गुरुवार, 22 जून 2017

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 119)

🌹  हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
🔵 साधना से सिद्धि का तात्पर्य उन विशिष्ट कार्यों से है, जो लोक-मंगल से सम्बन्धित होते हैं और इतने बड़े भारी तथा व्यापक होते हैं, जिन्हें कोई एकाकी संकल्प या प्रयास के बल पर नहीं कर सकता फिर भी वे उसे करने का दुस्साहस करते हैं और आगे बढ़ने का कदम उठाते हैं और अंततः असम्भव लगने वाले कार्य को भी सम्भव कर दिखाते हैं। समयानुसार जन सहयोग उन्हें भी मिलता रहता है। जब सृष्टि नियमों के अनुसार हर वर्ग के मनस्वी को सहयोग मिलते रहते हैं तब कोई कारण नहीं कि श्रेष्ठ कामों पर वह हर विधान लागू न होता हो। प्रश्न एक ही है अध्यात्मवादी साधनों और सहयोगों के अभाव में भी कदम बढ़ाते हैं और आत्मविश्वास तथा ईश्वर-विश्वास के सहारे नाव खेकर पार जाने का भरोसा रखते हैं। सामान्यजनों की मनःस्थिति ऐसी नहीं होती। वे सामने साधन सहयोग की व्यवस्था देख लेते हैं तभी हाथ डालते हैं।

🔴 साधनारत सिद्ध पुरुषों द्वारा महान् कार्य सम्पन्न होते रहे हैं। यही उनका सिद्ध चमत्कार है। देश में स्वतंत्रता आंदोलन आरम्भ कराने के लिए समर्थ गुरु रामदास एक मराठा बालक को आगे करके जुट गए और उसे आश्चर्यजनक सीमा तक बढ़ाकर रहे। बुद्ध ने संव्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्वव्यापी बुद्धवादी आंदोलन चलाया। और उसे समूचे संसार तक विशेषतया एशिया के कोन-कोने में पहुँचाया। गाँधी ने सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा। मुट्ठी भर लोगों के साथ धरसना में नमक बनाने के साथ शुरू किया। अंततः इसका कैसा विस्तार और कैसा परिणाम हुआ, यह सर्वविदित है।

🔵 विनोबा द्वारा एकाकी आरम्भ किया गया भूदान आंदोलन कितना व्यापक और सफल हुआ। यह किसी से छिपा नहीं है। स्काउटिंग, रेडक्रास आदि कितने ही आंदोलन छोटे रूप में आरम्भ हुए और वे कहीं से कहीं जा पहुँचे। राजस्थान का वनस्थली बालिका विद्यालय, बालासाहब आम्टे का अपंग एवं कुष्ठ रोगी सेवा सदन ऐसे ही दृश्य मान कृत्य हैं, जिन्हें साधना से सिद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सके। ऐसी अगणित घटनाएँ संसार में सम्पन्न हुई हैं, जिनमें आरम्भ कर्त्ताओं का कौशल, साधन एवं सहयोग नगण्य था, पर आत्मबल असीम था। इतने भर से गाड़ी चल पड़ी और जहाँ-तहाँ से तेल-पानी प्राप्त करती हुई क्रमशः पूर्व से अगली मंजिल तक जा पहुँची। सदुद्देश्यों की ऐसी पूर्ति के पीछे साधना से सिद्धि की झाँकी देखी जा सकती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/hamari

👉 आज का सद्चिंतन 23 June 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 June 2017


👉 जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि



🔵 एक बार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा भोज की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसे देखते ही अचानक उनके मन में विचार आया कि कुछ ऐसा किया जाए ताकि इस व्यापारी की सारी संपत्ति छीनकर राजकोष में जमा कर दी जाए। व्यापारी जब तक वहां रहा भोज का मन रह रहकर उसकी संपत्ति को हड़प लेने का करता। कुछ देर बाद व्यापारी चला गया। उसके जाने के बाद राजा को अपने राज्य के ही एक निवासी के लिए आए ऐसे विचारों के लिए बड़ा खेद होने लगा।

🔴 राजा भोज ने सोचा कि मैं तो प्रजा के साथ न्यायप्रिय रहता हूं। आज मेरे मन में ऐसा कलुषित विचार क्यों आया? उन्होंने अपने मंत्री से सारी बात बताकर समाधान पूछा। मन्त्री ने कहा- इसका उत्तर देने के लिए आप मुझे कुछ समय दें। राजा मान गए।

🔵 मंत्री विलक्षण बुद्धि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाँठने पहुंचा। व्यापारी से मित्रता करने के बाद उसने पूछा- मित्र तुम चिन्तित क्यों हो? भारी मुनाफे वाले चन्दन का व्यापार करते हो, फिर चिंता कैसी?

🔴 व्यापारी बोला- मेरे पास उत्तम कोटि के चंदन का बड़ा भंडार जमा हो गया है। चंदन से भरी गाडियां लेकर अनेक शहरों के चक्कर लगाए पर नहीं बिक रहा है। बहुत धन इसमें फंसा पडा है। अब नुकसान से बचने का कोई उपाय नहीं है।

🔵 व्यापारी की बातें सुनकर मंत्री ने पूछा- क्या हानि से बचने का कोई उपाय नहीं? व्यापारी हंसकर कहने लगा- अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाए तो उनके दाह-संस्कार के लिए सारा चन्दन बिक सकता है। अब तो यही अंतिम मार्ग दिखता है।

🔴 व्यापारी की इस बात से मंत्री को राजा के उस प्रश्न का उत्तर मिल चुका था जो उन्होंने व्यापारी के संदर्भ में पूछा था। मंत्री ने कहा- तुम आज से प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए चालीस किलो चन्दन राजरसोई भेज दिया करो। पैसे उसी समय मिल जाएंगे।

🔵 व्यापारी यह सुनकर बड़ा खुश हुआ। प्रतिदिन और नकद चंदन बिक्री से तो उसकी समस्या ही दूर हो जाने वाली थी। वह मन ही मन राजा के दीर्घायु होने की कामना करने लगा ताकि राजा की रसोई के लिए चंदन लंबे समय तक बेचता रहे।

🔴 एक दिन राजा अपनी सभा में बैठे थे। वह व्यापारी दोबारा राजा के दर्शनों को वहां आया। उसे देखकर राजा के मन में विचार आया कि यह कितना आकर्षक व्यक्ति है। इसे कुछ पुरस्कार स्वरूप अवश्य दिया जाना चाहिए।

🔵 राजा ने मंत्री से कहा- यह व्यापारी पहली बार आया था तो उस दिन मेरे मन में कुछ बुरे भाव आए थे और मैंने तुमसे प्रश्न किया था। आज इसे देखकर मेरे मन के भाव बदल गए। इसे दूसरी बार देखकर मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

🔴 मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा- महाराज! मैं आपके दोनों ही प्रश्नों का उत्तर आज दे रहा हूं। यह जब पहली बार आया था तब यह आपकी मृत्यु की कामना रखता था। अब यह आपके लंबे जीवन की कामना करता रहता है। इसलिए आपके मन में इसके प्रति दो तरह की भावनाओं ने जन्म लिया है। जैसी भावना अपनी होती है, वैसा ही प्रतिबिम्ब दूसरे के मन पर पडने लगता है।

🔵 दोस्तों, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। हम किसी व्यक्ति का मूल्यांकन कर रहे होते हैं तो उसके मन में उपजते भावों का उस मूल्यांकन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए जब भी किसी से मिलें तो एक सकारात्मक सोच के साथ ही मिलें। ताकि आपके शरीर से सकारात्मक ऊर्जा निकले और वह व्यक्ति उस सकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित होकर आसानी से आप के पक्ष में विचार करने के लिए प्रेरित हो सके क्योंकि जैसी दृष्टि होगी, वैसी सृष्टि होगी।

👉 आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए। (भाग 3)

🔵 ईर्ष्या द्वारा हम मन ही मन दूसरे की उन्नति देखकर मानसिक दुःख का अनुभव किया करते हैं। अमुक मनुष्य ऊँचा उठता जा रहा है। हम यों ही पड़े हैं, उन्नति नहीं कर पा रहे हैं। फिर वह भी क्यों इस प्रकार उन्नति करे। उसका कुछ बुरा होना चाहिए। उसे कोई दुःख, रोग, शोक, कठिनाई, अवश्य पड़नी चाहिए। उसकी बुराई हमें करनी चाहिये। यह करने से उसे अमुक प्रकार से चोट लगेगी। इस प्रकार की विचारधारा से ईर्ष्या निरन्तर मन को क्षति पहुँचाती है। शुभ विचार करते, सद्प्रवृत्तियों तथा प्राणशक्ति का क्रमिक ह्रास होने लगता है।

🔴 ईर्ष्या से उन्मत्त हो मनुष्य धर्म, नीति, तथा विवेक का मार्ग त्याग देता है। उन्मादावस्था ही उसकी साधारण अवस्था हो जाती है और दूसरे लोगों की उन्माद और साधारण अवस्था उसे अपवाद के सदृश्य प्रतीत होती है। मस्तिष्क के ईर्ष्या नामक विकार से नाना प्रकार की विकृत मानसिक अवस्थाओं की उत्पत्ति होती है। भय, घबराहट, भ्रम ये सब मनुष्य की ईर्ष्या और विवेक बुद्धि के संघर्ष से उत्पन्न होते हैं।

🔵 प्रत्येक क्रिया से प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है। ईर्ष्या की क्रिया से मन में तथा बाह्य वातावरण में जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वे विषैली हैं। आपकी अपवित्र भावनाएं इर्द-गिर्द के वातावरण को दूषित कर देती हैं। वातावरण विषैला होने से समाज का अपकार होता है। जो ईर्ष्या की भावनाएँ आपने दूसरों के विषय में निर्धारित की है, संभव है, दूसरे भी प्रतिक्रिया स्वरूप वैसी ही धारणाएं आपके लिए मन में लायें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- जून 1949 पृष्ठ 20

👉 इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी (भाग 4)

🔴 नारी को अर्धांगिनी ही नहीं सह-धारिणी भी कहा गया है। पुरुष का कोई भी धर्मानुष्ठान पत्नी के बिना पूरा नहीं होता। बड़े-बड़े राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों में भी यजमानों को अपनी पत्नी के साथ ही बैठना पड़ता था और आज भी षोडश संस्कारों से लेकर तीर्थ स्नान तक का महत्व तभी पूरा होता है जब गृहस्थ पत्नी को साथ लेकर पूरा करता है। किसी भी गृहस्थ का सामान्य दशा में अकेले धर्मानुष्ठान करने का निषेध हैं इतना ही नहीं भारतीय धर्म में तो नारी को और भी अधिक महत्व दिया गया है।

🔵 ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवताओं का क्रिया-कलाप भी उनकी सह-धर्मियों, सरस्वती, लक्ष्मी तथा पार्वती के बिना पूरा नहीं होता। कहीं किसी स्थान पर भी यह अपनी शक्तियों से रहित नहीं पायें जाते। विद्या, वैभव तथा वीरता की अधिष्ठात्री देवियों के रूप में भी नारी की प्रतिष्ठा व्यक्त की गई है और उसे शारदा, श्री दुर्गा शक्ति के नामों से पुकारा गया है।

🔴 नारियों की धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय सेवाओं के लिये इतिहास साक्षी है। जिससे पता चल सकता है नारी पुरुष से किसी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं अनसूया, गार्गी, मैत्रेयी, शतरूपा अहिल्या, मदालसा आदि धार्मिक सीता, सावित्री, दमयंती तथा पद्मावती वीरबाला वीरमती, लक्ष्मीबाई व निवेदिता कस्तूरबा प्रभृति नारियाँ राष्ट्रीय व सामाजिक क्षेत्र की प्रकाशवती तारिका है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1995 पृष्ठ 25
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1995/August/v1.25

👉 कायाकल्प का मर्म और दर्शन (भाग 6)

🔴 यह मानकर चलिए कि आप दान देने में समर्थ हैं और आप देंगे, किसी-न को, कुछ-न देंगे। अपनी धर्मपत्नी को कुछ-न जरूर देंगे आप। उसकी योग्यता कम है, तो योग्यता बढ़ाइए। उसका स्वास्थ्य कमजोर है, तो स्वास्थ्य बढ़ाइए न। आप उसकी उन्नति का रास्ता नहीं खोलेंगे? उसके सम्मान को नहीं बढ़ाएँगे? उसके भविष्य को नहीं बढ़ाएँगे? आप ऐसा कीजिए फिर देखिए आप दानी हो जाते हैं कि नहीं।

🔵  आप भिखारी रहेंगे, तो उससे काम-वासना की बात करते रहेंगे, मीठे वचनों की बात करते रहेंगे, सहयोग की माँग करते रहेंगे, माँगते-ही रहेंगे। फिर आप हैरान होंगे और दूसरों की नजरों में हेय कहलाएँगे। फिर माँगने से मिल ही जाएगा, इसका क्या गारण्टी? गारण्टी भी नहीं है, मिलने की संभावना भी नहीं है, फिर आप ऐसी निराशा में क्यों बेवजह पापड़ बेलें। आप ऐसा क्यों नहीं कर सकते कि देने की ही बात विचार करें। देने में आप पूरी तरह समर्थ हैं। आप सद्भावनाएँ दे सकते हैं, सेवा के लिए कहीं-न से समय निकाल सकते हैं, इसी प्रकार बहुत कुछ दे सकते हैं।

🔴 आप ऐसा कीजिए, यहाँ से दानी बनकर जाइए और अपने याचक के चोले को यहीं हमारे सिर पर पटक के चले जाइए। आप अपनी मालिकी को खत्म करके सिर्फ माली होकर ही यहाँ से जाइए। अब आप मालिक होकर मत जाना। मालिक होकर चलेंगे, तब बहुत हैरान हो जाएँगे। यकीन रखिये मालिक को इतनी हैरानी, इतनी चिन्ता रहती है, जिसका कि कोई ठिकाना नहीं; लेकिन माली? माली को सारे बगीचे में खूब मेहनत करनी पड़ती है; दिन में भी मेहनत करता है, रात में भी मेहनत करता है और हैरानी का नाम नहीं। क्यों? क्योंकि वह समझता है कि यह बगीचा किसी और का है, मालिक का है और हमारा फर्ज, हमारी ड्यूटी यह है कि इन पेड़ों को अच्छे-से रखें और वह अच्छे-से रखता है, सिंचाई करता है, गुड़ाई करता है, निराई करता है, जो भी बेचारा कर सकता है, करता है।

🔵 आप सिर्फ अपने कर्तव्य और फर्ज तक अपना रिश्ता रखिए, आप इस बात के परिणामों के बारे में विचार करना बन्द कर दीजिए; क्योंकि परिणाम के बारे में कोई गारण्टी नहीं हो सकती। आप जैसा चाहते हैं, वैसी परिस्थितियाँ मिल जाएँ, इस बात की कोई गारण्टी नहीं, बिल्कुल गारण्टी नहीं। नहीं, हम मेहनत करेंगे। मेहनत पर भी कोई गारण्टी नहीं। आप इम्तहान में पास हो जाएँगे, कोई जरूरी नहीं है। आप मेहनती लड़के हैं, तो भी हो सकता है फेल हो जाएँ। आप व्यापार करने में कुशल आदमी हैं, तब भी यह हो सकता है कि कुछ महँगाई सस्ते की वजह से आपको नुकसान हो जाए। आप बहुत चौकस आदमी हैं; लेकिन फिर भी हो सकता है कि आपको बीमारी दबोच ले, चोर-उठाईगीर आपका नुकसान कर दें, आप किसी जंजाल में फँस जाएँ और अपनी अमीरी गँवा बैठें। यह सब हो सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/06/5.html

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 18)

🌹  इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

🔴 विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिंत्य चिंतन में भटकने न देने का नित्य अभ्यास करना चाहिए। विचारों को हर समय उपयोगी दिशाधारा के साथ नियोजित करके रखना चाहिए। अनगढ़, अनुपयुक्त, निरर्थक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की सेना को पहले से ही तैयार रखना चाहिए। अचिंत्य चिंतन उठते ही जूझ पड़ें और उन्हें निरस्त करके भगा दें। चिड़िया घर में बड़ा होता है, उसमें पशु- पक्षियों का घूमने- फिरने की आजादी होती है, पर बाहर जाने नहीं दिया जाता, ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाए, उन्हें जहाँ- तहाँ बिखरने न दिया जाए।
  
🔵 परिश्रम एवं मनोयोग का प्रत्यक्ष फल धन है। भौतिक एवं आत्मिक दोनों क्षेत्रों में व्यक्ति को अपव्यय की छूट नहीं है। पैसा चाहे अपना हो या पराया, मेहनत से कमाया गया हो या मुफ्त में मिला हो, उसे हर हालत में जीवनोपयोगी, समाजोपयोगी सामर्थ्य मानना चाहिए। श्रम, समय एवं मनोयोग मात्र सत्प्रयोजनों हेतु ही व्यय करना चाहिए। श्रम, समय एवं मनोयोग तीन संपदाएँ भगवत् प्रदत्त हैं। अतः धन को काल देवता एवं श्रम देवता का सम्मिलित अनुदान मानना चाहिए। जैसी दूरदर्शिता समय और विचार के अपव्यय के लिए बरतने की है, वैसी ही धन पर भी लागू होती है।
 
🔴 बचाया धन परमार्थ में ही लगाना ठीक रहता है। बुद्धिमानी इसी में है कि जितना भी कमाया जाए, उसका अनावश्यक संचय अथवा अपव्यय न हो। जो कमाए हुए धन का सदाशयता में उपयोग नहीं करता, वह घर में दुष्प्रवृत्तियों को आमंत्रित करता है। लक्ष्मी उसी घर में फलती- फूलती है, जहाँ उसका सदुपयोग होता है। आडम्बरयुक्त विवाह, प्रदर्शन, फैशन परस्ती में अनावश्यक खर्च करने से उपार्जन का सही उपयोग नहीं होता। यहीं से सामाजिक अपराधों को बढ़ावा मिलता है। पारिवारिक कलह, मुकदमेबाजी आदि भी इन्हीं कारणों से उपजती है। समुद्र संचय नहीं करता, मेघ बनकर बरस जाता है, तो बदले में नदियाँ दूना जल लेकर लौटती हैं। यदि वह भी कृपण हो, संचय करने लगता, तो नदियाँ सूख जातीं, अकाल छा जाता और यदि अत्यधिक उदार हो घनघोर बरसने लगता तो अतिवृष्टि की विभीषिका आ जाती। अतः समन्वित नीति ही ठीक है।
  
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.26

👉 आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए। (भाग 2)

🔵 श्री रामचन्द्र शुक्र ने लिखा है- ‘स्पर्धा में दुःख का विषय होता है ‘मैंने उन्नति क्यों नहीं की? और ईर्ष्या में दुःख का विषय होता है- ‘उसने उन्नति क्यों की? स्पर्धा संसार में गुणी, प्रतिष्ठित और सुखी लोगों की संख्या में कुछ बढ़ती करना चाहती है, और ईर्ष्या कमी।

🔴 स्पर्धा व्यक्ति विशेष से होती है। ईर्ष्या उन्हीं-उन्हीं से होती है जिनके विषय में यह धारणा होती है। कि लोगों की दृष्टि हमारे हाथ उन पर अवश्य पड़ेगी या पड़ती होगी। ईर्ष्या के संचार के लिए पात्र के अतिरिक्त समान की भी आवश्यकता है। समाज में उच्च स्थिति, दूसरों के सन्मुख अपनी नाक ऊँची रखने के लिये ईर्ष्या का जन्म होता है। हमारे पास देखकर भी हम मनोविकार का संचार हो जाता है।

🔵 ईर्ष्या में क्रोध का भाव किसी न किसी प्रकार मिश्रित रहता है। ईर्ष्या के लिए भी कहा जाता है कि “अमुक व्यक्ति ईर्ष्या से जल रहा है।” साहित्य में ईर्ष्या को संचारी के रूप में समय-समय पर व्यक्त किया जाता है। पर क्रोध बिल्कुल जड़ क्रोध है। जिसके प्रति हम क्रोध करते हैं, उसके मानसिक उद्देश्य पर ध्यान नहीं देते। असम्पन्न ईर्ष्या वाला केवल अपने को नीचा समझे जाने से बचने के लिए आकुल रहता है। धनी व्यक्ति दूसरे को नीचा देखना चाहता है।

🔴 ईर्ष्या दूसरे की असंपन्नता की इच्छा की आपूर्ति से उत्पन्न होती है। यह अभिमान को जन्म देगी, अहंकार की अभिवृद्धि करेगी, और कुढ़न का ताना-बाना बुनेगी। अहंकार से आदत होकर हम दूसरे की भलाई न देख सकेंगे। अभिमान में मनुष्य को अपनी कमजोरियाँ नहीं दीखतीं। अभिमान का कारण अपने विषय में बहुत ऊँची मान्यता धारण कर लेना है। ईर्ष्या उसी की सहगामिनी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- जून 1949 पृष्ठ 19
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/June/v1.19

👉 आज का सद्चिंतन 22 June 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 June 2017



👉 पोस्टमैन

🔴 एक पोस्टमैन ने एक घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा,"चिट्ठी ले लीजिये।" अंदर से एक बालिका की आवाज आई,"आ रही हूँ।" लेकिन तीन-चार मिनट तक कोई न आया तो पोस्टमैन ने फिर कहा,"अरे भाई! मकान में कोई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लो।

🔵 "लड़की की फिर आवाज आई,"पोस्टमैन साहब, दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए, मैं आ रही हूँ। "पोस्टमैन ने कहा,"नहीं, मैं खड़ा हूँ, रजिस्टर्ड चिट्ठी है, पावती पर तुम्हारे साइन चाहिये।" करीबन छह-सात मिनट बाद दरवाजा खुला। पोस्टमैन इस देरी के लिए झल्लाया हुआ तो था ही और उस पर चिल्लाने वाला था ही, लेकिन दरवाजा खुलते ही वह चौंक गया, सामने एक अपाहिज कन्या जिसके पांव नहीं थे, सामने खड़ी थी।

🔴  पोस्टमैन चुपचाप पत्र देकर और उसके साइन लेकर चला गया। हफ़्ते, दो हफ़्ते में जब कभी उस लड़की के लिए डाक आती, पोस्टमैन एक आवाज देता और जब तक वह कन्या न आती तब तक खड़ा रहता। एक दिन उसने पोस्टमैन को नंगे पाँव देखा। दीपावली नजदीक आ रही थी। उसने सोचा पोस्टमैन को क्या ईनाम दूँ।

🔵 एक दिन जब पोस्टमैन डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने, जहां मिट्टी में पोस्टमैन के पाँव के निशान बने थे, उन पर काग़ज़ रख कर उन पाँवों का चित्र उतार लिया। अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मंगवा लिये। दीपावली आई और उसके अगले दिन पोस्टमैन ने गली के सब लोगों से तो ईनाम माँगा और सोचा कि अब इस बिटिया से क्या इनाम लेना? पर गली में आया हूँ तो उससे मिल ही लूँ।

🔴  उसने दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई,"कौन? "पोस्टमैन, उत्तर मिला। बालिका हाथ में एक गिफ्ट पैक लेकर आई और कहा,"अंकल, मेरी तरफ से दीपावली पर आपको यह भेंट है। "पोस्टमैन ने कहा,"तुम तो मेरे लिए बेटी के समान हो, तुमसे मैं गिफ्ट कैसे लूँ?" कन्या ने आग्रह किया कि मेरी इस गिफ्ट के लिए मना नहीं करें। "ठीक है कहते हुए पोस्टमैन ने पैकेट ले लिया।

🔵 बालिका ने कहा,"अंकल इस पैकेट को घर ले जाकर खोलना। घर जाकर जब उसने पैकेट खोला तो विस्मित रह गया, क्योंकि उसमें एक जोड़ी जूते थे। उसकी आँखें भर आई। अगले दिन वह ऑफिस पहुंचा और पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फ़ौरन कर दिया जाए। पोस्टमास्टर ने कारण पूछा,तो पोस्टमैन ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखों और रुंधे कंठ से कहा,"आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस अपाहिज बच्ची ने तो मेरे नंगे पाँवों को तो जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा?"

🔴  संवेदनशीलता का यह श्रेष्ठ दृष्टांत है। संवेदनशीलता यानि, दूसरों के दुःख-दर्द को समझना, अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना, उसमें शरीक होना। यह ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।

🔵 ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें संवेदनशीलता रूपी आभूषण प्रदान करें ताकि हम दूसरों के दुःख-दर्द को कम करने में योगदान कर सकें। संकट की घड़ी में कोई यह नहीं समझे कि वह अकेला है, अपितु उसे महसूस हो कि सारी मानवता उसके साथ है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...