गुरुवार, 23 नवंबर 2017

👉 दुर्भावनाओं का स्वास्थ्य पर प्रभाव

🔷 अस्वस्थ मन वाले व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। जिसका मन चिन्ता, भय, शोक, क्रोध, द्वेष, घृणा आदि से भरा रहता है उसके वे अवयव विकृत होने लगते है जिनके ऊपर स्वास्थ्य की आधार शिला रखी हुई है। हृदय, आमाशय, जिगर, आँतें, गुर्दे तथा मस्तिष्क पर मानसिक अस्वस्थता का सीधा असर पड़ता है। निष्क्रियता आती है उनके कार्य की गति मंद हो जाती है, अन्न पाचन एवं शोधन, जीवन कोषों का पोषण ठीक प्रकार न होने से शिथिलता का साम्राज्य छा जाता है।

🔶 पोषण के अभाव से सारा शरीर निस्तेज और थका मादा सा रहने लगता है। जो विकार और विष शरीर में हर घड़ी पैदा होते रहते है, उनकी सफाई ठीक प्रकार न होने से वे भीतर ही जमा होने लगते है। इनकी मात्रा बढ़ने से रक्त में, माँस पेशियों में और नाडियों में विष जमा होने लगता है जो अवसर पाकर नाना प्रकार के रोगों के रूप में फूटता रहता है। ऐसे लोग आये दिन किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते देखे जाते है। एक रोग अच्छा नहीं होता कि दूसरा नया खड़ा होता है।

🔷 दुश्चिंताऐं जीवन शक्ति को खा जाती है। शरीर के अंदर एक विद्युत शक्ति काम करती है, उसी की मात्रा पर विभिन्न अवयवों की स्फूर्ति एवं सक्रियता निर्भर रहती है। इस विद्युत शक्ति का जितना ह्रास मानसिक उद्वेगों से होता है उतना और किसी कारण से नहीं होता। पन्द्रह दिन लंघन में जितनी जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे कही अधिक हानि एक दिन के क्रोध या चिन्ता के कारण हो जाती है।

🔶 जिसका मन किसी न किसी कारण परेशान बना रहता है, जिसे अप्रसन्नता, आशंका तथा निराशा घेरे रहती है उसका शरीर इन्हीं अग्नियों से भीतर ही भीतर घुलकर खोखला होता रहेगा। चिन्ता को चिन्ता की उपमा दी गई है वह अकारण नहीं है। वह एक तथ्य है। चिन्तित रहने वाला व्यक्ति घुल घुलकर अपनी जीवन लीला को समय से बहुत पूर्व ही समाप्त कर लेता है।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 156)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 एक-एक लाख की पाँच शृंखलाएँ सँजोने का संकेत हुआ। उसका तात्पर्य है कली से कमल बनने की तरह खिल पड़ना। अब हमें इस जन्म की पूर्णाहुति में पाँच हव्य सम्मिलित करने पड़ेंगे, वे इस प्रकार हैं:

🔶 १. एक लाख कुण्डों का गायत्री यज्ञ। २. एक लाख युग सृजेताओं को उभारना तथा शक्तिशाली प्रशिक्षण करना। ३. एक लाख वृक्षों का आरोपण। ४. एक लाख ग्रामतीर्थों की स्थापना। ५. एक लाख वर्ष का समयदान-संचय।

🔷 यों पाँचों कार्य एक से एक कठिन प्रतीत होते हैं और सामान्य मनुष्य की शक्ति से बाहर, किंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं। वे सम्भव भी हैं और सरल भी। आश्चर्य इतना भर है कि देखने वाले उसे अद्भुत और अनुपम कहने लगें।

🔶 १-एक लाख गायत्री यज्ञः वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों में से प्रत्येक को अपना जन्मदिवसोत्सव अपने आँगन में मनाना होगा। उसमें एक छोटी चौकोर वेदी बनाकर गायत्री मंत्र की १०८ आहुतियाँ तो देनी ही होंगी। इसके साथ ही समयदान-अंशदान की प्रतिज्ञा को निबाहते रहने की शपथ भी लेनी होगी। अभ्यास में समाए हुए दुर्गुणों में से कम से कम एक को छोड़ना और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए न्यूनतम एक कदम उठाना होगा। इस प्रकार अंशदान से झोला पुस्तकालय चलने लगेगा और शिक्षितों को युग साहित्य पढ़ने तथा अशिक्षितों को सुनाने की विधि-व्यवस्था चल पड़ेगी। अपनी कमाई का एक अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाते रहने से वे सभी प्रायः चल पड़ेंगे, जिनके लिये प्रज्ञा मिशन द्वारा सभी प्रज्ञा-संस्थानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

🔷 हर गायत्री यज्ञ के साथ ज्ञानयज्ञ जुड़ा हुआ है। कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, पड़ोसी आदि को अधिक संख्या में इस अवसर पर बुलाना चाहिए और ज्ञानयज्ञ के रूप में सुगम संगीत के अनुरूप प्रवचन करने की व्यवस्था बनानी चाहिए। यज्ञवेदी का मण्डप सूझ-बूझ और उपलब्ध सामग्री से सजाया जा सकता है। वेदी को लीपा-पोता जाए और चौक पूर कर सजाया जाए, तो वह देखने में सहज आकर्षक बन जाती है। मंत्रोच्चार सभी मिल जुलकर करें। हवन सामग्री के रूप में यदि सुगंधित द्रव्य मिलाए जा सकें तो गुड़ और घी से छोटे बेर जैसी गोली बनाई जा सकती है। १०८ गोलियों में १०८ आहुतियाँ हो जाती हैं। इससे सब घर का वातावरण एवं वायुमण्डल शुद्ध होता है। एक स्थान पर १ लाख गुणा १०८ लगभग एक करोड़ आहुतियों का यज्ञ हो जाएगा। यह न्यूनतम है। इससे अधिक हो सके, तो संख्या २४० तक बढ़ाई जा सकती है। आतिथ्य में कुछ खर्च करने की मनाही है। इसलिए हर गरीब-अमीर के लिए यह सुलभ है। महत्त्व को देखते हुए वह छोटी सी प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ हो सकती है।

🌹 क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.178

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 युग-मनीषा जागे, तो क्रान्ति हो (भाग 6)

🔶 उन्होंने लोगों के समक्ष कसौटी रखी कि यदि आज के विचार, रीति-रिवाज, क्रिया-कलाप, गतिविधियाँ सही साबित हों तो स्वीकार कीजिए, नहीं तो मना कीजिए। लोगों ने इनकार करना शुरू कर दिया—यह नहीं हो सकता। हमारे बाप-दादा किया करते थे तो हम क्या करें? इनकारी का नशा इस कदर चढ़ता चला गया कि सारी बातें वाहियात ठहराई जाने लगीं। यज्ञों के नाम पर जानवर काटे जाते थे, अश्वमेध के नाम पर घोड़े को मारकर हवन होता था। जो भी अनर्थ होता था वह इनकार किया जाने लगा। बुद्ध ने कहा कि यदि भगवान् कहते हैं कि ऐसा गलत काम करना चाहिए तो ऐसे भगवान् को भी नहीं मानना चाहिए। उन्होंने वेदों को मानने से इनकार कर दिया, जिनका अनर्थ निकाला जाने लगा था और कहा—बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध को क्या कहेंगे? दार्शनिक-मनीषी। बाबाजी नहीं, मनीषी।
              
🔷 मनीषी इनसान की समस्याओं का समाधान देते हैं, व्यक्ति तैयार करते हैं, समाज बनाते हैं। सुकरात को तैयार करने वाले का नाम अरस्तू है और शिवाजी को तैयार करने वाले का नाम समर्थ गुरु रामदास है। चन्द्रगुप्त को तैयार करने वाले का नाम चाणक्य है और विवेकानन्द को तैयार करने वाले हैं रामकृष्ण परमहंस। ये कौन हैं? अरे भाई, ये मनीषी हैं। मनीषी विचार नहीं, दर्शन देते हैं, दर्शन जीकर दिखाते हैं और अनेक का जीवन बना देते हैं। आप कहेंगे दर्शन तो बद्रीनाथ का, जगन्नाथ का, सोमनाथ का किया जाता है। किराया खर्च करके जो दर्शन आप करते हैं, वह दर्शन नहीं है। दर्शन वह है, जो जमीला ने किया। जमीला ने सारी जिन्दगी भर पैसे जमा किए थे और कहती थी मैं काबा जाऊँगी और दर्शन करूँगी। जाने के वक्त पड़ गया अकाल। पानी न पड़ने से, अनाज न होने से लोग भूखों मरने लगे।
 
🔶 जमीला ने कहा मैं काबा हज करने जाने वाली थी। अब हज नहीं जाऊँगी। बच्चे भूख मर रहे हैं। इनके खाने का, दूध का, पानी का इन्तजाम किया जाए ताकि वे जिन्दा रखे जा सकें और उसने काबा जाने से इनकार कर दिया। मेरे पास कुछ है ही नहीं मैं कैसे जाऊँगी? इसे कहते हैं दर्शन, फिलॉसफी। देखने के अर्थ में नहीं फिलॉसफी के अर्थ में। बाद में खुदाबन्द करीम के यहाँ मीटिंग हुई तो यह तय किया गया कि हज किसका कबूल किया जाए। सारे फरिश्तों की मीटिंग में तय हुआ कि सिर्फ एक आदमी ने इस साल हज खुलकर किया। खुदाबन्द ने उसका नाम बताया—जमीला। फरिश्तों ने अपने रजिस्टर दिखाए व कहा कि वह तो गई ही नहीं। खुदाबन्द ने समझाया— देखने के लिए न गई तो न सही, लेकिन उसने काबा के ईमान को, प्रेरणा को समझा और हज करके जो अन्तरंग में बिठाया जाना चाहिए था, वह यहीं बैठकर लिया। शेष सब झक मारते रहे। इसलिए सबका नामंजूर। जमीला का कबूल।

....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 Rain of Gems Caused Disaster

🔶 Lord Buddha was once beseeched by a young Brahmin who wanted to learn some Tantric ritual. Buddha taught him a secret Tantric method which if used on one particular date, could cause rain of gems. However, Buddha always thought he should have tested the maturity of the Brahmin before disclosing the secret.

🔷 One night Buddha was crossing a dense forest with that Brahmin. They were attacked by a gang of robbers who tied the Brahmin to a tree and told Buddha to get the ransom money to free his disciple. Buddha remembered that the next day was the auspicious date to use the Tantric method. Before departing, He whispered into the Brahmin's ears, "Son, Do not misuse the Tantric secret. I will surely return with ransom and set you free."

🔶 But next day, the Brahmin did not heed Buddha's warning and invoked Tantra. Gems rained from the sky. The robbers collected the gems, set him free and went away. On their way another gang of robbers attacked them, took all the gems and came to know about the Brahmin who could cause gems to rain from the sky. They caught the Brahmin again and ordered him to repeat the feat. But, the Brahmin told them that the method worked only on a particular day that arrived once in a year and expressed his inability to repeat the feat.

🔷 The greedy robbers did not believe him. They were extremely furious and killed the Brahmin. They then fought among themselves over the gems and killed each other as well. Buddha came back the next day. His apprehension had turned out to be horribly true. Seeing the ghastly scene Buddha said to himself, "Bestowing Divine blessings, without testing the worthiness is always disastrous."

👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Nov 2017

🔶 गलती करना बुरा नहीं है; बल्कि गलती को न सुधारना बुरा है। संसार के महान् पुरुषों ने अनेक प्रकार की गलतियाँ की हैं। रावण जैसा विद्वान् अपने दुष्कृत्यों से राक्षस जैसा बन गया। वाल्मीकि डकैत रहे हैं। सुर, तुलसी, कबीर, मीरा, रसखान आदि सांसारिक जीवन में गलती करते रहे थे, लेकिन इन्होंने गलती को सुधारा और आगे बढ़कर महापुरुष बने। स्मरण रखिए कि एक गलती को सुधारकर आप किसी न किसी क्षेत्र में आगे बढ़ जाते हैं।    

🔷 तू सूर्य और चन्द्र को अपने पास नहीं उतार सका इसका कारण उनकी दूरी नहीं, तेरी दूरी की भावना है। तू संसार को बदल नहीं पाया इसका कारण संसार की अपरिवर्तनशीलता नहीं, वरन् तेरे प्रयासों की शिथिलता है। जब तू यह कहता है कि मैं अपने में परिवर्तन नहीं कर सकता, तो इसे स्थिति और विवशता कहकर न टाल, साफ-साफ अपनी कायरता और अकर्मण्यता कह; क्योंकि इच्छा की प्रबलता ही कार्य की सिद्धि है।

🔶 शान्तिकुञ्ज अनौचित्य की नींव हिला देने वाला एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। यहाँ से इक्कीसवीं सदी का विशालकाय आन्दोलन प्रकट होकर ऐसा चमत्कार करेगा कि उसके आँचल में भारत ही नहीं समूचे विश्व को आश्रय मिलेगा।

🔷 आत्मा का यथार्थ ज्ञान संपादन करना प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म, अचल, शुद्ध और सच्चिदानन्द रूप है। जो मनुष्य यथार्थ ज्ञान दृष्टि से आत्मा को नहीं जानता, किन्तु भ्रम व अज्ञानवश होकर उसको कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुखी, स्थूल, कृश, अमुक का पिता, अमुक का पुत्र, अमुक की स्त्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादि भिन्न भिन्न प्रकार का समझना है, वह बड़ा अपराधी है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 23 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 Nov 2017


👉 जीवन का रहस्य

🔷 एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह एक गांव के रास्ते से गुजरता था। एक आदमी पीछे से आया, उसे लकड़ी से चोट की और भाग गया। लेकिन चोट करने में उसके हाथ से लकड़ी छूट गई और जमीन पर नीचे गिर गई। रिंझाई लकड़ी उठाकर पीछे दौड़ा कि मेरे भाई, अपनी लकड़ी तो लेते जाओ। पास एक दुकान के मालिक ने कहा, पागल हो गए हो? वह आदमी तुम्हें लकड़ी मारकर गया और तुम उसकी लकड़ी लौटाने की चिंता कर रहे हो! रिंझाई ने कहा, एक दिन में एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ था। वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। तब मैंने वृक्ष को कुछ भी नहीं कहा। आज इस आदमी के हाथ से लकड़ी मेरे ऊपर गिर पड़ी है, मैं इस आदमी को क्यों कुछ कहूं! नहीं समझा वह दुकानदार। उसने कहा, पागल हो! वृक्ष से शाखा का गिरना और बात है। इस आदमी से लकड़ी तुम्हारे ऊपर गिरना वही बात नहीं है।

🔶 रिंझाई कहने लगा, एक बार मैं नाव खे रहा था। एक खाली नाव आकर मेरी नाव से टकरा गई। मैंने कुछ भी न कहा। और एक बार ऐसा हुआ कि मैं किसी और के साथ नाव में बैठा था। और एक नाव, जिसमें कोई आदमी सवार था और चलाता था, आकर टकरा गई। तो वह जो नाव चला रहा था मेरी, वह गालियां बकने लगा। मैंने उससे कहा, अगर नाव खाली होती, तब तुम गाली बकते या न बकते? तो उस आदमी ने कहा, खाली नाव को क्यों गाली बकता! रिंझाई ने कहा, गौर से देखो, नाव भी एक हिस्सा है इस विराट की लीला का। वह आदमी जो बैठा है, वह भी एक हिस्सा है। नाव को माफ कर देते हो, आदमी पर इतने कठोर क्यों हो? शायद वह दुकानदार फिर भी नहीं समझा होगा। हममें से कोई भी नहीं समझ पाता है।

🔷 एक आदमी क्रोध से भर जाता है और किसी को लकड़ी मार देता है। इस मारने में प्रकृति के गुण ही काम कर रहे हैं। एक आदमी शराब पीए होता है और आपको गाली दे देता है, तब आप बुरा नहीं मानते; अदालत भी माफ कर सकती है उसे, क्योंकि वह शराब पीए था। लेकिन अगर एक आदमी शराब पीए, तो हम माफ कर देते हैं, और एक आदमी के शरीर में क्रोध के समय ऐड्रीनल नामक ग्रंथि से विष छूट जाता है, तब हम उसे माफ नहीं करते।

🔶 जब एक आदमी क्रोध में होता है, तो होता क्या है? उसके खून में विष छूट जाता है। उसके भीतर की ग्रंथियों से रस—स्राव हो जाता है। वह आदमी उसी हालत में आ जाता है, जैसा शराबी आता है। फर्क इतना ही है, शराबी ऊपर से शराब लेता है, इस आदमी को भीतर से शराब आ जाती है। अब जिस आदमी के खून में जहर छूट गया है, अगर वह घूंसा बांधकर मारने को टूट पड़ता है, तो इसमें इस आदमी पर नाराज होने की बात क्या है! यह इस आदमी के भीतर जो घटित हो रहा है प्रकृति का गुण, उसका परिणाम है।

🔷 जो आदमी जीवन के इस रहस्य को समझ लेता है, वह आदमी अनासक्त हो जाता है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...