बुधवार, 19 अप्रैल 2017

👉 देवशिशु ने जगायी सद् बुद्धि

🔵 यह घटना १९९० की है, जब मैं परम वन्दनीया माताजी से दीक्षा लेकर पहली बार नवरात्रि अनुष्ठान में था। इससे पहले कि मैं घटना का जिक्र करूँ, यह बता दूँ कि मेरे यहाँ बिना मांसाहार या मछली के भोजन नहीं बनता था। गायत्री दीक्षा लेने एवं नवरात्रि में अनुष्ठान करने के कारण मैंने मांस- मछली खाना बंद कर दिया। मैं एक बार दाल रोटी चटनी और शाम को फलाहार लेने लगा। इसके चलते परिवार के सभी सदस्य, माता- पिता भाई, मेरी अर्द्धांगिनी को छोड़ कर सभी, मुझसे नाराज रहने लगे और बातचीत बंद कर दी।

🔴 नवरात्रि के अंतिम दिन की बात है। मेरा पाँच वर्ष का भतीजा अमित अचानक किसी कारण से डर गया। वह बुरी तरह रोने- चिल्लाने लगा। जो भी उसे गोद में उठाने जाता, वह छिटककर उससे दूर जा खड़ा होता और आँखें फाड़कर उसकी ओर देखने लगता। दादा- दादी, माता- पिता सभी परेशान हो गए। बच्चा जोर- जोर से चिल्ला रहा था- तुम लोगों के इतने बड़े- बड़े दाँत हैं, तुम लोग मुझे खा जाओगे, मैं तुम्हारे पास नहीं आऊँगा। सभी हतप्रभ थे, कुछ समझ नहीं पा रहे थे। मैं जप में बैठा था। करीब आधे घण्टे से यह सिलसिला चल रहा था। आखिर में थक- हारकर सब लोग मुझे पुकारने लगे- शंकर देखो न मुन्ने को क्या हो गया है। हम लोगों से डर रहा है। कहता है हमारे सिर पर सींग है, हमारे बड़े- बड़े दाँत हैं, हम उसे खा जाएँगे।

🔵 सभी लोगों का ध्यान दूसरी ओर देख बच्चा चुपचाप जाकर एक मेज के नीचे दुबककर बैठ गया। उसकी आँखों में आँसू भरे थे। बच्चे को क्या कष्ट है यही अज्ञात था। मैंने सोचा सबसे पहले उसका भय दूर करना चाहिए। मैंने आँखें बंद कर गायत्री का ध्यान किया। एक हल्की सी आवाज सुनाई पड़ी- आचमनी का जल बच्चे को पिला। मैं आचमनी का जल लेकर उसके पास गया। मुझे पास देखकर बच्चा जल्दी से आकर मुझसे चिपक गया। गोद में उठाकर दुलारा तो देखा उसके मुख पर एक पूरी आश्वस्ति का भाव था। वह मेरे पास आकर अपने- आपको सुरक्षित महसूस कर रहा था।

🔴 ध्यान में मिले निर्देश के अनुसार मैंने आचमनी का जल पिलाया। बच्चा गोद में ही सो गया। इस घटना के बाद मेरे प्रति परिवार का मनोभाव बदल गया। फिर उन्होंने भी माँसाहार त्याग दिया और दीक्षा लेकर गायत्री परिवार से जुड़ गए।           

🔵 माँसाहार आसुरी प्रवृत्ति है यह मैंने पुस्तकों में तो पढ़ा था, पर सरल स्वभाव शिशु के स्वच्छ हृदय में यह बात इस प्रकार मूर्त्त रूप में प्रकट हुई कि मेरे परिवार का वातावरण ही बदल दिया। इसे मैं गायत्री उपासना का ही प्रतिफल मानता हूँ।                     
  
🌹 जयशंकर रावत आसनसोल (प.बंगाल)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 85)

🌹 जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

🔴 तीसरा पक्ष अहंता का है। शेखीखोरी, बड़प्पन, ठाट-बाट, सजधज, फैशन आदि में लोग ढेरों समय और धन खर्च करते हैं। निजी जीवन तथा परिवार में नम्रता और सादगी का ऐसा ब्राह्मणोचित माहौल बनाए रखा गया कि अहंकार के प्रदर्शन की कोई गुंजायश नहीं थी। हाथ से घरेलू काम करने की आदत अपनाई गई। माताजी ने मुद्दतों हाथ से चक्की पीसी है। घर का तथा अतिथियों का भोजन तो वे मुद्दतों बनाती रही हैं। घरेलू नौकर की आवश्यकता तो तब पड़ी जब बाहरी कामों का असाधारण विस्तार होने लगा और उनमें व्यस्त रहने के कारण माताजी का उसमें समय दे सकना सम्भव नहीं रह गया।

🔵 यह अनुमान गलत निकला कि ठाट-बाट से रहने वालों को बड़ा आदमी समझा जाता है और गरीबी से गुजारा करने वाले उद्विग्न, अभागे, पिछड़े पाए जाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यह बात कभी लागू नहीं हुई। आलस्य और अयोग्यतावश गरीबी अपनाई गई होती, तो अवश्य वैसा होता, पर स्तर उपार्जन योग्य होते हुए भी यदि सादगी का हर पक्ष स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया है, तो उसमें सिद्धांतों का परिपालन ही लक्षित होता है।

🔴 जो भी अतिथि आए, जिन भी मित्र सम्बन्धियों को रहन-सहन का पता चलता रहा, उनमें से किसी ने भी इसे दरिद्रता नहीं कहा, वरन् ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह ही माना। मिर्च न खाने, खड़ाऊ पहनने जैसे एकाध नियम सादगी के नाम पर अपनाकर लोग सात्त्विकता का विज्ञापन भर करते हैं। वस्तुतः आध्यात्मिकता निभती है सर्वतोमुखी संयम और अनुशासन से। उसमें समग्र जीवनचर्या को ब्राह्मण जैसी बनाना एवं अभ्यास में उतारने के लिए सहमत करना होता है। यह लंबे समय की और क्रमिक साधना है। हमने इसके लिए अपने को साधा और जो भी अपने साथ जुड़े रहे उन्हें यथा सम्भव सधाया।

🔵 संचित कुसंस्कारों का दौर हर किसी पर चढ़ता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर अपनी उपस्थिति देते रहे, पर उन्हें उभरते ही दबोच लिया गया। बेखबर रहने, दर-गुजर करने से ही वे पनपते और कब्जा जमाने में सफल होते। वैसा अवसर जब-जब आया उन्हें खदेड़ दिया गया। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों पर ध्यान रखा गया कि इसमें साधक के अनुसार सात्विकता का समावेश है या नहीं। संतोष की बात है कि इस आंतरिक महाभारत को जीवन भर लड़ते रहने के कारण अब चलते समय अपने को विजयी घोषित कर सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (अन्तिम भाग)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 हमारी उपासना और साधना साथ- साथ मिलकर चली हैं। परमात्मा को हमने इसलिए पुकारा कि वह प्रकाश बनकर आत्मा में प्रवेश करे और तुच्छता को महानता में बदल दे। उसकी शरण में इसलिए पहुँचे कि उस महत्ता में अपनी क्षुद्रता विलीन हो जाये, वरदान केवल यह माँगा कि हमें अपनी सहृदयता और विशालता मिले, जिसके अनुसार अपने में सबको और सबमें अपने को अनुभव किया जा सकना सम्भव हो सके। १४ महा पुरश्चरणों का तप, ध्यान, संयम सभी इसी परिधि के इर्द- गिर्द घूमते रहे हैं।           

🔵 अपनी साधनात्मक अनुभूतियों और उस मंजिल पर चलते हुए, समक्ष आये उतार- चढ़ावों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि यदि किसी को आत्मिक प्रगति की दिशा में चलने का प्रयत्न करना हो, तो वर्तमान परिस्थितियों में रहने वालों के लिए यह सब कैसे सम्भव हो सका है? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ढूँढ़ना हो, तो हमारी जीवन यात्रा बहुत मार्गदर्शन कर सकती है। वस्तुत: हमने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए आन्तरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है और उसमें बिना भटके कैसे सफलता पाई जा सकती है, हम ऐसे तथ्य की खोज करते हैं और उसी के प्रयोग में अपनी चिन्तन प्रक्रिया और शारीरिक गतिविधियाँ केन्द्रित करते रहे हैं। हमारे मार्गदर्शक का इस दिशा में पूरा- पूरा सहयोग रहा, सो अनावश्यक जाल- जंजालों में उलझे बिना सीधे रास्ते पर सही दिशा में चलते रहने की सरसता उपलब्ध होती रही है। उसी की चर्चा इन पंक्तियों में इस उद्देश्य से कर रहे हैं कि जिन्हें मार्ग पर चलने और सुनिश्चित सफलता प्राप्त करने का प्रत्यक्ष उदाहरण ढूँढने की आवश्यकता है उन्हें अनुकरण के लिए प्रमाणित आधार मिल सके।

🔴 आत्मिक प्रगति के पथ पर एक सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध योजना के अनुसार चलते हुए 'हमने एक सीमा तक अपनी मंजिल पूरी कर ली हें और उतना आधार प्राप्त कर लिया है जिसके बल पर यह अनुभव किया जा सके कि परिश्रम निरर्थक नहीं गया, प्रयोग असफल नहीं रहा । क्या विभूतियाँ या उपलब्धियाँ प्राप्त हुई इसकी चर्चा हमारे मुँह शोभा नहीं देती। इसके जानने- सुनने और खोजने का अवसर हमारे चले जाने के बाद ही आना चाहिए। उसके इतने अधिक धक प्रमाण बिखरे पड़े मिलेंगे कि किसी अविश्वासी को भी यह विश्वास करने के लिए विवश किया जा सकेगा, कि न तो आत्म विद्या का विज्ञान गलत है और न उस मार्ग पर सही ढंग से चलने वाले के लिए आशाजनक सफलता प्राप्त करने में कोई कठिनाई है। इस मार्ग पर चलने वाले आत्म शान्ति आन्तरिक और दिव्य अनुभूति की परिधि में घूमने वाली अगणित उपलब्धियों से कैसे लाभान्वित हो सकते है? इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ढूँढ़ने के लिए भावी शोधकर्ताओं को हमारी जीवन- प्रक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। समयानुसार ऐसे शोधकर्ता उन विशेषताओं और विभूतियों के अगणित प्रमाण- प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं ढूँढ़ निकालेंगे जो आत्मवादी- प्रभु जीवन मे हमारी तरह हर किसी को उपलब्ध हो सकना सम्भव है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 12)

🌹 समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा

🔴 काम न करने का तथा किसी व्यवसाय में अभिरुचि न होने का कारण यह है कि एक सी स्थिति में रहते हुए मनुष्य को उकताहट पैदा होती है। यह स्वाभाविक भी है। मनोरंजन की आवश्यकता सभी को होती है। सन्त-महात्मा भी प्रकृति-दर्शन और तीर्थ यात्रा आदि के रूप में मनोरंजन प्राप्त किया करते हैं। यह उकताहट यदि सम्हाली न जाय तो किसी व्यसन के रूप में ही फूटती है। व्यसन की शुरुआत खाली समय में कुसंगति के कारण ही होती है।

🔵 आज-कल इस प्रकार के साधनों की किसी प्रकार की कमी नहीं है। निरुत्साह और मानसिक थकावट दूर करने के लिये विविध मनोरंजन के साधन आज बहुत बढ़ गये हैं किन्तु समय के सदुपयोग और जीवन की सार्थकता की दृष्टि से, इनमें से उपयोगी बहुत कम ही दिखाई देते हैं। अधिकांश तो धन-साध्य और मनुष्य का नैतिक पतन करने वाले ही हैं। इसलिए यह भी आवश्यक हो गया है कि जब कुछ समय श्रम से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए निकालें तो यह भली-भांति विचार करलें कि यह जो समय उक्त कार्य में लगाने जा रहे हैं उसका आध्यात्मिक उत्थान और आत्म-विकास के लिये क्या सदुपयोग हो रहा है? मनोरंजन केवल प्रसुप्त वासना की पूर्ति के लिये न हो वरन् उसमें भी आत्म-कल्याण की भावना सन्निहित बनी रहे तो उस समय का उपयोग सार्थक माना जा सकता है।

🔴 फुरसत और खाली समय का उपयोग अच्छे-बुरे किसी भी काम में हो सकता है। नई-नई विद्या, कला, लेखन, शास्त्रार्थ के द्वारा नई सूझ और आध्यात्मिक बुद्धि जागृत होती है। इससे अपना व समाज दोनों का ही कल्याण होता है। सत्कर्म में लगाये हुए समय से मनुष्य का जीवन सुखी, समुन्नत तथा उदात्त बनता है। जापान की उन्नति का प्रमुख कारण फुरसत के समय का सदुपयोग ही है। वहां सरकारी काम के घण्टों के बाद का समय लोग कुटीर उद्योगों में लगाते हैं, छोटे-छोटे खिलौने, घड़ियां आदि बनाते हैं, इससे वहां की राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ी है, लोगों की जीवन सुखी हुआ है और नैतिक सदाचार का प्रसार हुआ है। खाली समय का उपयोग जिस प्रकार के कार्यों में करेंगे वैसी ही उन्नति अवश्य होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (अंतिम भाग)

🌹 इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता

🔵 इतने पर भी एक कठिनाई फिर भी ज्यों-की-त्यों रह जाती है कि अंत:करण की गहराई तक प्रवेश करके उन्हें क्रियान्वित होते देखने की आशा-संभावना तभी पूरी होती है, जब उस हेतु प्रखर प्रतिभाएँ निखरकर, आगे बढ़कर आएँ और मोर्चा सँभालें। यह कार्य घटिया लोगों का नहीं है, उनकी कृतियाँ उपहासास्पद बनती हैं। दूरवर्ती अनजान लोग किसी की वाचालता पर सहज विश्वास नहीं करते और जो मन, वचन, कर्म से आदर्शों के प्रति समर्पित हों, ऐसे लोग ढूँढ़े नहीं मिलते। इस विसंगति के कारण लोकमानस में अभीष्ट परिवर्तन बन नहीं पड़ता और अनेक विडम्बनाओं की तरह धर्मोपदेश भी मनोरंजन का एक निमित्त कारण बनकर रह जाता है।      

🔴 कठिनाई यही दूर करनी है। स्रष्टा का अवतरण इन्हीं दिनों इस प्रकार होना है, जिसमें भावनाशील लोग अपनी कुत्सा-कुंठाओं पर विजय प्राप्त करें। ब्राह्मणोचित जीवन अंगीकार करें और अपना समग्र व्यक्तित्व इस स्तर का ढालें, जिसके प्रभावक्षेत्र में आने वाले सभी लोग यह विश्वास कर सकें कि उत्कृष्टता की पक्षधर आदर्शवादिता, कार्यरूप में अपनाई जा सकती है और उसमें हानि-ही-हानि सहनी पड़े, ऐसी बात नहीं है। आर्थिक दृष्टि से सुविधा-साधनों में कुछ कमी हो सकती है, पर उसके बदले जो आत्मसंतोष, लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह उपलब्ध होता है, वह इतने कम महत्त्व का नहीं है, जिसे संकीर्ण स्वार्थपरता के बंधनों में बँधे, रोते-कलपते जीवन की तुलना में किसी भी प्रकार कम महत्त्व का माना जा सके।                          

🔵 इन दिनों यही होना चाहिए, संभवत: होने भी वाला है। भाव-संवेदना मात्र कल्पना-जल्पना के क्षेत्र तक सीमित न रहे वरन् कार्यक्षेत्र में उतरे और अपनी सामर्थ्य के अनुरूप प्रचार-प्रयोजनों में से उन्हें अपनाएँ, जो उसके लिए संभव और स्वाभाविक हैं।

🔴 ऐसे परामर्श हर परिष्कृत अंत:करण में दैवी प्रेरणा से अनायास ही अवतरित हो रहे हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें हृदयंगम करने और कार्यरूप में परिणत करने भर की है।

👉 प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 19 April 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 April 2017

👉 शान्तिकुञ्ज - प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष

🔵 कल्पवृक्ष का अस्तित्व स्वर्गलोक में माना जाता है और कहा जाता है कि उसकी अमुक विधि से पूजा-प्रार्थना करने पर अभीष्ट मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इस अदृश्य एवं रहस्यमय प्रतिपादन में सन्देह करने की गुंजाइश है।

🔴 किन्तु भूलोक के इस कल्पवृक्ष का अनुभव हर कोई कर सकता है, जिसे शान्तिकुञ्ज कहते हैं। परम पूच्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी ने इसे रोपा, अपनी सम्मिलित तपशक्ति से खाद-पानी देकर इसे बड़ा किया। ४७ वर्षों में अब यह इतना बड़ा हो गया है कि समस्त विश्व को इसके शीतल समीर का अहसास होने लगा है। यह अद्भुत, अनुपम और असाधारण है। यह दिव्य भी है और महान भी। इसके अन्तराल में सम्भावनाओं और सिद्धियों के भण्डार भरे पड़े हैं। जरूरत इसकी छाया में बसने और उन्हें उठाने की है।

🔵 पूज्य गुरुदेव के शब्दों में इसी कल्पवृक्ष पर भगवान् महाकाल का घोंसला है। यही युगान्तरीय चेतना का हेडक्वार्टर है। विश्व के नवनिर्माण में लगी समस्त सूक्ष्म-शक्तियों के अभियान का केन्द्रीय कार्यालय यही है। हिमालय के दिव्यक्षेत्र में बसने वाली ऋषिसत्ताएँ सूक्ष्म-रूप से यहाँ विचरण करती हैं। यहाँ आने वाले लोगों के हृदयों में उज्ज्वल प्रेरणाओं का संचार करती हैं। दिव्य देहधारी देवसत्ताएँ यहाँ आने वाले आर्त, कष्टपीड़ित जनों की पीड़ा निवारण कर उनकी मनोकामनाओं को पूरा करती हैं।

🔴 यह देवभूमि सबसे प्रत्यक्ष, सबसे निकट और सबसे वरदायी देवता हैं। यहाँ के कण-कण में व्याप्त प्रकाश ऋषियुग्म का तप प्राण काले, कुरूप और अनगढ़ लोहे जैसे व्यक्तित्व को खरे सोने में बदल देता है। जीवन की दशा और दिशा आमूल-चूल बदल जाती है। उनके आशीर्वाद का अमृत सिंचन जीवन में नवप्राण भरता है, नयी ऊर्जा का संचार करता है।

🔵 कहा जाता है कि कल्पवृक्ष से भी कुछ प्राप्त करने का एक निश्चित विधि-विधान है। शान्तिकुञ्ज भी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है। इससे वह सब कुछ उपलब्ध हो सकता है, जो कल्पवृक्ष से अभीष्ट है। शर्त एक ही है कि अभीष्ट की प्राप्ति के लिए यहाँ रहकर साधनात्मक दिनचर्या अपनाई जाय। इसकी छाया में रहकर साधना परायण जीवन जीने वालों की झोली मनचाहे अनुदानों-वरदानों से भरपूर हुए बिना नहीं रहती।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 33
 
 
 

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...