गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

👉 दर्शन की प्यास ...

🔷 पूर्णमासी का चन्द्रमा जब पूरे आकाश पर छा जाता है, तब लोग उसे देखकर आदिशा के महान् तप को स्मरण करते और कहते -

🔶 "आज आदिशा के समकक्ष सारी पृथ्वी पर वैसे ही कोई दूसरा तपस्वी नहीं है, जैसे पूर्ण चन्द्र के सम्मुख कोई दूसरा चन्द्रमा नहीं! "

🔷 आदिशा का मनोनिग्रह इतना कठोर था कि राज-नर्तकियाँ वस्त्र-विहीन होकर उनके समक्ष पहुँचती हैं, तो भी उन्हें दो वर्षीय बालिका की तरह देखते! राजभवन से पहुँचते सुगन्धित षटरस व्यंजनों और अलोने-सत्तुओं में उन्हें कोई भेद न लगता था! ऐसा इन्द्रिय नियन्त्रण शायद ही कोई और तपस्वी कर पाया हो!

🔶 इतने पर भी आदिशा का चित्त शान्त न था! वर्षों तप करते हो गये थे, पर उन्हें भगवान पशुपत के दर्शन नहीं हो पाये थे! उनके पूजा-उपवास, यम-नियम, प्राणायाम-प्रत्याहार में कभी कोई त्रुटि नहीं आई थी! वर्षों बीत गये, क्रम कहीं भी टूटा नहीं था! उन्होंने तप में पूर्ण निष्ठा दर्शायी थी, तो भी वे आराध्य के दर्शनों से अब तक वंचित थे! वे स्वयं भी उसका कारण समझ नहीं पा रहे थे !

🔷 नर्मदा तट पर बने आदिशा के आश्रम मैं आज का दिन बड़े मंगल और आनन्द का है! प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भगवान पशुपतनाथ की झाँकी सजाई गई है, उनका कीर्तन हो रहा है! दर्शनार्थी दूर-दूर से आ रहे हैं! संध्याकालीन आरती में भाग लेने के लिये दूर-दूर से लोग दौड़े चले आ रहे हैं! भीड़ बढ़ती ही चली जा रही है!

🔶 राजमहल की परिचारिका सुनयना आज सम्पूर्ण दिन व्यग्र रही! प्रातःकाल भगवान की आरती देखने की इच्छा उमड़ी थी, जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, आकांक्षा उतनी ही तीव्र होती गई पर राजमहल के कार्यों से निवृत्ति कहाँ? आज अन्तःपुर भी तो उत्सव में सम्मिलित होने वाला था, सुनयना को तब फिर अवकाश कहाँ से मिलता?

🔷 सांयकाल उसे अवकाश मिला! दिन भर की भूखी-प्यासी सुनयना ने अपने कुटीर की ओर न जाकर सीधे नर्मदा-तट की ओर प्रस्थान किया! मार्ग में कौन मिला, क्या मिला उसे कुछ भी सुधि न थी, उसके अन्तर्मन में तो प्रभु की आरती थी और उसी के ध्यान में वह क्षिप्र गति से आगे बढ़ती चली जा रही थी!

🔶 आँगन पर मरकत-स्तम्भ के सहारे स्वयं सन्त आदिशा खड़े हुये थे, शेष जन-समुदाय उनके दोनों बाजुओं की ओर खड़ा था! सुनयना वहाँ पहुँच तो गई, पर सघन जन-समुदाय को चीरकर भीतर पहुँचना उसके लिये कठिन था! वह उसी मरकत-स्तम्भ पर चढ़ गई! खड़े होने के स्थान का अभाव दीखा, सो एक पाँव स्तम्भ पर दूसरा आदिशा के कन्धों पर टिकाकर, वह भगवान की आरती देखने लगी !

🔶 आरती समाप्त हुई तब लोगों का ध्यान उधर गया! सन्त आदिशा के कन्धों पर क्षुद्र सुनयना की लात - बड़ी अशोभनीय बात थी! लोगों ने डाँटा - " मूर्ख, तुझे दिखाई नहीं दिया, महात्मा के कन्धों पर पैर रख दिये! " इससे पूर्व सुनयना कुछ कहे और क्षमा माँगे, महात्मा आदिशा ने कहा - " उसे बुरा मत कहो! सुनयना मेरी गुरु हुई! आज तक मैं भले-बुरे, ऊँच-नीच के भेद-भाव में पड़ा रहा, इसलिये तप का अभीष्ट लाभ न मिल पाया! आज पता चला की साधक की उत्कृष्ट अभिलाषा ही दर्शन का आधार है! जब तक दर्शनों की इतनी तीव्र प्यास न हो, ध्येय का मिलना कैसे सम्भव हो सकता है? "

🔷 उस दिन आदिशा की रही-सही, सांसारिक दृष्टि का अन्त हुआ और उन्हें दिव्य प्रकाश के दर्शन हुये!!
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1970 पृष्ठ 2

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 7 Dec 2017


👉 अपना स्वर्ग, स्वयं बनायें (भाग 4)

🔶 एक और उदाहरण के लिये अपने बच्चों और परिजनों को ले लीजिये। अपने बच्चे और परिजन सबको बहुत प्रिय होते हैं। उनकी तुलना में दूसरे के बच्चे और परिजन जरा भी प्रिय नहीं लगते, फिर चाहे वे अपने बच्चों और परिजनों की अपेक्षा कितने ही अधिक अच्छे और गुणवान् क्यों न हों। बचें के विषय में तो यहां तक देखा जाता है कि अपना काला-कलूटा और कुरूप बच्चा तक दूसरों के फूल जैसे सुन्दर बच्चों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रिय लगता है। अपने परिजनों की तुलना में भी अपने बच्चे ही अधिक प्रिय तथा सुन्दर लगते हैं। इस भेद का कारण कोई स्वार्थ अथवा द्वेष नहीं है, बल्कि वह आत्म-भाव है जो व्यक्तियों में न्यूनाधिक मात्रा में स्थापित होता है।
   
🔷 और भी देखिये—बहुत बार ऐसा भी होता है कि अपने बच्चे की अपेक्षा अपना भतीजा, भाजां अथवा कोई अन्य बच्चा ही अधिक प्रिय लगने लगता है। इस विपर्य का कारण भी यही है कि किन्हीं कारणों से अपने बच्चे की तुलना में दूसरे बच्चे से आत्मीयता अधिक हो जाती है। इस प्रकार देख सकते हैं कि प्रियता का कारण अथवा आधार गुण, सुन्दरता, स्वार्थ अथवा आत्म जताता अथवा सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि मनुष्य का अपना आत्म-भाव ही होता है, जो किसी से भी स्थापित हो सकता है। सारांश में इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि संसार की कोई वस्तु आप में न तो प्रिय है और न अप्रिय। किसी कारणवश जब किसी वस्तु में आत्म-भाव जुड़ पाता अथवा किसी कारण से जुड़ा हुआ आत्म-भाव टूट जाता है, तो वही वस्तु प्रियता रहित हो जाती है। प्रियता की उत्पत्ति आत्मीयता से होती है और किसी बात से नहीं।

🔶 मानव का सहज स्वभाव है कि वह अपने आस-पास प्रियजनों तथा प्रिय वस्तुओं को पाकर बड़ा सुखी और प्रसन्न होता है। जब तक उसकी मनभाई परिस्थिति उसे प्राप्त रहती है, दुःख, शोक अथवा ताप का उसे अनुभव नहीं होता। इस प्रकार यदि हमारे आस-पास प्रिय वस्तुयें, प्रिय व्यक्ति और मन चाही अनुकूल परिस्थिति बनी रहे, तो क्या हम जीवन भर सुखी और सन्तुष्ट नहीं रह सकते? रह सकते हैं और निश्चित रूप से रह सकते हैं। जीवन भर निर्विघ्न रूप से सुखी और सन्तुष्ट रखने वाली परिस्थितियां ही जीवन की वह स्थिति है, जिसे हम धरती का स्वर्ग कह सकते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति- दिसंबर 1968 पृष्ठ 7
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Amrit Chintan

🔶 The same stream of life that runs through my veins night and day runs through the world and dances in rhythmic measures.

🔷 It is the same life that shoots in joy through the dust of the earth in numberless blades of grass and breaks into tumultuous waves of leaves and flowers.

🔶 It is the same life that is rocked in the ocean-cradles of birth and of death, in ebb and in flow.

🔷 I feel my limbs are made glorious by the touch of this world of life. And my pride is from the life-throb of ages dancing in my blood this moment.

🔶 Is it beyond thee to be glad with the gladness of this rhythm? To be tossed and lost and broken in the whirl of this fearful joy?

🔷 All things rush on, they stop not, they look not behind, no power can hold them back, they rush on.

🔶 Keeping steps with that restless, rapid music, seasons come dancing and pass away – colours, tunes and perfumes pour in endless cascades in the abounding joy that scatters and gives up and dies every moment.

✍🏻 Rabindranath Tagore
📖 Gitanjali

👉 युग निर्माण योजना और उसके भावी कार्यक्रम (भाग 5)

🔶 इसी प्रकार से अगर कोई आदमी क्रोधी है, कोई आदमी स्वार्थी है, कोई आदमी दुष्ट प्रकृति का है तो वह भी अपने समीपवर्ती लोगों के साथ जो व्यवहार करेगा, उसकी प्रतिक्रिया होगी ही और दूसरे लोग भी उसके प्रति डाह रखेंगे, ईर्ष्या रखेंगे, दुर्व्यवहार रखेंगे, कुढ़ेंगे, जलन पैदा करेंगे, लड़ाई-झगड़े होंगे ओर सब समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँगी। गुस्सा वही है, गुस्सों का केन्द्र एक ही है, इसलिए उसको हल करने के लिए भावनात्मक निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। चाहे वह उपाय आज इस्तेमाल किया जाय या एक हजार वर्ष बाद। स्वस्थ स्थिति तब हो सकती है, जब सबका ध्यान उस ओर जाएगा कि जहाँ गुत्थियों का केन्द्र उस केन्द्र को सुधारने और सँभालने के लिए कदम उठाये जाएँ।
                
🔷 युगनिर्माण योजना ने यह कदम उठाया और उसकी ओर पाँव बढ़ाया। इसलिए हमारा प्रयास भावनात्मक निर्माण है। इसी का दूसरा नाम ज्ञानयज्ञ है। ज्ञानयज्ञ का विचारक्रान्ति के नाम पर युगनिर्माण योजना ने बहुत दिन पूर्व कुछ क्रियाकलापों के लिए मंच, एक साधन, एक माध्यम बनाया था और उसको धर्ममंच माध्यम बोला गया था, क्योंकि भारतवर्ष की प्रतिक्रिया विशेष रूप से इसी लायक थी। भारतवर्ष में अस्सी फीसदी लोग बिना पढ़े-लिखे रहते हैं और ये अस्सी फीसदी लोग देहातों में रहते हैं। इनके मानसिक स्तर ऐसे हैं, जिसमें कोई चीज समझी या समझायी जा सकती है, वह धार्मिक क्षेत्र ही है। यहाँ लोग रामायण की बात, कहानी को, सामाजिक कथा को जानते हैं।
    
🔶 श्रीकृष्ण भगवान् की कथा को जानते हैं, मोरध्वज की कथा को जानते हैं लेकिन उनसे राजनीति या दूसरी समस्याओं के बारे में पूछा जाए तो शायद ही वह कुछ बात बता पायेंगे। यहाँ का देहाती व्यक्ति भी लोक-परलोक की बात, भगवान् की बात, आत्मा की बात, तीर्थयात्रा, पुण्य-परमार्थ की बात, परलोक की बात किसी हद तक बता सकता है और दूसरी बातों को नहीं। इसीलिए यह तय किया गया कि लोगों का मन बदला जाए, लोगों की दिशा जिधर है व लोगों का ध्यान जिधर है, लोगों की जानकारियाँ जिस क्षेत्र में हैं उसको हाथ में लेकर भावनात्मक नवनिर्माण का प्रयास प्रारम्भ किया जाए।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 163)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 कार्यक्रमों में प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक अनेक कार्य हैं जिन्हें घर से बाहर रहते हुए परिस्थितियों के अनुरूप कार्यान्वित किया जा सकता है। प्रचारात्मक स्तर के कार्य १-झोला पुस्तकालय, २-ज्ञान रथ, ३-स्लाइड प्रोजेक्टर प्रदर्शन, टेपरिकार्डर से युग संगीत एवं युग संदेश को जन-जन तक पहुँचाना, ४-दीवार पर आदर्श वाक्य लिखना, ५-साइकिलों वाली धर्म प्रचार पद यात्रा योजना में सम्मिलित होना। संगीत, साहित्य, कला के माध्यम से बहुत कुछ हो सकता है। साधन दान से भी अनेक सत्प्रवृत्तियों का पोषण हो सकता है।

🔶 रचनात्मक कार्यों मेंः १-प्रौढ़ शिक्षा-पुरुषों की रात्रि पाठशाला, महिलाओं की अपराह्न पाठशाला। २-बाल संस्कारशाला। ३-व्यायामशाला। ४-स्वच्छता सम्वर्धन। ५-वृक्षारोपण आदि। सुधारात्मक कार्यों में अवांछनीयता, अनैतिकता, अन्धविश्वास आदि का उन्मूलन प्रमुख है। १-जातिगत ऊँच-नीच, २-पर्दा प्रथा, ३-दहेज, ४-फैशन के नाम पर अपव्यय, बाल विवाह, बहु प्रजनन आदि के उन्मूलन में सामर्थ्य भर प्रयत्न करना। इसके अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्हें कार्यान्वित करने के लिए हर क्षेत्र और हर स्थिति में गुंजायश हैं। जिन्हें नवसृजन के लिए समय देना हैं, उन्हें अपनी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप कोई काम चुन या पूछ लेना चाहिए। यह सभी कार्य प्रगति प्रयास समयदान से सम्बंधित हैं।

🔷 एक व्यक्ति का एक लाख वर्ष का समय यों सुनने कहने में बहुत अधिक प्रतीत होता है, किन्तु जब परिजन मिलजुलकर इसकी पूर्ति करने पर कटिबद्ध होते हैं, तो हर परिजन के हिस्से में थोड़ा ही आता है।

🔶 बड़े अनुदान-बड़े वरदानः फुंसी का मवाद घरेलू सुई चुभोकर भी निकाला जा सकता है, पर मस्तिष्क या हृदय में घुसी गोली को निकालने के लिए कुशल सर्जन और बहुमूल्य उपकरणों की जरूरत पड़ती है। मकड़ी का पेट एक मक्खी से भर जाता है, पर हाथी को मनों गन्ना रोज चाहिए। घोंघे जलाशय की तली में जा बैठते हैं, पर समुद्र सोखने के लिए अगस्त्य ऋषि जैसे चुल्लू चाहिए। कुएँ से घड़ा भरकर पानी कोई भी निकाल सकता है, पर स्वर्ग से गंगा का अवतरण धरती पर करने के लिए भागीरथ जैसा तप और शिव जटाओं का आधार चाहिए। वृत्तासुर वध के लिए ऋषि दधीचि की ऊर्जामयी अस्थियों से वज्र बनाना पड़ा था। छोटे काम छोटे मनुष्यों की साधारण हलचलों से स्वल्प साधनों से बन पड़ते हैं, पर महान् कार्यों के लिए महान् व्यवस्था बनानी पड़ती है। धरती की प्यास बादल बुझाते और समुद्र की सतह यथावत बनाए रहने के लिए सहस्रों नदियों की असीम जलराशि का निरंतर समर्पित होते रहना आवश्यक है।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.187

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...