शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

👉 जीवन में सूझ-बूझ

🔶 एक किसान थककर खेतो में लौट रह था। उसे भूख भी बहुत लगी थी लेकिन जेब में चंद सिक्के ही थे। रास्ते में हलवाई की दुकान पड़ती थी। किसान हलवाई ककी दुकान पर रुका तो उसकी मिठाइयो की सुगंध का आनंद लेने लगा।

🔷 हलवाई ने उसे एसा करते देखा तो उसकी कुटिलता सूझी। जैसे ही किसान लौटने लगा, हलवाई ने उसे रोक लिया।

🔶 किसान हैरान होकर देखने लगा। हलवाई बोला- पैसे निकालो। किसान ने पूछा पैसे किस बात के? मेने तो मिठाई खाई ही नहीं।

🔷 जवाब में हलवाई बोला- तुमने मिठाई खाई बेशक नहीं हैं लेकिन यहाँ यहाँ इतनी देर खड़े होकर आनंद तो लिया हैं न।

🔶 मिठाई कि खुबसू लेना मिठाई खाने के बराबर हैं | तो तुम्हे उस खुसबू का आनंद उठाने के ही पैसे भरने होगे।

🔷 किसान पहले तो घबरा गया लेकिन थोड़ी सूझ-बूझ बरतते हुए उसने अपनी जेब से सिक्के निकले।

🔶 उन सिक्को को दोनों हाथो के बिच डालकर खनकाया। जब हलवाई ने सिक्को कि खनक सुन ली तो किसान जाने लगा।

🔷 हलवाई ने फिर पैएसे मांगे तो उसने कहा- जिस तरह मिठाई कि खुशबु लेना मिताही खाने के बराबर हैं, उसी तरह सिक्को कि खनक सुनना पैसे लेने के बराबर हैं।

🔶 मंत्र : सूझबूझ से मुश्किल हल करे।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 13 Jan 2018


👉 आज का सद्चिंतन 13 Jan 2018


👉 आत्मचिंतन के क्षण 13 Jan 2018

🔶 पाठको! जिस प्रकार आपको प्रशंसा प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। आप दूसरों से सहयोग और सहानुभूति चाहते हैं, वैसे ही आपके मित्र- बन्धु पड़ौसी भी आपसे ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं। दूसरों की इच्छा के लिए यदि अपनी अभिरुचि का दमन कर देते हैं ,तो प्रत्याशी पर आपकी इस सद्भावना का असर जरूर पड़ेगा। आत्मीयता, उदारता, साहस् नैतिकता, श्रमशीलता जैसे सदाचारों में से कोई न कोई सम्पत्ति हर किसी के पास मिलेगी। इन्हें ढूँढ़ने का प्रयास करें।

🔷 सहृदयता मानवीय गरिमा का मेरुदण्ड है। जिसका सम्बल पाकर ही व्यक्ति एवं समाज ऊँचे उठते, मानवी गुणों से भरे- पूरे बनते हैं। इसका अभाव निष्ठुरता, कठोरता, असहिष्णुता जैसी प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होता है। मानवी गरिमा के टूटते हुए इस मेरुदण्ड को हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए।

🔶 कठिनाइयाँ एक ऐसी खराद की तरह है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराश कर चमका दिया करती है। कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्म बल का विकास होता है, वह एक अमूल्य सम्पत्ति होती है ,जिसको पाकर मनुष्य को अपार सन्तोष होता है। कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन मे ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है, जो पथ के समस्त झाड़- झंखाड़ों को काट कर दूर कर देती है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अध्यात्म और विज्ञान का मिलन

🔷 अपने शरीर से लेकर सम्पूर्ण दृश्य जगत् में कहीं भी देखें, सर्वत्र जड़ और चेतन की सड्ड;ह्नष्ठह्म् सत्ता दृष्टिगोचर होती है। दोनों का संयोग बिखर जाने पर न तो कहीं प्राणी के लिए पदार्थ रहेगा और न ही पदार्थ के लिए प्राणी। बुद्धि और मन की परिधि यह संसार ही है। वे इसी परिधि के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं। इन्द्रियों की अनुभूतियां हों या मानसिक कल्पनाएँ अथवा अन्त:करण की भाव संवेदनाएं, इसकी क्षमता का प्रकटीकरण तभी होता है जब शरीर या पदार्थों के बीच उनका सम्बन्ध स्थापित हो सके। इसके बिना सारा का सारा चिन्तन का ढांचा ढह जायेगा।
  
🔶 ऐसे ही अन्योन्याश्रित सम्बन्धों में एक युग्म अध्यात्म और विज्ञान का है। पदार्थ विज्ञान में बुद्धि और पदार्थ का का संयोग काम करता है। आत्मिकी में बुद्धि का स्थूल रूप नहीं, अपितु  परिष्कृत रूप- ऋतम्भरा प्रज्ञा काम करता है। तत्त्व चिन्तन के ब्रह्म विद्या प्रकरण में इसी की चर्चा की गई है। इस तरह पारस्परिक तालमेल की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। यदि ये दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारने लगें तो यही मानना होगा कि दु:ख और दुर्भाग्य ही राहु-केतु के सदृश हमारे चिन्तन क्षेत्र पर ग्रहण की तरह लग गए हैं। जीव के परिपूर्ण विकास के लिए दोनों का अपना महत्त्व है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि वैज्ञानिकता के बिना धर्म अन्धविश्वास बन जायेगा। इसी तरह आत्मिकी के बगैर विज्ञान अनैतिक और उच्छृंखल। समय की महती आवश्यकता है- दोनों मेंं ताल-मेल हो। इनका पारस्परिक विरोध संसार की प्रगति और संस्कृति को नष्ट कर देगा।
  
🔷 आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं-श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं आदर्श कत्र्तव्य। आध्यात्मिकता सच्ची वही है, जो मानवी विकास में सहायक हो। उसमें व्यवहारिक जीवन जीने की कला व जीवन की विविध समस्याओं का समाधान निहित हो। मात्र कर्मकाण्डों का अन्धानुकरण करने, श्रद्धा विश्वास के नाम पर लकीर पीटने को आज का बौद्धिक वर्ग तैयार न होगा। इन कर्मकाण्डों के साथ परिष्कृत जीवन के सूत्र-सिद्धातों का दार्शनिक क्रम भी होना चाहिए। इसके अभाव में तो धर्म की गरिमा गिरेगी। अपनी भूमिका का भली प्रकार निर्वाह करके ही धर्म जाग्रत और जीवन्त बना रह सकता है। अन्यथा बुद्धिवाद उसे आसानी से न स्वीकार करेगा, उल्टे उस पर प्रहार करने की सोचेगा।

🔶 लन्दन विश्वविद्यालय के एस्ट्रोफिजीसिस्ट प्रो. हर्बर्ट डिग्ले का कहना है कि ‘‘विज्ञान की अपनी परिधि सीमित है, यह मात्र पदार्थ के स्वरूप एवं प्रयोग का ही विश्लेषण करता है। पदार्थ को बनाया किसने? क्यों बना? इसका उत्तर दे पाना अभी सम्भव नहीं है। इसके लिए विज्ञान को ऊँची और विलक्षण कक्षा में प्रवेश लेना पड़ेगा। यह कक्षा लगभग उसी स्तर की होगी, जैसी कि अध्यात्म के तत्वांश को समझने के लिए अपनानी होती है।’’
  
🔷 विख्यात दार्शनिक पालटिलिच का कथन है-न तो धर्म शास्त्रों के आधार पर खगोल, रसायन, भौतिकी के निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं और न ही दुनिया भर की प्रयोगशालाएं ईश्वर, आत्मा, सदाचार, भाव-प्रवाह जैसे तथ्यों पर कुछ प्रामाणिक प्रकाश डाल सकती हैं। मात्र दार्शनिक स्तर ही ऐसा है, जहां दोनों धाराओं का मिलन सम्भव है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक रूनेग्लोविश का भी यही मानना है कि धर्म और विज्ञान का ब्राह्म स्वरूप भले ही पृथ्वी के दो धु्रवों की तरह सर्वथा भिन्न दिखे, पर अन्तस्थल में एक है। ये दोनों सर्वथा एक-दूसरे के पूरक हैं। स्वामी विवेकानन्द ने धर्म की वैज्ञानिकता घोषित करते हुए कहा था कि ‘‘मेरा अपना विश्वास है कि बाह्म ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता हैं, उन्हें धर्म क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों से ध्वस्त हो जाय तो यही समझना चाहिए कि वह निरर्थक था।

👉 मानसिक सुख-शांति के उपाय (भाग 1)

🔶 मनोविश्लेषण आधुनिक समय का एक विशेष तथा नवीन विज्ञान माना जा रहा है। यह मनोविज्ञान पाश्चात्य देशों के लिये कोई नवीन अथवा विज्ञान हो सकता है। किन्तु भारत के लिये यह एक प्राचीन विषय है। दुःख सुख की अनुभूतियां, काम क्रोध, लोभ-मोह आदि की वृत्तियों, उनका कारण एवं निवारण का उपाय इस देश का चिर परिचित तथा प्राचीन विषय है। अन्तर केवल यह है कि भारत के प्राचीन वेत्ताओं ने इस विषय को दर्शन का नाम दिया था और आज के पाश्चात्य विद्वानों ने इसे मनोज्ञान अथवा मानस-विज्ञान की संज्ञा दी है। ध्येय दोनों का मनःस्थिति द्वारा आन्तरिक सुख शान्ति ही रहा है।

🔷 सुख-दुःख की अनुभूति मन में होती है। अस्तु, मन की स्थिति पर सुख दुःख का आना जाना स्वाभाविक है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य सांसारिक प्राणी है। उसका संसार के विषयों की ओर झुकाव होना अनिवार्य है। संसार में जहां इच्छा, अभिलाषाओं तथा कामनाओं का बाहुल्य है वहां शोक संघर्षों की भी कमी नहीं है। संसार में निवास करने वाला मनुष्य इन अवस्थाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कामनायें होंगी, अभाव खटकेगा, फलस्वरूप मन को अशान्ति होगी। मन अशांत रहने पर तरह-तरह की बाधाओं तथा व्यामोहों का जन्म होगा और चिन्ताओं की वृद्धि होगी, जिसका परिणाम दुःख के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।

🔶 पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का यह कथन किसी प्रकार भी गलत नहीं कहा जा सकता। निःसन्देह बाधाओं का यही क्रम है जिससे मनुष्य को दुःख का अनुभव करने के लिये विवश होना पड़ता है। किन्तु उनके इस कथन से जो यह ध्वनि निकलती है कि मनुष्य को दुःख होना ही स्थायी अनुभूति है अथवा सांसारिक स्थिति के अनुसार पीड़ा उसका प्रारब्ध भाग है—ठीक नहीं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1967 पृष्ठ 8

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/April/v1.8

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.9

👉 Buddha Derives Inspiration from a Bug


🔷 Buddha had not yet obtained self-realization. He was engaged in intense penance. His mind was restless. A thought crossed his mind, "Despite trying very hard, I have failed to attain the objective of self realization. Instead of wasting away all this time in penance, I should have enjoyed my princely life in the palace."

🔶  All of a sudden he saw a tiny bug trying to climb up a nearby tree. The bug tried again and again but would fall off. Still it would not give up. It tried ten times but failed. On the eleventh attempt it successfully climbed up the tree. It appeared as if this scene was enacted just for the guidance of Buddha. The self-belief in him woke up, and he continued his penance with great conviction and ultimately attained his objective of self realization. He then applied his wisdom for guiding the society on the virtuous path.

📖 From Pragya Puran

👉 ध्यान का दार्शनिक पक्ष (भाग 7)

🔶 मित्रो, तीसरा वाला प्रकाश का जो ध्यान हमने बताया है, वह अंतःकरण का प्रकाश है, विश्वासों का प्रकाश है, आस्थाओं का, निष्ठाओं का, करुणा का प्रकाश है। जो चारों और प्रेम के रूप में प्रकाशित होता है। हम प्रेम के रूप में भक्तियोग कहते हैं। भक्तियोग से क्या मतलब होता है? भक्तियोग का मतलब है-मोहब्बत। जिस तरह से हम व्यायामशाला में अभ्यास करते हैं और उससे अपने शरीर और कलाइयों को मजबूत बनाते हैं और फिर उसका हर जगह इस्तेमाल करते हैं। सामान उठाने में, कपड़े धोने में, बिस्तर उठाने में करते हैं। हर जगह काम में लाते हैं-किसको? जो व्यायामशाला में ताकत इकट्ठा की थी उसको। इसी तरीके है हम भगवान के साथ मोहब्बत शुरू करते हैं, प्यार शुरू करते हैं, भक्ति करते हैं।

🔷 भगवान की भक्ति के माध्यम से जो हम ताकत इकट्ठा करते हैं, उस मोहब्बत को हर जगह फैल जाना चाहिए। हम अपने शरीर को मोहब्बत करें ताकि इसको हम अस्त-व्यस्त न होने दें, नष्ट-भ्रष्ट न होने दें। हम अपने शरीर को प्यार करें ताकि वह नीरोग होकर के दीर्घजीवी बन सके। यह हमारा शरीर के प्रति प्यार है। यह भक्ति है शरीर के प्रति भगवान की। मन के प्रति हमारी भक्ति यह है कि हम पागलों के तरीके से अपने मन-मस्तिष्क को खराब न कर दें। यह देवमन्दिर है और इतना सुंदर मन्दिर है कि हमारे विचारों की क्षमता सूर्य की क्षमता के बराबर है। इसको हम असंतुष्टि न होने दें ।। हम अपने आप से प्यार करें। अपनी जीवात्मा से प्यार करें।
 
🔶 जीवात्मा ! जीवात्मा की तो हमने इतनी उपेक्षा की है कि यह बिचारी कराहती रहती है और यह पूछती रहती है कि दोस्त हमारा क्या होना है? बेटे हमारा क्या होना है? यह पूछते-पूछते वह बूढ़ी हो गई। बुढ़िया पूछती रहती है कि बेटा हमारा भी कुछ होना है क्या? और आप कहते रहते हैं कि अरे बुढ़िया तू तो मरने वाली? तेरा तो यही बद्रीनाथ है तू कहीं मत जा यहीं पड़ी रह। यह बुढ़िया जो है हमारी जीवात्मा है और यह ऐसी ही कसकती-कराहती रहती है। वह अंधी हो गई है, आँखों से दिखाई नहीं पड़ता जीवात्मा को। अपनी जीवात्मा से यदि हमें प्यार रहा होता तो बेटे वह जवान हो गई होती। जीवात्मा से मोहब्बत अगर हमें होती तो वह इतनी प्रचंड और प्रखर हो गई होती कि हम साक्षात भगवान के रूप में काम आते। पर हमारी जीवात्मा मर गई, क्योंकि हम उससे प्यार नहीं करते।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 15)

👉 गुरु-चरण व रज का माहात्म्य

🔶 दिन-महीने और साल बीतते गए। एक बार जन्म दिवस के अवसर पर माताजी से मिलना हुआ। प्रेमपूर्वक आशीष देते हुए माता जी ने पूछा- बोल, तुझे जन्मदिन के अवसर पर क्या चाहिए? उत्तर में मैने विनम्रता से कहा, माँ! यदि आप कुछ देना चाहती हैं, तो मुझे आप अपनी और श्री अरविन्द की चरण रज एवं आप दोनों का चरण जल दीजिए। इस भक्तिपूर्ण आग्रह को माताजी ने स्वीकार कर लिया। फिर तो हर वर्ष जन्मदिन के अवसर पर यह क्रम बन गया। बाद में चरण रज को सामान्य धूल में मिलाकर और चरण जल को गंगाजल में मिलाकर रखने की मेरी आदत बन गयी। बीतते वर्षों के साथ श्री अरविन्द ने शरीर छोड़ दिया। माताजी भी नहीं रहीं; परन्तु जिस किसी तरह मेरे पास उनकी चरण रज एवं चरण जल विद्यमान था।
  
🔷 गंगाधरण जी ने बताया कि अपनी पूजा की चौकी पर मैं इन दोनों दुर्लभ वस्तुओं को रखता था। इन्हीं के पास पूजा वेदी पर श्री अरविन्द के दोनों महाग्रन्थ ‘लाइफ डिवाइन’ एवं ‘सावित्री’ भी सजा कर रखे थे। श्री अरविन्द एवं माँ के महानिर्वाण के बाद इन दिव्य वस्तुओं की पूजा मेरे जीवन का आधार बन गयी। पढ़ा-लिखा न होने के कारण और करता भी क्या? लाइफ डिवाइन एवं सावित्री को समझ सकने लायक बुद्धि भी तो नहीं थी मेरी। सद्गुरु चरण रज एवं सद्गुरु चरण जल के साथ इनकी पूजा मेरा नित्य का क्रम था। साथ ही आश्रम के कामों को भी गुरुभक्ति समझ कर करता था।
  
🔶 एक दिन अपने सद्गुरु के बारे में सोचते हुए गंगाधरण जी का हृदय भर आया। वह सोचने लगे कि सत्रह साल की आयु में आये थे और अस्सी से ज्यादा उम्र होने जा रही है; परन्तु अभी तक कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई। यही सोच कर वह पूजा स्थली पर गुरु चरण रज एवं चरण की पूजा करते हुए प्रार्थना करने लगे- हे अन्तर्यामी गुरुदेव, हे जगन्माता! मैं तो आपका अज्ञानी बालक हूँ, पढ़ना-लिखना भी ढंग से नहीं जानता। जो आपने अपना दिव्य ज्ञान लिखा है, उसे मैं पढ़ भी नहीं सकता। हे सर्वसमर्थ प्रभु! मुझे तो बस आपकी कृपा का भरोसा है, उनकी यह भावभरी प्रार्थना अनवरत चलती रही। आँखों से आँसू झरते रहे।

🔷 पता नहीं कितनी देर तक यह क्रम चला। उन्हें होश तो तब आया, जब स्वयं श्री अरविन्द एवं माताजी अपने अतिमानसिक शरीर से उनके पास आए। अतिमानसिक प्रकाश से उनका कण-कण भर गया। श्री अरविन्द ने कृपा करके उन्हें अतिमानसिक जगत् की दिव्य अनुभूतियाँ प्रदान कीं। अपने इस संस्मरण का उपसंहार करते हुए गंगाधरण ने कहा- मुझे तो सब कुछ गुरुचरणों की रज एवं जल ने दे दिया। यह सत्य कथा हमारे-आपके जीवन की भी सत्यकथा बन सकती है। सद्गुरु चरणों की महिमा है ही कुछ ऐसी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 27

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...