बुधवार, 27 सितंबर 2017

👉 अल्पाहार करने वाला

चौ कम खुदन तवीअत शुद कसेरा।
चौ सख्ती पेशश आयद सहस गीरद॥ (1)॥

वगर तन पर दरस्त अन्दर फराखी।
चौ तंगी वीनद अज सख्ती बमीरद ॥ (2)॥

🔵 ‘अल्पाहार करने वाला आसानी से तकलीफों को सहन कर लेता है। पर जिसने सिवाय शरीर पालने के और कुछ किया ही नहीं, उस पर सख्ती की जाती है तो वह मर जाता है।” खुरासान के दो फकीरों में खूब गाढ़ी दोस्ती थी। वे साथ-साथ सफर करते थे। उनमें से एक दुर्बल और दूसरा हट्टा-कट्टा था। जो दुर्बल था वह दो दिन तक उपवास करता और जो पुष्ट था, वह दिन में तीन बार खाता। दैव योग से ऐसा हुआ कि वे दोनों जासूस समझे जाकर, नगर के फाटक पर गिरफ्तार कर लिये गये और एक ही कोठरी में कैद कर लिये गये जिस कोठरी में वे दोनों कैद किए गए, उसका द्वार भी मिट्टी से बंद कर दिया गया।

🔴 पंद्रह दिन पीछे मालूम हुआ, कि वे दोनों निर्दोष ही कैद किये गये हैं। इसलिए द्वार खोल कर बाहर निकाले गये। उनमें से जो मोटा-ताजा था वह तो मरा हुआ मिला और जो दुबला-पतला था, वह जिंदा मिला। इस घटना से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस पर एक हकीम ने कहा कि यदि मोटा मनुष्य जीता रहता और दुर्बल मर जाता तो और भी अधिक आश्चर्य की बात होती, क्योंकि वह शख्स जो बहुत खाने वाला था उपवास नहीं कर सकता था। जो मनुष्य दुर्बल था, वह उपवासों का अभ्यासी था और अपनी काया को वश में रख सकता था, इसी से वह बच गया।

🔵 जो मनुष्य थोड़ा खाने का आदी होता है वह सुख से संकट सह लेता है, लेकिन जो सुख के दिनों में नाक तक ठूँस-ठूँस कर खाता है, उसके दुख के दिनों में अपनी आदत में डूब कर मरना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जो थोड़े ही में संतुष्ट रहते हैं, उन्हें संसारी यातनाएं नहीं सताती।

🌹 अखण्ड ज्योति 1950 नवम्बर

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 141)

🌹  स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण

🔵 यह सूक्ष्म शरीरों की, सूक्ष्म लोक की सामान्य चर्चा हुई। प्रसंग अपने आपे को विकसित करने का है। यह विषम वेला है। इसमें प्रत्यक्ष शरीर वाले, प्रत्यक्ष उपाय-उपचारों से जो कर सकते हैं, सो कर ही रहे हैं। करना भी चाहिए, पर दीखता है कि उतने भर से काम चलेगा नहीं। सशक्त सूक्ष्म शरीरों को बिगड़ों को अधिक न बिगड़ने देने के लिए अपना जोर लगाना पड़ेगा। सँभालने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है, वह पर्याप्त न होगी। उसे और भी अधिक सरल-सफल बनाने के लिए अदृश्य सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। यह सामूहिक समस्याओं के लिए भी आवश्यक होगा और व्यक्तिगत रूप से सत्प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तित्वों को अग्रगामी-यशस्वी बनाने की दृष्टि से भी।

🔴 जब हमें यह काम सौंपा गया तो उसे करने में आना-कानी कैसी? दिव्य सत्ता के संकेतों पर चिरकाल से चलते चले आ रहे और जब तक आत्मबोध जागृत रहेगा तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। यही गतिविधि चलेगी। यह विषम बेला है, इन दिनों दृश्य और अदृश्य क्षेत्र में जो विषाक्तता भरी हुई है, उसके परिशोधन का प्रयास करना अविलम्ब आवश्यक हो गया है, तो संजीवनी बूटी लाने के लिए पर्वत उखाड़ लाने और सुषेन वैद्य की खोज में जाने के लिए जो करना पड़े करना चाहिए। यह कार्य स्थूल शरीर को प्रसुप्त से जाग्रत स्थिति में लाने के लिए हमें अविलम्ब जुटना पड़ा और विगत दो वर्षों में कठोर तपश्चर्या का-एकांत साधना का अवलंबन लेना पड़ा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.160

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.20

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 75)

🌹  तो फिर हमें क्या करना चाहिए?
🔴 इस पुस्तक को पढ़कर आपके मन एवं अंतःकरण में स्वयं के लिए, देश, धर्म और संस्कृति के लिए कुछ करने की उत्कंठा अवश्य जाग्रत हुई होगी। आप सोच रहे होंगे, आखिर हम क्या करें? घबराइए नहीं, श्रेष्ठ जीवन के लिए दैनिक जीवन में बहुत जटिलता की आवश्यकता नहीं होती। सरल सहज जीवन जीते हुए भी आप सुख-शांति अनुभव कर सकते हैं। व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए तीन उपक्रम अपनाने होंगे-उपासना साधना, आराधना। उपासना के लिए नित्य १५ मिनट अथवा ३० मिनट का समय प्रातः स्नान आदि से निवृत्त होकर निकालें। देव मंदिर में ईश्वर के सान्निध्य में बैठें और देव शक्तियों के आशीर्वाद एवं कृपा की वर्षा का भाव रखते हुए अपने अंदर देवत्व की वृद्धि कर अनुभव करें।
     
🔵 आपकी श्रद्धा जिस देवता, जिस मंत्र, जिस उपासना में अपने इष्ट के दैवीय गुणों के अपने अंदर वृद्धि का भाव अवश्य रखें। साधना प्रतिपल करनी होती है। ज्ञान और विवेक का दीपक निरंतर अपने अंतर में प्रज्ज्वलित रखें। निकृष्टता से बचने एवं उत्कृष्टता की ओर बढ़ने हेतु मनोबल रहें। दुर्गुणों से बचने एवं उत्कृष्टता की ओर बढ़ने हेतु मनोबल बढ़ाते रहें। दुर्गुणों से बचने एवं सद्गुणों को धारण करने में समर्थ बनें। यही साधना का स्वरूप है। इसके लिए प्रतिपल सतर्कता एवं जागृति आवश्यक है। देश, समाज, धर्म और संस्कृति के उत्थान के हेतु किए गए सेवा कार्य आराधना कहलाते हैं।

🔴 पतन का निराकरण ही सर्वोत्कृष्ट सेवा है। सेवा साधना से पतन का निराकरण तब ही संभव है, जब व्यक्ति के चिंतन में आई आकृतियों और अवांछनीयताओं का उन्मूलन हो जाए। सेवा की उमंग है और सर्वोत्कृष्ट रूप की सेवा करने के लिए लगन है, तो इसी स्तर का सेवा कार्य आरंभ करना और चलाना चाहिए।

🔵 प्रश्न यह उठता है कि इस स्तर की सेवा साधना किस प्रकार की जाए? मनुष्य के स्तर में आए हुए पतन को किस प्रकार मिटाया जाए और उसे उत्थान की ओर अग्रसर किया जाए। स्पष्ट है कि यह कार्य विचारों और भावनाओं के परिष्कार द्वारा ही किया जा सकता है। इसके लिए विचार परिष्कार की प्रक्रिया चलानी चाहिए तथा उत्कृष्ट और प्रगतिशील सद्विचारों को जन-जन तक पहुँचाना चाहिए। यह सच है कि समाज में जो कुछ भी अशुभ और अवांछनीय दिखाई देता है, उसका कारण लोगों के व्यक्तिगत दोष ही हैं। उन दोषों की उत्पत्ति व्यक्ति की दूषित विचारणाओं तथा विकृत दृष्टिकोणों से होती है।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Cub between wolves

🔴 A wolf found a lion’s child in a very infant stage and kept it with his own children. The cub never recognized himself growing in the community of wolves. Once this family went for hunting. As they pounced over a dead elephant, a lion appeared. The lion asked the cub the reason for him being with the wolves and why was he getting afraid of him.

🔵 The cub was not able to understand what was going on. The lion understood the situation looking at the situation. He showed him his image in water and then again his face. Then he roared and asked him to do so. Then he realized of his original self and went back to his community and roamed fearlessly.

🔴 There are a large number of people who forget their self and wander in dreams.

🌹 From Pragya Puran

👉 आत्मचिंतन के क्षण 27 Sep 2017

🔵 सड़े गले कूड़े करकट का जब खाद रूप से सोना कमाया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि घटिया स्वभाव के आदमियों से भी यदि हम बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवहार करें तो उनसे सज्जनता की प्रतिक्रिया प्राप्त न हो। जब साँप, रीछ और बन्दर जैसे अनुपयोगी जानवरों को सिखा पढ़ा कर लोग उनसे तमाशा कराते और धन कमाते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम बुरे, ओछे और मूर्ख समझे जाने वाले लोगों को अपने लिए हानिकारक सिद्ध होने देने की अपेक्षा उन्हें उपयोगी लाभ दायक न बना सकें। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हमारा निज का दृष्टिकोण और स्वभाव सही हो।

🔴 हम अपनी निज की दुर्बलताओं के प्रवाह में बहते हैं और छोटे-छोटे कारणों को बहुत बड़ा रूप देकर कुछ-कुछ समझने लगने की भूल करते हैं, सामने वाले में केवल दोष ही दोष ढूँढ़ते हैं, तो वही मिलेगा जो हमने ढूँढ़ा था। दोष विहीन कोई वस्तु नहीं, यदि हम दोष ढूंढ़ने की आदत से ग्रसित हो रहे हैं और किसी के प्रति दुर्भावपूर्ण भावना बनाये हुए हैं तो उसके जितने दोष हैं वे सब बहुत ही बड़े-बड़े रूप में दिखाई देंगे और वह व्यक्ति दोषों के पर्वत जैसा दीखेगा। यदि इसके विपरीत हमारा दृष्टिकोण उसी व्यक्ति के प्रति आत्मीयता पूर्ण रहा होता, उसकी सज्जनता पर विश्वास करते तो उसमें अनेकों गुण ऐसे दिखाई देते जिससे उसे सज्जन एवं सत्पुरुष कहने को ही जी चाहता।

🔵 भूल हर किसी से होती है। दुर्गुणों और दुर्बलताओं से रहित भी कोई नहीं है। पर जिसे हम प्यार करते हैं, उनकी भूलों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें बहुत छोटी मानते हैं, यदि कोई बड़ी भूल भी होती है तो उसे हंसकर सहन कर लेते हैं और उदारतापूर्वक क्षमा कर देते हैं। यह अपनी भावनाओं का ही खेल है कि दूसरों की बुराई या भलाई बहुत छोटी हो जाती है या अनेकों गुनी बढ़ी-चढ़ी दीखती है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 27 Sep 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Sep 2017


👉 नारी का निर्मल अन्तःकरण (भाग 2)

🔴 नारी के द्वारा अनन्त उपकार एवं असाधारण सहयोग प्राप्त करने के उपरान्त नर के ऊपर अनेक पवित्र उत्तरदायित्व आते हैं, उसे स्वावलम्बी, सुशिक्षित, स्वस्थ, प्रसन्न एवं सन्तुष्ट बनाने के लिए नर को सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। मारना पीटना, अपमानजनक व्यवहार करना, हीन दृष्टि से देखना, उसे अपनी सम्पत्ति समझना सर्वथा अधार्मिक व्यवहार है ऐसा गायत्री के ‘रे’ अक्षर में स्पष्ट किया गया है।

🔵 नारी के स्वाभाविक असाधारण गुणों के कारण यही सम्भावना सदा ही बनी रहती है उसके छोटे मोटे दोषों को आसानी से सुधारा जा सकता है। गाय में दैवी तत्व अधिक होने से उसे अवध्य माना गया है। ब्राह्मण को सताना अन्य जीवों को सताने की अपेक्षा अधिक पाप है। इसी प्रकार नारी और बालक को भी गौ ब्राह्मण की तुलना में रखा गया है। बच्चों से कोई गलती हो या उसके स्वभाव में कोई दोष हो तो उसके प्रति क्षमा, उदारता और वात्सल्य पूर्ण तरीकों से ही सुधारा जाता है।

🔴 कोई सहृदय अभिभावक अपने पथभ्रष्ट बालक के प्रति प्रतिहिंसा का भाव नहीं रखता और न उसे सताने या पीड़ित करने का भाव मन में लाता है, हमारी यही भावना नारी के प्रति होनी चाहिये। क्योंकि मुद्दतों से नारी जाति जिन परिस्थितियों में रहती आ रही है उन्होंने उसे भी बौद्धिक दृष्टि से एक प्रकार का बालक ही बना दिया है। नारी पर हाथ उठाना कायरता का लक्षण माना गया है। उसके स्त्रीधन का अपहरण करना, उसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करना या घातक आक्रमण करना तो अत्यन्त ही निकृष्ट कोटि का, पुरुषत्व को कलंकित करने वाला कुकृत्य है।

🔵 आज नारी जाति में भी जहाँ तहाँ चरित्र दोष, कटु व्यवहार आदि बुराइयाँ दृष्टिगोचर होने लगी हैं। इसमें प्रधान दोष उन परिस्थितियों का है जो उनमें यह विकार पैदा करती हैं। पुरुष समाज चारित्रिक दृष्टि से नारी की अपेक्षा हजार गुना अधिक पतित है उसी की छाया से नारी भी अपवित्र बनती है तब लोग उन कारणों तथा पुरुषों का तो दोष नहीं देखते बेचारी बालबुद्धि नारी पर बरस पड़ते है और उस पर अमानुषिक अत्याचार करते हैं इस प्रक्रिया से अविश्वास, असन्तोष, कटुता, द्वेष, पाप और प्रतिहिंसा की ही वृद्धि होती है। इन तत्वों को पारिवारिक जीवन में बढ़ाने वाले लोग अपना और समाज का अहित ही करते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1952 पृष्ठ 2

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1952/September/v1.2

👉 हमारा लक्ष्य

🔴 एक बार की बात है एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा तब जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु को हाथ लगा दिया वह वस्तु उसकी हो जाएगी! इस घोषणा को सुनकर सभी नगरवासी रात को ही नगर के दरवाज़े पर बैठ गए और सुबह होने का इंतजार करने लगे! सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं अमुक वस्तु को हाथ लगाऊंगा! कुछ लोग कहने लगे मैं तो स्वर्ण को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कहने लगे कि मैं कीमती जेवरात को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग घोड़ों के शौक़ीन थे और कहने लगे कि मैं तो घोड़ों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग हाथीयों को हाथ लगाने की बात कर रहे थे, कुछ लोग कह रहे थे कि मैं दुधारू गौओं को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कह रहे थे कि राजा की रानियाँ बहुत सुन्दर है मैं राजा की रानीयों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग राजकुमारी को हाथ लगाने की बात कर रहे थे! कल्पना कीजिये कैसा अद्भुत दृश्य होगा वह!!
                 
🔵 उसी वक्त महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगाने दौड़े! सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगा दूँ ताकि वह वस्तु हमेशा के लिए मेरी हो जाएँ और सबके मन में यह डर भी था कि कहीं मुझ से पहले कोई दूसरा मेरी मनपसंद वस्तु को हाथ ना लगा दे!

🔴 राजा अपने सिंघासन पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था! कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था और कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था! उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी सी लड़की आई और राजा की तरफ बढ़ने लगी! राजा उस लड़की को देखकर सोच में पड़ गया और फिर विचार करने लगा कि यह लड़की बहुत छोटी है शायद यह मुझसे कुछ पूछने आ रही है! वह लड़की धीरे धीरे चलती हुई राजा के पास पहुंची और उसने अपने नन्हे हाथों से राजा को हाथ लगा दिया! राजा को हाथ लगाते ही राजा उस लड़की का हो गया और राजा की प्रत्येक वस्तु भी उस लड़की की हो गयी!

🔵 जिस प्रकार उन लोगों को राजा ने मौका दिया था और उन लोगों ने गलती की ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी हमे हर रोज मौका देता है और हम हर रोज गलती करते है! हम ईश्वर को हाथ लगाने अथवा पाने की बजाएँ ईश्वर की बनाई हुई संसारी वस्तुओं की कामना करते है और उन्हें प्राप्त करने के लिए ही यत्न करते है पर हम कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि ईश्वर हमारे हो गए तो उनकी बनाई हुई प्रत्येक वस्तु भी हमारी हो जाएगी !

🔴 ईश्वर बिलकुल माँ की तरह ही है, जिस प्रकार माँ अपने बच्चे को गोदी में उठाकर रखती है कभी अपने से अलग नहीं होने देती ईश्वर भी हमारे साथ कुछ ऐसा ही खेल खेलते है! जब कोई बच्चा अपनी माँ को छोड़कर अन्य खिलौनों के साथ खेलना शुरू कर देता है तो माँ उसे उन खिलौनों के खेल में लगाकर अन्य कामों में लग जाती है ठीक इसी प्रकार जब हम ईश्वर को भूलकर ईश्वर की बनाई हुई वस्तुओं के साथ खेलना शुरू कर देते है तो ईश्वर भी हमे उस माया में उलझाकर हमसे दूर चले जाते है पर कुछ बुद्धिमान मनुष्य ईश्वर की माया में ना उलझकर ईश्वर में ही रमण करते है और उस परम तत्व में मिल जाते है फिर उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रहता! इसी बात को गुरु ग्रन्थ साहिब में इन शब्दों में कहा गया है–

"जाके वश खान सुलतान, ताके वश में सगल जहान"

अर्थ – जिसके वश में ईश्वर होते है, उसके वश में सारी दुनिया होती है ।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...