शुक्रवार, 19 मई 2017

👉 सिद्ध हुआ माँ का आशीर्वाद

🔵 वंदनीया माताजी के आशीर्वाद से ३ दिसम्बर १९९२ को मेरे छोटे भाई बैजनाथ की शादी कलकत्ता आवास पर निश्चित हुई। शादी की तैयारी बड़े जोर- शोर से चल रही थी। घर में हँसी- खुशी का माहौल था। विवाह के १८ दिन पहले १५ नवम्बर ९२ को सबसे छोटे भाई रामनाथ को चिरकुण्डा स्थित फैक्ट्री के अन्दर दिन में २ बजे किसी अज्ञात व्यक्ति ने गोली मार दी। गोली लगने के बावजूद रामनाथ स्वयं पेट में गमछा बाँधकर स्कूटर चलाकर १ किलोमीटर पर स्थित एक प्राइवेट नर्सिंग होम पहुँचे थे लेकिन वहाँ उपचार की समुचित सुविधा न होने पर भाइयों द्वारा उन्हें अस्पताल धनबाद ले जाया गया। माताजी गुरुदेव की कृपा थी, जिसके कारण रविवार अवकाश होने पर भी सभी डॉक्टर अस्पताल में मौजूद थे। डॉक्टरों ने केस की गम्भीरता से हमारे पिताजी श्री राम प्रसाद जायसवाल को अवगत कराया तथा न बचने की बात कही।

🔴 डॉक्टर की बात सुनकर सभी लोग बहुत परेशान हो उठे। लेकिन मेरे पिताजी को वंदनीया माताजी के आशीर्वाद पर पूरा भरोसा था। इसलिए डॉक्टर से ऑपरेशन करने को कह दिया। डॉक्टरों ने ऑपरेशन शुरू किया। इधर हम सभी लोग बैठकर माताजी से प्रार्थना करने लगे। मन में बार- बार भाव उठता, कुछ भी हो जाए माताजी ने घर में मांगलिक कार्यक्रम के लिए आशीर्वाद दिया है तो अमंगल कैसे हो सकता है? हम सभी के मन में यही भाव थे कि माताजी अवश्य ही अपना आशीर्वाद फलीभूत करेंगी।

🔵 हम सभी बैठकर माताजी का ध्यान कर मन ही मन गायत्री मंत्र जप कर रहे थे। करीब ४ घंटे के अथक प्रयास के बाद गोली निकाली जा सकी। सभी डॉक्टर बहुत अचंभित थे। डॉक्टरों ने मेरे पिताजी को बधाई देते हुए कहा कि इस ऑपरेशन में किसी अदृश्य शक्ति का संरक्षण मिल रहा था। इतने दुरूह ऑपरेशन के लिए काफी अधिक दक्षता की जरूरत थी। डॉक्टर साहब ने कहा कि गोली पेट को चीरते हुए किडनी के रास्ते रीढ़ की हड्डी में जा घुसी थी, जिसे निकालना आसानी से संभव नहीं था, लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने उस काम को बहुत आसानी से सम्पन्न करा दिया। इसके पश्चात् शक्तिपीठ से वन्दनीया माताजी द्वारा अभिमंत्रित जल की एक बूँद मुँह में डालने के ठीक दो घंटे बाद रामनाथ को होश आ गया। गुरु कृपा से मात्र १८ दिन में ही सारे उपचार हो गए। विवाह में उसे देखकर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो लड़का विवाह की सारी व्यवस्था देख रहा है, उसे ही गोली लगी थी।
 
🔴 इस प्रकार माताजी के आशीर्वाद से घर में अमंगल भी मांगलिक कार्य में विघ्न नहीं डाल सका।
 
🌹 विश्वासनाथ प्रसाद जायसवाल चिरकुंडा, धनबाद (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/aad

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 105)

🌹  ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
🔵 अन्तरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात् लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह के काम चलाने से सन्तुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था, माता-पिता तो एक मांस पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे।

🔴 ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे। पर सन्तोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।

🔵 ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बच रहता है क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊंट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है। पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उंगली वाले दो हाथ- कमाने की हजार तरकीबें ढूंढ़ निकालने वाला मस्तिष्क- सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन- परिवार सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा।

🔴 फिर पेट की लम्बाई-चौड़ाई भी तो मात्र छः इन्च की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घण्टे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली ही खाली बचता है। जिनके अन्तराल में सन्त जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता, प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका सदुपयोग कहां किया जाय? कैसे किया जाय?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 May 2017


👉 आज का सद्चिंतन 20 May 2017


👉 कठिनाइयों से डरो मत, प्रयासरत रहो

🔵 यदि तुम कोई दोष सुधारना चाहते हो या कोई कठिनाई दूर करना चाहते हो, तो बस एक ही प्रक्रिया है-स्वयं को पूर्णतः चैतन्य बनाए रखो, पूर्णरूप से जाग्रत् रहो। सबसे पहले तुम्हें अपने लक्ष्य को साफ-साफ देखना होगा; परंतु इसके लिए अपने मन पर निर्भर न रहो, क्योंकि वह बार-बार इतस्ततः करता है। संदेह, भ्रम एवं हिचकिचाहटों के अंबार पैदा करता है। इसलिए एकदम आरंभ में ही तुम्हें यह ठीक-ठीक जानना चाहिए कि तुम क्या चाहते हो? मन से नहीं जानना चाहिए, बल्कि एकाग्रता के द्वारा, अभीप्सा के द्वारा और पूर्णतः संकल्पशक्ति के द्वारा जानना चाहिए। यह बहुत ही आवश्यक बात है।

🔴 दूसरे, धीरे-धीरे निरीक्षण के द्वारा, सतत और स्थायी जागरूकता के द्वारा, तुम्हें एक पद्धति ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो तुम्हारे अपने लिए व्यक्तिगत हो, केवल तुम्हारे लिए ही उपयुक्त हो। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी प्रक्रिया ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो व्यवहार में लाने पर धीरे-धीरे अधिकाधिक स्पष्ट और सुनिश्चित होती जाए। तुम एक विषय को सुधारते हो, दूसरे को एकदम सरल बना देते हो और क्रमशः इस तरह आगे बढ़ते रहते हो। इस प्रकार कुछ समय तक सब ठीक-ठीक चलता रहता है।
  
🔵 परंतु एक सुहावने प्रातःकाल में तुम्हारे सामने कठिनाई आ उपस्थित होगी, एकदम अकल्पनीय और तुम निराश होकर सोचोगे कि सब कुछ व्यर्थ हो गया। पर बात ऐसी बिलकुल नहीं है, यह तुम निश्चित रूप से जान लो कि जब तुम अपने सामने इस तरह की कोई दीवाल देखते हो तो यह किसी नई चीज का प्रारंभ होता है। इस तरह बार-बार होगा और कुछ समय बाद तुम्हें इसकी आदत पड़ जाएगी। निरुत्साहित होने और प्रयास छोड़ देने की बात तो दूर, तुम प्रत्येक बार अपनी एकाग्रता, अपनी अभीप्सा एवं अपने विश्वास को बढ़ाते जाओगे और जो नई सहायता तुम्हें प्राप्त होगी, उसके सहारे तुम दूसरे साधनों को विकसित करोगे और जिन साधनों को तुम पार कर चुके हो, उनके स्थान पर उन्हें बैठाओगे।

🔴 सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जो कुछ तुम जानो उसे व्यवहार में ले आओ और यदि तुम सतत प्रयास करते रहोगे, तो अवश्य सफल होगे। कठिनाई बार-बार आएगी। जब तुम अपने लक्ष्य पर पहुँच जाओगे तत्क्षण सभी कठिनाइयाँ केवल एक ही बार में सदा के लिए विलीन हो जाएँगी।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76

👉 नर और नारी के मध्यवर्ती अनुदान प्रतिदान (भाग 1)

🔵 स्त्री के व्यक्तित्व की बनावट ऐसी है, कि अपने पति, बच्चे एवं परिवार के साथ घुल-मिल जाती है। पुरुष के लिए इसमें जितनी कठिनाई पड़ती है, स्त्री को उतनी नहीं। इसका अर्थ है, आत्मीयता का विस्तार। जिस घर में बचपन, किशोरावस्था पार कर यौवन की देहली पर पहुँचती है, जिन सहेलियों के साथ खेलती और जिन कुटुम्बियों के साथ इतनी आयु बिताती है, उसे छोड़कर सर्वथा नये परिवार में जा पहुँचना और सर्वथा अपरिचित लोगों को अपना बना लेना, सर्वथा अपने को उनमें घुला देना, असाधारण बात है। पति का एक दिन का परिचय दूसरे दिन इतनी घनिष्ठता में बदल जाना, मानो उसी के साथ पालन-पोषण हुआ हो, वस्तुतः आश्चर्य की बात है। पुरुष को उस सीमा तक इतनी जल्दी जा पहुँचना कठिनाई की बात है। आत्मीयता के क्षेत्र में इतनी जल्दी इतनी प्रगति करना पुरुष के लिए कठिन है।

🔴 यदि परिचय न हो और पिछले दिनों से घनिष्ठता न चल रही हो, तो स्त्री के प्रति पुरुष के मन में कौतूहल आश्चर्य अजनबीपन और अविश्वास बना रहता है। उसे दूर करने में देर लगती है।

🔵 नारी का निर्माण कुछ ऐसे तत्वों से हुआ है कि वह समर्थ और सुयोग्य होते हुए भी समर्पण कर सकती है। यह समर्पण परावलम्बन नहीं है। बच्चों को वह प्राणप्रिय मानने लगती है। इसका अर्थ यह नहीं, कि वह उनके आश्रित है या उनसे कोई प्रतिदान प्राप्त करती है। यही बात पति या समूचे परिवार के प्रति है। उसका श्रम, समर्पण इतना बहुमूल्य है कि उसका मूल्याँकन पैसों में नहीं किया जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/November/v1.46

👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 7)

🌹  शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।  

🔵 आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सत्प्रवृत्ति का प्रभाव पहले अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए। हमारा सबसे निकटवर्ती संबंधी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही संजोने-सँवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं। हमें संतुलन का मार्ग अपनाना चाहिए।

🔴 हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है। वह चौबीसों घंटे सोते-जागते हमारे लिए काम करता रहता है। वह जिस भी स्थिति में हो, अपनी सामर्थ्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है। सुविधा-साधनों के उपार्जन में उसी का पुरुषार्थ काम देता है। इतना ही नहीं, वरन् समय-समय पर अपने-अपने ढंग से अनेक प्रकार के रसास्वादन भी कराती रहती हैं। नेत्र, कान, नाक, जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान तंतु अपने-अपने ढंग के रसास्वादन कराते रहते हैं। इन विशेषताओं के कारण ही आत्मा उसकी सेवा-साधना का मुग्ध हो जाती है और अपने सुख ही नहीं अस्तित्व तक को भूल कर उसी में पूरी तरह रम जाती है। उसका सुख-दुःख मानापमान आदि अपनी निज की भाव-संवेदना में सम्मिलित कर लेती है। यह घनिष्ठता इतनी अधिक सघन हो जाती है कि व्यक्ति, आत्मा की सत्ता, आवश्यकता तक को भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है। उसका अंत हो जाने पर तो जीवन की इतिश्री ही मान ली जाती है। 

🔵 ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन-सहन आहार-विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है, इतना अत्याचार सहना पड़ता है कि उसका कचूमर तक निकल जाता है और रोता-कलपता दुर्बलता और रुग्णता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय में ही दम तोड़ देता है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/body

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.13

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 May 2017


👉 आज का सद्चिंतन 19 May 2017


👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 6)

🌹  हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

🔵 भगवान् को हम सर्वव्यापक एवं न्यायकारी समझकर गुप्त या प्रकट रूप से अनीति अपनाने का कभी भी, कहीं भी साहस न करें। ईश्वर के दंड से डरें। उसका भक्तवत्सल ही नहीं भयानक रौद्र रूप भी है। उसका रौद्र रूप ईश्वरीय दंड से दंडित असंख्यों रुग्ण, अशक्त, मूक, बधिर, अंध, अपंग, कारावास एवं अस्पतालों में पड़े हुए कष्टों से कराहते हुए लोगों की दयनीय दशा को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। केवल वंशी बजाने वाले और रास रचाने वाले ईश्वर का ही ध्यान न रखें, उसका त्रिशूलधारी भी एक रूप है, जो असुरता और निमग्न दुरात्माओं का नृशंस दमन, मर्दन भी करता है।

🔴 न्यायनिष्ठ जज को जिस प्रकार अपने सगे संबंधियों, प्रशंसक मित्रों तक को कठोर दंड देना पड़ता है, फाँसी एवं कोड़े लगाने की सजा देने को विवश होना पड़ता है, वैसे ही ईश्वर को भी अपने भक्त-अभक्त का, प्रशंसक-निंदक का भेद किए बिना उसके शुभ-अशुभ कर्मों का दंड पुरस्कार देना होता है। ईश्वर हमारे साथ पक्षपात करेगा। सत्कर्म न करते हुए भी विविध-विध सफलताएँ देगा या दुष्कर्मों के करते रहने पर भी दंड से बचे रहने की व्यवस्था कर देगा, ऐसा सोचना नितांत भूल है। उपासना का उद्देश्य इस प्रकार ईश्वर से अनुचित पक्षपात कराना नहीं होना चाहिए, वरन, यह होना चाहिए कि वह हमें अपनी प्रसन्नता के प्रमाणस्वरूप सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रहने, सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने की प्रेरणा, क्षमता एवं हिम्मत प्रदान करें, भय एवं प्रलोभन के अवसर आने पर वे भी सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता प्रदान करें यही ईश्वर की कृपा का सर्वश्रेष्ठ चिह्न है। पापों से डर और पुण्य से प्रेम, यही तो भगवद्-भक्त के प्रधान चिह्न हैं।

🔵 कोई व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक, इसकी पहचान किसी तिलक, जनेऊ, कंठी, माला, पूजा-पाठ स्नान, दर्शन आदि के आधार पर नहीं वरन् भावनात्मक एवं क्रियात्मक गतिविधियों को देखकर ही की जा सकती है। आस्तिक की मान्यता प्राणिमात्र में ईश्वर की उपस्थिति देखती है। इसलिए उसे हर प्राणी के साथ उदारता, आत्मीयता एवं सेवा सहायता से भरा मधुर व्यवहार करना पड़ता है। भक्ति का अर्थ है-प्रेम जो प्रेमी है, वह भक्त है। भक्ति भावना का उदय जिसके अंतःकरण में होगा, उसके व्यवहार में प्रेम की अजस्र निर्झरिणी बहने लगेगी। वह अपने प्रियतम को सर्वव्यापक देखेगा और सभी से अत्यंत सौम्यता पूर्ण व्यवहार करके अपनी भक्ति भावना का परिचय देगा। ईश्वर दर्शन का यही रूप है। हर चर-अचर में छिपे हुए परमात्मा को जो अपनी ज्ञान दृष्टि से देख सका और तदनुरूप अपने कर्तव्य का निर्धारण कर सका, मानना चाहिए कि उसे ईश्वर दर्शन का लाभ मिल गया। अपने में परमेश्वर को और परमेश्वर में अपने को देखने की दिव्य दृष्टि जिसे प्राप्त हो गई, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर लिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/hum
 

👉 नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए। (अन्तिम भाग)

🔵 यदि मनुष्य सच्ची सुख-शान्ति चाहता है और चाहता है कि उसकी उसकी नारी अन्नपूर्णा बनकर उसकी कमाई में प्रकाण्डता भरे, उसके मन को माधुर्य और प्राणों को प्रसन्नता दे! उसके परिश्रान्त जीवन में श्री बनकर हँसे और संसार-समर में शक्ति बनकर साहस दे, तो उसे पैरों से उठाकर अर्धांग में सम्मान देना ही होगा। अन्यथा टूटे पहिये की गाड़ी के समान उसकी जिन्दगी धचके खाती हुई ही घिसटेगी। घरबार उसे बेकार का बोझ बनकर त्रस्त करता रहेगा। अयोग्य एवं अनाचारी बच्चों की भीड़ दुश्मन की तरह उसके पीछे पड़ी रहेगी।

🔴 इस प्रकार देश, समाज, घर-गृहस्थी तथा वैयक्तिक विकास तथा सुख-शान्ति के लिये नारी की इस आवश्यकता जानकर भी जो उसे अधिकारहीन करके पैर की जूती बनाये रखने की सोचता है, वह उसे समाज का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी हितैषी नहीं कहा जा सकता।

🔵 अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिये उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिये उसके प्रतिबंध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिये उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा। समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना चाहिये। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है तो वह दम्भी है, आडम्बरी और मिथ्याचारी है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/April/v1.28

👉 साधना की गहराइयों से आता संदेश

🔵 मौन साधना की गहराइयों में एक अनुभूति मुखर हो उठी। ईश्वर से प्रतिध्वनित होकर आवाज आई। उसने कहा, ‘‘अहो! एक ऐसा प्रेम है, जो सभी को अपने में समा लेता है, जो जीवन से भी महान है, मृत्यु से भी महान है, जो सीमा नहीं जानता, जो सर्वत्र है, जो मृत्यु की उपस्थिति में है तथा जो केवल भावसंवेदना है। मैं वही प्रेम हूँ। वह प्रेम जो अनिर्वचनीय मधुरता है, जो सभी वेदनाओं का, सभी भयों का स्वागत करता है, जो सभी प्रकार की उदासीनता को दूर करता है। मैं वही प्रेम हूँ।’’

🔴 ‘‘अहो! यह एक सर्वग्राही सौंदर्य है। यह सौंदर्य सुगंधित ऊषा तथा अरुणिम संध्या में प्रस्फुटित होता है। पक्षी के कलरव तथा बाघ की गर्जना में भी यही विद्यमान है। तूफान और शांति में यही सौंदर्य विद्यमान है; किंतु यह इन सबसे अतीत है। ये सब इसके पहलू हैं। मैं सौंदर्य हूँ, एक ऐसा सौंदर्य, जो सुख तथा दुःख से अधिक गहन गंभीर है। यह आत्मा का सौंदर्य है। मैं ही वह सौंदर्य हूँ। मैं ही वह आकर्षण हूँ तथा आनंद ही मेरा स्वरूप है।’’
  
🔵 ‘‘अहो! एक जीवन है, जो प्रेम है, आनंद है! मैं वही जीवन हूँ। उस जीवन को कोई सीमित नहीं कर सकता, परिमित नहीं कर सकता। वही अनंत जीवन है, वही शाश्वत जीवन है और वह जीवन मैं ही हूँ। उसका स्वभाव शांति है और मैं स्वयं शांति हूँ-मौन की गहन गहराइयों से उपजी शांति। उसकी समग्रता में कहीं कलह नहीं है त्वरित आवागमन नहीं है। मैं वही जीवन हूँ। सूर्य और तारे इसे धारण नहीं कर सकते। इस ज्योति से अधिक प्रकाशवान और कोई ज्योति नहीं है। यह स्वयं प्रकाशित है। मैं ही वह जीवन हूँ तथा तुम मुझमें और मैं तुममें हूँ।’’

🔴 ‘‘मैं सभी भ्रांतियों के मध्य में एक ही सत्य देखता हूँ। यह दृश्य सत्य मैं ही हूँ। काल के गर्भ से उत्पन्न होकर सभी रूपधारियों में मैं ही रूप धारण करता हूँ। मैं काल का भी जन्मस्थान हूँ। इसलिए शाश्वत हूँ तथा जीव तू वही है जो मुझमें है-वही अंतरात्मा। इसलिए उठो, जागो और सभी बंधनों को छिन्न-भिन्न कर दो, तुम ही जाग्रत आत्मा हो। उठो! उठो! और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए, रुको मत। लक्ष्य जो कि प्रेम है, जो मुक्त आत्मा का आनंद है, शाश्वत ज्ञान है।’’

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...