शुक्रवार, 5 मई 2017

👉 जीवन दान मिला

🔵  दिनांक 2 दिसम्बर 2000 को मैं बीमार पड़ा। टाटा मेन अस्पताल में मुझे उपचार हेतु भर्ती किया गया। लगभग बारह दिनों तक इलाज चला किन्तु हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ता चली गई। मेरे पुत्र सुनील कुमार ने टाटा मेन अस्पताल के डॉक्टरों से लड़- झगड़ कर मेरी छुट्टी करा ली। 14 दिसम्बर को टाटा के एक प्रसिद्ध डॉक्टर ए.के.दत्ता को दिखाया। डॉक्टर दत्ता ने खून और पेशाब की जाँच कराने के बाद बताया कि मेरी जिन्दगी मात्र सात दिनों की है। मेरी किडनी बिल्कुल खराब हो गयी है। मुझे तुरन्त वैलूर ले जाना होगा। मेरा लड़का घबरा गया। वैलूर का रेलवे टिकट बनवाया परन्तु बर्थ नहीं मिली। वह घबरा कर गायत्री शक्तिपीठ टाटानगर गया। वहाँ श्री कमल देव भगत को सारी बातें बताई। कमलदेव भगत जी के अथक प्रयास से किसी तरह दो बर्थ मिलीं।

🔴 गायत्री परिवार के अनेक परिजनों को मेरी बीमारी की जानकारी श्री भगत जी द्वारा मिल गई थी। अगले दिन वैलूर जाने की गाड़ी शाम को 2:40 मिनट में थी। लगभग ग्यारह बजे दिन में कमलदेव भगत जी, परिव्राजक श्री मुन्ना पाण्डे के साथ मेरे निवास स्थान पर आए और मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा कि शायद मेरे जीवन का यह अंतिम समय है; अतः मैं अपने- आपको पूज्य गुरुदेव को दान दे दूँ। पहले तो मैं समझा नहीं। फिर कमलदेव बाबू ने बताया कि अगर गुरुदेव आप से युग निर्माण का काम लेना चाहें तो वे आप को जीवनदान दे सकते हैं। चूँकि जीवन का वह समय गुरुदेव का अनुदान होगा, इसलिए वह समय आप सिर्फ युग निर्माण के कार्य में लगाएँगे। मैं उनकी बात से सहमत हो गया। तब परिव्राजक मुन्ना पांडे जी ने मुझे जीवन अर्पण का संकल्प कराया। मेरी हालत काफी बिगड़ चुकी थी। पेट में हमेशा भयंकर दर्द रहता था और उल्टी होती थी। एक महीने में मैंने अन्न का एक दाना नहीं खाया था। अपने से करवट बदलने की भी शक्ति शरीर में नहीं थी।

🔵 निश्चित समय पर हम लोग रेलवे स्टेशन पहुँचे। स्टेशन पर गायत्री परिवार के सैकड़ों परिजन मुझे विदाई देने आए थे। स्टेशन पहुँचने तक मेरे पेट का दर्द आधा हो गया। मुख्य ट्रस्टी श्री दौलत राम चाचरा और ट्रस्टी श्री इन्दु भूषण झा जी मुझे सहारा देकर रेलगाड़ी के डिब्बे तक ले आए। पता नहीं मुझमें कहाँ से शक्ति आ गई कि मैं पैदल चल सका। श्री चाचरा साहब बार- बार मुझे हिम्मत देते रहे और कहते रहे कि आप पूज्य गुरुदेव पर विश्वास रखें और हिम्मत नहीं हारें। आप अवश्य ही गुरुदेव के आशीर्वाद से स्वस्थ होकर लौटेंगे तथा पुनः शक्तिपीठ में समय देंगे। ट्रेन में बैठते ही उल्टी बन्द हो गए।

🔴 18 तारीख को सायं पाँच बजे मुझे वैलूर अस्पताल के नेफरो वार्ड में भर्ती करा दिया गया। मेरी हालत देखकर वैलूर के डॉक्टर भी गंभीर हो गए। लगातार सात दिनों तक तरह- तरह की जाँच होती रही। इस बीच मुझे कोई दवा नहीं दी गए। सिर्फ भोजन की कमी को दूर करने के लिए एक सुई दी गई। नौवें दिन २६ तारीख को मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई और मैं लाज में आ गया। लगभग पाँच दिनों के बाद डॉक्टर से मिलने और अंतिम रिपोर्ट प्राप्त करने का समय निश्चित हुआ। मेरी पत्नी श्रीमती सरोजिनी देवी मेरे साथ रहती थी। वह नित्य ब्रह्ममुहूर्त में होटल की छत पर जाकर चौबीस माला गायत्री महामंत्र का जप करती थी।

🔵  जिस दिन रिपोर्ट मिलने वाली थी, उस दिन मेरी पत्नी जप उपासना कर मेरे पास आई तो बड़ी प्रसन्न दिखाई पड़ी। प्रसन्नता का कारण पूछा तो कहने लगी- आज उपासना के समय पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माता जी आए थे, उन्होंने ध्यान में दर्शन दिए। अचानक मेरे मुँह से निकल गया कि आज अंतिम रिपोर्ट मिलने वाली है। अतः ऋषियुग्म हम दोनों को आशीर्वाद देने आए थे। रिपोर्ट अवश्य ही अच्छी होगी। गुरुदेव का स्मरण कर हम दोनों की आँखें डबडबा गईं। दोपहर तीन बजे जब हम लोग डॉक्टर से मिलने गए तो मुझे देख कर डॉक्टर मुस्कुरा दिए। डॉक्टर के मुख से पहला वाक्य निकला मिस्टर भगत यु आर लक्की। आपकी किडनी बिलकुल ठीक है। आपको कोई बड़ी बीमारी नहीं है। सिर्फ पुराना इन्फेक्शन है। कुछ दिनों के इलाज से ठीक हो जाएगा। आज भी मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ। गायत्री शक्तिपीठ टाटानगर के साहित्य केन्द्र में नियमित समय देता हूँ।
  
🌹 कामिनी मोहन भगत जमशेदपुर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/ls

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 94)

🌹 तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण

🔴 ‘‘गायत्री के मंत्र द्रष्टा विश्वामित्र थे। उन्होंने सप्त सरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी, वही स्थान तुम्हारे लिए भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलतापूर्वक मिल जाएगा। उसका नाम शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना जिन्हें पुरातन काल के ऋषिगण स्थूल शरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्म शरीर में हैं इसलिए अभीष्ट प्रयोजनों के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। हमें भी तो ऐसी आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूल शरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर सम्पर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परम्पराओं का नए सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी, किंतु साथ ही एक अतिरिक्त लाभ भी है कि हमारा ही नहीं, उन सबका भी संरक्षण और अनुदान तुम्हें मिलता रहेगा। इसलिए कोई कार्य रुकेगा नहीं।’’

🔵  जिन ऋषियों के छोड़े कार्य को हमें आगे बढ़ाना था, उनका संक्षिप्त विवरण बताते हुए उन्होंने कहा-विश्वामित्र परम्परा में गायत्री महामंत्र की शक्ति से जन-जन को अवगत कराना एवं एक सिद्ध पीठ-गायत्री तीर्थ का निर्माण करना है। व्यास परम्परा में आर्ष साहित्य के अलावा अन्यान्य पक्षों पर साहित्य सृजन एवं प्रज्ञा पुराण के १८ खण्डों को लिखने का, पतंजलि परम्परा में-योग साधना के तत्त्वज्ञान के विस्तार का, परशुराम परम्परा में अनीति उन्मूलन हेतु जन-मानस के परिष्कार के वातावरण निर्माण का तथा भागीरथी परम्परा में ज्ञान गंगा को जन-जन  तक पहुँचाने का दायित्व सौंपा गया। 

🔴 चरक परम्परा में वनौषधि पुनर्जीवन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान, याज्ञवल्क्य परम्परा में यज्ञ से मनोविकारों के शमन द्वारा समग्र चिकित्सा पद्धति का निर्धारण, जमदग्नि परम्परा में साधना आरण्यक का निर्माण एवं संस्कारों का बीजारोपण, नारद परम्परा में सत्परामर्श-परिव्रज्या के माध्यम से धर्म चेतना का विस्तार, आर्यभट्ट परम्परा में धर्मतंत्र के माध्यम से राजतंत्र का मार्गदर्शन, शंकराचार्य परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण का, पिप्पलाद परम्परा में आहार-कल्प के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं सूत-शौनिक परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा योजनों द्वारा लोक शिक्षण की रूपरेखा के सूत्र हमें बताए गए। अथर्ववेदीय विज्ञान परम्परा में कणाद ऋषि प्रणीत वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति के आधार पर ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की रूपरेखा बनी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/3

👉 सत्य की अकूत शक्ति पर विश्वास कीजिए

🔴 जो अपनी आत्मा के आगे सच्चा हैं, जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार आचरण करता है, जो बनावट, धोखेबाजी, चालाकी को तिलांजलि देकर ईमानदारी को अपनी जीवन नीति बनाए हुए है, वह इस दुनिया का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति है। सत्य को अपनाने से मनुष्य शक्ति का पुंज बन जाता है। महात्मा कनफ्यूशियस कहा करते थे कि सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल हैं, परंतु वस्तुत: सत्य में अपार बल है। उसकी समता भौतिक सृष्टि से किसी भी बल से नहीं हो सकती।

🔵 स्मरण रखिए, झूठ आखिर झूठ ही है। वह आज नहीं तो कल जरूर खुल जाएगा। असत्य का जब भंडाफोड़ होता है, तो उससे मनुष्य की सारी प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। उसे अविश्वासी टुच्चा और ओछा आदमी समझा जाने लगता है। झूठ बोलने में तात्कालिक थोड़ा लाभ दिखाई पड़े तो भी आप उसकी ओर ललचाइए मत, क्योंकि उस थोड़े लाभ के बदले में अंतत: अनेक गुनी हानि होने की संभावना है।

🔴 आप अपने वचन और कार्यों द्वारा सच्चाई का परिचय दीजिए। सत्य उस चीज के समान है जो आज छोटा दीखता है, पर अंत में फल-फूल कर विशाल वृक्ष बन जाता है। जो ऊँचा, प्रतिष्ठायुक्त और सुख-शांति का जीवन बिताने के इच्छुक हों, उनका दृढ़ निश्चय होना चाहिए कि हमारे वचन और कार्य सच्चाई से भरे हुए होंगे।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति-जुलाई 1947 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1947/July/v1.1

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 6 May 2017


👉 आज का सद्चिंतन 6 May 2017


👉 अंधविश्वास का पर्दाफाश

🔵 सिक्ख संप्रदाय के दसवें गुरु गोविंदसिंह एक महान् योद्धा होने के साथ बडे बुद्धिमान् व्यक्ति थे। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा बडी गहरी थी। वह धर्म के लिए ही जिए और धर्म के लिए ही मरे। धर्म के प्रति अडिग आस्थावान् होते हुए भी वे अंधविश्वासी जरा भी न थे और न अंधविश्वासियों को पसंद करते थे।

🔴 गुरु गोविंदसिंह का संगठन और शक्ति बढा़ने की चिता में रहते थे। उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंदसिंह के पास आया और बोला-यदि आप सिक्खो की शक्ति बढाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइए। यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिक्खों को शक्ति का वरदान दे देगी। गुरु गोविंदसिंह यज्ञ करने को तैयार हो गये। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।

🔵 कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नही हुइ तो उन्होंने पंडित से कहा-" महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई।'' धूर्त पंडित ने कहा-देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिये बलिदान चाहती है। यदि आप किसी पुरुष का वलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

🔴 देवी की प्रसन्नता के लिए नर बलि की बात सुनकर गुरु गोविंदसिंह उस पंडित की धूर्तता समझ गए। उन्होंने उस पडित को पकडकर कहा- 'बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा। आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जायेगी, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा। गुरु गोविंदसिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया, गुरु गोविंदसिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक रावटी में रख दिया।

🔵 पंडित घबराकर गुरु गोबिंदसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा-'मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पडेगी, गुरु जी, मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। गुरु गोविंदसिंह ने कहा क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं? अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।''

🔴 पंडित बोला- इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज। अब कभी ऐसी बातें नहीं करूँगा।'' गुरु गोविंदसिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया-इस प्रकार का अंध-विश्वास समाज में फैलाना ठीक नही। देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामो से। '' बाद में गुरु गोविंदसिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया। गोविदसिंह ने सिक्खों को समझाया। किसी देवी-देवता के नाम पर जीव हत्या करने से न तो पुण्य है और न शक्ति। धर्म के नाम पर किसी जीव का प्राण लेना घोर पाप है। शक्ति बढती आपस में प्रेम रखने से, धर्म का पालन करने से। शक्ति बढ़ती है-ईश्वर की उपासना करने से और उसके लिए त्याग-करने से। शक्ति बढ़ती है-अन्याय और अत्याचार का विरोध और निर्बल तथा असहायों की सहायता करने से। सभी लोग एक मति और एक गति होकर संगठित हो जाएँ और धर्म रक्षा में रणभूमि में अपने प्राणो की बलि दें। देवी इसी सार्थक बलिदान से प्रसन्न होगी और आज के इसी मार्ग से मुक्ति मिलेगी। अंध-विश्वास के आधार पर अपनी जान देने अथवा किसी दूसरे जीव की जान लेने से न तो देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और न सद्गति मिलती है।

🔵 गुरु गोविंदसिंह के इन सार वचनों को सभी सिक्खों ने हृदयगम किया। उस पर आचरण किया और अपने जीवन का कण-कण देश धर्म की रक्षा में लगाकर ऐतिहासिक यश प्राप्त किया।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 151, 152

👉 सत्कार्य के प्रति समर्पण

🔵 सत्कार्य के प्रति समर्पण ही तुम्हें धरती और धरती की आत्मा की रफ्तार के साथ चल सकने की सामर्थ्य देता है। निठल्ला होना तो मौसम की बहारों के लिए अजनबी बन जाना है और जीवन की उस शोभायात्रा से अलग-थलग हो जाना है, जो अनन्त को शानदार समर्पण करती हुई अपने समूचे ऐश्वर्य एवं आन-बान के साथ निकल रही है।

🔴 कार्य करते हुए तुम वह बाँसुरी बन जाते हो, जिसके हृदय से समय की साँस गुजरती है और संगीत में बदल जाती है। आखिर तुम में से कौन है, जो गूँगा और खामोश नरकुल बने रहना चाहेगा, उस वक्त, जब सारा संसार एक ही बाँसुरी के स्वरों में शामिल हो रहा है? तुमसे हमेशा कहा गया है कि कर्म एक अभिशाप है और श्रम है दुर्भाग्य। किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि जब तुम कर्म करते हो, तब तुम धरती के प्राचीनतम स्वप्न के एक अंश को पूरा करते हो, जिसका दायित्व तुम्हें तभी सौंपा गया था, जब वह स्वप्न जन्मा था।
  
🔵 सत्कर्म में डूबे रहना ही सही अर्थों में जिन्दगी से प्यार करते रहना है। जिन्दगी को कर्म के माध्यम से प्यार करना ही उसके अन्तरंग रहस्यों को बारीकी से जान लेना है, किन्तु यदि तुम अपने कष्टों से घबराकर यह कहने लगे कि तुम्हारा जन्म एक विपत्ति है और हाड़-मांस की बनी काया का पोषण करना तुम्हारे माथे पर लिखा हुआ अभिशाप है, तो मेरा उत्तर यही है कि तुम्हारे माथे के पसीने के अलावा और कुछ नहीं है, जो उस लिखे हुए अभिशाप को धो सके।

🔴 तुमसे यह भी कहा गया होगा कि जीवन अंधकारमय है। मैं भी कहता हूँ कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएँ अन्धी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म न हो। सारा कर्म खोखला है, यदि प्रभु-प्रेम न हो। जब तुम प्रभु-प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो, तब तुम विश्व-मानवता के लिए स्वयं को अर्पित करते हो, क्योंकि विश्वात्मा का साकार रूप ही तो यह विश्व है। प्रभु प्रेम से प्रेरित कर्म क्या होता है? यह अपने हृदय से खींचकर काते गए सूत से कपड़ा बुनना है, मानो स्वयं प्रभु ही पहनने वाले हों उसे। यह इतने प्यार से भवन निर्माण करना है, मानों सर्वेश्वर स्वयं ही रहने वाले हों वहाँ। यह इतनी कोमलता से बीज बोना और इतने आनन्दित होकर फलों का संचय करना है, मानो स्वयं प्रभु ही खाने वाले हों वे फल। यह अपने हाथों किए गए प्रत्येक कर्म को अपनी दिव्यता की ऊर्जा से भर देना है और ऐसा महसूस करना है, मनो समस्त निर्जीव सत्ताएँ तुम्हारे आस-पास खड़ी तुम्हारे कर्मों को निहार रही हों।

🔵 पवन जो संवाद शाह बलूत से करता है, वह उसकी अपेक्षा अधिक मीठा नहीं हो सकता, जो वह घास के तिनकों से करता है। केवल वही व्यक्ति महान् है जो अपने कर्म से पवन के स्वरों को एक गीत में बदल देता है और अपने भगवत्प्रेम से उस गीत की मिठास को प्रगाढ़ कर देता है। प्रभु प्रेम को दृष्टिगोचर बना देना ही सत्कर्म है।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 56

👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 22)

🌹 समय के सदुपयोग का महत्व समझिए

🔴 समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि वे अपने किसी भी कर्त्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिये कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायेगा जो निश्चय ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का कल पर और कल का परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायेगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। जिस स्थगनशील स्वभाव तथा दीर्घसूत्री मनोवृत्ति ने आज का काम आज नहीं करने दिया वह कल कब करने देयी ऐसा नहीं माना जा सकता। स्थगन-स्थगन को और क्रिया-क्रिया को प्रोत्साहित करती है यह प्रकृति का एक निश्चित नियम है।

🔵 बासी काम, बासी भोजन की तरह ही अरुचिकर हो जाया करता है। फिर न तो उसे करने की इच्छा होती है और करने पर सुचारू रूप से नहीं हो पाता। कल के काम का दबाव बासी काम को एक बेगार बना देगा जो रो-झींककर ही किया जा सकेगा। ऐसा होने से अभ्यास बिगड़ता है। और उनका विकृत प्रभाव कल के नये काम पर भी पड़ता है। इस प्रकार स्थगनशीलता कर्त्तव्यों में मनुष्य की रुचि तथा दक्षता को नष्ट कर देती है। इन दोनों विशेषताओं से रहित कर्त्तव्य परिश्रम का भरपूर मूल्य पाकर भी अपेक्षित पुरस्कार एवं परितोषक नहीं ला पाते।

🔴 जीवन में सफलता के लिए जहां परिश्रम एवं पुरुषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है वहां सामयिकता का सामंजस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। जिस वक्त को बरबाद कर दिया जाता है उस वक्त में किया जाने के लिए निर्धारित श्रम भी निष्क्रिय रहकर नष्ट हो जाता है। श्रम तभी सम्पत्ति बनता है जब वह वक्त से संयोजित कर दिया जाता है और वक्त तब ही सम्पदा के रूप में सम्पन्नता एवं सफलता ला सकता है जब उसका श्रम के साथ सदुपयोग किया जाता है। समय का सदुपयोग करने वाले स्वभावतः परिश्रमी बन जाते हैं जब कि असामयिक परिश्रमी, आलसी की कोटि का ही व्यक्ति होता है वक्त का सदुपयोग ही वास्तविक श्रम है और वास्तविक श्रम अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का सम्वाहन पुरुषार्थ एवं परमार्थ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...