बुधवार, 29 नवंबर 2017

👉 सेवा धर्म :-

🔷 सत्यनगर का राजा सत्यप्रताप सिंह अत्यंत न्यायप्रिय शासक था। एक बार उसे पता चला कि सौम्यदेव नामक एक ऋषि अनेक सालों से लोहे का एक डंडा जमीन में गाड़कर तपस्या कर रहे हैं और उनके तप के प्रभाव से डंडे में कुछ अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल रहे हैं और जब वह अपनी तपस्या में पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेंगे तो उनका डंडा फूल-पत्तों से भर जाएगा।

🔶 सत्यप्रताप ने सोचा कि यदि उनके तप में इतना बल है कि लोहे के डंडे में अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल सकते हैं तो फिर मैं भी क्यों न तप करके अपना जीवन सार्थक बनाऊं।

🔷 यह सोच कर वह भी ऋषि के समीप लोहे का डंडा गाड़कर तपस्या करने लगा। संयोगवश उसी रात जोर का तूफान आया। मूसलाधार बारिश होने लगी। राजा और ऋषि दोनों ही मौसम की परवाह न कर तपस्या में मगन रहे।

🔶 कुछ देर बाद एक व्यक्ति बुरी तरह भीगा हुआ ठंड से कांपता आया। उसने ऋषि से कहीं ठहरने की जगह के बारे में पूछा पर ऋषि ने आंख खोलकर भी नहीं देखा। निराश होकर वह राजा सत्यप्रताप के पास पहुंचा और गिर पड़ा।

🔷  राजा ने उसकी इतनी बुरी हालत देखकर उसे गोद में उठाया। उसे नजदीक ही एक कुटिया नजर आई। उसने उस व्यक्ति को कुटिया में लिटाया और उसके समीप आग जलाकर गर्माहट पैदा की। गर्माहट मिलने से व्यक्ति होश में आ गया। इसके बाद राजा ने उसे कुछ जड़ी-बूटी पीसकर पिलाई।

🔶 कुछ ही देर बाद वह व्यक्ति बिल्कुल ठीक हो गया। सुबह होने पर राजा जब उस व्यक्ति के साथ कुटिया से बाहर आया तो यह देखकर हैरान रह गया कि जो लोहे का डंडा उसने गाड़ा था वह ताजे फूल-पत्तों से भरकर झुक गया था। इसके बाद राजा ने ऋषि के डंडे की ओर देखा। ऋषि के थोड़े  बहुत निकले फूल-पत्ते भी मुरझा गए थे।

🔷 राजा समझ गया कि मानव सेवा से बड़ी तपस्या कोई और नहीं है। वह अपने राज्य वापस आकर प्रजा की समुचित देखभाल करने लगा।

👉 आज का सद्चिंतन 30 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Nov 2017


👉 आत्मचिंतन के क्षण 30 Nov 2017

🔶 लोगों के हाथों अपनी प्रसन्नता-अप्रसन्नता बेच नहीं देनी चाहिए। कोई प्रशंसा करे तो हम प्रसन्न हों और निन्दा करने लगे तो दुःखी हो चलें? यह तो पूरी पराधीनता हुई। हमें इस संबंध में पूर्णतया अपने ही ऊपर निर्भर रहना चाहिए और निष्पक्ष होकर अपनी समीक्षा आप करने की हिम्मत इकट्ठी करनी चाहिए। निन्दा से दुःख लगता हो तो अपनी नजर में अपने कामों को ऐसे घटिया स्तर का साबित न होने दें जिसकी निन्दा करनी पड़े। यदि प्रशंसा चाहते हैं तो अपने कार्यों को प्रशंसनीय बनायें।     

🔷 घृणा पापी से नहीं, पाप से करो। यथार्थ में पापी कोई मनुष्य नहीं होता, वरन् पाप मनुष्य की एक अवस्था है। इसलिए यदि संशोधन करना हो तो पाप का ही करना चाहिए। अपराधी को यदि दण्ड देना हो तो उसे सुधारने के लिए ही दिया जाना चाहिए। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज की प्रत्येक अवस्था का उस पर प्रभाव पड़ सकता है इसलिए किसी को घृणापूर्वक बहिष्कृत कर देने से समस्या का समाधान नहीं होता, वरन् बुराई का शोधन करके अच्छे व्यक्तियों का निर्माण करने से ही उस अवस्था का नाश किया जा सकता है, जो घृणित है, हेय और जिससे सामाजिक जीवन में विष पैदा होता है।

🔶 हमारे सान्निध्य और सत्संग की जिन्हें उपयोगिता प्रतीत होती हो उसे आदि से अंत तक अखण्ड ज्योति पढ़ते रहना चाहिए। एक महीने में हमने जो कुछ सोचा, विचारा, पढ़ा, मनन किया, समझा और चाहा है, उसका सारांश पत्रिका की पंक्तियों में मिल जाएगा। इस सत्संग की उपेक्षा को हम अपनी उपेक्षा ही समझते हैं और प्रत्येक प्रेमी से यह आशा करते हैं कि वह हमें हमारी भावना, आकाँक्षा और गतिविधियों को समझने के लिए पत्रिका को उसी मनोयोग से पढ़ें जैसे हमारे पास बैठकर हमारी बातों को सुना जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गुरुतत्त्व की गरिमा और महिमा (भाग 6)

🔶 आप चाहते हैं कि आपको कुछ मिले तो वजन उठाइए। हम आपको मुफ्त देना नहीं चाहते, क्योंकि इससे आपका अहित होगा। वह हम चाहते नहीं। गुरु-शिष्य की परीक्षा एक ही है कि अनुशासन मानते हैं हम आपके शिष्य, ऐसा कहें व मानें। समर्थ ने अपने शिष्य की परीक्षा ली थी व सिंहनी का दूध लाने को कहा था, अपनी आँख की तकलीफ का बहाना करके। सिंहनी कहाँ थी? वह तो हिप्नोटिज्म से एक सिंहनी खड़ी कर दी थी। शिवाजी का संकल्प दृढ़ था। वे ले आए सिंहनी का दूध व अक्षय तलवार का उपहार गुरु से पा सके। राजा दिलीप की गाय को जब मायावी सिंह ने पकड़ लिया तो उन्होंने स्वयं को शक्ति-दैवी अनुदान मिलते हैं। यह आस्थाओं का इम्तिहान है, जो हर गुरु ने अपने शिष्य का लिया है।
               
🔷 श्रद्धा अर्थात् सिद्धान्तों का, भावनाओं का आरोपण। कहा गया है—‘भावो हि विद्यते देवा तस्मात् भावो हि कारणम्’ भावना का आरोपण करते ही भगवान् प्रकट हो जाते हैं। भगवान् अर्थात् सिद्धि हर आशीर्वाद, सिद्धि, का आधार, फीस एक ही है—श्रद्धा। उसे विकसित करने के लिए अभ्यास हेतु गुरुपूर्णिमा पर्व। गुरुतत्त्व के प्रति श्रद्धा का अभ्यास आज के दिन किया जाता है। गुरु अन्तरात्मा की उस आवाज का नाम है, जो भगवान् की गवर्नर है, हमारी सत्ता उसी को समर्पित है। वही हमारी सद्गुरु है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया है अर्थात् हमारा सुपर कांशसनेस हमारा अतिमानस ही हमारा गुरु है। अच्छा काम करते ही यह हमें शाबाशी देता है। गलत काम करते ही धिक्कारता है। गुरु ही ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है। गुरु अर्थात् भगवान् का प्रतिनिधि। गुरु को जाग्रत-जीवन्त करने के लिए एक खिलौना बनाकर श्रद्धा विकसित करें। आप हमें मानते हैं तो हमारा चित्र देखते ही श्रेष्ठतम पर विश्वास करने का अभ्यास करें। यह एक व्यायाम है, रिहर्सल हैं। प्रतीक की आवश्यकता इसी कारण पड़ती है।
   
🔶 हमारी अटूट निष्ठा-श्रद्धा की प्रतिक्रिया लौटकर हमारे पास ही आ जाती है। एक शिष्य गुरु के चरणों की धोवन को श्रद्धापूर्वक दुःखी, कष्ट-पीड़ितों को देता था। सब ठीक हो जाते थे। पर जब गुरु ने उसी धोवन का चमत्कार जानकर अपने पैरों को जल से धोकर वह जल औरों को दिया तो कुछ भी न हुआ। दोनों जल एक ही हैं, पर एक में श्रद्धा का चमत्कार है। उसी कारण वह अमृत बन गया, जबकि दूसरा मात्र धोवन का जल रह गया है। श्रद्धा विकसित करके कीजिए। साधनाएँ मात्र क्रिया हैं यदि उनमें श्रद्धा का समन्वय नहीं है। आदमी की जो भी कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हैं, वे श्रद्धा पर टिकी हैं।

🔷 आपकी अपने प्रति यदि श्रेष्ठ मान्यता है, आपकी श्रद्धा वैसी है तो असल में वही हैं आप। यदि इससे उल्टा है तो वैसे ही बन जाएँगे आप। गुरुपूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है। हमारे गुरु ने अनुशासन की कसौटी पर कसकर हमें परखा है तब दिया है। हमारे जीवन की हर उपलब्धि उसी अनुशासन की देन है। वेदों के अनुवाद से लेकर ब्रह्मवर्चस् के निर्माण तथा चार हजार शक्तिपीठों को खड़ा करने का काम एक ही बलबूते हुआ। गुरु ने कहा—कर। हमने कहा—‘‘करिष्ये वचनं तव’’।। गुरु श्रीकृष्ण के द्वारा गीता सुनाए जाने पर शिष्य अर्जुन ने यही कहा कि सारी गीता सुन ली। अब जो आप कहेंगे, वही करूँगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 What holds us back from fully manifesting our potentialities?

🔶 A human being as an embodied soul is not as insignificant as he thinks himself to be. He is the highly evolved creation on earth of the Supreme Creator. Not only does he stand at the head of all other creatures, his achievements are also amazingly extraordinary. Nature’s wealth lies at his feet. The animal kingdom is under his control. His bodily configuration is not only unique but his senses are also richly endowed with qualities of spreading joy and bliss all around. There is no other creature who has got such a unique body.

🔷 His mental faculty is marvelously creative. Where other creatures can think of only self-preservation, a human mind is capable of making the best use of the present by learning from the events of the past and planning the future. He is endowed with two invaluable gifts of spirituality and science, which make him capable of accessing anything in the mundane and the divine worlds.

🔶 With these unique gifts of the Creator, considering oneself to be insignificant is ridiculous. The cause of this sense of inadequacy and insignificance is lack of willpower. Due to lack of self-confidence, a person tries to seek the help of others in order to solve his problems, to get rid of his difficulties and to avail of favorable opportunities. But who has the time to rush for his help? One gets success in one’s aim only when one stands on one’s own feet and, believing in one’s own capabilities, tries to move forward resolutely with the available resources and intelligence. It must be clearly understood that the willpower is the greatest force in this world. It is a superbly powerful magnet, which attracts every desired object towards itself.

📖 From Pragya Puran

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 162)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
🔷 माना कि आज स्वार्थपरता, संकीर्णता और क्षुद्रता ने मनुष्य को बुरी तरह घेर रखा है, तो भी धरती को वीर विहीन नहीं कहा जा सकता। ६० लाख साधु बाबा यदि धर्म के नाम पर घर बार छोड़कर मारे-मारे फिर  सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि मिशन की एक लाख वर्ष की समयदान की माँग पूरी न हो सके। एक व्यक्ति यदि दो घण्टे रोज समयदान दे सके तो एक वर्ष में ७२० घण्टे होते हैं। ७ घण्टे का दिन माना जाए तो यह पूरे १०३ दिन एक वर्ष में हो जाते हैं। यह संकल्प कोई २० वर्ष की आयु में ले और ७० का होने तक ५० वर्ष निवाहें तो कुल दिन ५ हजार दिन हो जाते हैं, जिसका अर्थ हुआ प्रायः १४ वर्ष। एक लाख वर्ष का समय पूरा करने के लिए ऐसे १०००००=१४७१४३ कुल इतने से व्यक्ति अपने जीवन में ही एक लाख वर्ष की समयदान याचना को पूर्ण कर सकते हैं। यह तो एक छोटी गणना हुई। मिशन में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जो साधु-ब्राह्मणों जैसा परमार्थ परायण जीवन अभी भी जी रहे हैं। और अपना समय पूरी तरह युग परिवर्तन की प्रक्रिया में नियोजित किए हुए हैं। ऐसे ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी हजारों की संख्या में अभी भी हैं। उनका पूरा समय जोड़ लेने पर तो वह गणना एक लाख वर्ष से कहीं अधिक की पूरी हो जाती है।

🔶 बात इतने तक सीमित नहीं है। प्रज्ञा परिवार के ऐसे कितने ही उदारचेता हैं, जिनने हीरक जयंती के उपलक्ष्य में समयदान के आग्रह और अनुरोध को दैवी निर्देशन माना है और अपनी परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए एक वर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक का समय एक मुश्त दिया है। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो प्रवास पर तो नहीं जा सके, पर घर पर रहकर ही आए दिन मिशन की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने के लिए समय देते रहेंगे, स्थानीय गतिविधियों तक ही सीमित रहकर समीपवर्ती कार्यक्षेत्र को भी संभालते रहेंगे।

🔷 पुरुषों की तरह महिलाएँ भी इस समयदान यज्ञ में भाग ले सकती हैं। शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के श्रम ऐसे हैं, जिन्हें अपनाकर वे महिला समाज में शिक्षा-सम्वर्धन जैसे अनेकों काम कर सकती हैं। अशिक्षित महिलाएँ तक घरों में शाक-वाटिका लगाने जैसा काम कर सकती हैं। जिनके पीछे पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं हैं, शरीर से स्वस्थ मन से स्फूर्तिवान् हैं, वे शान्तिकुञ्ज के भोजनालय विभाग में काम कर सकती हैं। और यहाँ के वातावरण में रहकर आशातीत संतोष भरा जीवन बिता सकती हैं।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.185

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 ऋण मुक्ति का आदर्श

🔷 भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता चितरंजन दास के पिता दस लाख रुपया कर्ज छोड़कर मरे थे। नवयुवक दास ने निश्चय किया कि वे सब का कर्ज चुकायेंगे। कर्ज रिश्तेदारों का था। सभी आसूदा थे इसलिए लड़के की परेशानी को देखते हुए कर्ज वापिस लेना नहीं चाहते थे। पर दास बाबू भी किसी का ऋण रखना अपनी बेइज्जती समझते थे वे जो कमाते गये, अदालत में जमा करते गये। उनने विज्ञापन प्रकाशित कराया कि जिनका कर्ज हो वह अपना पैसा ले जायें। बहुत दिन वह पैसा जमा रहा जब उनने ढूँढ़ ढूँढ़कर कर्जदारों का पता लगाया, उनका हिसाब चुकता किया।

🔶 किसी व्यक्ति की बेइज्जती यह है कि वह अनिवार्य आपत्ति के अवसर को छोड़कर अपना खर्च बढ़ाकर उसके लिए कर्ज ले। और उससे भी बड़ी बेइज्जती यह है कि होते हुए भी ऋण चुकाने में अपना कानी करें। चितरंजन दास ने अपने लिए निर्धनता निमंत्रित करके भी ऋण मुक्त होना अपना कर्तव्य समझा। यही आदर्श हर ईमानदार व्यक्ति का होना चाहिए।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 ऋषिकल्प से मिलेगी दिशाधारा

🔷 प्रज्ञा युग के नागरिक बड़े आदमी बनने की नहीं- महामानव बनने की महत्वाकांक्षा रखेंगे। सच्ची प्रगति इसी में समझी जायेगी कि गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से किसने अपने आपको कितना श्रेष्ठ समुन्नत बनाया। कोई किसी के विलास वैभव की प्रतिस्पर्धा नहीं करेगा। वरन् होड़ इस बात की रहेगी कि किसने अपने आपको कितना श्रेष्ठ सज्जन एवं श्रद्धास्पद बनाया। वैभव इस बात में गिना जायेगा कि दूसरे को अनुकरण करने के लिए कितनी कृतियां और परंपरायें विनिर्मित कीं। आज के प्रचलन में सम्पदा को सफलता का चिन्ह माना जाता है। अगले दिनों यह मापदंड सर्वथा बदल जायेगा और यह जाना जायेगा कि किसने मानवी और गौरव गरिमा को किस प्रकार और कितना बढ़ाया।

🔶 शरीर यात्रा के निर्वाह साधनों के अतिरिक्त प्रज्ञा युग का मनुष्य दूसरी आवश्यकता अनुभव करेगा- सद्ज्ञान की। इसके लिए आजीविका उपार्जन एवं लौकिक जानकारियां देने वाली स्कूली शिक्षा पर्याप्त न मानी जायेगी। वरन् यह खोजा जायेगा कि दृष्टिकोण के परिष्कृत करने- सद्गुणों की परंपरा बढ़ाने एवं व्यक्तित्व के प्रखर प्रामाणिक बनाने की रीति-नीति सीखने अपनाने का अवसर कहां से किस प्रकार मिल सकता है। इस प्रयोजन के लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन की उच्चस्तरीय दिशाधारा कहां से मिल सकती है। इसे खोज पाने का प्रयास निरंतर जारी रखा जायेगा। यह कार्य ईश्वर उपासना, जीवन साधना एवं तपश्चर्या की सहायता से भी हो सकता है। ऋषिकल्प- महामानवों का सान्निध्य, सद्भाव और अनुदान तो इस प्रयोजन के लिए सर्वोपरि रहेगा ही।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1984 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/July/v1.27

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 161)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 इन आंदोलनों का एक लाख गाँवों में विस्तार हेतु शान्तिकुञ्ज ने पहला कदम बढ़ाया है। इसके लिए संचालन केन्द्रों की स्थापना की गई है। चार-चार नई साइकिलें, चार छोटी बाल्टियाँ, बिस्तरबंद, संगीत उपकरण, साहित्य आदि साधन जुटाए गए हैं। इनके सहारे यात्रा की सभी आवश्यक वस्तुएँ एक ही स्थान पर मिल जाती हैं और कुछ ही दिनों की ट्रेंनिंग के उपरांत समयदानियों की टोली आगे बढ़ चलती है। कार्यक्रम की सफलता तब सोची जाएगी जब कम से कम एक नैष्ठिक सदस्य उस गाँव में बने और समयदान और अंशदान नियमित रूप से देते हुए झोला पुस्तकालय चलाने लगे। यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनाई जाएगी वहीं एक उपयोगी संगठन बढ़ने लगेगा और उसके प्रयास से गाँव की सर्वतोमुखी प्रगति का उपक्रम चल पड़ेगा। यही है तीर्थ-भावना - तीर्थ स्थापना। इसके लिए एक हजार ऐसे केन्द्र स्थापित करने की योजना है, जहाँ उपरोक्त तीर्थ यात्राओं का सारा सरंजाम सुरक्षित रहे। समयदानी तीर्थयात्री प्रशिक्षित किए जाते रहें और एक टोली का एक प्रवास चक्र पूरा होते-होते दूसरी टोली तैयार कर ली जाए और उसे दूसरे गाँव के भ्रमण प्रवास पर भेज दिया जाए। सोचा गया है कि पचास-पचास मील चारों दिशाओं में देखकर एक तीर्थ मण्डल बना लिया जाए, उनमें जितने भी गाँव हों, उन में वर्ष में एक या दो बार परिभ्रमण होता रहे।

🔶 देश में सात लाख गाँव हैं, पर अभी वर्तमान सम्भावना और स्थिति को देखते हुए एक लाख गाँव ही हाथ में लिए गए हैं। २४ लाख प्रज्ञा परिजन एक लाख गाँवों में बिखरे होंगे। उनकी सहायता से यह कार्यक्रम सरलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। इसके बाद वह हवा समूचे देश को भी अपनी पकड़ में ले सकती है। क्रमिक गति से चलना और जितना सम्भव है, उतना तत्काल करते हुए आगे की योजना को विस्तार देते हुए चलना, यही बुद्धिमत्ता का कार्य है।

🔷 ५-एक लाख वर्ष का समयदानः जितने विशालकाय एवं बहुमुखी युग परिवर्तन की कल्पना की गई है, उसके लिए साधनों की तुलना में श्रम सहयोग की कहीं अधिक आवश्यकता पड़ेगी। मात्र साधनों से काम चला होता, तो अरबों-खरबों खर्च करने वाली सरकारें इस कार्य को भी हाथ में ले सकती थीं। धनी-मानी लोग भी कुछ तो कर ही सकते थे, पर इतने भर से काम नहीं चलता। भावनाएँ उभारना और अपनी प्रामाणिकता, अनुभवशीलता, योग्यता एवं त्याग भावना का जनसाधारण को विश्वास दिलाना, यही वे आवश्यकताएँ हैं, जिनके कारण लोकहित के कार्यों में दूसरों को प्रोत्साहित किया और लगाया जा सकता है अन्यथा लम्बा वेतन और भरपूर सुविधाएँ देकर भी यह नहीं हो सकता है कि पिछड़ी हुई जनता को आदर्शवादी चरण उठाने के लिए तत्पर किया जा सके। जला हुआ दीपक ही दूसरे को जला सकता है। भावनाशीलों ने ही भावना उभारने में सफलता प्राप्त की है। सृजनात्मक कार्यों में सदा कर्मवीर अग्रदूतों की भूमिका सफल होती है।

🔶 बात पर्वत जैसी भारी किन्तु साथ ही राई जितनी सरल भी है। व्यक्ति औसत नागरिक स्तर स्वीकार कर ले और परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर की जिम्मेदारी वहन करे तो समझना चाहिए कि सेवा-साधना के मार्ग में जो अड़चन थी, सो दूर हो गई। मनोभूमि का इतना सा विकास-परिष्कार कर लेने पर कोई भी विचारशील व्यक्ति लोक-सेवा के लिए युग परिवर्तन हेतु ढेरों समय निकाल सकता है। प्राचीन काल में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सद्गृहस्थ ऐसा साहस करते और कदम उठाते थे। गुरुगोविंद सिंह ने अपने शिष्य समुदाय में से प्रत्येक गृहस्थ से बड़ा बेटा संत सिपाही बनने के लिए माँगा था। वे मिले भी थे और इसी कारण सिखों का भूतकालीन इतिहास बिजली जैसा चमकता था। देश की रक्षा प्रतिष्ठा के लिए असंख्यों ने जाने गँवाई और भारी कठिनाइयाँ सहीं। यही परम्परा गाँधी और बुद्ध के समय में भी सक्रिय हुई थी। विनोबा का सर्वोदय आंदोलन इसी आधार पर चला था। स्वामी विवेकानन्द, दयानंद आदि ने समाज को अनेकानेक उच्चस्तरीय कार्यकर्ता प्रदान किए थे। आज वही सबसे बड़ी आवश्यकता है। समय की माँग ऐसे महामानवों की है, जो स्वयं बढ़ें और दूसरों को बढ़ाएँ ।।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.184

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...