सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

👉 क्रोध पर अक्रोध की विजय

🔴 एक बार सन्त तुकाराम अपने खेत से गन्ने का गट्ठा लेकर घर आ रहे थे। रास्ते में उनकी उदारता से परिचित बच्चे उनसे गन्ने माँगते तो उन्हें एक-एक बाँटते घर पहुँचे। तब केवल एक ही गन्ना उनके हाथ में था। उनकी स्त्री बड़ी क्रोधी स्वभाव की थी। उसने पूछा शेष गट्ठा कहाँ गया? उत्तर मिला बच्चों को बाँट दिया। इस पर वह और भी क्रुद्ध हुई और उस गन्ने को तुकाराम की पीठ पर जोर से दे मारा। गन्ने के दो टुकड़े हो गये।

🔵 बहुत चोट लगी। फिर भी वे क्रुद्ध न हुए और हँसते हुए बड़े स्नेह से बोले- तुमने अच्छा किया, टुकड़े करने का मेरा श्रम बचा दिया। लो एक टुकड़ा तुम खाओ, एक मैं लिये लेता हूँ। उनकी इस सहनशीलता को देखकर स्त्री पानी-पानी हो गई और चरणों पर गिर कर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगी।

🔴 ईश्वर भक्त सब में अपनी ही आत्मा देखते है, इसलिये वे किसी पर क्रोध नहीं करते अपनी सज्जनता के प्रभाव से दूसरों के हृदय परिवर्तन का कार्य करते रहते है।

🌹 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 अपने ब्राह्मण एवं संत को जिन्दा कीजिए (भाग 1)

देवियो! भाइयो!!

🔴 आप में से अधिकांश व्यक्ति सोच रहे होंगे कि मैं यहाँ था, परन्तु व्याख्यान क्यों नहीं दिया? विशेष कारणवश व्याख्यान न दे सका। बेटे! मैं अपने जीवन भर प्रयोग करता रहा हूँ। कौन-कौन से प्रयोग किये हैं?
      
🔵 पहले ब्राह्मण बनने का प्रयोग किया कि ब्राह्मणत्व के क्या-क्या चमत्कार हो सकते हैं? मैंने उसे अपने जीवन में धारण करके देखा है और पाया है कि इसमें सफलताएँ भी हैं तथा चमत्कार भी हैं। ब्राह्मण जीवन किसे कहते हैं? किफायतसारी जीवन को कहते हैं। ब्राह्मण उसे कहते हैं जो अपना खर्च कम से कम में चला सकता हो तथा अधिक से अधिक अपना धन, अक्ल, मेहनत, समाज में लगा सकता है, जिससे उसके जीवन का लक्ष्य, समाज का लक्ष्य पूरा होता हो। जिस आदमी के पास कुछ बचता ही नहीं है, वह समाज को क्या देगा?

🔴 हमें यह कहना होगा कि अध्यात्मवादी बनने के लिए किफायतसारी बनना होगा, ब्राह्मण बनना होगा। हमने इसका प्रयोग किया है तथा लाभ पाया है। हमने अपना खाने-पीने तथा रहने का ढंग ब्राह्मण का रखा है। अपने जमीन के बाबत जो कुछ हमें मिला था, उसे गायत्री तपोभूमि के लिए दान कर दिया। मैंने अपनी पत्नी से पेशवा ब्राह्मणों की उपमा देते हुए कहा कि आपको भी यह जीवन जीना चाहिए। पेशवा के राम टांक ने अपने गुरु की पत्नी के आदेश पर सब कुछ दे दिया था। इन्होंने भी अपने सारे गहने गायत्री तपोभूमि के लिए लगा दिये। पैसों की दृष्टि से हम खाली हाथ हो गये, परन्तु शक्ति बहुत मिल गई।

🔵 मित्रो! धन की और बल की शक्ति नहीं होती है। वह ब्राह्मणत्व की शक्ति होती है। यह मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ। मैं ब्राह्मण था और अब भी ब्राह्मण हूँ। जो कुछ भी आप देख रहे हैं यह ब्राह्मणत्व का चमत्कार है। इस दुनिया में मित्रों, एक ही बिरादरी रह गई है जिसका नाम बनिया है। बाकी सारी बिरादरी मर गई हैं-एक ही जिन्दा है वह है बनिया। सारे के सारे क्षेत्र में बनिया ही बनिया छाया है। ब्राह्मण कहीं नहीं। परन्तु हम ब्राह्मण हैं, इस पर हमें गर्व है तथा सन्तोष है। अगर कोई अपने को ब्राह्मण बना सकता हो, अपने खर्च और लागत को कम कर सकता हो तथा नीयत में ब्राह्मणत्व है तो हमें प्रसन्नता होगी परन्तु आपकी नीयत में तो चाण्डाल बसा हुआ है। आदमी को गरीब भी होना पड़ेगा, यह हमने ब्राह्मण का प्रयोग करके देखा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 146)

🌹  इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
🔵 इन दिनों हमारी जो सावित्री साधना चल रही है, उसके माध्यम से जो अदृश्य महाबली उत्पन्न किए जा रहे हैं, वे चुपके-चुपके असंख्य अंतःकरणों में घुसेंगे, उनकी अनीति को छुड़ाकर मानेंगे और ऐसे मणि-माणिक्य छोड़कर आएँगे, जिससे वे स्वयं धन्य बन सकें और ‘‘युग परिवर्तन’’ जो अभी कठिन दीखता है, कल सरल बना सकें।

🔴 मनुष्य अपनी अंतःशक्ति के सहारे प्रसुप्त के प्रकटीकरण द्वारा ऊँचा उठता है, यह जितना सही है, उतना ही यह भी मिथ्या नहीं कि तप-तितिक्षा से प्रखर बनाया गया वातावरण, शिक्षा, सान्निध्य-सत्संग, परामर्श-अनुकरण भी अपनी उतनी सशक्त भूमिका निभाता है। देखा जाता है कि किसी समुदाय में नितांत साधारण श्रेणी के सीमित सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति एक प्रचण्ड प्रवाह के सहारे असम्भव पुरुषार्थ भी सम्भव कर दिखाते हैं। प्राचीन काल में मनीषी-मुनिगण यही भूमिका निभाते थे। वे युग साधना में निरत रहे। लेखनी-वाणी के सशक्त तंत्र के माध्यम से जन-मानस के चिंतन को उभारते थे। ऐसी साधना अनेक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों को जन्म देती थी, उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को उजागर कर उन्हें सही दिशा देकर समाज में वाँछित परिवर्तन लाती थी। शरीर की दृष्टि से सामान्य दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति भी प्रतिभा-कुशल, चिंतन की श्रेष्ठता से अभिपूरित देखे जाते थे।

🔵 सर्वविदित है कि मुनि एवं ऋषि ये दो श्रेणियाँ अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रही हैं। ऋषि वह जो तपश्चर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसंधान कर उन निष्कर्षों से जन-समुदाय को लाभ पहुँचाए तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिंतन-मनन स्वाध्याय द्वारा जन-मानस के परिष्कार की अहम् भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक है, तो दूसरा प्रखरता का। दोनों को ही तप साधना में निरत हो सूक्ष्मतम बनना पड़ता है ताकि अपना स्वरूप और विराट् व्यापक बनाकर स्वयं को आत्मबल सम्पन्न कर वे युग चिंतन के प्रवाह को मरोड़-बदल सकें। मुनि जहाँ प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता रखते हैं, वहाँ ऋषियों के लिए यह अनिवार्य नहीं। वे अपने सूक्ष्म रूप में भी वातावरण को आंदोलित करके, सुसंस्कारित बनाए रख सकते हैं।

🔴 लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का प्रायः अर्थ उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है जिसका मन उसके वश में हो।  जो मन से नहीं संचालित होता, अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है, उसे मनीषी एवं ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। शास्त्रकार का कथन है-‘‘मनीषा अस्ति येषां ते मनीषा नः’’ लेकिन साथ ही यह भी कहा है-मनीषी नस्तु भवन्ति, पानानि न भवन्ति, अर्थात्-मनीषी तो कई होते हैं, बड़े-बड़े बुद्धिमान होना अलग बात है एवं पवित्र शुद्ध अंतःकरण रखते हुए सही है। आज सम्पादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक हैं, देश-देशांतरों में फैले पड़े हैं, लेकिन वे मनीषी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि तपःशक्ति द्वारा अंतःशोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.164
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.21

👉 Boat in a Jug

🔴 Once upon a time, a saint was sitting on the bank of the river Ganga and preaching about the oneness of creatures with God. "A creature is just a small part of God Himself!" said the saint. "All the magnificent qualities of God are present in every creature", he added. Hearing this, one of the listeners raised his doubt and asked, "Sir, God has perfect knowledge and is Almighty, while the creatures have imperfect knowledge and are weak. Then how do you claim that both are the same?"

🔵 Turning to the questioner the saint said, "Will you please fill my jug with the water from the river Ganga?" So, he went down and fetched the water in the jug. Now, the saint asked him, "Is the water in this jug, and that flowing in Ganga the same?" "Yes, indeed", was the reply. Then the saint smiled and said, "There are several boats sailing on the river, why don't you try to sail one boat in the jug too?" To this the man replied, "Sir, the jug is so small, it contains only a little water, how can a real boat sail in this jug?"

🔴 Now the saint said grimly, "My dear friend, creature is confined within a small limit, and hence, like the Ganga water in the jug it is limited. If you go and pour the water in the jug back in the river, then boats can sail on it too. Similarly, if we break our bonds of meanness and attain greatness, each one of us can easily acquire the strength and knowledge equal to God."

🌹 From Pragya Puran

👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Oct 2017

🔵 धनवान् वही उत्तम है जो कृपण न होकर दानी हो, उदार हो, जिसके द्वारा धर्मपूर्वक न्याययुक्त व्यापार हो, जिसके द्वार पर अतिथि का समुचित सत्कार हो, दीन दुखियों का सदा उपकार हो, जिसके यहाँ विद्वानों एवं साधु-महात्माओं का सम्मान हो, जो स्वयं अति सरल और मतिमान् हो। बुद्धिमान् वही उत्तम है, जिसमें अपने माने हुए ज्ञान से निराशा हो, यथार्थ सत्य को जानने की सच्ची जिज्ञासा हो, सद्गुरुदेव के प्रति पूर्ण निर्भरता हो और उन्हीं की आज्ञा पालन में सतत् तत्परता हो।

🔴 इस क्षणभंगुर विश्व को जब हम आवश्यकता से अधिक प्रेम करने लग जाते हैं तब हमारा मधुर जीवन दुखों के अग्निकुण्ड में स्वाहा होने लगता है। नहीं-नहीं कहते हुए भी अपना पैर बराबर क्लेशों की कीचड़ में फंसा लेते हैं। क्या आपने सोचा कि इसका कारण क्या है? अनावश्यक अभिलाषा इसका कारण है। अभिलाषा से एकाँगी सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का जीवन सदैव न बुझने वाली अग्नि में धाँय धांय जलता रहता है उनके मुख पर न तो मृदुल हास्य होता है और न प्रसन्नता अठखेलियाँ करती दिखाई देती है।

🔵 महान् आत्मविश्वास, भविष्य के प्रति सुन्दर आकाँक्षायें लेकर जीवन पथ पर अग्रसर होने मात्र से ही काम न चलेगा। जीवन कोई रेल का इंजिन नहीं है जो लोहे की समतल पटरियों पर बिना किसी रुकावट के अगले स्टेशन पर पहुँच जाएगा। नदी को अपने लक्ष्य समुद्र की ओर बढ़ने में कितने पहाड़ों, वन-उपवनों, मैदान, धरती को पार करना पड़ता है। कहीं रुकावट पड़ती है तो अपना मार्ग स्वयं बनाती है, कहीं मुड़ती है, पता नहीं कितने विघ्नों, अवरोधों, रुकावटों को सहन कर वह अपने लक्ष्य पर पहुँचती है। ठीक इसी प्रकार जीवन का मार्ग, आदि से अंत तक कठिनाइयों का मार्ग है। उसमें पद-पद पर विघ्नों का सामना करना पढ़ता है। उसमें प्रतिक्षण विरोधी शक्तियों से प्रतियोगिता होती रहती है यही जीवन संघर्ष है। संसार में ऐसा कोई मार्ग नहीं है जो पूर्णरूपेण आपदाशून्य हो। हर यात्री को जीवन पथ में विघ्न, बाधाओं, विरोधों का सामना करना ही पड़ेगा।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महान कर्मयोगी स्वामी विवेकानन्द (भाग 2)

🔴 परमहंस देव के इहलीला संवरण करने के पश्चात् जब परिव्राजक बनकर उन्होंने देश भ्रमण किया तो मार्ग में अलवर, खेतड़ी, लिम्बडी, मैसूर, रामनद आदि अनेक राज्यों के शासक उनके भक्त बन गये और उन सबने उनसे अपने यहाँ सुख पूर्वक रहकर साधन भजन करने का अनुरोध किया। पर उन्होंने उत्तर में सदैव यही कहा कि “मैं नहीं मानता कि इस प्रकार एकान्त में बैठकर साधन करने से मनुष्य की मुक्ति हो सकती है। इस प्रकार के लाखों साधु संन्यासी लोगों के लिये क्या कर रहे है? तत्वज्ञान का उपदेश? पर यह तो पागलपन या ढोंग है। भगवान रामकृष्ण का यह कथन पूर्णतः सत्य है कि ‘भूखे मरते को धर्म का उपदेश व्यर्थ है। जहाँ लाखों लोगों को खाने को नहीं मिलता। वहाँ वे धार्मिक कैसे बन सकते है? इस लिये सबसे पहले देश वासियों को पेट की समस्या हो हल करने लायक उपयोगी शिक्षा देनी चाहिये।
 
🔵 इस कार्य के लिये पहले तो कार्यकर्ता चाहिये। इस कार्य के लिये पहले तो कार्यकर्ता चाहिये। फिर धन की आवश्यकता है। यह कार्य मेरे जैसे भिखारी संन्यासी के लिये कठिन अवश्य है, पर गुरू की कृपा से मैं इस कार्य को पूर्ण करके रहूँगा। भारत के एक एक शहर से ऐसे व्यक्ति इकट्ठे होंगे। जिनका हृदय देशबन्धुओं की दशा सुधारने के लिये जल रहा है और जो इस कार्य के लिये जीवन अर्पण करने को तैयार है। पर पैसा! मैं देश भर में रंक से लेकर राजाओं के पास तक घूम चुका हूँ, इस लिये मैं कंगाल हिन्दुस्तान में किसी का सहारा न लेकर समुद्र पार करके पश्चिम के देशों में जाऊँगा, वहाँ से अपनी बुद्धि के प्रभाव से धन प्राप्त करके देशोद्धार की योजना को पूर्ण करूँगा या इसी प्रयत्न में प्राण उत्सर्ग कर दूँगा।”

🔴 यह है एक सच्चे कर्म योगी की भावना। इसका अर्थ यह नहीं कि स्वामी विवेकानन्द को भगवान का ध्यान नहीं था अथवा वे ज्ञान और मुक्ति के मार्ग से अनजान थे। नहीं वे तो पहले ही श्रीरामकृष्ण की कृपा से भगवान का साक्षात्कार प्राप्त कर चुके थे और अब भगवान के आदेश से ही उन्होंने भारतवर्ष की दुर्दशा को मिटाने का प्राण किया था। वे जानते थे कि निस्वार्थ भाव से सेवा करना ही आत्मा को अपने लक्ष तक पहुँचाने का सर्वोत्तम मार्ग है। जो व्यक्ति अन्य प्राणियों को कष्टों और आवश्यकताओं के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है, वह अध्यात्मिक मार्ग में कभी उन्नति नहीं कर सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 श्री भारतीय योगी
🌹 अखण्ड ज्योति- जून 1945 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/June/v1.27

👉 आज का सद्चिंतन 23 Oct 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 Oct 2017


👉 मित्रता की परिभाषा

🔵 एक बेटे के अनेक मित्र थे जिसका उसे बहुत घमंड था। पिता का एक ही मित्र था लेकिन था सच्चा ।एक दिन पिता ने बेटे को बोला कि तेरे बहुत सारे दोस्त है उनमें से आज रात तेरे सबसे अच्छे दोस्त की परीक्षा लेते है। बेटा सहर्ष तैयार हो गया।

🔴 रात को 2 बजे दोनों बेटे के सबसे घनिष्ठ मित्र के घर पहुंचे, बेटे ने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा नहीं खुला, बार-बार दरवाजा ठोकने के बाद अंदर से बेटे का दोस्त उसकी माताजी को कह रहा था माँ कह दे मैं घर पर नहीं हूँ। यह सुनकर बेटा उदास हो गया, अतः निराश होकर दोनों लौट आए।

🔵 फिर पिता ने कहा कि बेटे आज तुझे मेरे दोस्त से मिलवाता हूँ। दोनों पिता के दोस्त के घर पहुंचे। पिता ने अपने मित्र को आवाज लगाई। उधर से जवाब आया कि ठहरना मित्र, दो मिनट में दरवाजा खोलता हूँ। जब दरवाजा खुला तो पिता के दोस्त के एक हाथ में रुपये की थैली और दूसरे हाथ में तलवार थी।

🔴 पिता ने पूछा, यह क्या है मित्र। तब मित्र बोला....अगर मेरे मित्र ने दो बजे रात्रि को मेरा दरवाजा खटखटाया है, तो जरूर वह मुसीबत में होगा और अक्सर मुसीबत दो प्रकार की होती है, या तो रुपये पैसे की या किसी से विवाद हो गया हो। अगर तुम्हें रुपये की आवश्यकता हो तो ये रुपये की थैली ले जाओ और किसी से झगड़ा हो गया हो तो ये तलवार लेकर मैं तुम्हारें साथ चलता हूँ। तब पिता की आँखे भर आई और उन्होंने अपने मित्र से कहा कि, मित्र मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं, मैं तो बस मेरे बेटे को मित्रता की परिभाषा समझ रहा था।

🔵 अतः मित्र, एक चुनें लेकिन नेक चुनें।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...