम पूज्य गुरुदेव ने विधि के विधान को चुनौती देकर एक ही दिन में तीन- तीन बार मुझे नया जीवन दिया।                  

🔴 सुबह होते ही पत्नी ने पूज्य गुरुदेव के कल के आदेश का पालन करने की तत्परता दिखाई। सरसों के तेल की मालिश शुरू हुई। बीस मिनट की मालिश में ही एक चौथाई आराम मिल गया। मालिश का यह क्रम करीब एक हफ्ते तक चलता रहा। डॉक्टर साहब ने तो जोर देकर कहा था कि मुझे ठीक होने में कम से कम तीन महीने लग जायेंगे, लेकिन आठवें दिन ही मैं अपने आपको पहले से भी अधिक ताकतवर महसूस करने लगा था। उनकी दवा धरी की धरी ही रह गई थी।
  
🌹 रमेशचन्द्र शुक्ल मस्तीचक, (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 36) 13 Feb

🌹 साप्ताहिक और अर्द्ध वार्षिक साधनाएँ    
🔴 उपवास पेट का साप्ताहिक विश्राम है। इससे छह दिन की विसंगतियों का सन्तुलन बन जाता है और आगे के लिये सही मार्ग अपनाने का अवसर मिलता है। जल लेकर उपवास न बन पड़े तो शाकों का रस या फलों का रस लिया जा सकता। दूध, छाछ पर भी रहा जा सकता है। इतना भी न बन पड़े तो एक समय का निराहार तो करना ही चाहिये। मौन पूरे दिन का न सही किसी उचित समय दो घंटे का तो कर ही लेना चाहिये। इस चिह्न पूजा से भी दोनों प्रयोजनों का उद्देश्य स्मरण बना रहता है और भविष्य में जिन मर्यादाओं का पालन किया जाता है, उस पर ध्यान केन्द्रित बना रहता है। साप्ताहिक विशेष साधना में जिह्वा पर नियन्त्रण स्थापित करना प्रथम चरण है।  

🔵 द्वितीय आधार है-ब्रह्मचर्य नियत दिन शारीरिक ब्रह्मचर्य तो पालन करना ही चाहिये। यौनाचार से तो दूर ही रहना चाहिये, साथ ही मानसिक ब्रह्मचर्य अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि कुदृष्टि का, अश्लील कल्पनाओं का निराकरण किया जाये। नर नारी को देवी के रूप में और नारी नर को देवता के रूप में देखे तथा श्रद्धा भरे भाव मन पर जमायें। भाई-बहन पिता-पुत्री माता-सन्तान की दृष्टि से ही दोनों पक्ष एक दूसरे के लिये पवित्र भावनायें उगायें। यहाँ तक कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के प्रति अर्द्धांग की उच्चस्तरीय आत्मीयता संजोयें। 
                      
🔴 अश्लीलता को अनाचार का एक अंग माने और उस प्रकार के दुश्चिन्तन को पास न फटकने दें। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य तभी सधता है, जब शरीरसंयम के साथ-साथ मानसिक श्रद्धा का भी समन्वय रखा जाय। इससे मनोबल बढ़ता है और कामुकता के साथ जुड़ने वाली अनेकानेक दुर्भावनाओं से सहज छुटकारा मिलता है। सप्ताह में हर दिन इस लक्ष्य पर भावनायें केन्द्रित रखी जाय तो उसका प्रभाव भी अगले छह दिनों तक बना रहेगा।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्लास्टिक का दिल बनाने वाले महान् डॉक्टर

🔴 टेमगाज के एक डॉक्टर श्री माईकेल डेवा ने चिकित्सा शास्त्र में एक अद्भुत चमत्कार कर दिखाया। उन्होंने एक हृदय रोगी का खराब दिल निकालकर उसके स्थान पर प्लास्टिक का एक नकली दिल लगा दिया।

🔵 डॉ० डेवा के इस अद्भुत कार्य का प्रभाव रोगी पर किसी प्रभार भी अन्यथा नही पडा। उसका नकली दिल यथावत् काम कर रहा है। शरीर का रक्त संचालन तथा रक्तचाप सामान्य रहा। साथ ही शरीर के अन्य अवयवों की कार्य प्रणाली में किसी प्रकार का व्यवधान अथवा विरोध नहीं आया। डॉ० डेवा की इस सफलता ने चिकित्सा विज्ञान में एक नई क्रांति का शुभारंभ कर दिया है।

🔴 डॉ० डेवा ने प्रारंभ से ही, जब वे कालेज मे पढते थे यह विचार बना लिया था कि वे अपना सारा जीवन संसार की सेवा में ही लगायेंगे। अपनी सेवाओं के लिये उन्होंने चिकित्सा का क्षेत्र चुना। डॉ० डेवा जब किशोर थे तभी से यह अनुभव कर रहे थे कि रोग मानव जाति के सबसे भयंकर शत्रु हैं। यह मनुष्यों के लिए न केवल अकाल के कारण बनते हैं बल्कि जिसको लग जाते है उसका जीवन ही बेकार तथा विकृत बना देते हैं। न जाने कितनी महान् आत्माऐं और ऊदीयमान प्रतिभाएँ जो संसार का बडे़ से बडा़ उपकार कर सकती है, विचार निर्माण तथा साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत दान कर सकती है, इनका शिकार बनकर नष्ट हो जाती है।

🔵 इसके साथ ही उन्हें यह बात भी कम कष्ट नहीं देती थी कि रोग से ग्रस्त हो जाने पर जहाँ मनुष्य की कार्यक्षमता भी नष्ट हो जाती है, वहाँ उसके उपचार में बहुत सा धन भी बरबाद होता रहता है। रोगों के कारण संसार के न जाने कितने परिवार अभावग्रस्त बने रहते है। जो पैसा वे बच्चों की पढाई और परिवार की उन्नति में लगा सकते हैं, वह सब रोग की भेंट चढ़ जाता है और बहुत से होनहार बच्चे अशिक्षित रह जाते है।

🔴 इस बात को सोचकर तो वे और भी व्यग्र हो उठते थे कि रोगों से दूसरे नये रोगो का जन्म होता है। संसार की आबादी बुरी तरह बढती जा रही है। लोग अभी इतने समझदार नहीं हो पाए है कि यह समझ सकें कि जनवृद्धि के कारण संसार में उपस्थित अभाव भी अनेक रोगों को जन्म देता है। भर पेट भोजन न मिलने से मनुष्य की शक्ति क्षीण हो जाती है, जिससे उसे अनेक रोग दबा लेते हैं, उनका सक्रमण तथा प्रसार होता है और संसार की बहुत-सी बस्तियाँ बरबाद हो जाती है। रोग युद्ध से भी अधिक मानव समाज के शत्रु होते हैं।

🔵 वे चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में लग गए और यह भी देखते रहे कि उन्हें इस क्षेत्र की किस शाखा मे अनुसंधान तथा विशेषता प्राप्त करनी चाहिए, उन्होंने पाया कि आजकल मनुष्यों में कृत्रिमता का बहुत प्रवेश हो गया है। लोग अप्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त हो गए हैं। उनके खानपान में अनेक अखाद्य पदार्थ शामिल हो गये हैं, जो शरीर के लिये बहुत घातक सिद्ध होते है। इसके साथ तंबाकू शराब और अन्य बहुत-से नशों के कारण भी मानव स्वास्थ्य बुरी तरह चौपट होता जा रहा है। इन सारे व्यसनों तथा अनियमितताओं का सीधा प्रभाव हृदय पर पडता है इसीलिये अधिकांश रोगी दिल की किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त रहते हैं हार्टफेल्यौर की बीमारी का कारण भी उनका यही अनुपयुक्त रहन-सहन तथा आहार-विहार है।

🔴 डॉ० डेवा ने इस अयुक्तता पर दु़ःखी होते हुए एक हृदय संबंधी अनुसंधान तथा चिकित्सा में विशेषता प्राप्त करने के लिए जीवन का बहुत बडा भाग लगा दिया। उन्होंने एक लंबी अवधि के प्रयोग चिकित्सा, उपचार तथा अनुसंधान परीक्षणों के बाद अपनी साधना का मूल्य पाया और खराब दिल निकालकर उसके स्थान पर प्लास्टिक का दिल लगा सकने में सफल हो गए।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 25, 26

👉 आस्तिकता का यथार्थ

🔵 आम लोगों की सामान्य धारणा यही है कि भगवान् मोर-मुकुट धारी रूप में होते हैं व समय-समय पर पाप बढ़ने पर पौराणिक प्रस्तुति के अनुसार वे उसी रूप में आकर राक्षसों से मोर्चा लेते व धर्म की स्थापना करते हैं। बहिरंग के पूजा कृत्यों से उनका प्रसन्न होना व इस कारण उतने भर को धर्म मानना, यह एक जन-जन की मान्यता है व इसी कारण कई प्रकार के भटकाव भरे धर्म के दिखाने वाले क्रिया-कलाप अपनी इस धरती पर दिखाई देते हैं। जोरों से आरती गाई जाती है, नगाड़े-शंख आदि बजाए जाते हैं, एवं चरणों पर मिष्ठान्न के ढेर लगा दिए जाते हैं। सवा रूपये व चंद अनुष्ठानों के बदले भी उनकी अनुकम्पा खरीदने के दावे किये जाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि आस्तिकता के बढ़ने का क्या यही पैमाना है जो आज बहिर्जगत् में हमें दिखाई दे रहा है? विवेकशीलता कहती है कि ‘‘नहीं’’।

🔴 ईश्वर विश्वास तब बढ़ता हुआ मानना चाहिए जब समाज में जन-जन में आत्मविश्वास बढ़ता हुआ दिखाई पड़े। आत्मावलंबन की प्रवृत्ति एवं श्रमशीलता की आराधना से विश्वास अभिव्यक्त होता दीखने लगे। आस्तिकता संवर्धन तब होता हुआ मानना चाहिए जब एक दूसरे के प्रति प्यार-करुणा-ममत्व के बढ़ने के मानव मात्र के प्रति पीड़ा की अनुभूति के प्रकरण अधिकाधिक दिखाई देने लगें एवं वस्तुतः समाज के एक-एक घटक में ईश्वरीय आस्था परिलक्षित होने लगे। कोई भी अभावग्रस्त हो एवं अपना अन्तःकरण उसे ऊँचा उठाने के लिए छलछला उठे तो समझना चाहिए कि वास्तव में भगवत् सत्ता वहाँ विद्यमान है।

🔵 अनीति-शोषण होता हुआ देखकर भी यदि कहीं किसी के मन में किसी की सहायता का आक्रोश नहीं उपज रहा है तो मानना चाहिए कि बहिरंग का आस्तिक यह समुदाय अभी अन्दर से उतना ही दिवालिया, भीरु व नास्तिक है। जब ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास बढ़ने लगता है, तो देखते-देखते लोगों के आत्मबलों में अभिवृद्धि, संवेदना की अनुभूति के स्तर में परिवर्तन तथा सदाशयता का जागरण एक सामूहिक प्रक्रिया के रूप में चहुँ ओर होता दीखायी पड़ने लगता है।

🔴 आज का समय ईश्वरीय सत्ता के इसी रूप के प्रकटीकरण का समय है। प्रसुप्त संवेदनाओं का जागरण ही भगवत् सत्ता का अन्तस् में अवतरण है। आस्था संकट की विभीषिका इसी से मिटेगी व यही आस्तिकता का संवर्धन कर जन-जन के मनों के सन्ताप को मिटाएगी। हमें इसी प्रज्ञावतार को आराध्य मानकर अपने क्रियाकलाप तदनुरूप ही नियोजित करने चाहिए।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 13

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 8)

🌹 विचारों का महत्व और प्रभुत्व

🔴 जिस तरह के हमारे विचार होंगे उसी तरह की हमारी सारी क्रियायें होंगी और तदनुकूल ही उनका अच्छा-बुरा परिणाम हमें भुगतना पड़ेगा। विचारों के पश्चात ही हमारे मन में किसी वस्तु या परिस्थिति की चाह उत्पन्न होती है और तब हम उस दिशा में प्रयत्न करने लगते हैं। जिसकी हम सच्चे दिल से चाह करते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए अन्तःकरण से अभिलाषा करते हैं, उस पर यदि दृढ़ निश्चय के साथ कार्य किया जाय, तो इष्ट वस्तु की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। जिस आदर्श को हमने सच्चे हृदय से अपनाया है, यदि उस पर मनसा-वाचा-कर्मणा से चलने को हम कटिबद्ध हैं तो हमारी सफलता निःसन्देह है।

🔵 जब हम विचार द्वारा किसी वस्तु या परिस्थिति का चित्र मन पर अंकित कर उसके लिए प्रयत्नशील होते हैं, उस पर यदि दृढ़ निश्चय के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ना आरम्भ हो जाता है। यदि हम चाहते हैं कि हम दीर्घ काल तक नवयुवा बने रहें तो हमें चाहिए कि हम सदा अपने मन को यौवन के सुखद विचारों के आनन्द-सागर में लहराते रहें। यदि हम चाहते हैं कि हम सदा सुन्दर बने रहें, हमारे मुख-मण्डल पर सौन्दर्य का दिव्य प्रकाश हमेशा झलका करे तो हमें चाहिए कि हम अपनी आत्मा का सौन्दर्य के सुमधुर सरोवर में नित्य स्नान कराते रहें।

🔴 यदि आपको संसार में महापुरुष बनकर यश प्राप्त करना है, तो आप जिस महापुरुष के सदृश होने की अभिलाषा रखते हैं, उनका आदर्श सदा अपने सामने रक्खें। आप अपने मन में दृढ़ विश्वास जमा लें कि आप में अपने आदर्श की पूर्णता और कार्य सम्पादन शक्ति पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। आप अपने मन से सब प्रकार की हीन भावना को हटा दें और मन में कभी निर्बलता, न्यूनता, असमर्थता और असफलता के विचारों को न आने दें। आप अपने आदर्श की पूर्ति हेतु मन, वचन, कर्म से पूर्ण दृढ़तापूर्वक प्रयत्न करें और विश्वास रक्खें कि आपके प्रयत्न अन्ततः सफल होकर रहेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 16)


🌹 साधनों से भी अधिक सद्गुणों की आवश्यकता

🔵 जहाँ भी आवश्यकताओं और अभावों की चर्चा होती है, वहाँ साधन-संवर्धन के लिए प्रयत्नरत होने का सुझाव दिया जाता है। इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। बढ़े हुए साधनों के सहारे अनेकों उपयोगी कार्य किये जा सकते हैं। इसलिए आप्तजन ‘‘सौ हाथों से कमाने’’ का उत्साह उभारते हैं, पर उनके साथ ही ‘‘हजार हाथों से खर्च करने’’ का निर्देश भी दिया जाता है। यहाँ दुरुपयोग कर गुजरने के लिए नहीं वरन् सदाशयता भरे प्रगतिशील प्रयोजन के लिए उस उपार्जन को नियोजित करने के लिए प्रोत्साहन दिया गया है। वैसा अनावश्यक संचय न किया जाये, जिसकी परिणति आमतौर से दुर्व्यसनों के लिए ही होती है, जो ईर्ष्या उभारती है और दूसरों को भी उसी अवाञ्छनीय मार्ग पर चल पड़ने के लिए बरगलाती है। 

🔴 पारा पचता नहीं। वह शरीर के विभिन्न अंगों में से फूट-फूट कर निकलता है। इसी प्रकार अनावश्यक और बिना परिश्रम का कमाया हुआ अथवा निष्ठुरता की मानसिकता से विलासिता, जैसे दुष्प्रयोजनों में उड़ाया गया धन, हर हालत में अनर्थ ही उत्पन्न करेगा। इसके दुष्परिणाम ही सामने आयेंगे। खुले तेजाब को, जलती आग को कोई कपड़ों में लपेट कर नहीं रखता। इसी प्रकार उत्पादन में लगी हुई पूँजी के अतिरिक्त, निजी खर्च के लिए मौज मजे में उड़ाने के लिए कुछ सञ्चय जमा नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा उससे मात्र गलत परम्पराएँ ही जन्म लेंगी। अमीरों की सन्तानें, आमतौर से आरामतलब, निकम्मी और दुर्गुणी ही देखी गयी हैं। जो कुछ परिश्रमपूर्वक ईमानदारी से नहीं कमाया गया है, जिसे उपयोगी प्रयोजन में लगाने से रोककर अनियन्त्रित संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए जमा कर रखा गया है, उसकी अवाञ्छनीय प्रतिक्रिया न केवल सञ्चयकर्ता को, वरन् उससे किसी भी रूप में प्रभावित होने वाले को भी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों में धकेले बिना न रहेंगी।

🔵 दुरुपयोग की तरह निष्क्रियता-निरुत्साह भी अनिष्टकारक है। आलसी-प्रमादी ही आमतौर से दरिद्र पाये जाते हैं। उत्साह का अभाव ही उन्हें शिक्षा से वंचित रखता है। सभ्यता के अनुशासन को अभ्यास में न उतार पाने के कारण ही लोग अनगढ़ और पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। यदि उनके इन दोष दुर्गुणों को हटाया घटाया जा सके, तो इतने भर से निजी प्रतिभा में नया उभार आ सकता है और उस दरिद्रता से छुटकारा मिल सकता है, जिसके कारण कि आए दिन अभावों, असन्तोषों और अपमानों का दबाव सहना पड़ता है।  
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सामाजिक क्रान्ति (भाग 2)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 भगवान् का अवतार जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ ये मान्यता निश्चित रूप से रहती है कि भगवान् के अवतार जितने भी हुए हैं, अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिये, हमारे भीतर भगवान् की प्रेरणा आये तो दोनों ही क्रियाकलाप हमको समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। श्रेष्ठ आचरण अपने में और दूसरों में स्थापित करना, साथ ही साथ में अवांछनीयता और अनैतिकताएँ अपने भीतर अथवा अपने आस-पास के वातावरण में अगर हमको दिखाई पड़ती हैं तो उनसे संघर्ष करने के लिये डट जाना चाहिये। अनीति के सामने हम सिर न झुकायें। जहाँ कहीं भी अनाचार हमको दिखाई पड़ता हो उससे लोहा लेने के लिये अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, विरोध अथवा जो भी सम्भव हो, उसे करने के लिये साहस एकत्रित करें। समाज की सुव्यवस्था इसी प्रकार से सम्भव है।

🔵 डरपोक आदमी, कायर आदमी और मुसीबत से डरने वाले आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी से अपना मुँह छिपाने वाले आदमी कभी उन बुराइयों को दूर न कर सकेंगे और समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है और जहाँ अनीति के निराकरण की आवश्यकता है, वो पूरी न हो सकेगी। सामाजिक क्रान्ति के लिये हमको ऐसा शौर्य और साहस जन-मानस में जगाने की आवश्यकता है, भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये।

🔴 मनुष्य जाति सामूहिक आत्महत्या के लिये बढ़ती सी मालूम पड़ती है, उसको रोकने के लिये हमको धर्मतंत्र को पुनर्जीवंत करना चाहिए। बड़ा काम बड़े साधनों से ही होता है और बड़े साधन केवल बड़े व्यक्तित्व ही जुटा सकने में सम्भव होते हैं। यही हमारा लक्ष्य है, जिसके अनुरूप हम चाहते हैं, हर व्यक्ति के अन्दर महानता जागृत हो। हर व्यक्ति अपनी वैयक्तिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा सामाजिक जीवन के लिये कुछ अधिक त्याग-बलिदान करने की हिम्मत जुटाये। पुनर्गठन से हमारा यही मतलब है कि हम नया व्यक्ति बनायें, नया समाज बनायें, नया युग लायें। इसके लिये आवश्यकता है कि हम सब व्यक्ति निर्माण करने के कार्य पे जुट जायें और व्यक्ति को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाने के लिये भरसक प्रयत्न करें।

🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/samajik_karnti

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 102)

🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा

🔴 6. संगठन-कर्त्ता की आवश्यकता:-- अच्छा यही हो कि क्षेत्रीय प्रचार के लिए कम से कम एक वैतनिक या अवैतनिक पूरे समय का कार्यकर्त्ता नियत हो। वह अपना पूरा समय उसी कार्य के लिए लगाता रहे। अपने साथ एक-दो सक्रिय प्रभावशाली सदस्यों को लेकर वह जन-सम्पर्क के लिए प्रयत्न करता रहे। लोगों को इकट्ठा करने, समझाने तथा प्रभावित करने का गुण कार्यकर्त्ता में अवश्य होना चाहिए। संकोची, दब्बू प्रकृति के या आलसी व्यक्ति इस कार्य को ठीक तरह नहीं कर सकते। इसलिए संगठनकर्त्ता नियत करते समय यह बातें देख लेनी चाहिए।

🔵 क्षेत्रीय शाखा का एक कार्यालय नियत होना चाहिए। यथा-सम्भव उसे प्रधान या मन्त्री के निकट होना चाहिए। किसी उदार व्यक्ति का कमरा इस कार्य के लिए प्राप्त करना चाहिए। उसमें दफ्तर तथा सदस्यों के विचार विनिमय कर सकने जैसी गुंजाइश होनी चाहिए। जहां संगठनकर्ता की नियुक्ति सम्भव न हो, वहां क्षेत्रीय संगठन के सदस्य गण स्वयं ही थोड़ा-थोड़ा समय देकर वह कार्य करते रहें। कोई भी उपाय क्यों न हो, इस कार्य में समय की नितान्त आवश्यकता है, सो लगाने के लिए किसी न किसी प्रकार व्यवस्था बननी ही चाहिए।

🔴 7. दोनों कार्यक्रम एक दूसरे से पूरक:-- युग-निर्माण केन्द्रों और इन जातीय संगठनों में कोई प्रतिद्वन्द्विता या भिन्नता नहीं होनी चाहिये। वस्तुतः दोनों को एक ही समझना चाहिए। यह भिन्नता केवल विवाह शादियों की सुविधा की दृष्टि से की गई है। सो हर जगह इन जातीय संगठनों को अपना सम्मिलित स्वरूप युग-निर्माण शाखाओं के रूप में भी रखना चाहिए। एक व्यक्ति उन दो संगठनों का सदस्य आसानी से रह सकता है, जो परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकार युग-निर्माण योजना के सदस्यों को दो उत्तरदायित्व वहन करने पड़ेंगे। एक सभी जाति, धर्मों का सम्मिलित युग-निर्माण आन्दोलन चलाने का—दूसरा समाज सुधार के लिये अपने व्यक्तिगत प्रभाव-क्षेत्र में जाति की ओर ध्यान देने का। इनमें परस्पर कोई भिन्नता या झंझट नहीं। वरन् एक दूसरे के पूरक हैं। रोटी खाना और पानी पीना देखने में दो अलग प्रकार के काम हैं, उनका दृश्य स्वरूप भी भिन्न प्रकार का है, पर वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए किसी रोटी खाने वाले को पानी पीना कोई अलग काम या भिन्न प्रकार का झंझट मालूम नहीं पड़ता। इसी प्रकार युग-निर्माण आन्दोलन और जातीय-संगठनों में बाहर से देखने का ही अन्तर है, वस्तुतः युग-निर्माण की सामाजिक क्रान्ति योजना का एक पहलू या मोर्चा भर जातीय संगठन है।

🔵 अस्तु हर जगह इस प्रकार का खांचा मिलाया जाना चाहिए कि दोनों कार्य एक ही साथ चलते रहें। प्रत्येक कार्यकर्त्ता दोनों कार्य करता रहे। यह दोनों आपस में टकराते नहीं। दुहरा झंझट तभी तक मालूम पड़ेगा, जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाय। जो उसे कार्यान्वित करेंगे, वे देखेंगे कि युग-निर्माण योजना की शत-सूत्री योजना का जातीय संगठन भी एक अंग मात्र है। जिस प्रकार प्रौढ़ पाठशाला, पुस्तकालय, वृक्षारोपण, हवन आदि में एक ही व्यक्ति कई प्रवृत्तियों में एक साथ भाग लेता रहा सकता है, उसी प्रकार यह दोनों कार्यक्रम एक साथ चलाये जा सकने में पूर्णतया सरल एवं शक्य हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 49)

🌹 भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

🔴 नन्दन वन के प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्व रात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समक्ष घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी, भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नन्दन-वन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस भरे थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था कि मानों गली चा बिछा हो।

🔵 सहसा गुरुदेव का स्थूल शरीर रूप में आगमन हुआ उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्व रात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूल शरीर बना लिया था जैसा कि प्रथम बार प्रकाश पुंज के रूप में पूजा घर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था।

🔴 वार्तालाप को आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा-‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अब की बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ ली और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। हम इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे और घटनाक्रम तथा उनके साथ उठती प्रतिक्रिया को देखते रहे तो और भी अधिक निश्चिंतता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती, तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समक्ष प्रकट न होते और मन की व्यथा न कहते’’ उनके कथन का प्रयोजन यही था कि काम छूटा हुआ है, उसे पूरा किया जाए। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किए, अन्यथा दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन खोलते ही कहाँ हैं?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/rishi

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 50)

🌞  हिमालय में प्रवेश 

🔵 झींगुर ने बड़ा मधुर गान गाया। उसका गीत मनुष्य की भाषा में न था पर भाव वैसे ही मौजूद जैसे मनुष्य सोचता है। उसने गाया ‘‘हम असीम क्यों न बनें? असीमता का आनन्द क्यों न लें? सीमा ही बन्धन है, असीमता में मुक्ति का तत्व भरा है। जिसका इन्द्रियों में ही सुख सीमित है, जो कुछ चीजें और कुछ व्यक्तियों को ही अपना मानता है, जिसका स्वार्थ थोड़ी सी कामनाओं तक ही सीमित है, वह बेचारा क्षुद्र प्राणी, इस असीम परमात्मा के असीम विश्व में भरे हुए असीम आनन्द का भला कैसे अनुभव कर सकेगा? जीव तू असीम हो, आत्मा का असीम विस्तार कर, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पड़ा है। उसे अनुभव कर और अमर हो जा।’’

🔴 इकतारे पर जैसे वीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिल-जुल कर कोई निर्वाण पद गा रही हो वैसे ही यह झींगुर अपना गान निर्विघ्न होकर गा रहे थे। किसी को सुनाने के लिए नहीं। स्वान्तः सुखाय ही उनका यह प्रयास चल रहा था। मैं भी उसी में विभोर हो गया। वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त कुटिया से उत्पन्न असुविधा विस्मरण हो गई। सुनसान में शान्ति शील गाने वाले सहचरों ने उदासीनता को हटा कर उल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया।

🔵  पुरानी आदतें छूटने लगीं। मनुष्यों तक सीमित आत्मीयता ने बढ़ कर प्राणिमात्र तक विस्तृत होने का प्रयत्न किया तो अपनी दुनिया बहुत चौड़ी हो गई। मनुष्य के सहवास में सुख की अनुभूति ने बढ़कर अन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही सुखानुभूति करने की प्रक्रिया सीख ली। अब इस निर्जन वन में भी कहीं सूनापन दिखाई नहीं देता।

🔴 आज कुटिया से बाहर निकल कर इधर-उधर भ्रमण करने लगा तो चारों ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दीखने लगे। कषाय वत्कल धारी भोज-पत्र के पेड़ ऐसे लगते थे मानों गेरुआ कपड़े पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़े होकर तप कर रहे हों। देवदारु और चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ प्रहरी की तरह सावधान खड़े थे मानों मनुष्य जाति में प्रचलित दुर्बुद्धि को अपने समाज में न आने देने के लिए कटिबद्ध रहने का व्रत उनने लिया हुआ हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...