शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 26 Feb 2017


👉 खण्डित होने से बचा समयदान का संकल्प

🔴 बात सन् 1990 ई. की है। पूज्य गुरुदेव ने महाप्रयाण से कुछ दिन पूर्व अपने नैष्ठिक साधकों को बुलाकर कहा था कि बेटे, हमें अब मिशन का कार्य तीव्र गति से करना है और ऐसे में हमारा स्थूल शरीर अधिक उपयुक्त नहीं जान पड़ता है, अतः अब हम इस स्थूल काया को छोड़ना चाहते हैं। तब साधकों ने कहा-गुरुजी, जब आप शरीर से नहीं रहेंगे तो इस मिशन को गति कौन प्रदान करेगा। मिशन का कार्य कैसे होगा? तब गुरुजी ने कहा-बेटे हम सूक्ष्म शरीर से कार्य करेंगे। स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर के द्वारा हम मिशन के कार्य को और अधिक तीव्र गति से कर पाएँगे।
   
🔵 यह प्रसंग अखण्ड ज्योति पत्रिका में प्रकाशित एक लेख का है। इस लेख को पढ़कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि पूज्य गुरुदेव अपने सूक्ष्म शरीर से कैसे कार्य करते होंगे। लेकिन जब मेरे जीवन में एक अविस्मरणीय घटना घटी, तो यह बात समझ में आ गई कि किस प्रकार गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से तरह-तरह के काम किया करते हैं।
   
🔴 सन् 2009 में मैं पहली बार शान्तिकुञ्ज आया था। यहाँ की आध्यात्मिक ऊँचाइयों से प्रभावित मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि अपने क्षेत्र में भी पाँच कुण्डीय गायत्री महायज्ञ करवाऊँगा। पंचकुण्डीय यज्ञ में पू. गुरुदेव कदम-कदम पर सूक्ष्म रूप से सहायता करते रहे। अगले वर्ष पुनः शान्तिकुञ्ज आकर नौ दिवसीय साधना सत्र करने के बाद एक मासीय युग शिल्पी सत्र पूरा किया और लगे हाथों यहाँ की डिस्पेन्सरी में तीन माह के लिए समयदान करना शुरू कर दिया। अभी समयदान की अवधि पूरी भी नहीं हुई थी कि एक विकट समस्या खड़ी हो गयी। वह रविवार का दिन था। तारीख थी 23 अक्टूबर 2010। रात के लगभग दस बजे मेरे घर से फोन आया कि पिताजी के बाएँ हाथ में पैरालाइसिस हो गया है। यह सुनकर मैं सकते में आ गया। अपने-आपको जैसे तैसे सहज करके मैंने यह जानने की कोशिश की कि अचानक यह अटैक कैसे हो गया। माँ ने बताया कि शाम के लगभग ४ बजे जब पिताजी गेहूँ की बोरी उठाने लगे, तो उन्हें लगा कि उनका बायाँ हाथ पूरी तरह से सुन्न हो गया है। उन्होंने माताजी को बुलाकर कहा कि उनका बायाँ हाथ काम नहीं कर रहा है। यह सुनकर माताजी घबरा उठीं। उन्होंने पिताजी का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे दबाना और झटकना शुरू किया। लेकिन इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।
   
🔵 घर के सभी सदस्य अपना-अपना काम छोड़कर पिताजी के पास इकट्ठे हो गए। आपस में विचार करके सबने यही तय किया कि तुरंत किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। थोड़ी देर बाद ही उन्हें मुजावरपुर के डॉ. श्री नृपाल सिंह सिगड़ोरे के पास ले जाया गया। जाँच करने पर पता चला कि पिताजी का ब्लडप्रेशर नार्मल से बहुत ही कम हो चुका है। डॉक्टर साहब ने बताया कि लो ब्लडप्रेशर ही पैरालाइसिस की वजह है। उन्होंने यह भी कहा कि बाँए अंग का पैरालाइसिस बहुत ही गंभीर होता है। लम्बे इलाज के बाद भी यह बड़ी मुश्किल से ठीक हो पाता है। दवा देकर डॉक्टर ने कुछ दिनों तक बेड रेस्ट का सुझाव दिया।
   
🔴 घर वापस आने के बाद पिताजी ने सारी बात फोन पर बताकर मुझे शांतिकुंज से तुरंत घर वापस आने को कहा। पिताजी के बारे में जानकर मेरा मन चिंता से भर उठा था। सुबह की ट्रेन से ही मेरा वापस जाना जरूरी था, लेकिन समयदान का संकल्प खंडित हो जाने का भय मुझे खाए जा रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि करूँ  तो क्या करूँ। ऊपर से विभागीय अनुमति मिलने की भी संभावना नहीं दिख रही थी क्योंकि प्रभारी डॉक्टर गायत्री शर्मा पिछले कुछ दिनों से शांतिकुंज में नहीं थीं। गाँव वापस जाने को लेकर अनिश्चय की स्थिति में ही मैंने घर फोन मिलाकर माँ-पिताजी को कहा कि वे आज से ही घर में दीपक जलाकर नित्य कम से कम तीन माला गायत्री मंत्र का जप शुरू कर दें। मैंने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा कि आप लोग चिन्ता मत कीजिए। पूज्य गुरुदेव की कृपा से सब ठीक हो जाएगा। पिताजी के स्वास्थ्य लाभ के लिए माताजी ने उसी दिन से गायत्री महामंत्र का जप आरम्भ कर दिया। इधर मैंने भी अपनी प्रातःकालीन साधना के दौरान माता गायत्री से पिताजी को शीघ्र स्वस्थ कर देने की प्रार्थना की। फिर मैं पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी के समाधि स्थल पर सिर टिकाकर उनसे प्रार्थना करने लगा कि वे मेरी इतनी कठिन परीक्षा न लें। यदि मेरा यह समयदान का संकल्प पूरा नहीं हुआ तो मेरी आत्मा मुझे हमेशा धिक्कारती रहेगी। किन्तु यदि मेरे पिताजी की बीमारी इसी प्रकार बनी रहती है तो आत्मा पर बोझ रखकर भी मुझे वापस जाना ही पड़ेगा। अब इस दुविधा से मुझे आप ही उबार सकते हैं।
   
🔵 अब मेरे डिस्पेन्सरी जाने का समय हो चुका था। वहाँ जाकर दिन भर तो मरीजों के दुःख बाँटने मेंं लगा रहा लेकिन शाम को आवास पर वापस आते ही एक बार फिर से चिन्तातुर हो गया। पूरा ध्यान घर की परिस्थितियों पर ही लगा था। तभी शाम को साढ़े पाँच बजे घर से पिताजी का फोन आया। उनकी आवाज प्रसन्नता से भरी हुई थी। उन्होंने बताया कि उन्होंने मेरे कहे अनुसार दीप जलाकर गायत्री मंत्र की तीन माला का जप पूरा कर लिया है और जप के पूरा होते-होते उन्हें लगभग 80 प्रतिशत आराम मिल चुका है।
   
🔴 यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पिताजी से सुनकर भी सहज ही विश्वास नहीं हो रहा था कि सिर्फ तीन माला गायत्री जप से ही पैरालाइसिस जैसी घातक बीमारी लगभग 80 प्रतिशत ठीक हो गई। गुरुसत्ता की इस असीम अनुकम्पा से मेरी आँखें भर आईं। मैं अपने-आप से कहने लगा-गुरुसत्ता ने अपने परिजनों को ठीक ही यह आश्वासन दिया है कि तुम मेरा काम करो और मैं तुम्हारा काम करूँगा। एक हफ्ते बाद ही घर से पिताजी का दूसरा फोन आया कि अब उनका हाथ पूरी तरह से काम करने लगा है और मेरे गाँव आने की आवश्यकता नहीं रह गई है। पावन गुरुसत्ता की इस असीम कृपा के लिए हमारा शत-शत नमन।  

🌹 डॉ. राजेश कुमार चौरिया, चारगाँव, छिन्दवाड़ा (म. प्र.) 
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 5)

🌹 सर्वोपरि उपलब्धि-प्रतिभा  

🔴 संसार सदा से ऐसा नहीं था, जैसा कि अब सुन्दर, सुसज्जित, सुसंस्कृत और समुन्नत दीखता है। आदिकाल का मनुष्य भी वनमानुषों की तरह भूखा-नंगा फिरता था। ऋतु-प्रभावों से मुश्किल से ही जूझ पाता था। जीवित रहना और पेट भरना ही उसके लिए प्रधान समस्या थी और इतना बन पड़ने पर वह चैन की साँस भी लेता था। संसार तब इतना सुन्दर कहाँ था? यहाँ खाई-खंदक टीले, ऊसर, बंजर, निविड़ वन और अनगढ़ जीव-जन्तु ही जहाँ-तहाँ दीख पड़ते थे। आहार, जल और निवास तक की सुविधा न थी, फिर अन्य साधनों का उत्पादन और उपयोग बन पड़ने की बात ही कहाँ बन पाती होगी?         

🔵 आज का हाट-बाजारों उद्योग-व्यवसायों विज्ञान-आविष्कारों सुविधा-साधनों अस्त्र-शस्त्र सज्जा-शोभा शिक्षा और सम्पदा से भरा-पूरा संसार अपने आप ही नहीं बन गया है। उसने मनुष्य की प्रतिभा विकसित होने के साथ-साथ ही अपने कलेवर का विस्तार भी किया है। श्रेय मनुष्य को दिया जाता है, पर वस्तुत: दुनियाँ जानती है कि वहाँ सब कुछ सम्पदा और बुद्धिमत्ता का ही खेल है। इससे दो कदम आगे और बढ़ाया जा सके, तो सर्वतोमुखी प्रगति का आधार एक ही दीख पड़ता है प्रतिभा-परिष्कृत प्रतिभा। इसके अभाव में अस्तित्व जीवित लाश से बढ़कर और कुछ नहीं रह जाता।

🔴 सम्पदा का इन दिनों बहुत महत्त्व आँका जाता है; इसके बाद समर्थता, बुद्धिमत्ता आदि की गणना होती है। पर और भी ऊँचाई की ओर नजर दौड़ाई जाए, तो दार्शनिक, शासक, कलाकार, वैज्ञानिक, निर्माता एवं जागरूक लोगों में मात्र परिष्कृत प्रतिभा का ही चमत्कार दीखता है। साहसिकता उसी का नाम है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता के रूप में उसे जाना जा सकता है। यदि किसी को वरिष्ठता या विशिष्टता का श्रेय मिल रहा हो, तो समझना चाहिए कि यह उसकी विकसित प्रतिभा का ही चमत्कार है। इसी का अर्जन सच्चे अर्थों में वह वैभव समझा जाता है, जिसे पाकर गर्व और गौरव का अनुभव किया जाता है। व्यक्ति याचक न रहकर दानवीर बन जाता है। यही है वह क्षमता, जो अस्त्र-शस्त्रों की रणनीति का निर्माण करती है और बड़े से बड़े बलिष्ठों को भी धराशायी कर देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सफाई तो स्वाभाविक धर्म

🔴 सफाई को वे गाँधी जी की तरह अत्यावश्यक धर्म मानते थे और उनकी भी यह धारणा व्यावहारिक थी कि सफाई, जैसी आवश्यक वस्तु के लिये न तो दूसरों पर निर्भर रहना चाहिए और न ही उसे छोटा और घृणित कार्य मानना चाहिए। सफाई ऐसी व्यवस्था है, जिससे स्वास्थ्य और मानसिक प्रसन्नता चरितार्थ होती है, उससे दैनिक जीवन पर बडा़ सुंदर प्रभाव पड़ता है। इसलिए छोटा हो या बडा़ सफाई का कार्य सबके लिए एक जैसा है।

🔵 आफिसों के लोग, साधारण पदवी वाले कर्मचारी और घरों में भी जो लोग थोडा बहुत पढ-लिख जाते हैं, वे अपने आपको साफ-सुथरा रख सकते हैं। पर अपने आवास और पास-पडोस को साफ रखने से शान घटने की ओछी धारणा लोगों में पाई जाती है, किंतु उनको यह बात बिल्कुल भी छू तक न गई थी।

🔴 बात पहुत पहले की नहीं, तब की है जब वे प्रधानमंत्री थे, पार्लियामैंट से दोपहर का भोजन करने वे  अपने आवास जाया करते थे एक दिन की बात है घर के बच्चों ने तमाम् कागज के टुकडे फाड फाड कर चारों तरफ फैला दिये थे। खेल-खेल में और भी तमाम गंदगी इकट्ठी हो गई थी घर के लोग दूसरे कामों मे व्यस्त रहे, किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि घर साफ नहीं है और उनका भोजन करने का वक्त हो गया है।

🔵 प्रधान मंत्री नियमानुसार दोपहर के भोजन के लिए घर पहुँचे घर में पाँव रखते ही उनकी निगाह सर्वप्रथम घर की अस्त-व्यस्तता और गंदगी पर गई। दूसरा कोई होता तो नौकर को बुलाता घर बालों को डॉटता। पर उनका कहना था ऐसा करना मनुष्य का छोटापन व्यक्त करता है। सामने आया हुआ छोटा काम भी यदि भावनापूर्वक किया जाता है, तो उस छोटे काम का भी मूल्य बड़ जाता है, और सच पूछो तो छोटे छोटे कामों को भी लगन और भवनापूर्वक करने की इन्हीं सुंदर आदतों और सिद्धंतों ने उन्हें एक साधारण किसान के बेटे से विशाल गणराज्य का प्रधानमंत्री प्रतिष्ठित किया था।

🔴 उन्होंने न किसी को बुलाया, न डॉट-फटकार लगाई चुपचाप झाडू उठाया और कमरे में सफाई शुरु कर दी, तब दूसरे लोगों का भी ध्यान उधर गया पहरे के सिपाही, घर के नौकर उनकी धर्मपत्नि सब जहाँ थे, वही निर्वाक खडे देखते रहे और वे चुपचाप झाडू लगाते रहे। किसी को बीच में टोकने का साहस न पड़ा, क्योकि उनकी कडी़ चेतावनी थी काम करने के बीच में कोई भी छेडना अच्छा नहीं होता।

🔵 सफाई हो गई तो ये लोग मुस्कराते हुए रसोइ पहुँचे। ऐसा जान पडता था कि इनके मन मे झाडू लगाने से कोइ कष्ट नहीं पहुँचा वरन मानसिक प्रसन्नता बढ़ गई है।

🔴 धर्मपत्नी ने विनीत भाव से हाथ धोने के पानी देते हुए कहा- हम लोगों की लापरवाही से आपको इतना कष्ट उठाना पडा़ तो वे हँसकर बोले- हाँ लापरवाही तो हुई पर मुझे सफाई से कोई कष्ट नहीं हुआ। यह तो हर मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है कि यह अपनी और अपने पडो़सी की बेझिझक सफाई रखा करे।

🔵 सब कुछ जहाँ का तहाँ व्यवस्थित हुआ, वे भोजन समाप्त कर फिर अपने नियत समय पर पार्लियामेंट लौट आए। अब जानना चाहेंगे अपने ऐसे आदर्शों के बल पर साधारण व्यक्ति से प्रधानमंत्री बनने वाले कौन थे ? वह और कोई नहीं लाल बहादुर शास्त्री थे। उन्होंने साबित कर दिया कि मनुष्य जन्मजात न तो बडा होता है, न प्रतिष्ठा का पात्र। उसको बडा़ उसका काम, उसकी सच्चाई और ईमानदारी बनाती है। उनका सपूर्ण जीवन ही ऐसे उद्धरणों से परिपूर्ण है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 50, 51

👉 छोटे सद्गुणों ने आगे बढ़ाया

🔵 बालक अब्राहम लिंकन में महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने का बड़ा शौक था। घर की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी इसलिए वे खरीद तो न सकते पर इधर-उधर से माँग कर अपना शौक पूरा करते।

🔴 एक सुशिक्षित सज्जन से वे एक पुस्तक माँग कर पढ़ने लाये। उनने बालक की उत्कंठा देख कर पुस्तक दे तो दी पर कड़े शब्दों में हिदायत कर दी कि पुस्तक खराब न होने पावे और जल्दी से जल्दी लौटा दी जाय।

🔵 घर में दीपक न था। ठंड दूर करने के लिए अंगीठी में आग जला कर सारा घर उसी पर आग तापता था। लिंकन उसी के प्रकाश में पुस्तक पढ़ते थे। सारा घर सो गया, पर वे न सोये और पुस्तक में खोये रहे। अधिक रात गए जब नींद आने लगी तो जंगले में पुस्तक रख कर सो गया। संयोगवश रात को वर्षा हुई। बौछारें जंगले में हो कर आईं और पुस्तक भीग गई।

🔴 बालक सवेरे उठा तो उसे बड़ा दुख हुआ। बिना मैली कुचैली किये ठीक समय पर पुस्तक लौटा देने का वचन वह पूरा न कर सकेगा, इस पर उसे बड़ा दुःख हुआ। आँखों में आँसू भरे वह पुस्तक उधार देने वाले सज्जन के पास पहुँचा और ‘रुद्ध’ कण्ठ से भारी परिस्थिति कह सुनाई।

🔵 वे मैली पुस्तक वापिस लेने को तैयार न हुए। कीमत चुकाने को पैसे न थे। अंत में उनने यह उपाय बताया कि तीन दिन तक वह उस सज्जन के खेत में धान काटे और उस मजदूरी से पुस्तक की मूल्य भरपाई करे। बालक ने खुशी-खुशी यह स्वीकार कर लिया। तीन दिन धान काटे और वचन पूरा न करने के संकोच से छुटकारा पा लिया।

🔴 बालक लिंकन के ऐसे-ऐसे छोटे सद्गुणों ने उसे आगे बढ़ाया और बड़ा हो कर वह अमेरिका का लोक-प्रिय राष्ट्रपति चुना गया।
 
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1964

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 21)

🌹 विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभाव
🔴 डा. एफ. ई. बिल्स, डा. लेलाड काडल रावर्ट मैक कैरिसन आदि अनेक स्वास्थ्य शास्त्रियों ने दीर्घायु के रहस्य ढूंढ़े। प्राकृतिक जीवन, सन्तुलित और शाकाहार, परिश्रमशील जीवन, संयमित जीवन—शतायुष्य के लिए यही सब नियम माने गये हैं, लेकिन कई बार ऐसे व्यक्ति देखने में आये जो इन नियमों की अवहेलना करके, रोगी और बीमार रहकर भी सौ वर्ष की आयु से अधिक जिये। इससे इन वैज्ञानिकों को भी भ्रम बना रहा कि दीर्घायुष्य का रहस्य कहीं और छिपा हुआ है। इनके लिए उसकी खोज निरन्तर जारी रही।

🔵 अमेरिका के दो वैज्ञानिक डा. ग्रानिक और डा. बिरेन बहुत दिनों तक खोज करने के बाद इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे कि दीर्घ जीवन का संबंध मनुष्य के मस्तिष्क एवं ज्ञान से है। उनका कहना है कि अनुसंधान के समय 92 और इस आयु के ऊपर के जितने भी लोग मिले वह सब अधिकतर पढ़ने वाले थे। आयु बढ़ने के साथ-साथ जिनकी ज्ञान वृद्धि भी होती है वे दीर्घजीवी होते हैं पर पचास की आयु पार करने के बाद जो पढ़ना बन्द कर देते हैं—जिनका ज्ञान नष्ट होने लगता है, जल्दी ही मृत्यु के ग्रास हो जाते हैं।

🔴 दोनों स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मस्तिष्क जितना पढ़ता है उतना ही उसमें चिन्तन करने की शक्ति आती है। व्यक्ति जितना सोचता विचारता रहता है उसका नाड़ी मण्डल उतना ही तीव्र रहता है। हम यह सोचते हैं कि देखने का काम हमारी आंखें करती हैं, सुनने का काम कान, सांस लेने का काम फेफड़े, पेट भोजन पचाने और हृदय रक्त परिभ्रमण का काम करता है। विभिन्न अंग अपना-अपना काम करके शरीर की गतिविधि चलाते हैं। पर यह हमारी भूल है।

🔵 सही बात यह है कि नाड़ी मण्डल की सक्रियता से ही शरीर के सब अवयव क्रियाशील होते हैं, इसलिए मस्तिष्क जितना क्रियाशील होगा शरीर उतना ही क्रियाशील होगा। मस्तिष्क के मंद पड़ने का अर्थ है शरीर के अंग-प्रत्यंगों की शिथिलता और तब मनुष्य की मृत्यु शीघ्र ही हो जावेगी इससे जीवित रहने के लिए पढ़ना बहुत आवश्यक है। ज्ञान की धारायें जितनी तीव्र होंगी उतनी ही लम्बी होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 29)

🌹 उदारता अपनाई ही जाए  

🔵 बिच्छू के बारे में सुना जाता है कि उसके बच्चे माँ का पेट खा पीकर तब बाहर निकलते हैं। लगता है मनुष्य ने कहीं बिच्छू की रीति-नीति तो नहीं अपना ली हैं, जिससे वह उस प्रकृति का सर्वनाश करके रहे, जो उसके जीवन धारणा करने का प्रमुख आधार है। खीझी हुई प्रकृति क्या बदला ले सकती है? अणु उपकरणों के बदले क्या प्रकृति ही सर्वनाश, महाप्रलय सामने लाकर खड़ी कर सकती है? यह सब सोचने की मानो किसी को फुरसत ही नहीं हैं।      

🔴 मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार निराशाजनक स्तर तक नीचे गिर गया है। उसने अपनी सत्ता और महत्ता को किस प्रकार फुलझड़ी की तरह जलाने का कौतुक अपना लिया है, उससे प्रतीत होता है कि इस सुहावनी धरती पर रहते हुए भी हम सब प्रेत-पिशाचों की तरह एक दूसरे को काटने, गलाने, जलाने पर उतारू हैं। इसके प्रतिफल स्वरूप परस्पर सहयोग की बात बनना तो दूर, हम अविश्वास के ऐसे वातावरण में रह रहे हैं, जिससे अपनी छाया तक से डर लगता है।

🔵 विश्वास और विश्वासघात दोनों परस्पर हमजोली बनकर चल रहे हैं। असंयम के अतिवाद ने शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक दूरदर्शिता को मटियामेट करके रख दिया है। धन की इतनी बड़ी भूमिका बताई है कि उसे पाने के लिए कोई किसी के साथ कितनी ही बढ़ी-चढ़ी दुष्टता कर बैठे, तो उसे कम ही समझना चाहिए। ऐसे अभ्यस्त अनाचार के बीच कोई शरीर मस्तिष्क, परिवार, समाज, स्वयं समुन्नत रह सकेगा, इसकी आशा ही छोड़ देनी चाहिए, छूट भी गई है।      

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 3)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 मानव जीवन की विशेषताओं का और भगवान् के द्वारा विशेष विभूतियाँ मनुष्य को देने का एक और भी उद्देश्य है। जब मनुष्य इस जिम्मेदारी को समझ ले और ये समझ ले कि मैं क्यों पैदा हुआ हूँ, और यदि मैं पैदा हुआ हूँ? तो मुझे अब क्या करना चाहिए?  यह बात अगर समझ में आ जाए, तो समझना चाहिए कि इस आदमी का नाम मनुष्य है और इसके भीतर मनुष्यता का उदय हुआ और इसके अंदर भगवान् का उदय हो गया और भगवान् की वाणी उदय हो गयी, भगवान् की विचारणाएँ उदय हो गयीं।

🔵 यदि इतना न हो, तो उसको क्या कहा जाए? उसके लिए सिर्फ एक ही शब्द काम में लाया जा सकता है, उसका नाम है नर- पशु। नर- पशु कई तरह के हैं और नर- पशु भी दुनिया में बहुत सारे हैं। अधिकांश आदमी नर- पशु हैं। नर- पशु हो करके नर- नारायण होकर और पुरुष- पुरुषोत्तम और मानव को महामानव होकर के जीना चाहिए, आदर्शवादी और सिद्धान्तवादी होकर जीना चाहिए। यह दो उद्देश्य ही तो मनुष्य के हैं। 

🔴 जहाँ दूसरे लोग, दूसरे प्राणी इन्द्रियों की प्रेरणाओं से प्रभावित होते हैं, अपने अन्तःमन की प्रेरणा से प्रभावित होते हैं, जन्म- जन्मान्तरों के कुसंस्कारों से प्रभावित होते हैं, समीपवर्ती वातावरण से प्रभावित होते हैं और उसी के अनुसार अपनी गतिविधियों का निर्धारण करते हैं, वहीं मनुष्य वह है, जो किसी बाहर की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता है,  बल्कि अन्तरंग की प्रेरणा और भगवान्  की पुकार और जीवन के उद्देश्य से ही प्रभावित होता है और सारी दुनिया की बातों को, सारी दुनिया के लोभ और आकर्षणों को उठाकर एक कोने पर रख देता है। उसी का नाम मनुष्य है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/11

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 61)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 प्रथम परीक्षा देने के लिए हिमालय बुलाए जाने के आमंत्रण को प्रायः दस वर्ष बीत गए। फिर बुलाए जाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। उनके दर्शन उसी मुद्रा में होते रहे जैसे कि पहली बार हुए थे। ‘‘सब ठीक है’’ इतने ही शब्द कहकर प्रत्यक्ष सम्पर्क होता रहा। अन्तरात्मा में उसका समावेश निरन्तर होता रहा कभी अनुभव नहीं हुआ कि हम अकेले हैं। सदा दो साथ रहने जैसी अनुभूति होती रही। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए।

🔵 प्रथम परीक्षा देने के लिए हिमालय बुलाए जाने के आमंत्रण को प्रायः दस वर्ष बीत गए। फिर बुलाए जाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। उनके दर्शन उसी मुद्रा में होते रहे जैसे कि पहली बार हुए थे। ‘‘सब ठीक है’’ इतने ही शब्द कहकर प्रत्यक्ष सम्पर्क होता रहा। अन्तरात्मा में उसका समावेश निरन्तर होता रहा कभी अनुभव नहीं हुआ कि हम अकेले हैं। सदा दो साथ रहने जैसी अनुभूति होती रही। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए।

🔴 रास्ता अपना देखा हुआ था। ऋतु उतनी ठण्डी नहीं थी जितनी कि पिछली बार थी। रास्ते पर आने-जाने वाले मिलते रहे। चट्टियाँ (ठहरने की छोटी धर्मशालाएँ) भी सर्वथा खाली नहीं थीं। इस बार कोई कठिनाई नहीं हुई। सामान भी अपेक्षाकृत साथ में ज्यादा नहीं था। घर जैसी सुविधा तो कहाँ, किन्तु जिन परिस्थितियों में यात्रा करनी पड़ी, वह असह्य नहीं अनभ्यस्त भर थी। क्रम यथावत चलता रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 62)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔵 आत्मकथा लिखने के आग्रह को केवल इस अंश तक पूरा कर सकते हैं कि हमारा साधना क्रम कैसे चला। वस्तुत: हमारी सारी उपलब्धियाँ प्रभु समर्पित साधनात्मक जीवन प्रक्रिया पर ही अवलम्बित है। उसे जान लेने से इस विषय में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति को वह रास्ता मिल सकता है, जिस पर चल कर कि आत्मिक प्रगति और उससे जुड़ी विभूतियों का आनंद लिया जा सकता है। पाठकों को अभी इतनी ही जानकारी हमारी कलम से मिल सकेगी, सो उतने से ही इन दिनों सन्तोष करना पड़ेगा।

🔴 ६० वर्ष के जीवन में से १५ वर्ष का आरम्भिक बाल जीवन कुछ विशेष महत्त्व का नहीं है। शेष पाँच वर्ष हमने आध्यात्मिकता के प्रसंगों को अपने जीवन- क्रम में सम्मिलित करके बिताये हैं, पूजा- उपासना का उस प्रयोग में बहुत छोटा अंश रहा है। २४ वर्ष तक ६ घंटे रोज की गायत्री उपासना को उतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, जितना कि मानसिक और भावनात्मक उत्कृष्टता के अभिवर्धन के प्रयत्नों को। यह माना जाना चाहिए कि यदि विचारणा और कार्यपद्धति को परिष्कृत न किया गया होता, तो उपासना के कर्मकाण्ड उसी तरह निरर्थक चले जाते, जिस तरह कि अनेक पूजा- पत्री तक सीमित मन्त्र- तन्त्रों का ताना- बाना बुनते रहने वालों को नितान्त खाली रहना पड़ता है।

🔵 हमारी जीवन साधना को यदि सफल माना जाए और उसमें दीखने वाली अलौकिकता को खोजा जाए तो उसका प्रधान कारण हमारी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही माना जाए। पूजा उपासना को गौण समझा जाए। आत्मकथा के एक अंश को लिखने का दुस्साहस करते हुए हम एक ही तथ्य का प्रतिपादन करेंगे कि हमारा सारा मनोयोग और पुरुषार्थ आत्म- शोधन में लगा है। उपासना जो बन पड़ी है, उसे भी हमने भाव परिष्कार के प्रयत्नों के साथ पूरी तरह जोड़ रखा है। अब आत्मोद्घाटन के साधनात्मक प्रकरण पर प्रकाश डालने वाली कुछ चर्चाएँ पाठकों की जानकारी के लिए करते हैं_

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...