रविवार, 19 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 20 March 2017


👉 गंगा में डूबने से बचाया एक बालक ने

🔴 १९८२ से मैं गुरुदेव की शरण में हूँ। मेरा पूरा परिवार ही उनके विचारों से प्रभावित है। इसलिए मेरे विवाह में दान- दहेज की कोई बात नहीं रही। दुर्भाग्य से एक साल गुजरते ही पत्नी का स्वर्गवास हो गया। ससुराल पक्ष वालों ने मेरे अंदर की पीड़ा नहीं देखी। उन्हें मुझ पर शक था। अतः उन्होंने पुलिस थाने में इस आशय की एक अर्जी दी कि सम्भव है, यह मृत्यु अस्वाभाविक रही हो।
    
🔵 थाने से दरोगा आए, पूछताछ हुई। फिर दिवंगत पत्नी के माता- पिता भी आए। देख- सुनकर चले गए। चूँकि हममें कोई खोट नहीं थी, एक चिकित्सक के नाते काफी लोग जानते पहचानते भी थे, इसलिए पास- पड़ोस के लोगों की बातें सुनकर आखिरकार वे संतुष्ट हो गए कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं। केस तो खत्म हो गया। लेकिन इन घटनाओं से मैं अन्दर से टूट गया। जीने की कोई इच्छा शेष नहीं बची थी।

🔴 ऐसी विषम परिस्थितियों में पूज्य गुरुदेव के सत्साहित्य का स्वाध्याय करने से धीरे- धीरे मेरा मनोबल बढ़ता गया और जैसे- तैसे मैं अपने आप को सहज करने में काफी हद तक सफल हुआ।

🔵 कुछ ही दिनों बाद पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म संरक्षण से सबल होकर मैंने अपनी दिनचर्या को नियमित कर लिया। चिकित्सा कार्य के साथ ही मैंने अपना एक क्लीनिक भी खोल लिया, ताकि अधिक से अधिक व्यस्त रहा जा सके।

🔴 सन् १९९२ की बात है। उन दिनों मैं दोपहर के समय एक से पाँच बजे तक चिकित्सा कार्य से समय निकाल कर प्रत्येक दिन गायत्री परिवार का एक कार्यक्रम कर लेता था। इस तरह गुरुदेव का काम करने का संतोष भी मिल जाता और पूरे दिन व्यस्त रहने के कारण किसी प्रकार की चिन्ता भी नहीं घेर पाती।

🔵 वह शनिवार का दिन था। थोड़ा समय मिला, तो गंगा स्नान करने चला गया। कई सालों के अनाभ्यास के कारण तैरने की आदत छूट चुकी थी। इसलिए मैं सावधानीपूर्वक किनारे ही डुबकी लगा रहा था। नहाते- नहाते अचानक फिसलकर प्रवाह में आ गया। मैंने बचाव के लिए चिल्लाना और हाथ- पाँव मारना शुरू किया। मेरे एक साथी के पिता कुछ दूर तक तैर कर पीछे- पीछे आए, पर फिर लौट गए।

🔴 मैंने स्काउट की किताब में डूबने से बचाव के कुछ उपाय पढ़ रखे थे। उन्हें भी आजमाया, लेकिन सब बेकार। मन ने कहा- अब अंतिम समय आ गया। दूसरी दुनिया में जाने के लिए तैयार हो जाओ। मेरे मुँह से अचानक निकला- हे माँ। और मैं अचेत हो गया।

🔵 कुछ समय बाद चेतना लौटी, तो देखा बहुत दूर एक पुल के पास दो- तीन लड़के खेल रहे हैं। वहाँ एक नाव भी लगी है। हालाँकि वहाँ पर किसी लड़के या नाव का होना एक अप्रत्याशित बात थी।

🔴 उस अर्धचेतना की अवस्था में मुझे जो दिखा और जिस प्रकार घटित हुआ, ठीक वही लिख रहा हूँ। उस लड़के ने मेरी तरफ अपनी उँगली बढ़ाई। मैं उसकी उँगली पकड़ किनारे की ओर आने लगा। तभी नाव वाला पास आया। उसने मुझे अपनी नाव पर बिठाकर किनारे तक पहुँचा दिया।

🔵 मैं कुछ देर तक अचेत- सा होकर वहाँ पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद सहज होने पर मैंने इधर- उधर देखा। जिसने अपनी उँगली पकड़ाकर मेरी जान बचायी थी, वह लड़का मुझे कहीं भी नजर नहीं आया। नाव वाला भी बिना किराया लिए वापस जा चुका था।

🔴 आज भी मेरा मन यही कहता है कि परम पूज्य गुरुदेव ने ही बालरूप धारण करके अपनी उँगली पकड़ाकर मुझे जीवनदान दिया था। मौके पर नाव लेकर मल्लाह का आ जाना भी उन्हीं की लीला थी।

🌹 अशोक कुमार तिवारी इलाहाबाद (उ.प्र.)  
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 25)

🌹 आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें     

🔴 व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। धातुओं की खदानें जहाँ भी होती हैं, उस क्षेत्र के वही धातु कण मिट्टी में दबे होते हुए भी उसी दिशा में रेंगते और खदान के चुम्बकीय आकर्षणों से आकर्षित होकर पूर्व संचित खदान का भार, कलेवर और गौरव बढ़ाने लगते हैं। व्यक्तित्ववान अनेकों का स्नेह, सहयोग, परामर्श एवं उपयोगी सान्निध्य प्राप्त करते चले जाते हैं। यह निजी पुरुषार्थ है। अन्य सुविधा-साधन तो दूसरों की अनुकम्पा भी उपलब्ध करा सकता है; किन्तु प्रतिभा का परिष्कार करने में अपना सङ्कल्प, अपना समय और अपना पुरुषार्थ ही काम आता है। इस पौरुष में कोताही न करने के लिए गीताकार ने अनेक प्रसंगों पर विचारशीलों को प्रोत्साहित किया है। एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।                           
🔵 पानी में बबूले अपने भीतर हवा भरने पर उभरते और उछलते हैं; पर जब उनका अन्तर खोखला ही हो जाता है, तो उनके विलीन होने में भी देर नहीं लगती। अन्दर जीवट का बाहुल्य हो, तो बाहर का लिफाफा आकर्षक या अनाकर्षक कैसा भी हो सकता है; किन्तु यदि ढकोसले को ही सब कुछ मान लिया जाए और भीतर ढोल में पोल भरी हो, तो ढम-ढम की गर्जन-तर्जन के सिवाय और कुछ प्रयोजन सधता नहीं। पृथ्वी मोटी दृष्टि से जहाँ की तहाँ स्थिर रहती प्रतीत होती है; पर उसकी गतिशीलता और गुरुत्वाकर्षण शक्ति इस तेजी से दौड़ लगाती है कि एक वर्ष में सूर्य की लम्बी कक्षा में परिभ्रमण कर लेती है और साथ ही हर रोज अपनी धुरी पर भी लट्टू की तरह घूम जाती है।

🔴 कितने ही व्यक्ति दिनचर्या की दृष्टि से एक ढर्रा ही पूरा करते हैं; किन्तु भीतर वाली चेतना जब तेजी से गति पकड़ती है तो वे सामान्य परिस्थितियों में गुजर करते हुए भी उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं। सामर्थ्य भीतर ही रहती, बढ़ती और चमत्कार दिखाती है। उसी को निखारने, उजागर करने पर तत्परता बरती जाए तो व्यक्तित्व की प्रखरता इतनी सटीक होती है, कि जहाँ भी निशाना लगता है, वहीं से आर-पार निकल जाता है।              
     
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 41)

🌹 श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आधार सद्विचार

🔴 विचार-धारा में जीवन बदल देने की कितनी शक्ति होती है, इसका प्रमाण हम महर्षि बाल्मीकि के जीवन में पा सकते हैं। महर्षि बाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में रत्नाकर डाकू के नाम से प्रसिद्ध थे। उनका काम राहगीरों को मारना, लूटना और उससे प्राप्त धन से परिवार का पोषण करना था। एक बार देवर्षि नारद को उन्होंने पकड़ लिया। नारद ने रत्नाकर से कहा कि तुम यह पाप क्यों करते हो? चूंकि वे उच्च एवं निर्विकार विचारधारा वाले थे इसलिए रत्नाकर डाकू पर उनका प्रभाव पड़ा, अन्यथा भय के कारण किसी भी वंचित व्यक्ति ने उनके सामने कभी मुख तक नहीं खोला था। उसका काम तो पकड़ना, मार डालना और पैसे छीन लेना था, किसी के प्रश्नोत्तर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। किन्तु उसने नारद का प्रश्न सुना और उत्तर दिया—‘‘अपने परिवार का पोषण करने के लिए।’’

🔵 नारद ने पुनः पूछा कि ‘‘जिनके लिए तुम इतना पाप कमा रहे हो, क्या वे लोग तुम्हारे पाप में भागीदार बनेंगे।’’ रत्नाकर की विचारधारा आन्दोलित हो उठी, और वह नारद को एक वृक्ष से बांधकर घर गया और परिजनों से नारद का जिक्र किया और उनके प्रश्न  का उत्तर पूछा। सबने एक स्वर में निषेध करते हुए कह दिया कि हम सब तो तुम्हारे आश्रित हैं। हमारा पालन तुम्हारा कर्तव्य है, तुम पाप करते हो तो इसमें हम लोगों को क्या मतलब? अपने पाप के भागी तुम खुद होंगे। 

🔴 परिजनों का उत्तर सुनकर रत्नाकर की आंखें खुल गईं। उसकी विचार-धारा बदल गई और नारद के पास आकर दीक्षा ली और तप करने लगा। आगे चलकर वही रत्नाकर डाकू महर्षि बाल्मीकि बने और रामायण महाकाव्य के प्रथम रचयिता। विचारों की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह देवता को राक्षस और राक्षस को देवता बना सकती है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 19)

🌹 उदारता जन्मदात्री है प्रामाणिकता की   

🔵 हमें तथ्यों को समझना चाहिये। प्रामाणिकता की परख होने पर ही कोई बड़े काम, दायित्व या अधिकार सौंपे जाते हैं। ईश्वर के दरबार में भी यही नियम है। वहाँ साधना का अर्थ जीवनचर्या के हर पक्ष में आदर्शवादिता और प्रामाणिकता का समावेश लगाया जाता है। जो भी इस कसौटी पर खरा उतरता है, उसको हर स्वर्णकार की तरह सम्मानपूर्वक उचित मूल्य मिलता है, पर पीतल को सोना बनाकर बेचने की फिराक में फिरने वाले को हर कहीं दुत्कारा जाता है।          

🔴 छोटे बच्चे को खड़ा होने और धीरे-धीरे चलने में सहारा देने के लिये पहिये की हाथगाड़ी बना दी जाती है। बच्चे को खड़ा तो अपने ही पैरों पर होना पड़ता है, पर उस गाड़ी की सहायता मिलने से कार्य सरल हो जाता है। ठीक इसी प्रकार पूजा-अर्चा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रामाणिक बनाने भर के लिये की जानी चाहिये अन्यथा भीतर घटियापन छाया रहने पर यह भी कहा जा सकता है कि साधना का सटीक अर्थ न समझा गया-उसे सही रीति से संपन्न न किया जा सका।          

🔵 उदारमना होना भी ईश्वर-भक्ति का अविच्छिन्न अंग है। कृपणता, निष्ठुरता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता उसके रहते टिक ही नहीं सकती। संत, भक्तजन, इसीलिये अमीर नहीं रहते कि वे उपलब्धियों का न्यूनतम उपयोग करके जो बचत संभव हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक परमार्थ-प्रयोजनों में लगाते रहे। यह उदारता ही उनमें दैवी उदारता का आह्वान करती और उसे घसीटकर बड़ी मात्रा में सामने ले आती है। बादल उदारतापूर्वक बरसते रहते हैं। समुद्र उनके भंडार को खाली न होने की प्रतिज्ञा निभाते रहते हैं। नदियाँ भूमि पर प्राणियों की प्यास बुझाती हैं। उनमें जल कम न पड़ने पाये, इसकी जिम्मेदारी हिमालय पर पिघलती रहने वाली बरफ उठाती है। 

🔴 पेड़ बिना मूल्य फल देते रहते हैं, बदले में नई फसल पर उन्हें उतने ही नये फल बिना मूल्य मिल जाते हैं। गाय दूध देती है। इससे उसका थन खाली नहीं हो जाता; सबेरे खाली हो गया थन शाम तक फिर उतने ही दूध से भर जाता है। धरती बार-बार अन्न उपजाती है। उसकी उर्वरता अनादिकाल से बनी हुई है और अनंतकाल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। उदार सेवा-भावना का जिसके चिंतन और व्यवहार मे जितना पुट है, समझना चाहिये कि उस प्रामाणिक व्यक्ति को समाज का सम्मान भरा सहयोग और ईश्वर का अनुदान उसी अनुपात में निरंतर मिलता रहेगा।   
     
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 23)

🌹 प्रगति के कदम-प्रतिज्ञाएँ

🔴 बिना मेहनत- मशक्कत की कमाई क्यों खायें? लॉटरी २० रुपये की लगायी और पाँच लाख रुपये मिल जाए। ये क्या बात हुई? फिर आदमी की परिश्रम की कीमत क्या रही? आदमी की मेहनत क्या रही? न कोई मेहनत, परिश्रम करके फोकट में ही पैसा मिल जाता है, तो फिर परिश्रम को साथ- साथ में क्यों जोड़ा जाए? परिश्रम का मतलब ही तो पैसा होता है और पैसा किसे कहते हैं? आदमी की शारीरिक और मानसिक मेहनत का नाम पैसा है। बात ठीक है, यहाँ तक अर्थ सिद्धान्त सही है। लेकिन जो बिना पैसे का है, जब कभी पैसा मिलता है, तो ये मानना चाहिए कि अर्थ सिद्धान्त जिसके लिए पैसे का निर्माण किया गया था, उन सिद्धान्तों को ही काट दिया गया। जुआ खेलना, लॉटरी लगाना, सट्टा खेलना ये हराम की कमाई है। उसको नहीं किया जाना चाहिए।            

🔵 इसी प्रकार के अपने सामाजिक पाप अपने हिन्दू समाज में न जाने कहाँ से कहाँ भरे पड़े हैं। अपने समाज में अन्धविश्वासों का बोलबाला है। इसमें से सामाजिक कुरीतियों में आपने देखा होगा, वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप। जन्म से आदमी ब्राह्मण और जन्म से आदमी शूद्र। ये क्या जन्म से क्यों? कर्म से क्यों नहीं? कर्म से आदमी ब्राह्मण होना चाहिए, कर्म से शूद्र होना चाहिए। लेकिन लोग जन्म से मानने लगे हैं। ये कैसी ये अंधविश्वास की बात है? और कैसी अंधविश्वास की बात है कि स्त्रियों के ऊपर ऐसे बंधन लगाये जाते हैं, उनको पर्दे में रहना चाहिए।  

🔴 पुरुषों को क्यों पर्दे में नहीं रहना चाहिये? नहीं, स्त्रियों के सिर की रक्षा की जानी चाहिए। फिर पुरुषों के सिर की रक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिए?  पुरुषों के सिर की रक्षा की जानी चाहिये। उनको भी घूँघटों में बंद किया जाना चाहिए। उनको भी घर में बंद किया जाना चाहिए। कोई स्त्री देख लेगी, तो उसका सिर खराब हो जाएगा। स्त्री के ऊपर सिर की रक्षा, पुरुषों के ऊपर नहीं, बिलकुल वाहियात बात है। ऐसी बात है जिसमें अन्याय की गंध आती है। इसमें बेइंसाफी की गंध आती है, आदमी की संकीर्णता की गंध आती है।

🔵 अब अपने समाज में ब्याह- शादियों का जो गंदा रूप है, वह दुनिया में सबसे खराब और सबसे जलील किस्म का है। ब्याह करे और आदमी रुपया- पैसा फूँके और दहेज दे। क्या मतलब? जिस कन्या को पिता दे रहा है, उससे बड़ा अनुदान और क्या हो सकता है? नहीं साहब, उसके साथ कुछ और लाइए। क्यों लायें? बेटी हम दे रहे हैं, तुम लाओ। बेटे वाले को बेटी वालों के लिए पैसे लाने की बात हो, तो समझ में भी आती है; लेकिन बेटी वाला लड़की भी देगा, पैसा भी देगा और खुशामद भी करेगा। ये बिलकुल गलत तरीके का रिवाज है।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 80)

🌹 उपासना का सही स्वरूप

🔴  भूल यह होती रही है कि जो पक्ष इनमें सबसे गौण है, उसे ‘‘पूजा पाठ’’  की उपासना मान लिया गया और उतने पर ही आदि अंत कर लिया गया। पूजा का अर्थ है हाथों तथा वस्तुओं द्वारा की गई मनुहार, दिए गए छुट-पुट उपचार, उपहार, पाठ का अर्थ है-प्रशंसा परक ऐसे गुणगान जिसमें अत्युक्तियाँ ही भरी पड़ी हैं। समझा जाता है कि ईश्वर या देवता कोई बहुत छोटे स्तर के हैं, उन्हें प्रसाद, नेवैद्य, नारियल, इलायची जैसी वस्तुएँ कभी मिलती नहीं। पाएँगे तो फूलकर कुप्पा हो जाएँगे। जागीरदारों की तरह प्रशंसा सुनकर चारणों को निहाल कर देने की उनकी आदत है।   

🔵 ऐसी मान्यता बनाने वाले देवताओं के स्तर एवं बड़प्पन के सम्बन्ध में बेखबर होते हैं और बच्चों जैसा नासमझ समझते हैं, जिन्हें इन्हीं खिलवाड़ों से  फुसलाया-बरगलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी करने के लिए उन्हें लुभाया जा सकता है। भले ही वे उचित हों अथवा अनुचित। न्याय संगत हों या अन्याय पूर्ण। आम आदमी इसी भ्रान्ति का शिकार है। तथाकथित भक्तजनों में से कुछ सम्पदा पाने या सफलता माँगते हैं, कुछ स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि की फिराक में रहते हैं। कइयों पर ईश्वर दर्शन का भूत चढ़ा रहता है। माला घुमाने और अगरबत्ती जलाने वालों में से अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है।  

🔴 मोटे अर्थों में उपासना उतने तक सीमित समझी जाती है। जो इस विडम्बना में से जितना अंश पूरा कर लेते हैं, वे अपने को भक्तजन समझने का नखरा करते हैं और बदले में भगवान ने उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं की, तो हजार गुना गालियाँ सुनाते हैं। कई इससे भी सस्ता नुस्खा ढूँढते हैं। वे प्रतिमाओं की, संतों की दर्शन झाँकी करने भर से ही यह मानने लगते हैं कि इस अहसान के बदले ये लोग झक मारकर अपना मनोरथ पूरा करेंगे।

🔵 बुद्धिहीन स्तर की कितनी ही मान्यताएँ समाज में प्रचलित हैं। लोग उन पर विश्वास भी करते हैं और अपनाते भी हैं। उन्हीं में से एक यह भी है कि आत्मिक क्षेत्र की उपलब्धियों के लिए दर्शन-झाँकी या पूजा-पाठ जैसा नुस्खा अपना लेने भर से काम चल जाना चाहिए, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। यदि ऐसा होता तो मन्दिरों वाली भीड़ और पूजा-पाठ वाली मंडली अब तक कब की आसमान के तारे तोड़ लाने में सफल हो गई होती।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 81)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बन्धन काटकर जिसने सृष्टि को सुरक्षित और शोभायमान बनाने की ठानी, उनकी श्रद्धा ही धरती को धन्य बनाती रही। जिनके पुण्य प्रयास लोक- मंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही, इन नर नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्य फल पाया जाय। इच्छा होती रही, इनकी चरणरज मस्तक पर रखकर अपने को धन्य बनाया जाय। जिनने आत्मा को परमात्मा बना लिया- उन पुरूषोत्तमों में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा, अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते विचरते दीख पड़ते हैं।           

🔵 अपने चारों ओर इतना पुण्य परमार्थ विद्यमान दिखाई  पड़ते रहना बहुत कुछ सन्तोष देता रहा और यहाँ अनन्त काल तक रहने के लिए मन करता रहा। इन पुण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग, मुक्ति आदि का सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है। इस सच्चाई को अनुभवों ने हस्तामलकवत् स्वयं सिद्ध करके सामने रख दिया और कठिनाइयों से भरे जीवन क्रम के बीच इसी विश्व सौन्दर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका।

🔴 आत्मवत सर्व भूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकाकी न रही। उसका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा रहा। संसार में दु:ख कम नहीं। कष्ट और क्लेश- शोक और सन्तोष- अभाव और दारिद्र्य से अगणित व्यक्ति- नारकीय यातनाएँ भोग रहे हैं। समस्याएँ, चिन्ताएँ और उलझनें लोगों को खाये जा रही हैं। अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिलाना पड़ रहा है। दुर्बुद्धि ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है। अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चिल्लाते, चीत्कार करते लोगों की यातनाएँ ऐसी हैं जिससे देखने वालों को रोमांच हो जाता है, फिर जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका तो कहना ही क्या? 

🔵 सुख सुविधाओं की साधन सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दु:ख और दैन्य के अतिरिक्त कहीं कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे, प्रगति और समृद्धि की सम्भावना प्रस्तुत कर सकते थे, पर किया क्या जाये। जब मनोभूमि विकृत हो गयी, सब उल्टा सोचा और अनुचित किया जाने लगा, तो विष वृक्ष बोकर अमृत फल पाने की आशा कैसे सफल  होती ?  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...