सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 21 Feb 2017


👉 और वह तबादला वरदान बन गया!

🔴  सन् १९९६ के आखिर में मेरा तबादला चाइबासा में हो गया। यहाँ आने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार नहीं था। आरंभ से ही गुरुदेव से और उनके मिशन से इस प्रकार जुड़ा रहा कि विभागीय जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद जो समय बचता था, उसमें मिशन का काम किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता था, किन्तु उड़ीसा की सीमा से सटे इस क्षेत्र में मिशन के कार्य कर पाने की संभावना नहीं के बराबर थी। मैं पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना करने लगा कि वे मेरा तबादला रुकवा दें, लेकिन उन्होंने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी और विभागीय दबाव के कारण अन्ततः मुझे चाइबासा का कार्यभार सँभालना ही पड़ा।

🔵 वहाँ का प्रभार सँभालते हुए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन सुबह- सुबह दो लड़कियाँ मेरे आवास पर पहुँच गयीं। मैं सोचने लगा कि ये कौन हैं और इन्हें दफ्तर जाने के बजाय यहाँ आवास पर आने की क्या जरूरत पड़ गई। पास आकर जब उन दोनों ने अपना परिचय दिया तो मेरा हृदय एक सुखद आश्चर्य से भर उठा। वे दोनों गायत्री परिवार की ही थीं। उनमें से एक थी वन्दना और दूसरी चंचल गुप्ता। मेरे विभाग के ही किसी व्यक्ति के द्वारा उन्हें यह मालूम हो चुका था कि मिशन से मेरी गहरी संबद्धता है। वे इस उम्मीद से मेरे पास आई थीं कि उनके द्वारा जैसे- तैसे चलाए जा रहे मिशन के कार्यक्रमों को विस्तार दिया जा सके।

🔴 उन्होंने बताया कि मिशन का नाम जानने वाले यहाँ गिने- चुने लोग ही हैं। वे दोनों अपने स्तर से पूरी तरह प्रयासरत हैं, फिर भी मिशन को मजबूती नहीं मिल पा रही है। इन प्रयासों में अधिकाधिक समय देने के कारण गाहे- बगाहे इन्हें घर- परिवार वालों की डाँट भी सुननी पड़ जाती थी। इन विकट परिस्थितियों में उनके द्वारा किए जाने वाले प्रयासों की मैं मन ही मन सराहना किए बिना न रह सका।
  
🔵 मुझे लगा कि इन दोनों बहिनों के साथ मिलकर इस क्षेत्र में मिशन को मजबूत करने के लिए ही पूज्य गुरुदेव ने मुझे यहाँ भेजा है। तभी उन्होंने तबादला रुकवाने की मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी। अब मुझे सबसे पहले नौ कुंडीय यज्ञ के लिए एक स्थान का चयन करना था। इसके लिए शंभुस्थान, शंकर मंदिर मैदान उपलब्ध हो गया। यज्ञ में लोगों को शामिल करने के लिए सघन प्रचार की आवश्यकता थी। इसके लिए जगह- जगह छोटे- छोटे दीप यज्ञों का आयोजन कर लोगों को संदेश दिए जाने लगे। घर- घर सम्पर्क कर विशेष गोष्ठियों का आयोजन किया गया, ताकि स्थानीय लोगों को युग निर्माण योजना के बारे में विस्तार से बताया जा सके।

🔴 इधर लोगों के बीच प्रचार के कार्य चल रहे थे, उधर कुण्ड निर्माण से लेकर साधन- सामग्री जुटाने का प्रयास भी किया जा रहा था। यज्ञ की तैयारियों में शुरू से अन्त तक कहीं कोई अड़चन नहीं आई। चारों ओर से सहयोग की बारिश होने लगी। भोजन प्रसाद की व्यवस्था श्री रूँगटा ने की। दीप यज्ञ और हवन के लिए घर- घर से आमंत्रण आने लगे। विभिन्न व्यावसायिक ग्रुपों ने भी सहयोग का हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। मारवाड़ियों के एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान- कोल ग्रुप द्वारा दीप यज्ञ का आयोजन किया गया। अन्ततः यज्ञ इतने भव्य रूप में सम्पन्न हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी।

🔵 इस यज्ञ के दौरान ही शक्तिपीठ की स्थापना की बात रखी गई। रायपुर के एक मारवाड़ी सज्जन ने शक्तिपीठ के लिए स्थान की पेशकश की। तीन कट्टे के अहाते में बना हुआ तीन कमरे का मकान, चौड़ा बरामदा, अहाते के अन्दर ही चाँपाकल। स्थान के उपलब्ध हो जाने से शक्तिपीठ के निर्माण का कार्य द्रुतगति से चल पड़ा।

🔴 १८ जनवरी १९९७ को भूमि पूजन हुआ। एस.पी. रामजी साहब ने शक्तिपीठ के निर्माण के लिए विधिपूर्वक भूमि पूजन किया। यह भूमि दरअसल एक बहुत बड़े भू- खंड का हिस्सा थी। उस पर काफी दिनों से कोर्ट में केस चल रहा था, जिसमें पूर्वोक्त मारवाड़ी सज्जन को कुछ इस तरह लपेटा गया था कि भूमि पर उनका अधिकार साबित होने की कम ही गुंजाइश थी। प्रतिपक्ष की जोड़तोड़ के कारण स्थिति कुछ ऐसी बन गई थी कि उनको जेल भी जाना पड़ सकता था। ऊपर से स्थानीय भू- माफियाओं द्वारा उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी जा रही थी, जो उस भूमि पर कब्जा करना चाहते थे।

🔵 शक्तिपीठ के लिए इस भूमि को दान में देने की मौखिक पेशकश करते ही परिस्थिति कुछ इस प्रकार पलटती चली गई कि सारे विरोधियों के सब प्रयास धरे के धरे रह गए। केस की दिशा ही बदल गई और निष्पत्ति मारवाड़ी सेठ के पक्ष में रही। मारवाड़ी सेठ की वर्षों से चली आ रही इस समस्या के बारे में एस.पी. साहब ने मुझे तब बताया जब इस विवाद का निपटारा न्यायालय द्वारा पूरा हो गया। जब स्थानीय लोगों को इस बात की जानकारी मिली तो सभी एक स्वर से कहने लगे कि ऐसे जटिल मुकदमें का फैसला मारवाड़ी सेठ के पक्ष में होना उनके द्वारा शक्तिपीठ के लिए भूमिदान का ही परिणाम है। खुद एस.पी. साहब भी इस निर्णय को लेकर आश्चर्यचकित थे।

🔴 पूरे क्षेत्र में चर्चित इस मुकद्दमें में मारवाड़ी सेठ की जीत से चारों ओर गायत्री माता और गुरुदेव की शक्ति की चर्चाएँ होने लगीं। इन चर्चाओं को तब और बल मिला जब अनायास ही वन्दना के लिए रिश्ता मिल गया और उसकी शादी हो गई। एक पैर से लाचार होने के कारण उसके लिए रिश्ता मिलना मुश्किल हो रहा था। यही कारण था कि 25- 26 वर्ष की हो जाने के बाद भी उसकी शादी तय नहीं हो सकी थी। शादी को लेकर उसके माता- पिता के लिए भी यह एक सुखद आश्चर्य की घड़ी थी।

🔵 इतना सब कुछ घटित होने के बाद यह बात मेरी समझ में आ गई कि चाईबासा के तबादले की व्यवस्था पूज्य गुरुदेव ने मुझे पुरस्कृत करने के लिए ही बनाई थी। तबादले के समय मैं यह सोचकर मरा जा रहा था कि वहाँ मिशन के काम मुझे अधूरे छोड़ने पड़ेंगे ,, लेकिन यहाँ आकर जब शक्तिपीठ की स्थापना जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य मुझ अकिंचन के द्वारा पूरा हुआ तो मेरा रोम- रोम गुरुसत्ता की असीम अनुकम्पा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा।

🌹 के.पी. पाण्डेय आई ए एस पटना (बिहार)    
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (अंतिम भाग)

🌹 आराधना और ज्ञानयज्ञ     
🔴 परिवार में रात्रि के समय कथा-कहानियाँ कहने के अपने लाभ हैं। इस प्रयोजन के लिये प्रज्ञा पुराण जैसे ग्रन्थ अभीष्ट आवश्यकता-पूर्ति कर सकते हैं। परस्पर विचार-विनिमय वाद-विवाद प्रतियोगिता, कविता सम्मेलन भी कम उपयोगी नहीं हैं। हर व्यक्ति स्वयं कविता तो नहीं कर या कह सकता है, पर दूसरों की बनाई हुई प्रेरणाप्रद कविताएँ सुनाने की व्यवस्था तो कहीं भी हो सकती है। चित्र प्रदर्शनियाँ भी जहाँ सम्भव हो, इस प्रयोजन की पूर्ति में सहायक हो सकती हैं।     

🔵 खोजने पर ऐसे अनेकों सूत्र हाथ लग सकते हैं जो ज्ञानयज्ञ की, विचारक्रान्ति की, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन की, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के लिये कौन, क्या किस प्रकार कुछ कर सकता है? इसकी खोज-बीन करते रहने पर हर जगह हर किसी को कोई न कोई मार्ग मिल सकता है। ढूँढ़ने वाले अदृश्य परमात्मा तक को प्राप्त कर लेते हैं, फिर ज्ञानयज्ञ की प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिये मार्ग न मिले, ऐसी कोई बात नहीं है। आवश्यकता है-उसका महत्त्व समझने की, उस पर ध्यान देने की।           
                      
🔴 उपासना से भावना का, जीवन साधना से व्यक्तित्व का और आराधना से क्रियाशीलता का परिष्कार और विकास होता है। आराधना उदार सेवा साधना से ही सधती है। सेवा कार्यों में सामान्यत: वे सेवायें हैं जिनसे लोगों को सुविधाएँ मिलती हैं। श्रेष्ठतर सेवा वह है जिससे किसी की पीड़ा का, अभावों का निवारण होता है। श्रेष्ठतम सेवा वह है जिससे व्यक्ति पतन से हटकर उन्नति की ओर मोड़ा जा सके। सुविधा बढ़ाने और पीड़ा दूर करने की सेवा तो कोई आत्मचेतना सम्पन्न ही कर सकता है। यह सेवा भौतिक सम्पदा से नहीं, दैवी सम्पदा से की जाती है। दैवी सम्पदा देने से घटती नहीं बढ़ती है। इसलिये भी वह सर्वसुलभ और श्रेष्ठ मानी जाती है।

🔵 सन्त और ऋषि स्तर के व्यक्ति पतन निवारण की सेवा को प्रधानता देते रहे हैं। इसीलिये वे संसार में पूज्य बने। जिनकी सेवा की गई वे भी महान बने। सेवा की यह सर्वश्रेष्ठ धारा ज्ञानयज्ञ के माध्यम से कोई भी अपना सकता है। स्वयं लाभ पा सकता है और अगणित व्यक्तियों को लाभ पहुँचाकर पुण्य का भागीदार बन सकता है।  

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 धर्म एक और सनातन है

🔴 गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। अफ्रीकियों के स्वत्वाधिकार के लिए उनका आंदोलन सफलतापूर्वक चल रहा था, ब्रिटिश सरकार के इशारे पर एक दिन मीर नामक एक पठान ने गाँधी जी पर हमला कर दिया, गॉधी जी गंभीर रूप से घायल हुए। मनुष्य का सत्य, सेवा और सच्ची धार्मिकता का मार्ग है ही ऐसा कि इसमें मनुष्य को सुविधाओं की अपेक्षा कष्ट ही अधिक उठाने पडते हैं।

🔵 पर इससे क्या उच्च आत्माएँ कभी अपने पथ से विचलित हो जाती है क्या? बुराई की शक्ति अपना काम बंद नही करती तो फिर भलाई की शक्ति तो सौगुनी अधिक है, वह हार क्यों मानने लगे गाँधी जी को स्वदेश लौटने का आग्रह किया गया पर वे न लौटे। घायल गाँधी जी पादरी जोसेफ डोक के मेहमान बने और कुछ ही दिनों मे यह संबध घनिष्टता में परिवर्तित हो गया।

🔴 पादरी जोसेफ डोक यद्यपि बैपटिस्ट पंथ के अनुयायी और धर्म-गुरु थे, तथापि गांधी जी के संपर्क से वे भारतीय धर्म और सस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हुए। वे धीरे-धीरे भारतीय स्वातंत्रता संग्राम का भी समर्थन करने लगे।

🔵 पादरी डोक के एक अंग्रेज मित्र ने उनसे आग्रह किया कि वे भारतीयों के प्रति इतना स्नेह और आदर भाव प्रदर्शित न करें अन्यथा जातीय कोप का भाजन बनना पड़ सकता है, इस पर डोक ने उत्तर दिया- मित्र क्या अपना धर्म-पीडितों और दुखियों की सेवा का समर्थन नहीं करता, क्या गिरे हुओं से ऊपर उठने मे मदद देना धर्म-सम्मत नही ? यदि ऐसा है तो मैं अपने धर्म का ही पालन कर रहा हूँ। भगवान् ईसा भी तो ऐसा ही करते हुए सूली पर चढे थे फिर मुझे घबराने की क्या आवश्यकता?

🔴 मित्र की आशंका सच निकली कुछ ही दिनों में गोरे उनके प्रतिरोधी बन गये और उन्हें तरह-तरह से सताने लगे। ब्रिटिश अखबार उनकी सार्वजनिक निंदा और अपमान करने से नहीं चूके थे, लेकिन इससे पादरी डोक की सिद्धांत-निष्ठा में कोई असर नही पडा़। बहुत सताए जाने पर भी वो भारतीयो का समर्थन भावना पूर्वक करते रहे।

🔵 गाँधी जी जहाँ उनके इस त्याग से प्रभावित थे, वही उन्हें इस बात का दुःख भी बहुत अधिक था वे पादरी डोक को उत्पीडित नहीं देखना चाहते थे, इसलिये जिस तरह एक मित्र अपने मित्र के प्रति वेदना रखता है। गाँधी जी भी उनके पास गए और बोले- आपको इन दिनो अपने जाति भाइयों से जो कष्ट उठाने पड रहे हैं उसके कारण हम भारतीयों की ओर से आपका आभार मानते हैं, पर आपके कष्ट हमसे नही देखे जाते। आप हमारा समर्थन बंद कर दें। परमात्मा हमारे साथ हैं यह लडाई भी हम लोग निपट लेगे।

🔴 इस पर पादरी डोक ने कहा मि० गाँधी आपने ही तो कहा था कि धर्म एक और सनातन है पीडित मानवता की सेवा।'' फिर यदि सांप्रदायिक सिद्धन्तों की अवहेलना करके मैं सच्चे धर्म का पालन करूँ तो इसमे दुख करने की क्या बात और फिर यह तो मैं स्वांतः सुखाय करता हूँ। मनुष्य धर्म की सेवा करते आत्मा को जो पुलक और प्रसन्नता होनी चाहिए, वह प्रसाद मुझे मिल रहा है, इसलिए वाह्य अडचनों, दुःखों और उत्पीडनों की मुझे किंचित भी परवाह नही।

🔵 पादरी डोक अंत तक भारतीयों का समर्थन करते रहे। उन जैसे महात्माओं के आशीर्वाद का फल है कि हम भारतीय आज अपने धर्म, आदर्श और सिद्धन्तों पर निष्कंटक चलने के लिए स्वतंत्र है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 40, 31

👉 अहंकारिता और जल्दबाजी का दुष्परिणाम

🔴 दिल्ली का बादशाह मुहम्मद तुगलक विद्वान भी था और उदार भी। प्रजा के लिए कई उपयोगी काम भी उसने किए; किन्तु दो दुर्गुण उसमें ऐसे थे, जिनके कारण वह बदनाम भी हुआ और दुर्गति का शिकार भी। एक तो वह अहंकारी था; किसी की उपयोगी सलाह भी अपनी बात के आगे स्वीकार न करता था। दूसरा जल्दबाज इतना कि जो मन में आए उसे तुरंत कर गुजरने के लिए आतुर हो उठता था।
 
🔵 उसी सनक में उसने नयी राजधानी दौलताबाद बनायी और बन चुकने पर कठिनाइयों को देखते हुए रद्द कर दिया। एक बार बिना चिह्न के तांबे के सिक्के चलाए। लोगों ने नकली बना लिए और अर्थ व्यवस्था बिगड़ गयी। फिर निर्णय किया कि तांबे के सिक्के खजाने में जमा करके चाँदी के सिक्कों में बदल लें। लोग इस कारण सारा सरकारी कोष खाली कर गए। एक बार चौगुना टैक्स बढ़ा दिया। लोग उसका राज्य छोड़कर अन्यत्र भाग गए। 

🔴 विद्वत्ता और उदारता जितनी सराहनीय है, उतनी ही अहंकारिता और जल्दबाजी हानिकर भी-यह लोगों ने तुगलक के क्रिया-कलापों से प्रत्यक्ष देखा। उसका शासन सर्वथा असफल रहा।
  
🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11

👉 किसी का जी न दुखाया करो (अंतिम भाग)

🔴 तुम समझते हो कि तुम स्पष्ट वक्ता हो। तुम्हें अभिमान है कि तुम सत्य के नाम पर किसी की भी अप्रसन्नता से नहीं डरते। तुम्हारा विश्वास है कि अपने सिद्धान्त की यत्किंचित् भी अवहेलना देखना तुम नहीं चाहते। पर स्पष्ट वक्ता का अर्थ क्या दूसरे के जीवों दुखाना ही है? क्या सत्य इतनी कठोर वस्तु है कि उसके लिये दूसरे की प्रसन्नता की हत्या करनी पड़े?

🔵 क्या संसार में तुम्हारे ही मात्र सिद्धान्त सत्य हैं? या संसार में दूसरों को अपने स्वतन्त्र विचार रखने का अधिकार ही नहीं है? सत्य को प्रेम से भी समझाया जा सकता है। स्पष्ट वक्ता इस प्रकार से भी कह सकता है कि किसी दूसरे का जी न दुःखे। सिद्धान्त का स्थापन सुन्दर ढंग से भी किया जा सकता है।

🔴 ‘भिन्न रुचिर्हि लोके’ के अनुसार संसार भिन्न रुचि वाला है। जब भाइयों-भाइयों और मित्रों-मित्रों में भी सभी बातें समान नहीं होतीं तो साधारण मनुष्यों में तो सदा विचारों का मेल खाते जाना असम्भव ही है। यदि विवाद में सफल होना चाहते हो तो विवाद निष्कर्ष के लिये करो, केवल बकवास के लिये नहीं। यदि अपनी बात की सच्ची में तुम्हें विश्वास है तो उस पर अड़े मत रहो। दूसरों को उसे समझाने का प्रयत्न करो।

🔵 अपने पक्ष को स्थापित करना चाहते हो तो युक्तियों से काम लो, अपने अभिमान के कारण उसे थोपने का प्रयत्न न करो, और चाहे कुछ भी करो मानवता के नाते किसी का जी को तो न दुखाया करो।

🌹 समाप्त
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1948 पृष्ठ 24 

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 16)

🌹 विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभाव

🔴 विचारों का तेज ही आपको ओजस्वी बनाता है और जीवन संग्राम में एक कुशल योद्धा की भांति विजय भी दिलाता है। इसके विपरीत आपके मुर्दा विचार आपको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पराजित करके जीवित मृत्यु के अभिशाप के हवाले कर देंगे। जिसके विचार प्रबुद्ध हैं उसकी आत्मा प्रबुद्ध है और जिसकी आत्मा प्रबुद्ध है उससे परमात्मा दूर नहीं है।

🔵 विचारों को जाग्रत कीजिये, उन्हें परिष्कृत कीजिये और जीवन के हर क्षेत्र में पुरस्कृत होकर देवताओं के तुल्य ही जीवन व्यतीत करिये। विचारों की पवित्रता से ही मनुष्य का जीवन उज्ज्वल एवं उन्नत बनता है इसके अतिरिक्त जीवन को सफल बनाने का कोई उपाय मनुष्य के पास नहीं है। सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति से बड़ी शक्ति और क्या होगी?

🔴 भावनाओं और विचारों का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। बहुत समय तक प्रकृति के इस स्वाभाविक नियम पर न तो विश्वास किया गया न उपयोग। लोगों को इस विषय में जरा भी चिन्ता नहीं थी कि मानसिक स्थितियों का प्रभाव बाह्य स्थिति पर पड़ सकता है और आन्तरिक जीवन का कोई सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य जीवन से भी हो सकता है। दोनों को एक दूसरे से प्रथक मानकर गतिविधियां चलती रही। आज जो शरीर शास्त्री अथवा चिकित्सक यह मानने लगे हैं कि विचारों का शारीरिक स्थिति से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, वे पहले बहुत समय तक औषधियों जैसी जड़ वस्तुओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है— इसके प्रयोग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 24)

🌹 उदारता अपनाई ही जाए  

🔵 इस द्वन्द्व के चलते देवता तो किसी प्रकार सन्तुष्ट भी हो सके और परस्पर एक सीमा तक तालमेल भी बिठा सके, पर दैत्य सर्वदा विग्रह में ही उलझे रह गये। वे न केवल देव पक्ष से जूझते रहे, वरन् आपा-धापी छीना-झपटी में उन्हें अपने स्तर के लोगों से भी आये दिन निपटना पड़ा। अनीति के आधार पर हस्तगत हुई उपलब्धियाँ अपनी बिरादरी वालों को भी चैन से नहीं बैठने देती। उनके बीच, लूट में अधिक हिस्सा पाने की प्रवृत्ति निरन्तर विग्रह भड़काती रहती है। 

🔴 अच्छा होता-कहीं ऐसी समझ उपज सकी होती कि आवश्यकता के अनुरूप साधन इस सुविस्तृत प्रकृति कलेवर में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, तब उन्हें मिल बाँटकर काम चलाने की समझदारी क्यों न अपनाई जाये? पर दुर्बुद्धि न जाने क्यों तथाकथित समझदारों के सिर ताबड़तोड़ आक्रमण करती है, फलत: अभावग्रस्त समझे जाने वालों की तुलना में समर्थ, सशक्त ही अधिक घाटे में रहते हैं। इतना ही नहीं, जब वे उन्मादी हाथियों की तरह लड़ते हैं, तो अपने क्षेत्र की सुविस्तृत हरियाली को रौंद-दबोच कर तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। स्थिति ऐसी बना देते हैं, जिसमें वे स्वयं अपयश के भागी बनते हैं, आत्म प्रताडऩा की आग में जलते हैं और साथ ही वातावरण को विपन्न बनाकर रख देते हैं। न चैन से बैठते हैं और न दूसरों को बैठने देते हैं।    

🔵 मिल बाँटकर खाने योग्य सुविधा-साधन प्रकृति सदा से उत्पन्न करती रही है और भविष्य में भी उसकी यही रीति नीति बनी रहेगी, पर उस हविश को क्या किया जाये, जो संसार भर का सब कुछ अपने ही छोटे से कटोरे में बटोर लेने के लिए बेहतर आकुल रहती है। यद्यपि यह चन्द्रमा, आकाश से उतर कर उसी के घरौंदे में खेलते रहने के लिए न कभी तैयार हुआ और न कभी भविष्य में ऐसा करने के लिए सहमत होते दीख पड़ता है। ऐसी दशा में अबोध बालक कभी स्वयं हैरान हो, कभी घरवालों पर खीझे और कभी आसमान तक लातें चलाकर चन्द्रमा को धराशायी बनाने के लिए रौद्र रूप धारण करे, तो क्या किया जाये?  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 पूजा-उपासना के मर्म (भाग 1)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 पात्रता का विकास अगर आदमी न कर सका। केवल उसके दिमाग पर ये वहम और ये ख्वाब और ये ख्वाहिश जमा हुआ बैठा रहा कि लकड़ी की माला और जबान की नोंक से उच्चारण किया जाने वाला मंत्र राम-राम, राम-राम चिल्लाता रहा, तोते के तरीके से टें-टें, टें-टें, चिल्लाता रहता है और हम राम-राम जबान में से चिल्लाते रहते हैं। राम नाम जबान के कोने में से चिल्लाया गया हो तो बेकार है ऐसा राम का नाम, कुछ फायदा नहीं हो सकता, राम के नाम का।

🔵 लकड़ी के माला के ऊपर जो गायत्री मंत्र घुमाया गया है, मैं नहीं जानता उसमें से कुछ फायदा ले सकता है कि नहीं। मैं लाखों बच्चों को जानता हूँ, जो शिकायत करते हुए आते हैं और कहते हैं राम का नाम जपा था, हमको कोई फायदा नहीं हुआ और लाखों मनुष्य मेरे पास आते रहते हैं और कहते हैं, हमने गायत्री मंत्र जपा था, पर हमको कोई फायदा नहीं हुआ। और मैं इस बात की तस्दीक करता हूँ, कोई फायदा न हुआ है और न आगे होगा। 

🔴 लेकिन मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि यह गायत्री मंत्र अगर सही तरीके से जपा गया हो और सही तरीके से जीवन में धारण किया गया हो और जीवन की नसों-नाड़ियों में, भावनाओं में, विचारणा में ओत-प्रोत किया गया हो, तो आदमी को चमत्कार दिखा सकता है और चमत्कार का सबूत और चमत्कार का नमूना हूँ मैं, जो आपके सामने बैठा हुआ हूँ। मैं एक नमूना हूँ और मैं एक सबूत हूँ। मेरी जिन्दगी के सैकड़ों पन्नों के अध्याय हैं और वह सब बन्द हैं, मैंने सील बन्द कर दिया है और मैंने इसलिये सील करके रखे हैं कि मेरे मरने तक के लिये उनको खोल के नहीं रखा जाये।

🔵 इतने लोगों की मैंने सेवाएँ की, इतने लोगों की सहायताएँ की। उनकी सेवा और सहायता का ब्यौरा इतना बड़ा है कि आपको यह मालूम पड़ेगा कि जो एक आदमी अपनी समस्याओं को पूरा नहीं कर सकता? एक आदमी अपनी ख्वाहिशों को पूरा नहीं कर सकता? लेकिन एक आदमी इतने ज्यादा मनुष्यों के, इतने ज्यादा किस्म की सहायता करने में समर्थ है। हाँ! मैं कहता हूँ, समर्थ हूँ।

🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 57)

🌹 अनगढ़ मन हारा, हम जीते

🔴 आत्मा, परमात्मा के घर से एकाकी आता है। खाना, सोना चलना भी अकेले ही होता है। भगवान के घर भी अकेले ही जाना पड़ता है। फिर अन्य अवसरों पर भी आपको परिष्कृत और भावुक मन के सहारे उल्लास अनुभव कराता रहे तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है? अध्यात्म के प्रतिफल रूप में मन में इतना परिवर्तन तो दृष्टिगोचर होना ही चाहिए। शरीर को जैसे अभ्यास में ढालने का प्रयास किया जाता है, वह वैसा ही ढल जाता है। उत्तरी ध्रुव के एस्किमो केवल मछलियों के सहारे जिंदगी गुजार देते हैं। दुर्गम हिमालय एवं आल्प्स पर्वत के ऊँचे क्षेत्रों में रहने वाले अभावों के बावजूद स्वस्थ लम्बी जिन्दगी जीते हैं। पशु भी घास के सहारे गुजारा कर  लेते हैं। मनुष्य भी यदि उपयोगी पत्तियाँ चुनकर अपना आहार निर्धारित कर ले, तो अभ्यास न पड़ने पर ही थोड़ी गड़बड़ रहती है।

🔵 बाद में गाड़ी ढर्रे पर चलने लगती है। ऐसे-ऐसे अनेक अनुभव हमें उस प्रथम हिमालय यात्रा में हुए और जो मन सर्वसाधारण को कहीं से कहीं खींचे-खींचे फिरता है, वह काबू में आ गया और कुकल्पनाएँ करने के स्थान पर आनन्द एवं उल्लास भरी अनुभूतियाँ अनायास ही देने लगा। संक्षेप में यही है हमारी ‘‘सुनसान के सहचर’’ पुस्तक का सार-संक्षेप। ऋतुओं की प्रतिकूलता से निपटने के लिए भगवान ने उपयुक्त माध्यम रखे हैं। जब इर्द-गिर्द बर्फ पड़ती है, तब गुफाओं के भीतर समुचित गर्मी रहती है। गोमुख क्षेत्र की कुछ हरी झाड़ियाँ जलाने से जलने लगती हैं।

🔴 रात्रि को प्रकाश दिखाने के लिए ऐसी ही एक वनौषधि झिलमिल जगमगाती रहती है। तपोवन और नन्दन वन में एक शकरकंद जैसा अत्यधिक मधुर स्वाद वाला ‘‘देवकंद’’ जमीन में पकता है। ऊपर तो यह घास जैसा दिखाई देता है, पर भीतर से उसे उखाड़ने पर आकार में इतना बड़ा निकलता है कि कच्चा भूनकर एक सप्ताह तक गुजारा चल सकता है। भोज पत्र के तने की मोटी-गाँठें होती हैं। उन्हें कूटकर चाय की तरह क्वाथ बना लिया जाए तो बिना नमक के भी वह क्वाथ बड़ा स्वादिष्ट लगने लगता है। भोज पत्र का छिलका ऐसा होता है कि उसे बिछाने, ओढ़ने और पहनने के काम में आच्छादन रूप में लिया जा सकता है।

🔵 यह बातें यहाँ इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि भगवान ने हर वस्तु की असह्यता से निपटने के लिए सारी व्यवस्था रखी है। परेशान तो मनुष्य अपने मन की दुर्बलता से अथवा अभ्यस्त वस्तुओं की निर्भरता से होता है। यदि मनुष्य आत्म-निर्भर रहे तो तीन चौथाई समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक चौथाई के लिए अन्य विकल्प ढूँढ़े जा सकते हैं और उनके सहारे समय काटने के अभ्यास किए जा सकते हैं। मनुष्य हर स्थिति में अपने को फिट कर सकता है। उसे तब हैरानी होती है, जब वह यह चाहता है कि अन्य सब लोग उसकी मर्जी के अनुरूप बन जाएँ, परिस्थितियाँ अपने अनुकूल ढल जाएँ। यदि अपने को बदल लें, तो हर स्थिति से गुजरा और उल्लासयुक्त बना रहा जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/angarh

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 58)

🌹 लक्षपूर्ति की प्रतीक्षा

🔵 आहार हलका हो जाने से नींद भी कम हो जाती है। फल तो अब दुर्लभ हैं पर शाकों से भी फलों वाली सात्विकता प्राप्त हो सकती है। यदि शाकाहार पर रहा जाय तो साधन के लिए चार पांच घंटे की नींद पर्याप्त हो जाती है।

🔴 जाड़े की रात लम्बी होती हैं। नींद जल्दी ही पूरी हो गई। आज चित्त कुछ चंचल था। यह साधना कब तक पूरी होगी? लक्ष कब तक प्राप्त होगा? सफलता कब तक मिलेगी? ऐसे-ऐसे विचार उठ रहे थे। विचारों की उलझन भी कैसी विचित्र है, जब उनका जंजाल उमड़ पड़ता है तो शान्ति की नाव डगमगाने लगती है। इस विचार प्रवाह में न भजन बन पड़ रहा था, न ध्यान लग रहा था। चित्त ऊबने लगा। इस ऊब को मिटाने के लिए कुटिया से निकला और बाहर टहलने लगा। आगे बढ़ने की इच्छा हुई। पैर चल पड़े। शीत तो अधिक था, पर गंगा माता की गोद में बैठने का आकर्षण भी कौन कम मधुर है, जिसके सामने शीत की परवा हो? तट से लगी हुई एक विशाल शिला जलधारा में काफी भीतर तक धंसी पड़ी थी। अपने बैठने का वही प्रिय स्थान था। कम्बल ओढ़ कर उसी पर जा बैठा। आकाश की ओर देखा तो तारों ने बताया कि अभी दो बजे हैं।

🔵 देर तक बैठा रहा तो झपकी आने लगी। गंगा का ‘कलकल हरहर’ शब्द भी मन को एकाग्र करने के लिये ऐसा ही है जैसे शरीर के लिए झूला-पालना! बच्चे को झूला पालने में डाल दिया जाय तो शरीर के साथ ही उसे नींद आने लगती है। जिस प्रदेश में इन दिनों यह शरीर है वहां का वातावरण इतना सौम्य है कि यह जलधारा का दिव्य कलरव ऐसा लगता है मानो वात्सल्यमयी माता लोरी सुना रही हो। चित्त एकाग्र होने के लिये, यह ध्वनि लहरी कलरव नादानुसंधान से किसी भी प्रकार कम नहीं है। मन को विश्राम मिला। चित्त शान्त हो गया। झपकी आने लगीं। लेटने को जी चाहा। पेट में घुटने लगाये। कम्बल ने ओढ़ने बिछाने के दोनों काम साध दिये। नींद के हलके झोंके आने आरम्भ हो गये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 16 गोलियां लगने के बाद भी दहाड़ता रहा ‘चीता’

🔴 मौत के मुहाने पर खड़ा होने के बावजूद उसने बंदूक उठाई और एक ही गोली में लश्कर-ए-तैयबा के दुर्दांत आतंकी कमांडर अबू हारिश को ढोर कर दिया। गोलीबारी थमी तो पता चला कि राजस्थान के कोटा का यह जांबाज बेटा मौत से जूझ रहा है। सेना के श्रीनगर बेस हॉस्पीटल ने हाथ खड़े कर दिए तो आनन-फानन में एयर एम्बुलेंस से दिल्ली स्थित एम्स के ट्रोमा सेंटर में लाया गया। जहां उनकी हालत गंभीर बनी हुई है।

🔵 उसका पूरा जिस्म छलनी हो चुका था…ग्रेनेड के धमाके में दोनों हाथ की हड्डियां भी टूट गई…दहशतगर्दों की गोलियों ने दाई आंख भी फोड़ दी…फिर भी ‘चीते’ की दहाड़ कम ना हुई।

🔴 सीआरपीएफ की 92 वीं बटालियन के कमांडेंट चेतन कुमार चीता (45) को मंगलवार की सुबह कश्मीर पुलिस ने जानकारी दी कि बांदीपोर जिले के हाजिन गांव में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने डेरा डाल रखा है। चीता मौका गवाए बिना 13 राष्ट्रीय रायफल और जम्मू कश्मीर पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के साथ गांव में पहुंच गए और पारे मुहल्ले में छिपे आतंकियों को घेर लिया। जिस पर आतकियों ने गोलीबारी शुरू कर दी। चीता आतंकियों को चकमा देते हुए उनके बेहद करीब जा पहुंचे, लेकिन बाकी साथी पीछे छूट गए।

🌹 आतंकवादी को मार कर ही माने

🔵 सीआरपीएफ के महानिदेशक के. दुर्गाप्रसाद ने राजस्थान पत्रिका को बताया कि आतंकियों ने चीता को निशाना बनाकर गोलियां और ग्रेनेड दागे। जिससे उनके हाथ, पैर, कूल्हे और पेट में कई गोलियां जा धसीं। एक गोली से जाबांज जवान की दाई आंख भी छलनी हो गई। इसी बीच आतंकियों के फेंके एक ग्रेनेड में धमाका होने से चीता के दोनों हाथों में भी फैक्चर हो गया और सिर एवं चेहरे में छर्रे जा धंसे। गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद इस बहादुर अफसर ने लश्कर-ए-तैयबा के दुर्दांत कमांडर अबू हारिश को मार गिराया। घायल होने के बाद भी उन्होंने 16 राउंड गोलियां चलाई थीं।

🌹 हालत बेहद गंभीर

🔴 गोलीबारी थमने के बाद सेना से जवान चीता को गांव से निकालकर श्रीनगर स्थित सेना के 92 बेस हॉस्पीटल में लेकर आए। जहां इलाज का पर्याप्त इंतजाम न होने के कारण उन्हें तत्काल दिल्ली स्थित एम्स के ट्रॉमा सेंटर लाया गया। कमांडेंट के भाई प्रवीण चीता ने बताया कि हॉस्पीटल से एयरपोर्ट तक लाने के लिए रास्ते बंद कर दिए गए थे।
जहां से एयर एंबुलेंस के जरिए उन्हें रात आठ बजे दिल्ली लाया गया। उन्होंने बताया कि ऑपरेशन के बाद डॉक्टर उनके पेट में लगी छह गोलियां निकाल चुके हैं, लेकिन शरीर के बाकी हिस्सों में लगी गोलियां और छर्रे अभी निकाले जाने बाकी हैं। चिकित्सकों ने 48 घंटे तक हालात बेहद क्रिटिकल बताए हैं।

🌹 20 दिन पहले ही मारा था लखवी का भांजा

🔵 तीन महीने पहले ही चीता की तैनाती कश्मीर में की गई थी, लेकिन इस छोटे से वक्त में ही वह आतंकवादियों के बीच दहशत का पर्याय बन गए थे। 20 जनवरी को भी बांदीपोर इलाके में आतंकियों से उनकी मुठभेड़ हुई थी। जिसमें उन्होंने मुम्बई हमलों के मास्टरमाइंड जाकिर उर रहमान लखवी के भांजे और लश्कर कमांडर अबू मुसैब को मार गिराया था।

🌹 पिता ने बढ़ाया हौसला


🔴 कोटा के खेड़ली फाटक निवासी पूर्व आरएएस अफसर रामगोपाल चीता फालेज होने के कारण चल फिर नहीं सकते, लेकिन बेटे की बहादुरी का किस्सा सुन दो साल बाद बिस्तर से उठ बैठे और बोले कि मुझे अपने बेटे पर नाज है कि उसने आतंकवादियों को मार सैकड़ों मासूमों की जान बचाई है। उसे अभी और भी आतंकियों को मारना है, इसलिए जल्द ही ठीक होना होगा। मेरी दुआ है कि जब तक एक भी आतंकी जिंदा है, मेरे बेटे उनसे इसी तरह लड़ते रहेंगे। फिलहाल चेतन की पत्नी, दोनों बच्चे और बहन-बहनोई दिल्ली में है।

🌹 दुआओं का दौर शुरू

🔵 जांबाज बेटे की बहादुरी और जीवन संघर्ष की जानकारी मिलते ही की कोटा में दुआओं का दौर शुरू हो गया। तमाम सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने उनके जल्द से जल्द स्वस्थ होने की कामना की है। चेतन के मित्र हर्षवर्धन जैन ने बताया कि उनके दोस्त की बहादुरी पर पूरे शहर को नाज है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...