गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 17 Feb 2017


👉 ईसाई चिकित्सक को दिव्य दिशा निर्देश

🔴 १० अक्टूबर, १९८३ के ब्रह्ममुहूर्त के वे पल मुझसे भुलाये नहीं भूलते। पूज्य गुरुदेव ने आत्मीयतापूर्वक कहा था- ‘‘बेटा, तू मेरा काम कर और मैं तेरा काम करूँगा।’’

🔵 प्यार में रंगे पूज्य गुरुदेव के ये शब्द आज भी उन क्षणों में गूँज उठते हैं, जिन क्षणों में मेरे जीवन की कोई जटिल समस्या मुझे पंगु बना देती है। पूज्य गुरुदेव के संरक्षण में जब मैंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू की तो मेरे जीवन में कई तरह के उतार- चढ़ाव आए। पिताजी, माताजी के देहावसान के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरे ही कंधे पर आ गई।

🔴 पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में आने के २३ साल बाद की बात है। पिछले कुछ समय से बीमार चल रही मेरी पत्नी श्रीमती कलावती देवी की डाक्टरी जाँच से पता चला कि उन्हें कैंसर हो गया है। तब तक यह असाध्य बीमारी आखिरी स्टेज में पहुँच चुकी थी, इसलिए सभी प्रयासों के बावजूद उनका देहान्त हो गया। यह ६ अक्टूबर २००६ का दिन था।
  
🔵 अब पूरे परिवार की देख- रेख की जिम्मेदारी मुझ अकेले के कन्धों पर आ गई थी। एक ओर मेरी बेटी सुषमा विवाह के योग्य हो चुकी थी और दूसरी ओर दो छोटे- छोटे बच्चों के पालन- पोषण का उत्तरदायित्व भी मुझे ही वहन करना था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि नौकरी की आठ घण्टे की ड्यूटी पूरी करने के बाद घर के इतने सारे काम अकेले कैसे कर पाऊँगा। खैर, जैसे- तैसे सुबह से देर रात तक अपने शरीर का दोहन करता हुआ मैं इन बच्चों के लालन- पालन में लगा रहा, लेकिन इतने पर ही बस नहीं हुआ। दुर्भाग्य मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा था। इन दायित्वों के निर्वाह के दौर में प्रारब्ध ने मेरी एक और कठिन परीक्षा ली।

🔴 घटना सन् २००९ की है। अक्टूबर का महीना था। हजारीबाग की वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. निधि सरन ने बताया कि मुझे प्रोस्टेट के साथ किडनी में इंफेक्शन की शिकायत है।

🔵 घर में छोटा बेटा नरेन्द्र और बेटी सुषमा ही थी। मेरी बीमारी की बात सुनकर दोनों सकते में आ गए। उन्होंने मेरे जीवन की रक्षा के लिए भीगी आँखों से पूज्यवर को याद किया और मुझे राँची के एक अस्पताल में भर्ती कराया। यहीं पर शुरू हुई नियति के साथ पूज्य गुरुदेव की जंग।

🔴 यहाँ आकर उपचार के दौरान मेरी तबियत ठीक होने के बजाय और भी बिगड़ती चली गई। अंत में मुझे वहाँ के डॉक्टरों की सलाह पर १० नवंबर २००९ को  राँची के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया गया। मेरा अंत निकट आया जानकर मेरे परिवार के लोग मुझे देखने के लिए हॉस्पिटल आने लगे। नेफ्रोलॉजिस्ट मुझे नित्य ४ घंटे डायलिसिस पर रख रहे थे। एक दिन अस्पताल के डॉ. घनश्याम सिंह ने बताया कि किडनी की स्थिति बहुत ही खराब हो चुकी है। इन्हें बदलवाकर ही मरीज को जिन्दा रखा जा सकता है, वह भी कुछ ही समय के लिए। यह सुनकर मेरे बच्चों की स्थिति ऐसी हो गई, मानो उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ा हो।

🔵 अपोलो के इलाज से निराश होकर श्रद्धेया शैल जीजी व श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी को इस विपत्ति के बारे में फोन पर बताया गया। उन्होंने कहा कि प्राण रक्षा के लिए वे हम सबके आराध्य देव आचार्यश्री एवं वन्दनीया माताजी से प्रार्थना करेंगे। इधर गायत्री शक्तिपीठ, हजारीबाग के समस्त परिजन भी मेरे स्वास्थ्य लाभ के लिए गायत्री उपासना करने लगे

🔴 सामूहिक रूप से की जा रही उपासना- प्रार्थना १६ नवंबर को फलीभूत हुई। दोपहर का समय था। मुझे आभास हुआ कि पूज्य गुरुदेव व माताजी मेरे सिरहाने के पास आकर मेरा सिर सहला रहे हैं। पूज्य गुरुदेव का स्नेहिल स्पर्श पाकर मेरी आँखों से आँसुओं की धार फूट पड़ी। मुझे सान्त्वना देते हुए उन्होंने कहा- ‘‘बेटे! हॉस्पिटल बदलो। कहाँ जाना है, कब जाना है, किससे मिलना है, इन सबकी व्यवस्था हमने कर दी है।’’     

🔵 परिवार के लोगों ने किडनी ट्रांसप्लांटेशन के लिए देश के नामचीन अस्पतालों से संपर्क करना शुरू कर दिया था। अंततः मुझे- क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, सी.एम.सी., वैल्लूर ले जाने का निर्णय लिया गया। जैसे- तैसे हम वैल्लूर पहुँचे।

🔴 वैल्लूर हॉस्पिटल जाकर पता चला कि किडनी ट्रान्सप्लांटेशन के विशेषज्ञ डॉक्टर से एक सप्ताह बाद मुलाकात हो पाएगी। यहीं प्रारंभ हुई गुरुवर की लीला। मैं व्हील चेयर पर बैठा युगऋषि का ध्यान करने लगा। इसी बीच मेरे छोटे बेटे नरेन्द्र को ऐसी अन्तःप्रेरणा हुई कि वह बिना किसी की अनुमति लिए मेरे ह्वील चेयर को दौड़ाते हुए नेफ्रोलॉजी विभाग पहुँचा और विभाग के प्रभारी डॉ. राजेश जोसेफ के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

🔵 डॉ. जोसेफ ने हमें देखकर असहज भाव से पूछा- क्या बात है? नरेन्द्र ने राँची के अपोलो में चले इलाज से लेकर अब तक की स्थिति की जानकारी देते हुए उनसे किडनी ट्रान्सप्लाण्ट करने की प्रार्थना की और अपोलो हॉस्पिटल की रिपोर्ट की फाईल उनके आगे रख दी।

🔴 डॉ. जोसेफ ने रिपोर्ट देखकर कहा- ‘‘चिन्ता की कोई बात नहीं है। सब ठीक हो जायेगा।’’ दरअसल कल से ही मुझे आप जैसे किसी मरीज के आने का स्पष्ट पूर्वाभास हो रहा था। मुझे लग रहा था कि अगले दिन अकस्मात् आने वाले किसी मरीज की अविलम्ब चिकित्सा के लिए मेरे प्रभु मुझे प्रेरित कर रहे हैं। सच पूछिए तो आज सुबह से मैं आप लोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था।’’ इतना कहते हुए वे स्वयं अपने हाथों से मेरा ह्वील चेयर सँभालकर डायलिसिस कक्ष की ओर चल पड़े।

🔵 लगभग 4 घंटे तक डायलिसिस चलने के बाद मुझे बाहर लाया गया। डॉ. जोसेफ ने नरेन्द्र से मुस्कराते हुए कहा कि अब किडनी ट्रान्सप्लाण्ट करने या भविष्य में कभी डायलिसिस पर रखने की नौबत नहीं आयेगी। कुछ ही दिनों में ये पूरी तरह से स्वस्थ हो जायेंगे।              

🔴 सवेरे- सवेरे डॉ. जोसेफ ने फोन पर निर्देश देकर ब्लड के विभिन्न टेस्ट करवाये। रिपोर्ट बता रही थी कि सुधार की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो चुकी है। तीन दिन बाद पुनः ब्लड टेस्ट हुआ, रिपोर्ट आश्चर्यचकित करने वाली थी। अब तक मैं ह्वील चेयर से उठकर कुछ कदम टहलने लायक हो चुका था। इस बीच कभी डायलिसिस पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। 25 दिसंबर को डॉ. जोसेफ  ने अपने जन्मदिन पर एक समारोह का आयोजन किया। इसमें मेरा बेटा नरेन्द्र भी आमंत्रित था।

🔵 उन्होंने नरेन्द्र के समक्ष इस तथ्य का उद्घाटन किया कि ४ घण्टे तक चली मेरी गहन चिकित्सा के दौरान कोई दैवी शक्ति उन्हें लगातार प्रोत्साहन तथा दिशा निर्देश दे रही थी। डॉ. जोसेफ की बातें सुनकर भाव विह्वलता में नरेन्द्र की आँखें मुंद गईं। उसे लगा कि सामने गुरुदेव खड़े होकर मुस्करा रहे हैं और उनका दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है।

🌹  ई. एम. डी. शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 40)

🌹 आराधना और ज्ञानयज्ञ     
🔴 शारीरिक स्वस्थता के तीन चिन्ह हैं - (१) खुलकर भूख, (२) गहरी नींद, (३) काम करने के लिये स्फूर्ति। आत्मिक समर्थता के भी तीन चिह्न हैं -(१) चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश, (२) चरित्र में निष्ठा और, (३) व्यवहार में पुण्य परमार्थ के पुरुषार्थ की प्रचुरता। इन्हीं को उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। आत्मिक प्रगति का लक्षण है, मनुष्य में देवत्व का अभिवर्द्धन। देवता देने वाले को कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसे धर्मधारणा या सेवा साधना भी कह सकते हैं। व्यक्तित्व में शालीनता उभरेगी तो निश्चित रूप से सेवा की ललक उठेगी। सेवा साधना से गुण, कर्म, स्वभाव में सदाशयता भरती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जब शालीनता उभरेगी तो परमार्थरत हुए बिना रहा नहीं जा सकेगा।

🔵 पृथ्वी पर मनुष्य शरीर में निवास करने वाले देवताओं को ‘भूसुर’ कहते हैं। यह साधु और ब्राह्मण वर्ग के लिये प्रयुक्त होता है। ब्राह्मण एक सीमित क्षेत्र में परमार्थरत रहते हैं और साधु परिव्राजक के रूप मेें सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का उद्देश्य लेकर जहाँ आवश्यकता है, वहाँ पहुँचते रहते हैं। उनकी गतिविधियाँ पवन की तरह प्राण प्रवाह बिखेरती हैं। बादलों की तरह बरसकर हरीतिमा उत्पन्न करती हैं। आत्मिक प्रगति से कोई लाभान्वित हुआ या नहीं, इसकी पहचान इन्हीं दो कसौटियों पर होती है कि चिन्तन और चरित्र में मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता दृष्टिगोचर होती है या नहीं। साथ ही परमार्थपरायणता की ललक कार्यान्वित होती है या नहीं।        
                      
🔴 मोटेतौर पर दान पुण्य को परमार्थ कहते हैं। पर इनमें विचारशीलता का गहरा पुट आवश्यक है। दुर्घटनाग्रस्त, आकस्मिक संकटों में फँसे हुओं को तात्कालिक सहायता आवश्यक होती है। इसी प्रकार अपंग, असमर्थों को भी निर्वाह मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त अभावग्रस्तों, पिछड़े हुओं को ऐसी परोक्ष सहायता की जानी चाहिये जिसके सहारे वे स्वावलम्बी बन सकें। उन्हें श्रम दिया जाये, साथ ही श्रम का इतना मूल्य भी, जिससे मानवोचित निर्वाह सम्भव हो सके। गाँधीजी ने खादी को इसी दृष्टि से महत्त्व दिया था कि उसे अपनाने पर बेकारों को काम मिलता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सादगी और कमखर्ची का अनुकरणीय आदर्श

🔴 वे राज्यों के दौरे पर थे। बिहार राज्य के शहर रांची पहुँचने तक जूता दाँत दिखाने लगा। काफी घिस जाने के कारण कैइ कीलें निकल आइ थी, जो बैठे रहने में तो नहीं पैदल चलने में पैरों में चुभती थी, इसलिए रांची में दूसरा जूता-जोडा बदलने की व्यवस्था की गई।

🔵 यह तो वह फिजूलखर्ची लोग होते है, जो आय और औकत की परवाह किए बिना आमदनी से भी अधिक खर्च विलासितापूर्ण सामग्रियों में करते है। इस तरह वे व्यवस्था संबंधी कठिनाइयों और कर्ज के भार से तो दबते ही है, शिक्षा, पौष्टिक आहार, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास से भी वंचित रह जाते हैं। मितव्ययी लोग थोडी-सी आमदनी से ही जैसी शान की जिंदगी बिता लेते है। फिजूलखर्च लंबी आमदनी वाली को वह सौभाग्य कहां नसीब होता है?

🔴 इनके लिए तो यह बात भी नही थी। आय और औकात दोनों ही बडे आदमियों जैसे थे, पर वे कहा करते थे कि दिखावट और फिजूलखर्ची अच्छे मनुष्यों का लक्षण नही वह चाहे कितना ही बडा़ आदमी क्यों न हो। फिजूल खर्च करने वाला समाज का अपराधी है क्योंकि बढे़ हुए खर्चों की पूर्ति अनैतिक तरीके से नही तो और कहाँ से करेगा ? मितव्ययी आदमी व्यवस्था और उल्लास की बेफिक्री और स्वाभिमान की जिदंगी बिताता है, क्या हुआ यदि साफ कपडा़ चार दिन पहन लिया जाए इसके बजाय कि केवल शौक फैशन और दिखावट के लिए दिन में चार कपडे बदले जाऐं रोजाना धोबी का धुला कपडा पहना जाए।

🔵 हर वस्तु का उपभोग तब तक करना चाहिए, जब तक उस की उपयोगिता पूरी तरह नष्ट न हो जाए। कपडा सीकर के दो माह और काम दे जाए तो सिला कपडा पहनना अच्छा बजाय इसके कि नये कपडे के लिए १० रुपया बेकार खर्च किये जाऐँ।

🔴 इस आदर्श का उन्होंने अपने जीवन में अक्षरश पालन भी किया था। उनका प्रमाण राँची वाले जूते थे। बस यहाँ तक का उनका जीवन था, अब उन जूतों को हर हालत मे बदल डालने की उन्होंने भी आवश्यकता अनुभव की।

🔵 उनके निजी सचिव गये और अच्छा-सा मुलायम १९ रुपये का जूता खरीद लाए। उन्होंने सोचा था यह जूते उनके व्यक्तित्व के अनुरूप फवेंगे, पर यहाँ तो उल्टी पडी, उन्होने कहा- जब ग्यारह रुपये वाले जूते से काम चल सकता है तो फिर १९ रुपये खर्च करने की क्या आवश्यकता है ? मेरा पैर कड़ा जूता पहनने का अभ्यस्त है, आप इसे लौटा दीजिये।

🔴 निजी सचिव अपनी मोटर की ओर बढे़ कि यह जूता बाजार जाकर वापस लौटा आऐं। पर वह ऐसे नेता नही थे। आजकल के नेताओं की तरह १ की जगह ४ खर्च करने, प्रजा का धन होली की तरह फूँकने की मनमानी नही थी। उनमें प्रजा के धन की रक्षा की भावना थी। राजा ही सदाचरण का पलन नहीं करेगा तो प्रजा उसका परिपालन कैसे करेगी ? इसलिए जान बूझकर उन्होंने अपने जीवन मे आडंबर को स्थान नही दिया था और हर समय इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरी प्रजा का एक पैसा भी व्यर्थ बरबाद न हो।

🔵 उन्होंने सचिव को वापस बुलाकर कहा ‘दो मील जाकर और दो मील वापस लौटकर जितना पेट्रोल खर्च करेगे, बचत उससे आधी होगी तो ऐसी बचत से क्या फायदा ? सब लोग उनकी विलक्षण सादगी और कमखर्ची के आगे नतमस्तक हुए।

🔴 आप जानना चाहेंगे कि वह कौन था ? सादगी और कमखची की प्रतिमूर्ति- डा० राजेंद्र प्रसाद, भारतवर्ष के राष्ट्रपति रहकर भी जिन्होंने धन के सदुपयोग का अनुकरणीय आदर्श अपने जीवन में प्रस्तुत किया।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 33, 34

👉 आत्मिक प्रगति का अवलम्बन :- सेवा-साधना

🔵 दो वस्तुओं के परस्पर घुल-मिल जाने पर तीसरी नयी वस्तु बन जाती है। नीला और पीला रंग यदि मिला दिया जाय तो हरा बन जाता है। रात्रि और दिवस के मिलन को सन्ध्या तथा दो ऋतुओं की मिलन-वेला को सन्धिकाल के नाम से पुकारा जाता है। अध्यात्म क्षेत्र में आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए दो प्रमुख आधार हैं योग एवं तप। इन दोनों को सम्मिलित कर देने पर जो तीसरी आकृति सामने आती है, उसे सेवा कहते हैं। जहाँ आदर्शों के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रक्रिया योग कहलाती है, वहीं लोभ, मोह, अहंकार विलास आदि बन्धनों -कुसंस्कारों को निरस्त करने के लिए किया गया संघर्ष तप कहलाता है। यह संघर्ष सत्प्रयोजनों के, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त ही किया जाता है।

🔴 योग व तप के दोनों सरञ्जाम जुट जाने पर सेवा भावनाओं का उदय होता है। योग से उदार आत्मीयता के रूप में परमार्थ परायणता की, सदाशयता की अन्तःप्रेरणा उठने लगती है। उसकी पूर्ति के निमित्त अपव्यय से शक्ति स्रोतों को बचाना और उस बचत को सदुद्देश्यों के निमित्त लगाना पड़ता है। यह नियोजन ही तप है। सेवा साधना में निरत व्यक्ति योगी व तपस्वी का सम्मिलित स्वरूप होता है, यदि यह कहा जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है।

🔵 अध्यात्म क्षेत्र में ‘भज-सेवायाम्’ से ‘भजन’ शब्द बना है। भजन का सीधा-सादा एक ही अर्थ है सेवा। भजन-याने दिखावा, कर्मकाण्ड, भक्ति का प्रदर्शन, जोरों से नामोच्चारण इत्यादि नहीं अपितु ‘सेवा’। सेवा भी किसकी? इसका एक ही उत्तर है-आदर्शों की। आदर्शों का समुच्चय ही भगवान् है। स्थायी सेवा वही है, जिसमें व्यक्ति को पीड़ा से मुक्ति दिलाने-साधन दिलाने के साथ अपने पैरों पर खड़ा करने के साथ, इन सबके एक मात्र आधार आदर्शों के प्रति उसे निष्ठावान् बना दिया जाय। यही सेवा सच्ची सेवा है। उसे पतन-निवारण व आदर्शों के साथ संयुक्तीकरण भी कह सकते हैं। दुखी को सुखी व सुखी को सुसंस्कृत बनाने का आत्यांतिक आधार एक ही है- आदर्शों को आत्मसात् करना। किसने कितना भजन किया, कितना आध्यात्मिक परिष्कार उनका हुआ, इसका एक ही पैमाना है। वह यह कि सेवा धर्म अपनाने के लिए उसके मन में कितनी ललक उठी, लगन लगी, अन्दर से मन हुलस उठा। यही व्यक्तित्व का सही मायने में परिष्कार भी है।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 17

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 12)

🌹 अद्भुत उपलब्धियों का आधार

🔴 किसी भी कार्य में प्रेरक होने से कार्य की सफलता असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-निम्नता के हेतु भी मनुष्य के अपने विचार ही हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे सृजन भी उसी प्रकार का होगा।

🔵 नित्य प्रति देखने में आता है कि एक ही प्रकार का काम दो आदमी करते हैं। उनमें से एक का कार्य सुन्दर सफल और सुघड़ होता है और  दूसरे का नहीं। एक से हाथ पैर, उपादान और साधनों के होते हुए भी दो मनुष्यों के एक ही कार्य में विषमता क्यों होती है। इसका एक मात्र कारण उनकी अपनी-अपनी विचार प्रेरणा है। जिसके कार्य सम्बन्धी विचार जितने सुन्दर, सुघड़ और सुलझे हुये होंगे उसका कार्य भी उसी के अनुसार उद्दात्त होगा।

🔴 जितने भी शिल्पों, शास्त्रों तथा साहित्य का सृजन हुआ है। वह सब विचारों की ही विभूति हैं। चित्रकार नित्य नये-नये चित्र बनाता है, कवि नित्य नये काव्य रचता है, शिल्पकार नित्य नये मॉडल और नमूने तैयार करता है। यह सब विचारों का ही परिणाम है। कोई भी रचनाकार जो नया निर्माण करता है, वह कहीं से उतार कर नहीं लाता और न कोई अदृश्य देव ही उसकी सहायता करता है। वह यह सब नवीन रचनायें अपने विचारों के ही बल पर करता है। विचार ही वह अद्भुत शक्ति है जो मनुष्य को नित्य नवीन प्रेरणा दिया करती है।

🔵 भूत, भविष्य और वर्तमान में जो कुछ दिखाई दिया, दिखलाई देगा और दिखलाई दे रहा है वह सब विचारों में वर्तमान रहा है, वर्तमान रहेगा और वर्तमान है। तात्पर्य यह है कि समग्र त्रयकालिक कर्तृत्व मनुष्य के विचार पटल पर अंकित रहता है। विचारों के प्रतिविम्ब को ही मनुष्य बाहर के संसार में उतारा करता है। जिसकी विचार स्फुरणा जितनी शक्तिमती होगी उसकी रचना भी उतनी ही सबल एवं सफल होगी। विचारशक्ति जितनी उज्ज्वल होगी, बाह्य प्रतिविम्ब भी उतने ही स्पष्ट और सुबोध होंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 20)

🌹 उदारता अपनाई ही जाए  

🔵 हाथी पर अंकुश न लगे, तो वह खेत-खलिहानों को रौंदता, पेड़ पौधों को उखाड़ता और झोंपड़ों को धराशायी करता चला जायेगा। उसकी चपेट में जो प्राणी आ जाएँगे, उनकी भी खैर नहीं। सम्पदा भी उन्मत्त हाथी की तरह है, जिस पर उदारता का अंकुश आवश्यक है। यदि झरने पानी का सीधे रास्ते से निकलना रोक दिया गया, तो उसका परिणाम बाढ़ के रूप में भयंकरता दिखाने ही लगेगा। 

🔴 प्रस्तुत वातावरण में एक ही सबसे बड़ा अनर्थ दीख पड़ता है कि हर कोई अपने उपार्जन, वैभव को मात्र अपने लिए ही खर्च करना चाहता है। वह अपनापन भी विलासिता और अहंकारी ठाट-बाट प्रदर्शन तक ही सीमित है। यह प्रचलन इसी प्रकार बना रहा, तो इसका दुष्परिणाम अब से भी अधिक भयंकर रूप में अगले दिनों दृष्टिगोचर होगा । एक से बढ़कर एक अनर्थ सँजोए जाते रहेंगे। पेट की एक सीमा है, उसे पूर कर लेने पर भी अनावश्यक आहार खोजते चले जाने पर वह विग्रह उत्पन्न किये बिना नहीं रहेगा। उल्टी, दस्त, उदरशूल जैसी अवाञ्छनीय परिस्थितियाँ ही उत्पन्न होंगी। यह मोटी बात समझी जा सके, तो फिर एक ही नीति निर्धारण शेष बच जाता है कि नीतिपूर्वक कमाया कितना ही क्यों न जाये, पर उसका उपयोग सत्प्रवृत्ति के मार्ग में आगे बढ़ने में ही किया जाये।    

🔵 मात्र पैसा नहीं, शक्ति सूत्रों में समर्थता, योग्यता, शिक्षा, कुशलता आदि अन्य विभूतियाँ भी आती हैं। उन्हें भी अपरिग्रही नीतिवानों की तरह पतन को बँटाने और उत्कर्ष को बढ़ाने में उसी प्रकार नियोजित किया जा सकता है।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 जीवन कैसे जीयें? (भाग 4)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 मेरा आपसे अनुरोध ये है कि आप हँसती-हँसाती जिन्दगी जीयें, खिलती-खिलाती जिन्दगी जीयें, हलकी-फुलकी जिन्दगी जीयें। हलकी-फुलकी जिन्दगी जीयेंगे तो आप जीवन का सारे का सारा आनन्द पायेंगे। अगर आप घुसेंगे (सेंध मारेंगे) तो आप नुकसान पायेंगे। आप अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिये जिन्दगी को जीयें। हँसी-खुशी से जीयें। हमें माली की जिन्दगी जीनी चाहिये, मालिक की नहीं। मालिक की जिन्दगी में बहुत भारीपन है और बहुत कष्ट है। माली की जिन्दगी केवल रखवाली के तरीके से, चौकीदार के तरीके से अगर आप जीयें तो हम पायेंगे जो कुछ भी कर लिया, हमारा कर्तव्य काफी था। मालिक को चिंता रहती है। सफलता मिली, नहीं मिली। माली को इतनी चिंता रहती है कि अपने कर्तव्यों और अपने फर्ज पूरे किये कि नहीं किये?

🔵 दुनिया में रहें, काम दुनिया में करें, पर अपना मन भगवान् में रखें अर्थात् उच्च उद्देश्यों और उच्च आदर्शों के साथ जोड़कर रखें। हम दुनिया में डूबें नहीं। हम खिलाड़ी के तरीके से जीयें। हार-जीत के बारे में बहुत ज्यादा चिंता न करें। हम अभिनेता के तरीके से जीयें। हमने अपना पाठ-प्ले ठीक तरीके से किया कि नहीं किया; हमारे लिये इतना ही संतोष बहुत है। ठीक है, परिणाम नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं? बहुत सी बातें परिस्थितियों पर निर्भर रहती है। परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं रहीं तो हम क्या कर सकते थे? कर्तव्य हमने हमारा पूरा किया, बहुत है, हमारे लिये बहुत है; इस दृष्टि से आप जीयेंगे तो आपकी खुशी को कोई छीन नहीं सकता और आपको इस बात की परवाह नहीं होगी कि जब कभी सफलता मिले, तब आपको प्रसन्नता हो। 24 घण्टे आप खुशी से जीवन जी सकते हैं। जीवन की सार्थकता और सफलता का यही तरीका है।

🌹 आज की बात समाप्त।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/jivan_kese_jiye

👉 हमारी युग निर्माण योजना (अंतिम भाग)

🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा

🔴 युग-निर्माण योजना का उद्देश्य व्यक्ति, परिवार और समाज की ऐसी अभिनव रचना करना है जिसमें मानवीय आदर्शों का अनुसरण करते हुए सब लोग प्रगति, समृद्धि और शान्ति की ओर अग्रसर हो सकें। मानव-जीवन को वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप में दुर्भावना एवं दुष्प्रवृत्तियों ने ही नरकमय बना रखा है। इस स्थिति को बदलना होगा और ऐसा प्रयत्न करना होगा कि इस अन्धकार के स्थान पर नया प्रकाश प्रतिष्ठित हो सके। सद्-भावनाएं और सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि ही उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएं प्रशस्त कर सकती है। इसलिए हमें इन दोनों को बढ़ाने के लिए सभी सम्भव उपायों का अवलम्बन करना चाहिये। हम गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं आदर्श मानव बन सकें तो ही वे परिस्थितियां उत्पन्न होंगी जिन में अपनी और दूसरों की सुख शान्ति की सुरक्षा सम्भव हो सके।

🔵 दूसरे क्षेत्रों में आर्थिक राजनैतिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं अन्यान्य प्रगतियों के लिये विविध प्रयत्न किये जाते हैं, वे स्वागत योग्य हैं। पर व्यक्तियों के दृष्टिकोण को आदर्शवादिता की ओर उन्मुख करने के लिये नहीं के बराबर ध्यान दिया जा रहा है। जो हो रहा है उसमें दिखावा अधिक और तथ्य कम है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को आदर्शवादिता को अपनाने के लिये—सदाचार, संयम, उदारता, सज्जनता जैसे सद्गुणों का विकास करने के लिये—लोक मंगल के लिए, त्याग बलिदान का आदर्श प्रस्तुत करने के लिए ऐसी प्रेरणा दी जाय जिससे उसकी वर्तमान हेय मनोदशा में आमूलचूल परिवर्तन हो सके।

इसी प्रयास का आरम्भ ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के सदस्यों ने अपने छोटे क्षेत्र से कर दिया है। बड़े लोगों की बड़ी योजनायें इस दिशा में बनें और वे व्यापक रूप से कार्यान्वित की जायें, आवश्यकता तो इसी बात की है। पर जब तक समाज के कर्णधारों एवं शक्तिशाली पुरुषों की अभिरुचि इस ओर उत्पन्न नहीं होती तब तक भावनाशील लोगों के लिए निष्क्रिय बैठे रहना उचित न होता। इससे हम लोगों ने अपने छोटे से परिवार से यह कार्यक्रम आरम्भ कर दिया है। यह पंक्तियां लिखे जाते समय इस परिवार के प्रमुख और सहायक सदस्यों को मिला कर तीन लाख के लगभग संख्या हो जाती है। इतनी जन-संख्या अपने वैयक्तिक एवं सामूहिक जीवन में नव-निर्माण की रचनात्मक योजना अपना ले तो उसका कुछ न कुछ प्रभाव शेष समाज पर भी पड़ेगा। इसी आशा से शत-सूत्री युग-निर्माण योजना प्रस्तुत की गई है। प्रसन्नता की बात है कि यह आशा-जनक गति से उत्साहवर्धक प्रगति करती चली जा रही है। मानव-समाज के पुनरुत्थान में यह छोटा-सा प्रयत्न कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके ऐसी परमात्मा से प्रार्थना है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 53)

🌹 भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

🔴 परमब्रह्म के अंशधर देवात्मा सूक्ष्म शरीर में किस प्रकार रहते हैं। इसका प्रथम परिचय हमने अपने मार्गदर्शक के रूप में घर पर ही प्राप्त कर लिया था। उनके हाथों में विधिवत् मेरी नाव सुपुर्द हो गई थी। फिर भी बालबुद्धि अपना काम कर रही थी। हिमालय में अनेक सिद्ध पुरुषों के निवास की जो बात सुन रखी थी, उस कौतूहल को देखने का जो मन था वह ऋषियों के दर्शन एवं मार्गदर्शक की सांत्वना से पूरा हो गया था। इस लालसा को पहले अपने अंदर ही मन के किसी कोने में छिपाए फिरते थे। आज उसके पूरे होने व आगे भी दर्शन होते रहने का आश्वासन मिल गया था। संतोष तो पहले भी कम न था, पर अब वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता के रूप में और भी अधिक बढ़ गया।

🔵 गुरुदेव ने आगे कहा-‘‘हम जब भी बुलाएँ तब समझना कि हमने 6 माह या एक वर्ष के लिए बुलाया है। तुम्हारा शरीर इस लायक बन गया है कि इधर की परिस्थितियों में निर्वाह कर सको। इस नए अभ्यास को परिपक्व करने के लिए इस निर्धारित अवधि में एक-एक करके तीन बार इधर हिमालय में ही रहना चाहिए। तुम्हारे स्थूल शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता समझेंगे, हम प्रबंध कर दिया करेंगे। फिर इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि स्थूल से सूक्ष्म में और सूक्ष्म से कारण शरीर में प्रवेश करने के लिए जो तितीक्षा करनी पड़ती है, सो होती चलेगी। शरीर को क्षुधा, पिपासा, शीत, ग्रीष्म, निद्रा, थकान व्यथित करती हैं। इन छः को घर पर रहकर जीतना कठिन है, क्योंकि सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध रहने से यह प्रयोजन आसानी से पूरे होते हैं और तप तितीक्षाओं के लिए अवसर ही नहीं मिलता।

🔴  इसी प्रकार मन पर छाए रहने वाले छः कषाय-कल्मष भी किसी न किसी घटनाक्रम के साथ घटित होते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छः रिपुओं से जूझने के लिए आरण्यकों में रहकर इनसे निपटने का अभ्यास करना पड़ता है। तुम्हें घर रहकर यह अवसर भी न मिल सकेगा। इसलिए अभ्यास के लिए जन संकुल संस्थान से अलग रहने से उस आंतरिक मल्ल युद्ध में भी सरलता होती है। हिमालय में रहकर तुम शारीरिक तितीक्षा और मानसिक तपस्या करना। इस प्रकार तीन बार, तीन वर्ष यहाँ आते रहने और शेष वर्षों में जन सम्पर्क में रहने से परीक्षा भी होती चलेगी कि जो अभ्यास हिमालय में रहकर किया था, वह परिपक्व हुआ या नहीं?’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 54)

🔵 नित्य की तरह आज भी तीसरे पहर उस सुरम्य वनश्री के अवलोकन के लिए निकला। भ्रमण में जहां स्वास्थ्य संतुलन की, व्यायाम की दृष्टि रहती है वहां सूनेपन के सहचर से, इस निर्जन में निवास करने वाले परिजनों से कुशल क्षेम पूछने और उनसे मिलकर आनन्द लाभ करने की भावना भी रहती है। अपने आपको मात्र मनुष्य जाति का सदस्य मानने को संकुचित दृष्टि जब विस्तीर्ण होने लगी, तो वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों के प्रति भी ममता और आत्मीयता उमड़ी। ये परिजन मनुष्य की बोली नहीं बोलते और न उनकी सामाजिक प्रक्रिया ही मनुष्य जैसी है, फिर भी अपनी विचित्रताओं और विशेषताओं के कारण इन मनुष्येत्तर प्राणियों की दुनिया भी अपने स्थान पर बहुत ही महत्वपूर्ण है।

🔴 जिस प्रकार धर्म, जति, रंग, प्रान्त, देश भाषा, भेष आदि के आधार पर मनुष्यों—मनुष्यों के बीच संकुचित साम्प्रदायिकता फैली हुई हैं, वैसी ही एक संकीर्णता यह भी है कि आत्मा अपने आपको केवल मनुष्य जाति का सदस्य माने। अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न जाति का समझे या उन्हें अपने उपयोग की, शोषण को वस्तु समझे। प्रकृति के अगणित पुत्रों में से मनुष्य भी एक है। माना कि उसमें कुछ अपने ढंग से विशेषताएं हैं पर अन्य प्रकार की अगणित विशेषताएं सृष्टि के अन्य जीव-जन्तुओं में भी मौजूद हैं और वे भी इतनी बड़ी हैं कि मनुष्य उन्हें देखते हुए अपने आपको पिछड़ा हुआ ही मानेगा।

🔵 आज भ्रमण करते समय यही विचार मन में उठ रहे थे। आरम्भ में इन निर्जन के जो सदस्य जीव-जन्तु और वृक्ष-वनस्पति तुच्छ लगते थे, महत्वहीन प्रतीत होते थे, अब ध्यान पूर्वक देखने से वे भी महान् लगने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि भले ही मनुष्य को प्रकृति ने बुद्धि अधिक दे दी हो पर अन्य अनेकों उपहार उसने अपने इन निर्बुद्धि माने जाने वाले पुत्रों को भी दिये हैं। उन उपहारों को पाकर वे चाहें तो मनुष्य की अपेक्षा अपने आप पर कहीं अधिक गर्व कर सकते हैं।

🔴 इस प्रदेश में कितनी ही प्रकार की चिड़ियां हैं, जो प्रसन्नता पूर्वक दूर-दूर देशों तक उड़कर जाती हैं। पर्वतों को लांघती हैं। ऋतुओं के अनुसार अपने प्रदेश पंखों से उड़कर ही बदल लेती हैं। क्या मनुष्य को यह उड़ने की विभूति प्राप्त हो सकी है? हवाई जहाज बनाकर उसने एक भोंड़ा प्रयत्न किया तो है पर चिड़ियों के पंखों से उसकी क्या तुलना हो सकती है? अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए सजावट की रंग−बिरंगी वस्तुएं उनसे आविष्कृत की हैं पर चित्र-विचित्र पंखों वाली , स्वर्ग की अप्सराओं जैसी चिड़ियों और तितलियों जैसी रूप सज्जा उसे कहां प्राप्त हुई है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...