बुधवार, 31 जनवरी 2018

👉 परोपकारः पुण्याय:-

🔶 फारस में एक बादशाह बड़ा ही न्याय प्रिय था। वह अपनी प्रजा के दुख-दर्द में बराबर काम आता था। प्रजा भी उसका बहुत आदर करती थी। एक दिन बादशाह जंगल में शिकार खेलने जा रहा था, रास्ते में देखता है कि एक वृद्ध एक छोटा सा पौधा रोप रहा है।

🔷 बादशाह कौतूहलवश उसके पास गया और बोला, ‘‘यह आप किस चीज का पौधा लगा रहे हैं?’’ वृद्ध ने धीमें स्वर में कहा, ‘‘अखरोट का।’’ बादशाह ने हिसाब लगाया कि उसके बड़े होने और उस पर फल आने में कितना समय लगेगा। हिसाब लगाकर उसने अचरज से वृद्ध की ओर देखा, फिर बोला, ‘‘सुनो भाई, इस पौधै के बड़े होने और उस पर फल आने मे कई साल लग जाएंगे, तब तक तु कहॉं जीवित रहोगे ’’ वृद्ध ने बादशाह की ओर देखा। बादशाह की आँखों में मायूसी थी। उसे लग रहा था कि वह वृद्ध ऐसा काम कर रहा है, जिसका फल उसे नहीं मिलेगा।

🔶 यह देखकर वृद्ध ने कहा, ‘‘आप सोच रहें होंगे कि मैं पागलपन का काम कर रहा हूँ। जिस चीज से आदमी को फायदा नहीं पहुँचता, उस पर मेहनत करना बेकार है, लेकिन यह भी सोचिए कि इस बूढ़े ने दूसरों की मेहनत का कितना फायदा उठाया है? दूसरों के लगाए पेड़ों के कितने फल अपनी जिंदगी में खाए हैं? क्या उस कर्ज को उतारने के लिए मुझे कुछ नहीं करना चाहिए? क्या मुझे इस भावना से पेड़ नहीं लगाने चाहिए कि उनके फल दूसरे लोग खा सकें? जो अपने लाभ के लिए काम करता है, वह स्वार्थी होता है।’’ बूढ़े की यह दलील सुनकर बादशाह चुप रह गया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 1 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 1 Feb 2018

👉 Amrit Chintan 1 Feb

🔷 As long as man is totally materialistic in life, he will grow roots of evil in himself. It is only spiritual way of life. That man starts hating sins of his own when he become his own soul conscious. The worldly atmosphere always put one down and resists ideal growth of life. Only spiritual life can save a person from the bad effect of the prevailing atmosphere.
 
🔶 You all my loving soul! I wish that you strictly follow the path of truth. Truth must be follow at the cost of all hurdles and difficulties of life. Voice of the soul should always be followed. Truth itself is such a great power, which gives tremendous power and courage to stick to the right path and object of life.
 
🔷  The beauty of life is not its external appearance but it is his changed life. The changed life must radiate love for all and they appreciate his virtues. To earn all these one will have to develop his character behavior and make his actions ideal for others.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 10)

🔷 मित्रो! यही हमारे मिशन का संदेश है और यही मिशन का संदेश है। यही हमारे युग निर्माण योजना का संदेश है और यही हमारे गायत्री परिवार का संदेश है। यही हमारे अध्यात्म का संदेश है और यही हमारी गुरु परम्परा का संदेश है। आप जाना और हमारे कार्यकर्ताओं को हमारा संदेश सुनाना। आप जनता को ज्यादा जोर मत देना। आपके रथयात्रा के लिए कितनी भीड़ आ गयी, कितनी नहीं, इसके ऊपर जोर देने की जरूरत नहीं है। आपके यज्ञ में कितने आदमी हवन करने वाले आये कितने नहीं आये इस पर भी बहुत जोर देने की आवश्यकता नहीं है। जितना बन जाय-उतना अच्छा ही है। हम कब मा करते हैं कि जनता को आपको इकट्ठा नहीं करना चाहिए।

🔶 जनता इकट्ठी हो तो अच्छी बात है। आपका पंडाल अच्छा बन गया, तो अच्छी बात है। उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। परन्तु हमको शुरुआत वहाँ से करनी पड़ेगी कि जो हमारा बगीचा लगाया हुआ था, वह सूख तो नहीं रहा है, कुम्हला तो नहीं रहा है। कहीं वह जानवरों द्वारा खाया तो नहीं जा रहा है? जिसके लिए हमने इतना परिश्रम किया, उतना वह विकसित होना चाहिए था पर विकसित नहीं हो रहा है। हमको ज्यादा ध्यान वहाँ देना है। इसलिए हम जहाँ कहीं भी आपको भेजते हैं, आप यह प्रयत्न करना कि जो आदमी हमारे कर्मठ कार्यकर्ता हैं, जो भी हमसे संबंधित व्यक्ति हैं, उनके अंदर मिशन की प्रेरणा, मिशन का संदेशा पहुँचाने में आप समर्थ हों।

🔷 इसके लिए मित्रो! करना क्या पड़ेगा? आपको ज्यादातर उनके संपर्क में रहना पड़ेगा। आपको उनसे दूर नहीं रहना चाहिए। नेता और जनता के बीच जो खाई पैदा हो गयी है, वह खाई आपको पैदा नहीं करना चाहिए। हमने जो संगठन किया है, उसका नाम सभा या सम्मेलन नहीं रखा है। हमारा यह मठ नहीं है और हमारे यहाँ उतनी गुरु-शिष्य परम्परा भी नहीं है। हमारे यहाँ तो परिवार प्रणाली है। कुटुम्ब में किस तरीके से भाई-बहन एक साथ रहते हैं, माँ-बाप एक साथ रहते हैं, बेटे और भतीजे एक साथ रहते हैं। उसी प्रणाली का, उसी परंपरा को हमने जन्म दिया है। आप भी उसी प्रणाली में अपने को फिट करने की कोशिश करना।

🔶 जहाँ कहीं भी आप जायँ और वहाँ गायत्री परिवार के लोग और युग निर्माण परिवार के लोग मिलें, तो उन पर आपको ज्यादा ध्यान देना है और उन लोगों के साथ में आत्मीयता का विस्तार करना है और वह भी चापलूसी के द्वारा नहीं, लम्बी-चौड़ी लच्छेदार बात के साथ नहीं, क्योंकि आप उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वालों में से हैं। हमारी आत्मीयता का तरीका हमेशा से यही रही है। लच्छेदार बातें कभी किसी आदमी को आत्मीय नहीं बनाती हैं। आत्मीयता तब बनती है जब हम और आप कंधे से कंधा मिला करके, हाथ में हाथ मिला करके और पाँव से पाँव मिला करके साथ-साथ चलना शुरू करते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 28)

👉 शंकर रूप सद्गुरु को बारंबार नमन्

🔶 गुरु महिमा के साथ गुरु नमन की महिमा ही अपरिमित है। इसे गुरुगीता के अगले महामंत्रों में प्रकट करते हुए भगवान् भोलेनाथ आदिमाता पार्वती से कहते हैं-

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत्। यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३६॥
यस्य स्थित्या सत्यमिदं यद्भाति भानुरूपतः। प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३७॥
येन चेतयते हीदं चित्तं चेतयते न यम्। जाग्रत्स्वप्न सुषुप्त्यादि तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३८॥
यस्य ज्ञानादिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः। सदेकरूपरूपाय तस्मै श्री  गुरवे नमः॥ ३९॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अनन्यभावभावाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ४०॥

🔷 सद्गुरु नमन के इन महामंत्रों में गहन तत्त्वचर्चा है। गुरुतत्त्व, परमात्मतत्त्व और प्रकृति या सृष्टि तत्त्व अलग-अलग नहीं है। यह सब एक ही है- भगवान् शिव के वचन शिष्य को समझाते हैं, जिस सत्य के कारण जगत् सत्य दिखाई देता है अर्थात् जिनकी सत्ता से जगत् की सत्ता प्रकाशित होती है, जिनके आनन्द से जगत् में आनन्द फैलता है, उन सच्चिदानन्द रूपी सद्गुरु को नमन है॥ ३६॥

🔶 जिनके सत्य पर अवस्थित होकर यह जगत् सत्य प्रतिभासित होता है, जो सूर्य की भाँति सभी को प्रकाशित करते हैं। जिनके प्रेम के कारण ही पुत्र आदि सभी सम्बन्ध प्रीतिकर लगते हैं, उन सद्गुरु को नमन है॥ ३७॥

🔷 जिनकी चेतना से यह सम्पूर्ण जगत् चेतन प्रतीत होता है, हालांकि सामान्य क्रम में मानव चित्त को इसका बोध नहीं हो पाता। जाग्रत्-स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्था को जो प्रकाशित करते हैं, उन चेतनारूपी सद्गुरु को नमन है॥ ३८॥

🔶 जिनके द्वारा ज्ञान मिलने से जगत् की भेददृष्टि समाप्त हो जाती है और वह शिव स्वरूप दिखाई देने लगता है। जिनका स्वरूप एकमात्र सत्य का स्वरूप ही है, उन सद्गुरु को नमन है॥ ३९॥

🔷 जो कहता है कि मैं ब्रह्म को नहीं जानता, वही ज्ञानी है। जो कहता है कि मैं जानता हूँ, वह नहीं जानता। जो स्वयं ही अभेद एवं भावपूर्ण ब्रह्म है, उस सद्गुरु को नमन है॥ ४०॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 50

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

👉 ज्ञान का नया संदेश

🔶 महर्षि_वेदव्यास ने एक कीड़े को तेजी से भागते हुए देखा। उन्होंने उससे पूछा, 'हे क्षुद्र जंतु, तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे हो?' उनके प्रश्न ने कीड़े को चोट पहुंचाई और वह बोला, 'हे महर्षि, आप तो इतने ज्ञानी हैं। यहां क्षुद्र कौन है और महान कौन? क्या इस प्रश्न और उसके उत्तर की सही-सही परिभाषा संभव है?' कीड़े की बात ने महर्षि को निरुत्तर कर दिया।

🔷 फिर भी उन्होंने उससे पूछा, 'अच्छा यह बताओ कि तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे हो?' कीड़े ने कहा, 'मैं तो अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा हूं। देख नहीं रहे, पीछे से कितनी तेजी से बैलगाड़ी चली आ रही है।' कीड़े के उत्तर ने महर्षि को चौंकाया। वे बोले, 'तुम तो इस कीट योनि में पड़े हो। यदि मर गए तो तुम्हें दूसरा और बेहतर शरीर मिलेगा।'

🔶 इस पर कीड़ा बोला, 'महर्षि, मैं तो इस कीट योनि में रहकर कीड़े का आचरण कर रहा हूं, परंतु ऐसे प्राणी असंख्य हैं, जिन्हें विधाता ने शरीर तो मनुष्य का दिया है, पर वे मुझसे भी गया-गुजरा आचरण कर रहे हैं। मैं तो अधिक ज्ञान नहीं पा सकता, पर मानव तो श्रेष्ठ शरीरधारी है, उनमें से ज्यादातर ज्ञान से विमुख होकर कीड़ों की तरह आचरण कर रहे हैं।' कीड़े की बातों में महर्षि को सत्यता नजर आई। वे सोचने लगे कि वाकई जो मानव जीवन पाकर भी देहासक्ति और अहंकार से बंधा है, जो ज्ञान पाने की क्षमता पाकर भी ज्ञान से विमुख है, वह कीड़े से भी बदतर है।

🔷 महर्षि ने कीड़े से कहा, 'नन्हें जीव, चलो हम तुम्हारी सहायता कर देते हैं। तुम्हें उस पीछे आने वाली बैलगाड़ी से दूर पहुंचा देता हूं।' कीड़ा बोला: 'किंतु मुनिवर श्रमरहित पराश्रित जीवन विकास के द्वार बंद कर देता है।' कीड़े के कथन ने महर्षि को ज्ञान का नया संदेश दिया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 31 Jan 2018


👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 6)

🔷 पड़ोस में आग लगने पर भोजन पकाने जैसा आवश्यक काम भी पीछे कभी के लिए छोड़ना पड़ता है। कितने ही काम सामने हो तो उसमें बुद्धिमानी का कदम यह होता है कि प्राथमिकता देने और पीछे धकेलने की एक सुव्यवस्थित शृंखला बनाई जाय। इसका निर्धारण ही सुव्यवस्था कहा जाता है। इस क्रम को बिगाड़ देने पर पूरा परिश्रम करने पर भी बात बनती नहीं और समस्याएँ सुलझने के स्थान पर और भी अधिक उलझ जाती है। इन दिनों प्रत्येक विज्ञजन के लिए करने योग्य सामयिक कार्य एक ही है, कि लोक मानस के परिष्कार का महत्त्व समझा जाय और आस्था संकट का निवारण करने के लिए प्राण प्रण से जुट पड़ा जाय। इस एक ही व्यवधान के समाधान पर समय की समस्त गुत्थियों का सुलझ सकना निर्भर है।

🔶 यह सब अनायास ही संभव नहीं हो सकता। इस श्रेय पथ पर चल सकना मात्र उन्हीं के लिए संभव है, जो अपनी आकांक्षा उत्कंठा को तृष्णा से हटाये और उसे उतनी ही भावना पूर्वक श्रेय साधना के लिए लगायें। यह आन्तरिक परिवर्तन ही बाह्य क्षेत्र में वह सुविधा उत्पन्न कर सकता है, जिसके सहारे शरीर निर्वाह की तरह ही आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण का महान प्रयोजन बिना किसी के, नितान्त सरलतापूर्वक सधता रहे। परमार्थ परायणों में से एक भी भूखा, नंगा नहीं रहा। उनके पारिवारिक उत्तरदायित्वों में से एक भी रुका नहीं पड़ा रहा। तरीके अनेकानेक हैं। अपना सोचा हुआ तरीका ही एक मात्र मार्ग नहीं है।

🔷 नये सिरे से नये उपाय सोचने पर ऐसे समाधान हर किसी को उपलब्ध हो सकते हैं जिनमें से साँप मरे न लाठी टूटे। निर्वाह किसी के लिए समस्या नहीं। कठिनाई एक ही है-अनन्त वैभव की लिप्सा और कुटुम्बियों को सुविधा सम्पदा से लाद देने की लालसा। यदि परिवार के समस्त सदस्यों को श्रमजीवी, स्वावलम्बी बनाने की बात सोची जाय, औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार किया जाय तो इतने भर से जीवन को सार्थक बनाने वाली राह मिल सकती है। प्रश्न एक ही है कि शरीर के लिए जिया जाय या आत्मा के लिए। दोनों में से एक को प्रधान एक को गौण मानना पड़ेगा। यदि आत्मा की वरिष्ठता स्वीकार की जा सके तो उन प्रयोजनों को पूरा करना पड़ेगा, जिनके लिए सृष्टा ने यह सुर दुर्लभ अवसर उच्चस्तरीय उपयोग के निमित्त प्रदान किया है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Amrit Chintan 31 Jan

🔷 Farmers shade their perspiration in the field and they grow the crop in their fields. In the same way good persons get co-operation and followers from all sides. If one is keen to get the answer of his problem he will surely find suitable person to answer. There are examples where the prisoners under iron curtain can learn a lot just using a chalk and precocious on some metal vessel as the writing pad. Actually it is the keen desire of the person that can give any thing is this word but for that what is needed is hard labour and constant practice whole heartedly.
 
🔶 All the three dimensions of spiritual growth atheism, concept of soul and duty must be covered for proper development. Devotion to God is devotion to ideality, because God is representation of all virtues of human life. Worship is the starting point to achieve those virtues in his own life.
 
🔷  A woman’s body is not her anatomy but is truly complimentary to the make figure. The women create the true happiness of the family. It is that motherhood of a lady which creates a heavenly atmosphere in family. Women mean the source of  loving atmosphere in family. She wipes of the gloomy condition among the members. Her life is full of love, sacrifice, tolerance and bliss of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 9)

🔷 मित्रो! यह सब देखकर मुझे बड़ा क्लेश होता है, बड़ा दुःख होता है। लोगों ने तो रामचंद्र जी की भी मिट्टी पलीद कर दी थी। उनको गये हुए कितने वर्ष हो गये। भगवान श्रीकृष्ण की भी लोगों ने मिट्टी पलीद कर दी। उन्हें गये हुए पाँच हजार वर्ष से अधिक दिन हो गये। गाँधी जी की भी मिट्टी पलीद हो जाय, राणाप्रताप की भी मिट्टी पलीद हो जाय, तो क्या कह सकते हैं? लोग उनके नाम पर भी धंधा करने लग जायँ तो क्या कहा जा सकता है? तुम लोग मेरी भी मिट्टी पलीद क्यों कर रहे हो? मेरी जिंदगी में ही मुझे क्यों बदनाम कर रहे हो? मेरे जाने के बाद मुझे बदनाम करना? अभी तो अपनी सफाई पेश करने के लिए मैं जिन्दा हूँ। अभी मुझे क्यों तंग करते हो।

🔶 मित्रो! आप लोगों के पास जाना और जिन आदमियों को-लाखों मनुष्यों को, जिनको मैंने अपने खून-पसीने से और अपनी मेहनत के बाद तैयार किया है, उन्हें यह संदेश सुनाना कि गुरुजी क्या हैं और यह मिशन क्या है? हमारा मिशन इन्सान में भगवान पैदा करने की कल्पना करता है। हम इन्सान में भगवान पैदा करेंगे। हम इन्सान को भगवान बनायेंगे। भगवान की खुशामद करके मनोकामना पूर्ण कराने का प्रोत्साहन हम नहीं देंगे। हम ऐसा कोई आश्वासन नहीं देंगे, वरन् हम यह आश्वासन देंगे कि इंसान अपने आपमें भगवान है और अपने आपके भगवान को विकसित करने के लिए उनको खाद-पानी और बीज-तीनों की आवश्यकता पड़ेगी। हमको हर आदमी को आस्तिक बनाना पड़ेगा, जो कि आज नहीं है। आज जो है, वे नास्तिक हैं। आपको उन तक आस्तिकता का संदेश पहुँचाना पड़ेगा और आस्तिकता की व्याख्या करनी पड़ेगी, जो मैंने इस समय तक आपको कही।

🔷 मित्रो! आपको लोगों के पास जाना पड़ेगा। मनुष्यों में महानता विकसित करने के लिए, महानता के लिए बरगद का पेड़ उगाने के लिए, जीवन का कल्पवृक्ष उगाने के लिए उसमें खाद देनी पड़ेगी। खाद का नाम वह है-जिसको हम आस्तिकता कहते हैं। जिसको हम आध्यात्मिकता कहते हैं, अर्थात् अपने आप पर विश्वास करना और अपने आपका परिशोधन करना। आप हर आदमी से यह कहना कि मनुष्य को सुख और शांति देने के लिए, जीवन को कल्पवृक्ष बनाने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, उस चीज का नाम धार्मिकता है।

🔶 पौधे को विकसित करने के लिए बीज बोना-एक, पौधे में पानी देना-दो और खाद लगाना-तीन तीनों काम अगर आप कर लेंगे, तो आपका विशाल बरगद जैसा वृक्ष बढ़ता हुआ चला जायेगा। आपका जीवन रूपी बरगद का विशाल वृक्ष पल्लवित-पुष्पित होता हुआ चला जायेगा। उसके ऊपर फूल आयेंगे, उसके ऊपर फल आयेंगे और उसके ऊपर डालियाँ आयेंगी। ऐसे आदमी न केवल उस व्यक्ति को, जो अभावों में डूबा हुआ है, कंगाली में डूबा हुआ है, उसका न केवल उद्धार करेंगे, वरन् उसको इस लायक बना देंगे कि अपनी नाव में बिठा करके वह हजारों मनुष्यों को पार करने में सफल हो सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 27)

👉 शंकर रूप सद्गुरु को बारंबार नमन्

🔶 गुरुगीता अध्यात्मविद्या का परमगोपनीय शास्त्र है। हाँ, इसे समझने के लिए गहरी तत्त्वदृष्टि चाहिए। यह तत्त्व दृष्टि विकसित हो सके, तो पता चलता है कि वैदिक ऋचाएँ जिस सत्य का बोध कराती हैं, उपनिषद् की श्रुतियों में जिसका बखान हुआ है, गुरुगीता में भी वही प्रतिपादित है। अठारह पुराणों में जिन परमेश्वर की लीला का गुणगान है- वही सर्वेश्वर प्रभु शिष्यों के लिए सद्गुरु का रूप धरते हैं। अध्यात्म विद्या के सभी ग्रन्थों-शास्त्रों को पढ़ने का सुफल इतना ही है कि अपने कृपालु सद्गुरु के नाम में प्रीति जगे। सन्तों ने इसे कहा भी है-
    पढ़िबे को फल गुनब है, गुनिबे को फल ज्ञान।
    ज्ञान को फल गुरु नाम है, कह श्रुति-सन्त पुराण॥
  
🔷 यानि कि समस्त शास्त्रों को पढ़ने का फल यह है कि उस पर चिन्तन-मनन-निदिध्यासन हो। और इस निदिध्यासन का फल है कि साधक को तत्त्वदृष्टि मिले, उसे ज्ञान हो तथा ज्ञान का महाफल है कि उसे सद्गुरु के नाम की महिमा का बोध हो। उनके नाम में प्रीति जगे। उन्हें नमन का बोध जगे। यही श्रुति, सन्त और पुराण कहते हैं।
  
🔶 ऊपर के मंत्रों में गुरुभक्त शिष्यों को इसकी अनुभूति कराने की चेष्टा की गयी है। इसमें बताया गया है कि शिष्य का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने सद्गुरु को नमन करें, क्योंकि वही संसार वृक्ष पर आरूढ़ जीव का नरक सागर में गिरने से उद्धार करते हैं। नमन उनश्री गुरु को, जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं। शिव रूपी उन सद्गुरु को नमन करना शिष्य का परम कर्त्तव्य है, जो समस्त विद्याओं का उदय स्थान और संसार का आदि कारण हैं और संसार सागर को पार करने के लिए सेतु हैं। वे गुरुदेव भगवान् ही अज्ञान के अन्धकार से अन्धे जीव की आँखों को ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोलते हैं। गुरुवर ही अपने शिष्य के लिए पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं और इष्ट देवता हैं। वे ही उसे संसार के सत्य का बोध कराने वाले हैं। ऐसे परम कृपालु सद्गुरु को शिष्य बार-बार नमन करे और करता रहे

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 49

सोमवार, 29 जनवरी 2018

👉 गलती को भी मानें

🔷 अक्सर हम आवेश में आकर ऐसी प्रतिक्रिया दे देते हैं जो बाद में जाकर हमें दुःख देती है। कई बार परिवार के भीतर या कंपनी में ही हम अपने वरिष्ठों ये कनिष्ठों की बात को पूर्ण सुने बिना ही अपनी प्रतिक्रिया दे देते हैं। हम दूसरों में खोट, कपट, बेईमानी के लक्षण ढूँढते रहते हैं पर स्वयं की गलतियाँ मानने में हमारा ही अहं हमें रोकता है।

🔶 एक छोटी-सी कहानी है जिसके माध्यम से हम जान सकते हैं कि जल्दबाजी में प्रतिक्रिया देने का असर क्या होता है। कॉलेज में अच्छे नंबरों से पास होने के बाद एक युवा की अच्छी कंपनी में नौकरी लगती है। वह एक बहुत ही बड़े बिजनेसमैन का लड़का रहता है और कॉलेज में जाने से पूर्व से उसकी इच्छा रहती है कि उसके पास महँगी कार होना चाहिए।

🔷 अपने युवा पुत्र को उन्होंने यह वादा किया था कि अगर वह अच्छे नंबरों से पास हो जाता है और अपने बल पर नौकरी प्राप्त कर लेता है तब उसे वे कार जरूर लेकर देंगे। उस लड़के ने काफी दिनों से एक विशेष मॉडल की कार के सपने देखे थे और वह चाहता था कि पिता वही कार उसे दें।

🔶 पिता को भी यह बात पता थी। पास होने के बाद एक दिन पिता ने पुत्र को बुलाया। पुत्र समझ गया था कि आज उसे निश्चित रूप से कार मिलेगी। उसने अपने सभी साथियों से पहले ही कह दिया था कि सभी कार से लांग ड्राइव पर चलेंगे। वह पिता से मिलने जाता है। पिता उसे शाबासी देते हैं, साथ ही एक प्रेरक पुस्तक बक्से में रखकर देते हैं और कहते हैं कि बेटा तुम पास हो गए हो और अब आगे की जिंदगी बड़ी कठिनाई भरी होगी इस कारण तुम इस किताब को जरूर पढ़ो।

🔷 कार के सपनों में खोया युवा साथी किताब की बात सुनकर ही भड़क जाता है और उस बक्से को फेंक देता है और वहाँ से बाहर आ जाता है। वह काफी मायूस होता है कि क्या सोचा था और क्या हो गया? उसके मन में ऐसे विचार आने लगते हैं कि क्यों न घर ही छोड़ दे? काफी विचार करने के बाद वह नौकरी करने दूसरे शहर चले जाता है और पिता के काफी संपर्क करने के बाद भी वापस नहीं आता।

🔶 कई वर्षों तक वह पिता से संपर्क हीं नहीं करता। एक दिन उसके पास खबर आती है कि पिता की मृत्यु हो गई है। अपनी पत्नी के कहने पर वह पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने जाता है। अंतिम संस्कार के बाद वह पिता के कमरे में जाता है जहाँ पर वहीं बक्सा रखा होता है जिसमें किताब रहती है।

🔷 वह उस बक्से को उठाता है और किताब के पन्ने पलटता है तब उसमें से चाबी गिरती है। यह उसी कार की चाबी होती है जो उसके पिता ने वर्षों पूर्व खरीदी रहती है और यह वही कार होती है जिसके सपने वह देखा करता था। साथ ही किताब के नीचे कुछ कागजात रहते हैं जिनमें संपूर्ण संपत्ति व जायदाद उसके नाम की होती है। यह देखकर युवा लड़के की आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं और वह स्वयं से ही कहने लगता है कि मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊँगा।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 30 Jan 2018


👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 5)

🔷 करना क्या चाहिए? यदि इस प्रश्न का उत्तर गम्भीरता और दूरदर्शिता के सहारे उपलब्ध करना हो तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि शरीर को जीवित रखने भर के साधन जुटा देने के उपरान्त जो सामर्थ्य शेष रहती है, उसे आत्मा का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ में लगा देने का साहस करना चाहिए। मात्र औचित्य अपनाने की इस समझदारी को साहस इस अर्थ में कहा जा रहा है, कि जन समुदाय के अधिकांश सदस्य अनर्थरत ही देखे जाते हैं उन्हें लोभ मोह की आग भड़काने और उसे बुझाने के लिए ईंधन जुटाने में ही निरन्तर कार्यरत देखा जाता है।

🔶 सुना है कि तेल या ईंधन डालने से आग भड़कती है, पर मनुष्य है जो तृष्णा को भड़काता और उसकी पूत के लिए, रावण जितना वैभव जुटाने के लिए अहर्निश श्रम करता है। अपना ही नहीं पड़ोसियों का सामान समेट कर भी उसी दावानल में झोंकता रहता है। यही है असफल और उद्विग्न जीवन का स्वरूप, जिसे अपनाने के लिए अधिकांश लोग उन्मादियों की तरह दौड़-धूप करते रहते हैं। यही है प्रवाह जिसमें जन समुदाय को तिनके पत्तों की तरह बहते देखा जाता है। इस भगदड़ भेड़चाल से भिन्न दिशा में कोई अपना मार्ग निर्धारित करता है तो उसे साहस ही कहना चाहिए। दिग्भ्रान्तों के झुण्ड को चुनौती देकर सही रास्ते का सुझाव देने वाला मूर्ख कहलाता और उपहासास्पद बनता है। तथाकथित जन समुदाय का विशेषतया कुटुम्बियों, हितैषियों का उपहास, तिरष्कार सहने की क्षमता सँजोना निस्संदेह साहस भरा कदम है। इसी से कहा जा रहा है कि आदर्शवाद को, सत्य और तथ्य को अपनाना भी इस अवांछनीयता के माहौल में साहस ही नहीं दुस्साहस भरा कदम है।

🔷 औचित्य कहा जाय या साहस। जीवन की सार्थकता का रास्ता एक ही है कि अमीरी और लिप्सा पर अंकुश लगाकर औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाया जाय। उतना जुट जाने पर पूरा-पूरा संतोष किया जाय। इसके उपरान्त जो भी बचा रहता है उस समूचे को ऐसे उपक्रम में नियोजित किया जाय, जिससे मानवी गरिमा का अभिवर्धन होता हो। आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण का उभय पक्षीय प्रयोजन सधता है। इस निर्धारण में भी यह देखना होता है कि सामयिक आवश्यकता पर ध्यान रखते हुए जो सर्वप्रथम सँभालने सुधारने योग्य है उसी को हाथ में लिया जाय।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Amrit Chintan 30 Jan

🔷 There is somewhere oneness in visible different forms. And this is the base of development and progress. When we divide or break in pieces. The power is reduced and the collective power of any material thing makes it strong and useful. A drop of water is same as a glass of water qualitatively, but drop can not quench the thirst. The law exists for human development as well.
 
🔶 My dear sons,
You can do a lot for me and for the mission I am committed if you decide so. You must grow sacredness and selfless love in life not only you will be my beloved son but you will be blessed by Rishis of Himalaya and saints who are our guide for the success of the mission of Yug Nirman Yojna.
 
🔷 The whole progress in life is right thinking and developing that in action. The objects of all religions are proper guidance to do good for self and others. God showers his grace to give you more courage to stick to right path. If that courage does not develop in one’s life is meant that his religion and spiritual path in simply a mimic.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 8)

🔷 मित्रो! क्या करना पड़ेगा? अधिक से अधिक लोग जो इस मिशन के विचारों को सुनने में समर्थ हों, उन तब हमारा संदेश पहुँचाया जा सके जिसको हमने आस्तिकता कहा है, जिसको हमने अध्यात्मवाद कहा है, जिसको हमने धर्म परम्पराएँ कहा है, उसका संदेश अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच जाय, तो अच्छा है। लेकिन अगर अधिक संख्या में लोग इकट्ठा नहीं होते, तो आप कभी सफलता-असफलता का अंदाज मत लगाना। हमने संख्या की दृष्टि से क्रियाकलापों को महत्त्व नहीं दिया है। बहिरंग रूप से कितना बड़ा पंडाल बना, कितना खर्च हुआ, कितने लोग आये-आदि की दृष्टि से आप सफलता-असफलता का अन्दाज कभी मत लगाना। आपको अन्दाज लगाना है, तो इस तरह से लगायें कि जहाँ और जिस कार्य के लिए आपको भेजा गया था, वहाँ जा करके आपने लोगों के अंदर भावनायें उत्पन्न करने में कितनी सफलतायें प्राप्त की। लोगों की भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें ऊँचा उठाने में कदाचित आपने सफलता प्राप्त कर ली, तो मैं यह समझूँगा कि आपने अपना काम पूरा कर लिया और आपका काम पूरा हो गया। तब मैं समझूँगा कि आपका उद्देश्य सही था और आप यह समझते थे कि आपको किस काम के लिए भेजा गया है।

🔶 मित्रो! आप जिन लोगों के संपर्क में आयें, उनसे बराबर बात करना, सलाह देना, परामर्श देना, उनके साथ रहना, उनसे हिलना-मिलना और खासतौर से उन लोगों से जिनको हम अपना कार्यकर्ता कहते हैं। जनता हमारे कार्यों में भाग लेती है कि नहीं लेती है, अभी हमको उसकी फिकर नहीं है। अभी हमको यह फिकर है कि जिन लाखों आदमियों को हमने अब तक की अपनी लम्बी जिंदगी में कितनी मेहनत करने के बाद और कितना परिश्रम करने के बाद तैयार किया है और अपने संपर्क में लाया है। उनको हमारे उद्देश्यों की सही बात मालूम न हो सकी और उन सब को हमारी क्रियाओं का आभास न हो सका और उन सब तक हमारी गतिविधियों की कोई बात मालूम न हो सकी। यह कैसी मुसीबत है और कैसी कठिनाई है और कैसी दिक्कत है? सबसे बड़ी कठिनाई, सबसे बड़ी दिक्कत और सबसे बड़ी मुसीबत इस बात की है कि हम अपनी टीमवालों को ही नहीं समझा सके, तो बाहर वालों को कैसे समझाएँगे?

🔷 साथियो! अभी तक लोग हमें मैजेशियन-जादूगर समझते हैं। संतोषी माता समझते हैं। गुरुजी के मायने वे समझते हैं-मनोकामनाएँ पूरी करने की मशीन। गुरुजी के गले में माला डालो और उनके मुँह से आशीर्वाद निकालो। स्टेशनों पर यही होता है। हर स्टेशन पर वेट करने की-तौलने की मशीन लगी होती है। लोग उस पर खड़े हो जाते हैं और दस पैसे का सिक्का डालते हैं। दस पैसा डालते ही मशीन घूमी और वजन लिखा हुआ टिकट बाहर आ जाता है। गुरुजी क्या हैं? वही हैं जो स्टेशन पर मशीन लगी है। किसकी मशीन? वेट जानने की मशीन। वेट जानने में क्या करना पड़ता है? उनके गले में माला पहनानी पड़ती है और क्या करना पड़ता है? पैर छूने पड़ते हैं। पैर छूने के बाद में और माला पहनाने के बाद में और क्या करना पड़ता है? उनके पेट में से, उनके मुँह में से जाकर खट से टिकट आ जाता है। किसका टिकट आ जाता है? आशीर्वाद का टिकट आ जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 26)

👉 आओ, गुरु को करें हम नमन
🔶 यह घटना समर्थ गुरु रामदास और उनके शिष्य शिवराम के सम्बन्ध में है। उन दिनों स्वामी रामदास अपनी तेरह वर्षीय कठोर साधना को पूर्ण करके सारे देश में अलख जगा रहे थे।
  
🔷 इस क्रम में उन्हें बनारस आना था। अपनी बनारस यात्रा की चर्चा उन्होंने अपने शिष्यों से करते हुए कहा कि इस बार की यात्रा मैं अकेले ही करूँगा। सब शिष्यों ने उनका आदेश स्वीकार कर लिया, पर बालभक्त शिवराम ने जिद्द पकड़ ली कि वह भी उनके साथ जाएगा। शिवराम की आयु बारह साल थी। समर्थ गुरु ने बहुत समझाया कि बेटा तुम इतनी लम्बी यात्रा पैदल कैसे करोगे? पर बालहठ पर कोई असर नहीं हुआ। अन्त में स्वामी रामदास ने उससे कहा- अच्छा बेटा! तुम अपनी मां से आज्ञा ले लो। अगर वह आज्ञा दे देगी, तो हम तुम्हें ले चलेंगे। शिवराम की मां एक भक्तिमती विधवा महिला थी। शिवराम उनकी इकलौती सन्तान था। सन्तान के प्रति उनका जितना गहरा ममत्व था, समर्थ गुरु के चरणों में उतनी ही गहरी भक्ति थी। पुत्र की बात सुनकर उन्होंने एक पल की देर लगाये बिना आज्ञा दे दी।
  
🔶 शिवराम की भक्ति और उसकी मां की आस्था से द्रवित होकर समर्थ गुरु उसे अपने साथ काशी ले आए। काशी आने पर गुरु आज्ञा से शिवराम भिक्षा मांगने के लिए निकला। समर्थ रामदास और उनके शिष्यों का भिक्षा हेतु एक नियम था। वह किसी के द्वार पर खड़े होकर केवल तीन बार पुकारते थे- जय-जय रघुवीर समर्थ। तीन बार पुकारने पर यदि किसी ने भिक्षा दी तो ठीक अन्यथा आगे बढ़ जाते थे। इस तरह तीन घरों में भिक्षा मांगना उनका नियम था। तीन घरों में यदि भिक्षा न मिली तो वे उस दिन उपवास कर लेते थे। शिवराम ने भी इसी नियम के अनुसार एक द्वार पर आवाज लगायी। यह द्वार काशी के महातांत्रिक भैरवानन्द का था। भैरवानन्द को अनेकों तामसी तान्त्रिक क्रियाएँ सिद्ध थीं। यह महातांत्रिक होने के साथ महाक्रोधी भी था।
  
🔷 अपने द्वार पर जय-जय रघुवीर समर्थ की आवाज सुनते ही वह भड़क उठा। क्रोधावेश में वह द्वार पर निकलकर आया और बालक शिवराम को डांटते हुए बोला कि कौन है, जो अपने को समर्थ कहता है। शिवराम ने बिना किसी भय के कहा कि समर्थ हैं मेरे गुरु और उनकी सामर्थ्य का स्रोत उनके आराध्य भगवान् राम हैं। छोटे बालक को अपने सामने इस तरह बोलते हुए देख उस क्रोधी तांत्रिक ने कहा, जा मैं भैरवानन्द तुझसे कहता हूँ कि तू कल प्रातःकाल तक मर जाएगा, तेरे गुरु में सामर्थ्य है, तो तुझे बचा लें। शिवराम ने समर्थ रामदास के पास उपस्थित होकर उस तांत्रिक की सारी बातें बतायी। उन बातों से भी उन्हें अवगत कराया, जो रास्ते में बनारस के लोगों ने उसे महातांत्रिक की आश्चर्यजनक शक्तियों के बारे में बतायी थी। इन सारी बातों को सुनकर समर्थ रामदास हंसे और बोले बेटा- समर्थ रघुवीर के होते डर कैसा? तू तो बस आराम से गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु वाला मन्त्र पढ़ता रह और आराम से मेरे पांव दबाए जा। इतना कहकर समर्थ रामदास लेट गए।
  
🔶 बालक शिवराम ने उनके पांव दबाते हुए गुरु नमन के मंत्र पढ़ने शुरू किए। इधर भैरवानन्द ने भी उसके मारण के लिए महाकृत्या का प्रयोग किया था। पूरी रात महाकृत्या ने शिवराम को मारने के लिए अनेकों रूप धरे, उसको कई तरह से गुरु नमन से विरत करना चाहा, परन्तु शिवराम की अटल गुरुभक्ति के सामने उसकी एक न चली। अन्त में असफल होकर उसने भैरवानन्द पर ही अपना आक्रमण किया। महातांत्रिक अपनी क्रिया को इस तरह उलटते देखकर घबरा गया। वह भागा-भागा आकर समर्थ के चरणों में गिर गया। समर्थ रामदास ने उसे अभय देते हुए कृत्या का शमन किया और उसे चेताया—गुरुगीता के गुरु नमन मंत्र साधारण नहीं हैं। जिसकी वाणी में ये मंत्र हैं और हृदय में गुरुभक्ति है, वह गुरुकृपा के कवच से सदा सुरक्षित है। कोई अभिचार क्रिया उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। गुरु नमन के इन नमन मंत्रों की शृंखला में आगे कहा गया है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 47

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 29 Jan 2018


👉 हृदय का संस्कार

🔶 बुद्धि का संस्कार करना उचित है। पर हृदय का संस्कार करना तो नितान्त आवश्यक है। बुद्धिमान और विद्वान बनने से मनुष्य अपने लिए धन और मान प्राप्त कर सकता है। पर नैतिक दृष्टि से वह पहले दर्जे का पतित भी हो सकता है। आत्मा को ऊँचा उठाना और मानवता के आदर्शों पर चलने के लिए प्रकाश प्राप्त करना हृदय के विकास पर ही निर्भर है। बुद्धि हमें तर्क करना सिखाती है और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन खोजती है। जैसी आकाँक्षा और मान्यता होती है उसके अनुरूप दलील खोज निकालना भी उसका काम है पर धर्म कर्तव्यों की ओर चलने की प्रेरणा हृदय से ही प्राप्त होती है।

🔷 जब कभी बुद्धि और हृदय में मतभेद हो, दोनों अलग अलग मार्ग सुझाते हो तो हमें सदा हृदय का सम्मान और बुद्धि का तिरस्कार करना चाहिए। बुद्धि धोखा दे सकता है पर हृदय के दिशासूचक यंत्र (कुतुबनुमा) की सुई सदा ठीक ही दिशा के लिए मार्ग दर्शन करेगी।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 4)

🔷 अन्यान्य प्राणियों के पेट बहुत बड़े हैं, जबकि मनुष्य का छै इंच चौड़ाई का इतना छोटा पेट है जो मुट्ठी भर अनाज से भर सके। अन्य प्राणी केवल जो सामने है उसी को पाते और मुख के द्वारा खाते है। जबकि मनुष्य अगणित सुविधा साधन अपने कौशल और पराक्रम से चुटकी बजाते उपार्जित कर सकता है। ऐसी दशा में किसी को भी अभाव ग्रस्त होने जैसी शिकायत करने की गुंजाइश नहीं है। मनुष्य जीवन असीम सुविधाओं से भरा-पूरा है। उसकी दुनियाँ इतनी साधन सम्पन्न है कि अभाव जन्य कठिनाइयाँ अनुभव करने की किसी को कभी आवश्यकता ही न पड़े। दूषित अव्यवस्था ही है जिसमें ग्रसित होकर उसे अभावों का रोना रोते हुए समय गुजारना पड़ता हैं।

🔶 शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभव करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं। किसी श्मशान में थोड़ी देर बैठकर वहाँ के दृश्य का अवलोकन करते हुए यह पाठ भली प्रकार पढ़ा जा सकता है। आत्मा के पृथक होते ही हृष्ट-पुष्ट शरीर की भी कैसी दुर्गति होती है, इसे देखते हुए समझा जा सकता है कि शरीर ही आत्मा नहीं है, जीवधारी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी है, जो मरण के उपरान्त भी बना रहता है। यही है वास्तविक ‘स्व’ इसी का हित साधन करने को स्वार्थ कहा जाता है।

🔷 जब आत्मा को संकीर्णता की कीचड़ से बाहर निकाल कर उसे व्यापक क्षेत्र में विचरण कर सकने की स्थिति में लाया जाता है, तो उसे सबमें अपना ही आत्मा दिखता है। तब सर्वजनीन हित साधन परमार्थ बन जाता है। जिससे न स्वार्थ सधता है न परमार्थ, उसे अनर्थ ही कहना चाहिए। लगता है लोग अनर्थ को ही अपनाते और उसी के नियोजन में अपने चातुर्य को संलग्न रखे रहते हैं। अन्ततः यह तथाकथित बुद्धिमत्ता मूर्खता से भी मँहगी पड़ती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Amrit Chintan 29 Jan

🔷 Oh God, I pray you that I should always be ready to face the adversities of life. So I pray you to save me in my hard days. It is not that I don’t face probles but I request to prepare me for facing them bravely and positively. I offer myself to you. And wish that I should win and come out safely without being envolved negatively.
 
🔶 Worship never completes unless other important dimensions of self rectification good life and service to others is also covered with that, the seed bears the total tree no doubt but it need a land to grow well enriched with its neutrition and time factor to grow. Worship is not only the ritual part of it but also compassion and ideality of life are important discipline to be followed, otherwise rituals will not make any effect.

🔷 To be ambicious is good subject to conditional makes you great and not only rich. There is always only one highway to attain Honest and object in life. High thinking and behaviour in accordance to that and high moral character is the triadent dimensions for true growth of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 8)

🔷 मित्रो! कष्ट बस एक ही बात का है कि मनुष्य अपने विचार करने के तरीके को भूल गया। आचार, विचार और व्यवहार को ठीक करने के लिए, गुण, कर्म एवं स्वभाव में उत्कृष्टता, शालीनता एवं उदारता को समाविष्ट करने के लिए हम आपको भेजते हैं। यह इतना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य है कि जिस तरीके से फायर ब्रिगेड वालों को आग बुझाने के लिए भेजा जाता है हम आपको फायर ब्रिगेड वालों के तरीके से उस समाज में भेजते हैं, जहाँ चारों ओर से आग लग रही है और चारों ओर से लपटें उठ रही हैं।

🔶 आप अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए वहाँ जाना। वहाँ जाकर आप क्या काम करेंगे? बहिरंग रूप से हमने आपको बहुत सारे काम सौंपे हैं। उन बहिरंग कार्यों में आपको कितनी सफलता मिली और कितनी असफलता मिली, इस पर आप ध्यान मत देना। आपको जहाँ भेजा जाता है, वहाँ के सम्मेलन की रूपरेखा, सफलता और असफलता के मामले में देखना शुरू कर दिया, तो आप बहुत बड़ी गलती पर होंगे। वहाँ आपको सभा-सम्मेलन में कितने लोग इकट्ठे हुए। इस तरह लोगों के इकट्ठा करने की संख्या के आधार पर हम सफलता असफलता का अन्दाज नहीं करते।

🔷 मित्रो! लोगों की संख्या के आधार पर यदि हमने सफलता-असफलता के मूल्यांकन किये होते, तो सोमवती अमावस्या के दिन गंगा जी के एक-एक घाट पर लाखों आदमी स्नान करते हैं। अगर हम यह मान लें कि हिन्दुस्तान में गंगा जी के घाट करीब सौ हैं और एक-एक घाट पर एक-एक लाख आदमी स्नान करते हैं। तब यह माना जा सकता है कि एक करोड़ आदमी धर्मात्मा हैं। भीड़ को देखकर हम क्या अन्दाज लगा सकते हैं, नहीं लगा सकते।

🔶 रामलीला होती रहती है और उसमें औरतें, बच्चे और दूसरे आदमी आते रहते हैं। अरे साहब! रामलीला हुई थी, उसमें दस हजार आदमी आये थे। बेटे, मैं क्या करूँ दस हजार आदमी थे तो? उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। कुंभ में बारह लाख आदमी आये थे, तो मैं क्या करूँ? आप भीड़ से क्या मतलब लगाते हैं? नहीं साहब! बड़ा कुंभ का मतलब है कि हिन्दुस्तान में बड़ा धर्म फैल रहा है और यहाँ पर बड़े अध्यात्मवादी लोग हैं। बेटे, ऐसा नहीं है। अध्यात्मवादी लोग यहाँ कहाँ हैं? संख्या की दृष्टि से हम भीड़ में यह अंदाज भी नहीं लगा सकते। आप भी मत लगाना।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 25)

👉 आओ, गुरु को करें हम नमन

🔶 गुरु नमन की महिमा को अगले महामंत्रों में प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती को समझाते हैं-

संसारवृक्षमारूढा पतन्तो नरकार्णवे।     येन चैवोद्धृताः सर्वे तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३१॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३२॥
हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे। प्रभवे सर्वविद्यानां शंभवे गुरवे नमः॥ ३३॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३४॥
त्वं पिता त्वं च मे माता त्वं बंधुस्त्वं च देवता। संसारप्रतिबोधार्थं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३५॥

🔷 उन सद्गुरुदेव भगवान् को शिष्य नमन करे, जो संसारवृक्ष पर आरूढ़ जीव का नरक सागर में गिरने से उद्धार करते हैं॥ ३१॥ नमन उन श्रीगुरु को, जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ परब्रह्म परमेश्वर हैं॥ ३२॥ शिव रूपी उन सद्गुरु को नमन, जो समस्त विद्याओं का उदय स्थान हैं। इस संसार का आदिकारण हैं और संसार सागर को पार करने के लिए सेतु हैं॥ ३३॥ नमन उन श्री गुरु को, जो अज्ञान के अन्धकार से अन्धे जीव की आँखों को ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोलते हैं॥ ३४॥ नमन उन श्री गुरु को, जो अपने शिष्य के लिए पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं, इष्ट देवता हैं और संसार के सत्य का बोध कराने वाले हैं॥ ३५॥

🔶 इन महामंत्रों में सद्गुरु के नमन का विज्ञान-विधान है। गुरुतत्त्व को जान लेने पर, उनकी महिमा का साक्षात्कार कर लेने पर शिष्य को कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता। उसे किसी का भी भय नहीं रहता। शिष्य के हृदय में जब अपने सद्गुरु के प्रति नमन के भाव उपजते रहते, तब उसका सर्वत्र मंगल होता है, उसे अमंगल की छाया स्पर्श भी नहीं कर सकती। सद्गुरु को नमन शिष्य के लिए महाअभेद्य कवच है। इस सम्बन्ध में एक सत्य घटना का उल्लेख करने के लिए भावनाएँ आतुर हो रही हैं।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 46

शनिवार, 27 जनवरी 2018

👉 अपने सुख के लिए दूसरों के दुःख नहीं

🔶 सेवा ग्राम में गाँधी जी के पास एक कुष्ठ रोगी परचुरे शास्त्री रहते थे। उनके कुष्ठ रोग के लिए किसी ने दवा बताई कि- एक काला साँप लेकर हाँडी में बंद किया जाय फिर उस हाँडी को कई घंटे उपलों की आग में जलाया जाय। जब साँप की भस्म हो जाय तो उसे शहद में मिलाकर खाने से कुष्ठ अच्छा हो जायेगा। गाँधी जी ने पूछा- ‘क्या आप ऐसी दवा खाने को तैयार है?’ शास्त्री जी ने उत्तर दिया- बापू! यदि साँप की जगह मुझे ही हांडी में बन्द करके जला दिया जाय तो क्या हानि है? साँप ने क्या अपराध किया है कि उसे इस प्रकार जलाया जाय?

परचुरे शास्त्री की वाणी में उस दिन मानवता की आत्मा बोली थी। वे लोग जो पशु पक्षियों का माँस खाकर अपना माँस बढ़ाना चाहते हैं, इस मानवता की पुकार को यदि अपने बहरे कानों से सुन पाते तो कितना अच्छा होता।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Jan 2018

👉 आज का सद्चिंतन 27 Jan 2018


👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 3)

🔷 उपलब्ध वैभव का उपयोग एक ही है कि सृष्टा के प्रत्यक्ष कलेवर इस विराट विश्व में सौन्दर्य संवर्धन, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में अपनी क्षमता नियोजित किये रहे और सृष्टा का श्रम सार्थक करे, उसका मनोरथ अगले उपहारों के रूप में महामानव, ऋषि, मनीषी, देवता, सिद्ध पुरुष एवं भगवान अवतार बनने जैसी पदोन्नतियों का लाभ मिलता है। जो प्रमाद बरतते, विश्वासघात करते और उपलब्धियों को संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए प्रयुक्त करते हैं, उन्हें सुविधा छिनने और प्रताड़ना सहने का दुहरा दण्ड भुगतना पड़ता है। नरक-स्वर्ग की बात सभी जानते हैं। कुकर्मियों का चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करना सर्वविदित है। यह इसी प्रमाद का प्रतिफल है।

🔶 जिसमें मनुष्य जीवन को लूट का माल समझा गया और उसे विलास व्यामोह की निजी लिप्साओं के लिए प्रयुक्त किया गया। बैंक का खजांची यदि हस्तगत हुई राशि का अपने निज के लिए उपयोग कर ले, सरकारी शस्त्र भंडार का स्टोर कीपर उन आयुधों को दस्युओं या शत्रुओं के हाथों थमा दे, मिनिस्टर अपने अधिकारों का प्रयोग सम्बन्धियों को लाभ देने के लिए करने लगे तो निश्चय ही उसे अपराधियों के कटघरे में खड़ा किया जायेगा। मनुष्य भी यदि जीवन सम्पदा को वासना, तृष्णा, अहंता जैसे क्षुद्र प्रयोजनों में खर्च करता है, तो समझना चाहिए कि आज जिसे अधिकार माना जा रहा है कल उसी को अपराध गिना जायेगा। और ठीक वैसा ही दण्ड मिलेगा जैसा कि प्रमादी, विश्वासघाती सेनाध्यक्ष को कोर्ट मार्शल द्वारा मिलता है।

🔷 अच्छा हो समय रहते भूल सुधरे और वह उपक्रम बने जो जिम्मेदारों और ईमानदारों को शोभा देता है। यदि ऐसा कुछ विचार विश्वास मन में उभरे तो फिर अपनाने योग्य विधा एक ही है कि शरीर वहन के लिए निर्वाह भर की व्यवस्था बनाने के उपरान्त शेष समूची क्षमता को उन प्रयोजनों में खपा दिया जाय, जिनसे विश्व व्यवस्था का सन्तुलन बनता है और सार्वभौम प्रगति का, सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सुयोग बनता है। मनुष्य इस भूमिका को निभा सकने की स्थिति में असंदिग्ध रूप से समर्थ है। उसकी निजी आवश्यकताएँ इतनी कम है और उसकी पूत के साधन इतने अधिक है कि उस सन्तुलन को बिठाने में किसी को भी राई रत्ती भर कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Amrit Chintan 27 Jan

🔷 My affectionate scholars,
Life is a continous process from one life to the next and so on. The human nature and character brings all the impressions of previous life, which impregnates the thinking and his behaviour in the present life. One has to react, by himself from the point the present life starts. The art of living is to give a positive resistance to evil thoughts and control his actions and also develop and inculcate all what is good in life for self and others.
 
🔶 Power of mind is super. All the stages of life of pleasure and sorrow and ever your bondage and salvation depend on this mind power. The mind totally commands life. Our ancient Rishis mention that if man can control his own mind. He can achieve every thing worth achieve i.e. Arth, Dharma, Kama and Salvation. The sacredness of life and love for all develop by right thinking of mind. That is why it is said that if one can control own mind he controls the world.

🔷 Realization of God can be achieved by aquiring true wisdom. Man’s thinking is controlled by guidance of his intere in soul. That is why where the goods are collected and served are no less than any temple of God.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 7)

🔷 मित्रो! अध्यात्म जीवन जीने की कला है। जीवन किस तरह से जिया जा सकता है और जीवन को समग्र और समर्थ कैसे बनाया जा सकता है, इसके लिए है-अध्यात्म। वह अध्यात्म आज दुनिया से समाप्त हो गया है और उसके स्थान पर जादू आकर हावी हो गया है। हमारे और आपके सिर पर जादू बैठा हुआ है। अध्यात्म में आदमी को स्वावलम्बी बनना पड़ता था और अपने आपको परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बनाना पड़ता था, लेकिन वह प्रक्रिया आज न जाने कहाँ खत्म हो गयी। उसके स्थान पर परावलम्बन आकर हम पर हावी हो गया। हम हर चीज को पराये से माँगने में विश्वास करने लगे हैं। हम यह विश्वास करने लगे हैं कि कोई भूत-पलीत आयेगा, कोई साधु-बाबा आयेगा और हमें सुख-शांति और सिद्धियाँ दे करके, मुक्ति देकर के और कुछ दे करके चला जायेगा।

🔶 मित्रो! अध्यात्म का सत्यानाश हो गया और धर्म चौपट हो गया। धर्म का सत्यानाश हो गया। समाज की सुव्यवस्था के लिए जिन सत्परम्पराओं का परिपालन करना चाहिए, जिन नागरिक कर्तव्यों को आदमी को समझना चाहिए और जिन सामाजिक जिम्मेदारियों को आदमी को निभाना चाहिए, उससे आदमी लाखों मील दूर चला गया। धर्म के नाम पर केवल उसके कलेवर को और आडम्बरों को छाती से चिपका कर बैठ गया। आज धर्म का सत्यानाश हो गया और सर्वनाश हो गया। आस्तिकता का सर्वनाश हो गया। यह क्या हो गया? यह आ गयी बाढ़ और आ गया भूकंप, जिससे सब मटियामेट हो गया। अब ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं बची। ईश्वर स्तुति की विशेषताएँ, स्तुति की महत्ताएँ, मंत्र जप की विशेषताएँ आदि सबका प्रभाव जो मनुष्य के जीवन पर आना चाहिए था, वह सब चला गया, सब बाढ़ में बह गया। उसके स्थान पर केवल जादू रह गया। उसके स्थान पर केवल ठगी रह गयी है। अब केवल रह गया है कि हम भगवान को यह चीज देकर अमुक चीज, अमुक सिद्धियाँ प्राप्त कर लें। अमुक मंत्र घुमाकर अमुक चीज प्राप्त कर लें, स्वार्थ साध लें।

🔷 आज सारा का सारा मानव समुदाय इसी अज्ञान में डूबा हुआ है। इसलिए मनुष्य में जो सुख और शांति लाने की व्यवस्थाएँ थीं, वे सब चौपट हो गयीं, उनका सत्यानाश हो गया। आज सब कुछ चौपट दिखाई पड़ रहा है। हमें चारों ओर अंधकार दिखाई पड़ रहा है। हमको चारों ओर पतन दिखाई पड़ रहा है। हमें पीड़ाओं से चारों ओर से घिरा हुआ मनुष्य दिखाई पड़ रहा है। जबकि इस जमाने में इस संसार में ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको हम मनुष्य के लिए अभाव कह सकें। अभाव कहाँ है? जमीन में से कितना सारा अनाज पैदा होता है। अभाव कहाँ है? कैसी अच्छी हवा चला करती है। अभाव किस चीज का है? ढेरों पानी भरा पड़ा है। कपड़े के लिए जमीन ढेरों की ढेरों रुई पैदा कर देती है। फिर अभाव किस चीज का है? किसी चीज का अभाव नहीं है। मित्रो! हमारे पड़ोसी हैं, हमारी स्त्री है, बच्चे हैं, हमारे पास चिड़िया घूमती है और जानवर घूमते हैं। कैसा सुंदर संसार है। फिर अभाव किस बात का है? पीड़ायें किस बात की? कष्ट किस बात का? किसी बात का कष्ट नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 24)

👉 आओ, गुरु को करें हम नमन

🔶 गुरुगीता अध्यात्मविद्या के साधकों की प्राणचेतना का स्रोत है। इसके महामंत्रों के अनुशीलन से साधकों को नवप्राण मिलते हैं। उनमें आत्मतत्त्व का अंकुरण होता है। ब्रह्मविद्या स्फुरित होती है। वे यह सत्य जानने में समर्थ हो पाते हैं कि सद्गुरु ही सदाशिव हैं। भगवान् महेश्वर ने ही शिष्य-साधक पर कृपा करने के लिए गुरुदेव का रूप धरा है। गुरु और इष्ट में कोई भेद नहीं है। निराकार परब्रह्म परमेश्वर की सर्वव्यापी चेतना ही कृपालु सद्गुरुदेव के रूप में साकार हुई है। सद्गुरु को नमन इष्ट-आराध्य को नमन है। सद्गुरु को समर्पण सर्वव्यापी परमेश्वर को समर्पण है। गुरु और गोविन्द दो नहीं हैं। गुरु ही गोविन्द हैं और गोविन्द ही गुरु हैं।
  
🔶 पूर्व मंत्र में गुरुभक्त साधकों ने इस सत्य की किंचित् झलक पायी, जिसमें बताया गया है कि शिष्य को यह सत्य भली भाँति जान लेना चाहिए कि गुरु से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है। ऐसे परम श्रेष्ठ और शिष्य वत्सल गुरुदेव की सेवा करना शिष्य का कर्त्तव्य है। उनके द्वारा किए जाने वाले लोक कल्याणकारी कार्यों में शिष्य को उत्साहित होकर भागीदार होना चाहिए। अंशदान-समयदान और बन सके तो जीवनदान करने में किसी भी शिष्य को कोई भी संकोच नहीं होना चाहिए।

🔶 जिसे सेवा करने में अभी संकोच या हिचकिचाहट है, समझना चाहिए—उसमें शिष्यत्व अंकुरित ही नहीं हुआ है। मात्र दीक्षा संस्कार का कर्मकाण्ड करा लेने भर से कोई शिष्य नहीं हुआ करता। इसके लिए तो ‘सीस उतारे भुईं धरे’ वाली कबीर बाबा की उक्ति को साकार करना पड़ता है। जब शिष्य बन गए तो, अहं के विसर्जन में संकोच क्यों? जब हम अपने को शिष्य कहाते हैं, तो फिर गुरुवर को नमन में देरी किसलिए?
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 45

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

👉 सच्ची भक्ति की महिमा

🔶 एक बुढ़िया माई को उनके गुरु जी ने बाल-गोपाल की एक मूर्ती देकर कहा- "माई ये तेरा बालक है,इसका अपने बच्चे के समान प्यार से लालन-पालन करती रहना।"
बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन करने लगी।

🔷 एक दिन गाँव के बच्चों ने देखा माई मूर्ती को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है! बच्चो ने माई से हँसी की और कहा - "अरी मैय्या सुन यहाँ एक भेड़िया आ गया है, जो छोटे बच्चो को उठाकर ले जाता है।

🔶 मैय्या अपने लाल का अच्छे से ध्यान रखना, कही भेड़िया इसे उठाकर ना ले जाये..!" बुढ़िया माई ने अपने बाल-गोपाल को उसी समय कुटिया मे विराजमान किया और स्वयं लाठी (छड़ी) लेकर दरवाजे पर बैठ गयी।

🔷 अपने लाल को भेड़िये से बचाने के लिये बुढ़िया माई भूखी -प्यासी दरवाजे पर पहरा देती रही। पहरा देते-देते एक दिन बीता, फिर दुसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा दिन बीत गया।.....

🔶 बुढ़िया माई पाँच दिन और पाँच रात लगातार, बगैर पलके झपकाये -भेड़िये से अपने बाल-गोपाल की रक्षा के लिये पहरा देती रही। उस भोली-भाली मैय्या का यह भाव देखकर, ठाकुर जी का ह्रदय प्रेम से भर गया, अब ठाकुर जी को मैय्या के प्रेम का प्रत्यक्ष रुप से आस्वादन करने का लोभ हो आया!

🔷 भगवान बहुत ही सुंदर रुप धारण कर, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर माई के पास आये। ठाकुर जी के पाँव की आहट पाकर मैय्या ड़र गई कि "कही दुष्ट भेड़िया तो नहीं आ गया, मेरेलाल को उठाने !" मैय्या ने लाठी उठाई और भेड़िये को भगाने के लिये उठ खड़ी हूई!

🔶 तब श्यामसुंदर ने कहा - "मैय्या मैं हूँ, मैं तेरा वही बालक हूँ -जिसकी तुम रक्षा करती हो!" माई ने कहा - "क्या? चल हट तेरे जैसे बहुत देखे है, तेरे जैसे सैकड़ो अपने लाल पर न्यौछावर कर दूँ, अब ऐसे मत कहियो ! चल भाग जा यहा से..!

🔷 " (बुढ़िया माई ठाकुर जी को भाग जाने के लिये कहती है, क्योकि माई को ड़र था की कही ये बना-ठना सेठ ही उसके लाल को ना उठा ले जाये )।

🔶 ठाकुर जी मैय्या के इस भाव और एकनिष्ठता को देखकर बहुत ज्यादा प्रसन्न हो गये । ठाकुर जी मैय्या से बोले :-"अरी मेरी भोली मैय्या, मैं त्रिलोकीनाथ भगवान हूँ, मुझसे जो चाहे वर मांग ले, मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ" बुढ़िया माई ने कहा - "अच्छा आप भगवान हो, मैं आपको सौ-सौ प्रणाम् करती हूँ ! कृपा कर मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे प्राण-प्यारे लाल को भेड़िया न ले जाय" अब ठाकुर जी और ज्यादा प्रसन्न होते हुए बोले - "तो चल मैय्या मैं तेरे लाल को और तुझे अपने निज धाम लिए चलता हूँ, वहाँ भेड़िये का कोई भय नहीं है।" इस तरह प्रभु बुढ़िया माई को अपने निज धाम ले गये।

🔷 भगवान को पाने का सबसे सरल मार्ग है, भगवान जी को प्रेम करो - निष्काम प्रेम जैसे बुढ़िया माई ने किया!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 26 Jan 2018


👉 अहिंसा और हिंसा (अंतिम भाग)

🔶 यह सोचना गलती है कि दुख देना हिंसा और आराम देना अहिंसा है। तत्वतः काम के परिणाम और करने वाले की नियत के अनुसार हिंसा अहिंसा का निर्णय होना चाहिये। तात्कालिक और क्षणिक दुख-सुख में दृष्टि को अटकाकर उससे उत्पन्न होने वाले परिणाम की ओर से आँखें बन्द कर लेना बुद्धिमानी न होगी। किये हुए कार्य के परिणाम का गंभीरतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के उपरान्त उसके उचित या अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए और उसी के आधार पर उस कार्य को हिंसा या अहिंसा ठहराना चाहिये।

🔷 विवेकपूर्वक पालन की जाने वाली अहिंसा में दंड देने की, शस्त्र प्रहार करने की युद्ध और संघर्ष करने की गुंजाइश है। एक विचारवान व्यक्ति नेक नीयती, परोपकार और धर्म भावना से अहिंसा धर्म के अनुसार दुष्ट को जान से भी मार सकता है और इसके लिए वह बिलकुल निष्पाप रहेगा। किन्तु एक कायर, बुज़दिल, अकर्मण्य और अशक्त व्यक्ति यदि अपना गलती को छिपाने के लिए कष्ट से डरकर अन्याय सहन करे तो वह अहिंसक कदापि नहीं होगा, बल्कि उसे सच्चे अर्थों में पातकी की और हिंसक कहा जायेगा। वास्तव में कायरता और हिंसा एक ही वस्तु के दो स्वरूप हैं। दोनों की जननी स्वार्थ बुद्धि है। वीरता और उदारता अहिंसा है। जो परमार्थ बुद्धि के कारण उत्पन्न होती है।

📖 अखण्ड ज्योति 1942 जुलाई

👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 2)

🔷 निश्चित ही मनुष्य को जो मिला है, वह उसकी पात्रता देखते हुए किसी विशेष प्रयोजन के लिए धरोहर रूप में दिया गया है। खड़े होकर चलने वाले पैर, दस उँगलियों और अनेक मोड़ों वाले हाथ, बोलने वाली जीभ, सूझबूझ वाला मस्तिष्क, दूरदर्शी विवेक अन्य किसी प्राणी के हिस्से में नहीं आया। परिवार बसाने, समाज बनाने, आजीविका कमाने, वाहनों का उपयोग करने, प्रकृति की रहस्यमयी परत कुरेदने, शिक्षा, चिकित्सा, कला व्यवसाय, सुरक्षा जैसे साधन जुटाने में अन्य कौन प्राणी मनुष्य की समता कर सकता है।

🔶 यह सभी विभूतियाँ ऐसी हैं जिनका महत्त्व उपभोक्ता को तो प्रतीत नहीं होता, पर जब वे छिन जाती है तो स्मरण आता है कि जो सौभाग्य अपने को हस्तगत हुआ था उसे प्राणि जगत के साथ तुलना करने पर अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता था। उसका सदुपयोग न कर सकने पर जो पश्चाताप होता है, उसकी व्यथा और शृंखला इतनी लम्बी होती है कि जन्म जन्मान्तरों तक उस भूल की पीड़ा व्यथित करती रहे।

🔷 सृष्टा ने मनुष्य स्तर तक पहुँचाने पर जीवधारियों की क्रमिक प्रगति और पात्रता को देखते हुए सोचा, कि क्यों न इसे सृष्टि की सुव्यवस्था में सहयोगी बनाकर अपना थोड़ा सा भार हल्का किया जाय? इसी दृष्टि से उसे युवराज का पद प्रदान किया गया और तदनुरूप समर्थता से सम्पन्न किया गया कि सृष्टि की सुन्दरता, सुव्यवस्था प्रगति एवं सुसंस्कारिता को बढ़ाने में वह विशेष योगदान भी कर सकेगा।

🔶 इसी आशा अभिलाषा के अनुरूप मनुष्य का सृजन हुआ है। और उसके निर्माण से सृष्टा का समूचा कौशल दाव पर लगा है। उसे अपनी अनुकृति के स्तर का ही बनाया गया है। जो विभूतियाँ उसमें थी उन सभी को बीज रूप में उसने काया के अनेकानेक कोश भण्डार में इस प्रकार भर दिया है कि वह जब चाहे तब उन्हें फलित, प्रस्फुटित करके उच्च स्तरीय बना सके। संक्षेप में यही है मनुष्य की सत्ता और महत्ता का सार संक्षेप।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Amrit Chintan 26 Jan

🔷 Outer cleanliness is very important but no less is the importance  of internal holiness, i.e. sacredness of life. Both are complimentary to each others. Outer decoration is only useful if organs of internal body are also healthy. But to achieve that sacred condition of life one will have develop virtues and high moral codes in life Healthy body, healthy mind must also bear high character and ideality in life.
 
🔶 The original divinity of human being manifest its potentiality if we discipline our life by five restraint of Panch-sheel These are – hard working habit, management gentlemanship, economical planning and by caring and sharing the sorrows of others. These five trends in life mould the entire personality of a man. Our yielidind to the attraction of sensual passion and attraction is true slavery of human life.

🔷 In coming days if people change their views for the object of life, and does not stick to materialistic life, the era will change. It is our ignorance; tension and scarcity are the main factors which create well in our life. All the dirt and four smelling are when wiped off cleans the home. Similarly when the things will improve and men will rectify himself, the golden era will appears everywhere in this world.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 6)

🔷 मित्रो! लोगों की आर्थिक समस्या का समाधान इस तरह से हम कर सकते हैं। सबसे पहले आपको अपने खर्च में मितव्ययिता बरतनी चाहिए, ताकि आपको कर्जदार होने का मौका न मिले। ताकि आपको परेशान होने का मौका न मिले। आर्थिक समस्याओं के समाधान करने के लिए इन सूत्रों को स्वर्णिम अक्षरों से और हीरे की कलम से अपने मन-मस्तिष्क में लिखने वाले, सचमुच में जहाँ कहीं भी ये सूत्र लोगों के हृदय में हृदयंगम कर लिए जायेंगे, वहाँ लोगों की हालत ठीक होती हुई चली जायेगी। जहाँ मनुष्यों को शराब पीने की आदत होगी, कोकाकोला पीने की आदत होगी, सिनेमा देखने की आदत होगी। आरामपरस्ती की आदत बनी रहेगी, हरामखोरी की आदत बनी रहेगी। आदमी काम से जी चुराते रहेंगे, वहाँ सम्पन्नता और खुशहाली कैसे आ सकती है?

🔶 मित्रो! हम मनुष्य की सारी समस्याओं का समाधान करने चले हैं, जिसमें आर्थिक समस्या भी शामिल है, पैसे की समस्या भी शामिल है। समाज की समस्या भी शामिल है, पारिवारिक समस्या भी शामिल है। वे सारी समस्याएँ भी शामिल हैं, जिससे कि मनुष्य पीड़ित हो रहा है, दुखी हो रहा है, उद्विग्न हो रहा है। इन सारी की सारी समस्याओं का समाधान करने का हमारा एक ही तरीका है कि हम अपने विचारों को किस तरह से अच्छा बनायें। विचारों को किस तरीके से श्रेष्ठ बनायें। विचारों की शृंखला को किस तरह से सुव्यवस्थित बनायें। आज मनुष्य को हर जगह से पीड़ा घेरे हुए है। अशान्तियाँ घेरे हुए हैं। अव्यवस्थाएँ घेरे हुए हैं। इनका समाधान और निराकरण करने का जो ठोस, मूलभूत और चिरस्थाई उपाय है, उसको हम खोज सकें, हल निकाल सकें, उसके लिए हम आपको भेज रहे हैं। अध्यात्म का असली शिक्षण देने के लिए हम आपको बाहर भेज रहे हैं।

🔷 मित्रो! राम नाम की माला घुमाने की नसीहत देने के लिए हम आपको नहीं भेजते हैं। माला घुमाने की प्रारम्भिक शिक्षा गूढ़ है। माला के १०८ दाने जिस तरह से घुमाए जाते हैं, उसी तरह हमारे जीवन के प्रत्येक स्रोत और प्रकृति को आध्यात्मिकता के आधार पर घुमाया जाना चाहिए। जादू या चमत्कार माला के अन्दर नहीं है। माला के अंदर प्रेरणा है, शिक्षा है। माला के अंदर दिशायें हैं, जिसमें माला के अंदर मीठा बोलने का मनका नम्बर एक, परिश्रमी होने का माला का मनका नम्बर दो।

🔶 सच बोलने का माला का मनका नंबर-तीन, सफाई से रहने का माला का मनका नम्बर-चार आदि है। इस तरह से माला के १०८ मनके होते हैं, जो मनुष्यों के स्वभाव और मनुष्यों की सत्प्रवृत्तियों को सुव्यवस्थित बनाने के लिए हैं। यह जादू नहीं है, मैजिक नहीं है, जैसा कि आप लोगों को बता दिया गया है कि लकड़ी के टुकड़ों को आप बार-बार घुमा दिया करें और थोड़े से अक्षरों का-मंत्रों का उच्चारण कर लिया करें। इसमें न कोई जादू है और न ही कोई चमत्कार पैदा होने वाला है। इससे न कोई सिद्धि पैदा होने वाली है, न कोई भूत पैदा होने वाला है। इसमें से ऐसा कुछ भी पैदा होने वाला नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 23)


👉 सब कुछ गुरु को अर्पित हो

🔷 कर्म ही नहीं, मन और वाणी से भी गुरु आराधना करनी चाहिए। बार-बार और हमेशा ही यह सत्य ध्यान में रखना चाहिए कि गुरु आराधना गुरु की शरीर सेवा तक सीमित नहीं है। इसके व्यापक दायरे में सद्गुरु के विचारों का प्रसार व उनके अभियान को गति देने के लिए प्राण-पण से प्रयास करना भी शामिल है। इस हेतु न केवल स्वयं का जीवन अर्पण करना चाहिए; बल्कि अपनी पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों को लगाना चाहिए। अपनी यह देह पंचमहाभूतों के विकार के सिवा भला और है ही क्या? इस देह की सार्थकता सद्गुरु के कार्य के प्रति समर्पित होने में ही है।
  
🔶 स्वामी विवेकानन्द महाराज के दो शिष्य थे स्वामी कल्याणानन्द और स्वामी निश्चयानन्द। एक दिन स्वामी जी ने इन दोनों को अपने पास बुलाया और कहा- देखो हरिद्वार में साधुओं की सेवा की कोई व्यवस्था नहीं है। उन दिनों आज से करीब सौ वर्ष पूर्व हरिद्वार का समूचा क्षेत्र महाअरण्य था। साधु हों या फिर तीर्थयात्री इन सभी को सामान्य औषधि एवं चिकित्सा के अभाव में अनेकों कष्ट उठाने पड़ते थे। कई बार तो इन्हें मरना भी पड़ता था। स्वामी जी ने अपने इन दोनों शिष्यों को इनकी सेवा का आदेश दिया। इन दोनों साधन विहीन साधुओं के पास अपने सद्गुरु के आदेश के सिवा और कोई भी सम्पत्ति न थी। जब स्वामी कल्याणानन्द एवं स्वामी निश्चयानन्द स्वामी जी को प्रणाम करके चलने लगे, तो उन्होंने कहा- अब तुम दोनों इधर लौटकर फिर कभी न आना, बंगाल को भूल जाना। आदेश अति कठिन था; परन्तु शिष्य भी सद्गुरु को सम्पूर्ण रीति से समर्पित थे।
  
🔷 बेलूड़ मठ से चलकर ये दोनों ही हरिद्वार आए। उन्होंने कनखल में अपनी झोपड़ियाँ बनाई और जुट गए सेवा कार्यों में। दिन भर बीमार साधुओं एवं तीर्थ यात्रियों की सेवा और रात भर अपने सद्गुरु का ध्यान। कार्य चलता रहा, वर्ष बीतते रहे। इस बीच स्वामी जी ने इच्छामृत्यु का वरण किया; परन्तु सद्गुरु आदेश के व्रती ये दोनों गुरु के अन्तिम दर्शन में भी नहीं गए। गुरु कार्य के लिए उन्होंने अनेकों अपमान झेले, तिरस्कार सहे; पर सब कुछ उनके लिए गुरु कृपा ही थी। लगातार ३५ सालों तक उनका यह सेवा कार्य चलता रहा। उनके कार्यों का स्मारक आज भी कनखल क्षेत्र में श्री रामकृष्ण  सेवाश्रम के रूप में स्थित है। सद्गुरु के कार्य के प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण ने उन्हें अध्यात्म के शिखरों तक पहुँचा दिया। इन दोनों के लिए स्वामी जी ने स्वयं अपने मुख से कहा था- हमारे ये बच्चे परमहंसत्व प्राप्त कर धन्य हो जाएँगे। गुरुकृपा से यही हुआ भी। ऐसे कृपालु सद्गुरु को शत-सहस्र-कोटिशः नमन!

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 43

बुधवार, 24 जनवरी 2018

👉 संत की वाणी

🔷 किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था। चोर जब ज्यादा बूढ़ा हो गया तो अपने बेटे को चोरी की विद्या सिखाने लगा। कुछ ही दिनों में वह लड़का चोरी विद्या में प्रवीण हो गया !.दोनों बाप बेटा आराम से जीवन व्यतीत करने लगे!

🔶 एक दिन चोर ने अपने बेटे से कहा -- ”देखो बेटा, साधु-संतों की बात कभी नहीं सुननी चाहिए। अगर कहीं कोई महात्मा उपदेश देता हो तो अपने कानों में उंगली डालकर वहां से भाग जाना, समझे !

🔷 ”हां बापू, समझ गया !“ एक दिन लड़के ने सोचा, क्यों न आज राजा के घर पर ही हाथ साफ कर दूं। ऐसा सोचकर उधर ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा कि रास्ते में बगल में कुछ लोग एकत्र होकर खड़े हैं। उसने एक आते हुए व्यक्ति से पूछा, -- ”उस स्थान पर इतने लोग क्यों एकत्र हुए हैं ?“

🔶 उस आदमी ने उत्तर दिया --”वहां एक महात्मा उपदेश दे रहे हैं! “

🔷 यह सुनकर उसका माथा ठनका। ‘इसका उपदेश नहीं सुनूंगा ऐसा सोचकर अपने कानों में उंगली डालकर वह वहां से भाग निकला!

🔶 जैसे ही वह भीड़ के निकट पहुंचा एक पत्थर से ठोकर लगी और वह गिर गया। उस समय महात्मा जी कह रहे थे, ”कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। जिसका नमक खाएं उसका कभी बुरा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा करने वाले को भगवान सदा सुखी बनाए रखते हैं!“

🔷 ये दो बातें उसके कान में पड़ीं। वह झटपट उठा और कान बंद कर राजा के महल की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर जैसे ही अंदर जाना चाहा कि उसे वहां बैठे पहरेदार ने टोका, -- ”अरे कहां जाते हो? तुम कौन हो?“

🔶 उसे महात्मा का उपदेश याद आया, ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए।’ चोर ने सोचा, आज सच ही बोल कर देखें। उसने उत्तर दिया -- ”मैं चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं!“

🔷 ”अच्छा जाओ।“ उसने सोचा राजमहल का नौकर होगा! मजाक कर रहा है। चोर सच बोलकर राजमहल में प्रवेश कर गया। एक कमरे में घुसा। वहां ढेर सारा पैसा तथा जेवर देख उसका मन खुशी से भर गया!

🔶 एक थैले में सब धन भर लिया और दूसरे कमरे में घुसा! वहां रसोई घर था। अनेक प्रकार का भोजन वहां रखा था। वह खाना खाने लगा!

🔷 खाना खाने के बाद वह थैला उठाकर चलने लगा कि तभी फिर महात्मा का उपदेश याद आया, ‘जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत सोचो।’ उसने अपने मन में कहा, ‘खाना खाया उसमें नमक भी था। इसका बुरा नहीं सोचना चाहिए।’ इतना सोचकर, थैला वहीं रख वह वापस चल पड़ा!

🔶 पहरेदार ने फिर पूछा -- ”क्या हुआ, चोरी क्यों नहीं की?“

🔷 देखिए जिसका नमक खाया है, उसका बुरा नहीं सोचना चाहिए। मैंने राजा का नमक खाया है, इसलिए चोरी का माल नहीं लाया। वहीं रसोई घर में छोड़ आया!“ इतना कहकर वह वहां से चल पड़ा !

🔷 उधर रसोइए ने शोर मचाया --”पकड़ो, पकड़ों चोर भागा जा रहा है !“ पहरेदार ने चोर को पकड़कर दरबार में उपस्थित किया!

🔶 राजा के पूछने पर उसने बताया कि एक महात्मा के द्धारा दिए गए उपदेश के मुताबिक मैंने पहरेदार के पूछने पर अपने को चोर बताया क्योंकि मैं चोरी करने आया था!

🔷 आपका धन चुराया लेकिन आपका खाना भी खाया, जिसमें नमक मिला था। इसीलिए आपके प्रति बुरा व्यवहार नहीं किया और धन छोड़कर भागा।

🔶 उसके उत्तर पर राजा बहुत खुश हुआ और उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी !

🔷 वह दो-चार दिन घर नहीं गया तो उसके बाप को चिंता हुई कि बेटा पकड़ लिया गया- लेकिन चार दिन के बाद लड़का आया तो बाप अचंभित रह गया अपने बेटे को अच्छे वस्त्रों में देखकर !

🔶 लड़का बोला --”बापू जी, आप तो कहते थे कि किसी साधु संत की बात मत सुनो! लेकिन मैंने एक महात्मा के दो शब्द सुने और उसी के मुताबिक काम किया तो देखिए सच्चाई का फल !

🔷 सच्चे संत की वाणी में अमृत बरसता है, आवश्यकता आचरण में उतारने की है ....!!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 25 Jan 2018


👉 अहिंसा और हिंसा (भाग 2)

🔶 बड़े बुद्धिमान, ज्ञानवान, शरीरधारी प्राणियों को दुख देने, दण्ड देने या मार डालने या हिंसा करने के समय यह विचारना आवश्यक है। कि यह दुख किस लिए दिया जा रहा है। सब प्रकार के दुख को पाप और सब प्रकार के सुख को पुण्य नहीं कहा जा सकता। गरीब भेड़ों के खून के प्यासे भेड़ियों को मार डालना न तो पाप है और न सर्प को दूध पिलाना पुण्य है। हिंसा अहिंसा की परिभाषा कष्ट या आराम के आधार पर करना एक बड़ा घातक भ्रम है। जिसके कारण केवल पाप का विकास और धर्म का नाश होता है।
एक आप्त वचन है कि- वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात्- विवेकपूर्वक की गई हिंसा हिंसा नहीं है।

🔷 अविवेकपूर्वक दूसरों को जो कष्ट दिया गया है वह हिंसा है। जिह्वा की चटोरेपन के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है, अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों की दुख देना हिंसा है। किन्तु निस्वार्थ भाव से लोक कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय, तो वह हिंसा नहीं, वरन्, अहिंसा ही होगी। डॉक्टर निस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा करने के लिए फोड़े को चीरता है, एक न्यायमूर्ति जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू को फाँसी की सजा का हुक्म देता है, एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक आत्म कल्याण के लिए तपस्या करने के मार्ग पर प्रवृत्त करता है। मोटी दृष्टि से देखा जाय तो डॉक्टर का फोड़ा चीरना जज का फाँसी देना, गुरु का शिष्य को कष्ट में डालना, हिंसा और अधर्म जैसा प्रतीत होता है। पर असल में यह सच्ची अहिंसा है।

🔶 गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला हरामखोरों का दान देन वाला दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक प्रतीत होता है। पर असल में वह घोर पातकी हिंसक और हत्यारा है। क्योंकि अपनी बुज़दिली और हीनता को अहिंसा की बेड़ी में छिपाता हुआ असल में वह पाजीपन की मदद करता है। एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राणघातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है। ऐसी अहिंसा को जड़बुद्धि के अज्ञानी ही अहिंसा कह सकते है असल में तो वह प्रथम श्रेणी की हिंसा है।

📖 अखण्ड ज्योति 1942 जुलाई

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1942/July/v2.14

👉 जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय (भाग 1)

🔷 जीवन यदि शरीर मात्र ही हो और प्रसव के समय उसका आदि और चिता के साथ अन्त माना जाय, तो फिर कृमि-कीटकों की तरह पेट प्रजनन की उधेड़ बुन में लगे रहना भी पर्याप्त हो सकता है। मनःसंस्थान अधिक विकसित होने के कारण इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित रूप में, लोभ-मोह में भी चरितार्थ होते रहने दिया जा सकता है। उद्धत अहंकारिता का त्रिदोष इसमें और मिल सके तो फिर प्रेत-पिशाचों जैसी स्थिति में भी रहा जा सकता है। वे खाते कम और खुतराते अधिक हैं। उपभोग उतना नहीं कर पाते जितना विनाश करते हैं। उनकी प्रसन्नता ध्वंस, पतन और दुर्गति के दृश्य देखने पर अवलम्बित रहती है। जलते और जलाते, कुढ़ते और कुढ़ाते दिन बिताते हैं। इन्हीं वर्ग समुदायों में से किसी में रहना जिन्हें भाया, सुहाया हो उनसे कोई क्या कहे? किन्तु जिन्हें कुछ आगे की बात सोचनी आती है, उनसे तो कहने सुनने जैसी ढेरों बातें हैं। उनमें से कुछ तो ऐसी हैं जिन्हें हीरे मोतियों से तोला जा सकता है।

🔶 किसी को यदि यह आभास हो कि हम मात्र शरीर नहीं है। आत्मा नाम की किसी वस्तु का भी अस्तित्व है और उसका थोड़ा बहुत सम्बन्ध आत्मा से भी है, तो ढेरों ऐसे प्रश्न उभर कर आते हैं जिनका स्वरूप और समाधान ढ़ूँढे बिना गति नहीं। कुछ ऐसे ज्वलन्त प्रश्न हैं जिनकी उपेक्षा वही कर सकता है, जिसे लोक-परलोक से, आत्मा-परमात्मा से, उत्थान-पतन से, कर्म-अकर्म से कुछ लेना-देना न हो। जिनकी दृष्टि लोभ और मोह से एक कदम भी आगे को नहीं जाती। जिसे तत्काल की सुख-सुविधा, आत्मश्लाघा, सस्ती वाहवाही के अतिरिक्त और कुछ सुहाता न हो। जिसे न भूत का स्मरण हो और न भविष्य के भले बुरे होने का अनुमान। ऐसे परमहंस, जड़ भरत या अतिशय चतुर व्यक्ति ही इस स्थिति में रहते पाये गये हैं। जिन्हें तत्काल से आगे-पीछे की कोई बात सोचने की न फुरसत मिले न आवश्यकता लगे।

🔷 यदि गहरी न छानी हो और अपना अस्तित्व शरीर से भिन्न भी प्रतीत होता हो, तो फिर सोचना होगा कि सृष्टा ने जो सुविधाएँ किसी भी जीवधारी को नहीं दी है वे मात्र मनुष्य को ही क्यों प्रदान कर दी? जबकि उसे समदर्शी न्यायकारी और परमपिता कहा जाता है। इन तीनों विशेषताओं का तब खण्डन हो जाता है, जब अन्य प्राणियों को वंचित रखकर कुछ असाधारण सुविधाएँ मनुष्य को ही देने की बात सामने आती हैं। सबको समान या किसी को नहीं, इसी में प्राणियों का पिता कहलाने वाले परमात्मा की न्यायप्रियता एवं समदर्शिता सिद्ध होती है। न्यूनाधिक वितरण करने पर तो उस पर पक्षपात का लांछन लगता है। ऐसा हो नहीं सकता। परमात्मा ही जब ऐसी अनीति बरतेगा तो उसकी सृष्टि में न्याय नीति का अस्तित्व किस प्रकार बना रह सकेगा?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...