बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

👉 सबसे समर्थ और सबसे सच्चा साथी

🔶 एक छोटे से गाँव मे श्रीधर नाम का एक व्यक्ति रहता था स्वभाव से थोड़ा कमजोर और डरपोक किस्म का इंसान था!

🔷 एक बार वो एक महात्माजी के दरबार मे गया और उन्हे अपनी कमजोरी बताई और उनसे प्रार्थना करने लगा की हॆ देव मुझे कोई ऐसा साथी मिल जायें जो सबसे शक्तिशाली हो और विश्वासपात्र भी जिस पर मैं आँखे बँद करके विश्वास कर सकु जिससे मैं मित्रता करके अपनी कमजोरी को दुर कर सकु! हॆ देव भले ही एक ही साथी मिले पर ऐसा मिले की वो मेरा साथ कभी न छोड़े!

🔶 तो महात्मा जी ने कहा पुर्व दिशा मे जाना और तब तक चलते रहना जब तक तुम्हारी तलाश पुरी न हो जायें! और हाँ तुम्हे ऐसा साथी अवश्य मिलेगा जो तुम्हारा साथ कभी नही छोडेंगा बशर्ते की तुम उसका साथ न छोड़ो!

🔷 श्रीधर - बस एक बार वो मुझे मिल जायें तो फिर मैं उसका साथ कभी न छोडूंगा पर हॆ देव मॆरी तलाश तो पुरी होगी ना?

🔶 महात्माजी - हॆ वत्स यदि तुम सच्चे दिल से उसे पाना चाहते हो तो वो बहुत सुलभता से तुम्हे मिल जायेगा नही तो वो बहुत दुर्लभ है!

🔷 फिर उसने महात्माजी को प्रणाम किया आशीर्वाद लिया और चल पड़ा अपनी राह पर चल पड़ा!

🔶 सबसे पहले उसे एक इंसान मिला जो शक्तिशाली घोड़े को काबू मे कर रहा था तो उसने देखा यही है वो जैसै ही उसके पास जाने लगा तो उस इंसान ने एक सैनिक को प्रणाम किया और घोड़ा देकर चला गया श्रीधर ने सोचा सैनिक ही है वो तो वो मित्रता के लिये आगे बड़ा पर इतने मे सैनापति आ गया सैनिक ने प्रणाम किया और घोड़ा आगे किया सैनापति घोड़ा लेकर चला गया श्रीधर भी खुब दौड़ा और अन्ततः वो सैनापति तक पहुँचा पर सैनापति ने राजाजी को प्रणाम किया और घोड़ा देकर चला गया तो श्रीधर ने राजा को मित्रता के लिये चुना और उसने मित्रता करनी चाही पर राजा घोड़े पर बैठकर शिकार के लिये वन को निकले श्रीधर भी भागा और घनघोर जंगल मे श्रीधर पहुँचा पर राजा कही न दिखे!

🔷 प्यास से उसका गला सुख रहा था थोड़ी दुर गया तो एक नदी बह रही थी वो पानी पीकर आया और एक वृक्ष की छाँव मे गया तो वहाँ एक राहगीर जमीन पे सोया था और उसके मुख से राम राम की ध्वनि सुनाई दे रही थी और एक काला नाग उस राहगीर के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था श्रीधर ने बहुत देर तक उस दृश्य को देखा और फिर वृक्ष की एक डाल टूटकर नीचे गिरी तो साँप वहाँ से चला गया और इतने मे उस राहगीर की नींद टूट गई और वो उठा और राम राम का सुमिरन करते हुये अपनी राह पे चला गया!

🔶 श्रीधर पुनः महात्माजी के आश्रम पहुँचा और सारा किस्सा कह सुनाया और उनसे पुछा हॆ नाथ मुझे तो बस इतना बताओ की वो कालानाग उस राहगीर के चारों और चक्कर काट रहा था पर वो उस राहगीर को डँस क्यों नही पा रहा था!

🔷 लगता है देव की कोई अद्रश्य सत्ता उसकी रक्षा कर रही थी! महात्माजी ने कहा उसका सबसे सच्चा साथी ही उसकी रक्षा कर रहा था जो उसके साथ था तो श्रीधर ने कहा वहाँ तो कोई भी न था देव बस संयोगवश हवा चली वृक्ष से एक डाली टूटकर नाग के पास गिरी और नाग चला गया!

🔶 महात्माजी ने कहा नही वत्स उसका जो सबसे अहम साथी था वही उसकी रक्षा कर रहा था जो दिखाई तो नही दे रहा था पर हर पल उसे बचा रहा था और उस साथी का नाम है "धर्म" हॆ वत्स धर्म से समर्थ और सच्चा साथी जगत मे और कोई नही है केवल एक धर्म ही है जो सोने के बाद भी तुम्हारी रक्षा करता है और मरने के बाद भी तुम्हारा साथ देता है! हॆ वत्स पाप का कोई रखवाला नही हो सकता और धर्म कभी असहाय नही है महाभारत के युध्द मे भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों का साथ सिर्फ इसिलिये दिया था क्योंकि धर्म उनके पक्ष मे था!

🔷 हॆ वत्स तुम भी केवल धर्म को ही अपना सच्चा साथी मानना और इसे मजबुत बनाना क्योंकि यदि धर्म तुम्हारे पक्ष मे है तो स्वयं नारायण और सद्गुरु तुम्हारे साथ है नही तो एक दिन तुम्हारे साथ कोई न होगा और कोई तुम्हारा साथ न देगा और यदि धर्म मजबुत है तो वो तुम्हे बचा लेगा इसलिये धर्म को मजबुत बनाओ!

🔶 हॆ वत्स एक बात हमेशा याद रखना की इस संसार मे समय बदलने पर अच्छे से अच्छे साथ छोड़कर चले जाते है केवल एक धर्म ही है जो घनघोर बीहड़ और गहरे अन्धकार मे भी तुम्हारा साथ नही छोडेंगा कदाचित तुम्हारी परछाई भी तुम्हारा साथ छोड़ दे परन्तु धर्म तुम्हारा साथ कभी नही छोडेंगा बशर्ते की तुम उसका साथ न छोड़ो इसलिये धर्म को मजबुत बनाना क्योंकि केवल यही है हमारा सच्चा साथी!

🔷 श्रीधर ने फिर धर्म को ही अपना सच्चा साथी माना!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 8 Feb 2018


👉 सदगुरु की आवश्यकता

🔶 अनेक महत्त्वपूर्ण विधाएँ गुरु के माध्यम से प्राप्त की जाती हैं और तंत्र विद्या का प्रवेश द्वार तो अनुभवी मार्गदर्शक के द्वारा ही खुलता है। अक्षराम्भ यद्यपि हमारी दृष्टि में सामान्य सी बात है, पर छोटा बालक उस कार्य को अध्यापक के बिना अकेला ही पूर्ण करना चाहे, तो नहीं कर सकता, भले ही वह कितना ही मेधावी क्यों न हो। गणित, शिल्प, सर्जरी, साइन्स, यन्त्र निर्माण आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य अनुभवी अध्यापक ही सिखाते हैं। कोई छात्र शिक्षक की आवश्यकता न समझे और स्वयं ही यह सब सीखना चाहे, तो उसे कदाचित्ï ही सफलता मिले। रोगी को अपनी चिकित्सा कराने के लिए किसी अनुभवी चिकित्सक की शरण लेनी पड़ती है, यदि वह अपने आप ही इलाज करने लगे, तो उसमें भूल होने की सम्भावना रहेगी, क्योंकि अपने संबंध में निर्णय करना हर व्यक्ति के लिए कठिन होता है।
  
🔷 अपनी निज की त्रुटि, अपूर्णता, बुराई, स्थिति एवं प्रगति के बारे में कोई बिरला ही सही अनुमान लगा सकता है। जिस प्रकार अपना मुँह अपनी आँखों से नहीं देखा जा सकता, उसके लिए दर्पण की या किसी दूसरे से पूछने की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार अपने दोष-दुर्गुणों का, मनोभूमि का, आत्मिक स्तर का एवं प्रगति का भी पता अपने आप नहीं चलता, कोई अनुभवी ही इस संबंध में विश्लेषण कर सकता है और उसी के द्वारा उद्धार एवं कल्याण का मार्गदर्शन किया जा सकता है। जिसने कोई रास्ता स्वयं देखा है, कोई मंजिल स्वयं देखी है, कोई मंजिल स्वयं पार की है, वही उस रास्ते की सुविधा-असुविधाओं को जानता है, नये पथिक के लिए उसी की सलाह उपयोगी हो सकती है। बिना किसी से पूछे स्वयं ही अपना रास्ता आप बनाने वाले संभव हैं, मंजिल पार कर लें, निश्चित रूप से उन्हें कठिनाई उठानी पड़ेगी और देर भी बहुत लगेगी। इसलिए जब तक सर्वथा असंभव ही न हो जाय, तब तक मार्गदर्शक की तलाश करना ही उचित है। उसी के सहारे आध्यात्मिक यात्रा सुविधापूर्वक पूर्ण होती है।
  
🔶 प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करने पर भी यही प्रतीत होता है कि जीव शक्ति, ज्ञान और भाव के संबंध में स्वावलम्बी नहीं है, परावलम्बी है। उसे बाह्यï शक्तियों के सहयोग की अपेक्षा रहती है। इसके बिना पंगु ही बना रहता है। जब उसकी आंतरिक शक्ति और बौद्धिक विकास में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है, तब उसे बाह्य शक्तियों की अपेक्षा भले ही न हो, परन्तु फिर भी उसे अन्तस्ï की अचिन्त्य शक्ति का आलम्बन स्वीकार करना ही होगा, तभी वह पूर्ण विकास के पथ पर अग्रसर हो सकता है।
  
🔷 भौतिक ज्ञान के शिक्षक अपने विषय की जानकारी देकर अपना  कत्र्तव्य पूरा कर लेते हैं, पर आध्यात्मिक मार्ग में इतने से ही काम नहीं चल सकता। वहाँ शिक्षा ही पर्याप्त नहीं, वरन् गुरु द्वारा दिया हुआ आत्मबल भी दान या प्रसाद रूप में उपलब्ध करना पड़ता है। जिस प्रकार कोई रोगी चिकित्सा की शिक्षा मात्र से अच्छा नहीं हो सकता, उसे चिकित्सक से औषधि भी प्राप्त करनी पड़ती है। उसी प्रकार सच्चे गुरु न केवल आत्म-कल्याण का मार्ग बताते हैं, वरन्ï उस पर चल सकने योग्य साहस, बल  और उत्साह भी देते हैं। यह देन तभी संभव है, जब गुरु के पास अपनी संचित आत्म-संपदा पर्याप्त मात्रा में हो। इसलिए गुरु का चयन और वरण करते समय उसकी विद्या ही नहीं, आत्मिक स्तर पर तप की संगृहीत पूँजी को भी देखना पड़ता है। यदि वह सभी गुण न हों, तो कोई व्यक्ति अध्यात्म मार्ग का उपदेशक भले ही कहा जा सके, पर गुरु नहीं बन सकता। गुरु के पास साधन, तपस्या, विद्या एवं आत्मबल की पूँजी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए।  

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 ध्यानयोग की सफलता शान्त मनःस्थिति पर निर्भर है (भाग 1)

🔶 शारीरिक और मानसिक उत्तेजनाओं आत्मिक-साधनाओं में अत्यन्त बाधक होती है। उनके कारण महत्त्वपूर्ण साधना विधानों के लिए किया गया भारी प्रयास पुरुषार्थ भी निरर्थक चला जाता है। इसलिए तत्त्वदर्शी आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए प्रयत्नशील पथिकों को सदा से यही शिक्षा देते रहे हैं कि शरीर को तनाव रहित और मस्तिष्क को उत्तेजना रहित रखा जाय। ताकि उस पर दिव्य चेतना का अवतरण निर्बाध गति से होता रह सकें।

🔷 क्रिया-कलापों की भगदड़ से माँस पेशियों में-नाड़ी संस्थान में तनाव रहता है। बाहर से स्थिर होते हुए भी यदि शरीर के भीतर आवेश छाया रहा, तो उस उफान के कारण मन का स्थिर एवं एकाग्र रह सकना भी सम्भव न होगा। हठयोग में शरीर को जटिल स्थिति में डाले रहने की आवश्यकता हो सकती है पर ध्यानयोग की दृष्टि से वह सर्वथा अवांछनीय है अर्धपद्मासन , शीर्षासन, एक पैर से खड़ा होना, जल में बैठना, धूप में तपना, शीत में काँपना, ठण्ड के दिनों में ठण्डे जल से नहाना, गर्मियों में धूनी तपना जैसे शरीर पर दबाव डालने वाले साधन क्रम हठयोग एवं तान्त्रिक साधनाओं के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, पर यदि कोई चाहे कि इस स्थिति में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि जैसे लययोग परक, अभ्यास कर सके तो उसे असफलता ही मिलेगी। इस सन्दर्भ में बहुधा खेचरी मुद्रा, नासिका पर दृष्टि जमाना, उड्डयन बन्ध जालन्धर बन्ध, यहाँ तक कि मन्त्रोच्चारण के साथ किया गया माला जप भी व्यतिरेक उत्पन्न करता है। इस विधि विधानों के साथ ध्यान नहीं हो सकता, क्योंकि चित्त वृत्तियाँ इन शरीरगत हलचलों में लगी रहती हैं- एकाग्रता हो तो कैसे हो।

🔶 आरम्भिक साधना प्रयास में केवल आदत डालने नियमितता अपनाने एवं रुचि उत्पन्न करने जितना ही लक्ष्य रहता है इसलिए उपासना में मनोरंजक-चित्त को एक नियत विधि व्यवस्था में लगाये रहने वाली विधियाँ उपयुक्त रहती है। शंकर जी पर बेलपत्र चढ़ाना परि-क्रम करना, धूप, दीप आदि से देव प्रतिमा का पंचोपचार पूजन’ स्तवन, पाठ, जप आदि शारीरिक हलचलों के साथ की जाने वाली साधनायें इसी स्तर की होती हैं, उनमें रुचि उत्पन्न करने, स्वभाव का रुझान ढालने का लक्ष्य जुड़ा रहता है। आरम्भ में इस लाभ का भी महत्त्व करना होता है। तो शरीरगत हलचलें बन्द करके निश्चेष्ट होने की आवश्यकता पड़ती है। माँस पेशियों और नाड़ी संस्थान को जितना अधिक तनाव रहित शान्त रखा जा सके उतना ही लाभ मिलता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/March/v1.49

👉 व्यवहार में औचित्य का समावेश करें (भाग 1)

🔷 जिनके साथ इच्छा या अनिच्छा से हमें रहना पड़ता है, उनके साथ निर्वाह की रीति-नीति पहले ही निर्धारित कर लेनी चाहिए। सोचना होगा कि उनमें से स्तर की दृष्टि से कुछ श्रेष्ठ, कुछ मध्यम होंगे, साथ ही कुछ अनगढ़, असंस्कृत और उद्धत भी रहेंगे। इच्छित प्रकृति के लोग ही मिलते रहें, अन्य प्रकार वालों के साथ वास्ता ही न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। सदा सूर्य ही निकला रहे, रात्रि कभी हो नहीं, सदा सर्दी का मौसम रहे, कभी गर्मी फटकने ही न पाये ऐसी अपेक्षा रखना और उस मर्जी के पूरी न होने पर खीजना अनुपयुक्त है। यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है। उसमें अन्यान्य के निर्वाह की भी गुंजायश रखी गई है।

🔶 इस संयुक्त समुदाय के लिए बनाये बड़े रसोईघर में सदा वही सब नहीं पकता जो हम चाहते हैं। इस मुसाफिरखाने में सभी को बैठने की छूट है। अपनी मर्जी तो अपने निजी घर में ही निभ सकती है। समझा जाना चाहिए कि इस सराय में सभी के लिए रैन बसेरे के लिए गुंजायश है। अपनी मर्जी को ही सब कुछ रखने और जैसा चाहा गया है वैसा ही सरंजाम जुटने की बात सोचना, ऐसी गलती है जिसे सुधारे बिना दूसरा रास्ता है नहीं। श्रेष्ठजनों से प्रेरणा लें, उनसे घनिष्ठता साधें और आदान-प्रदान का द्वार खोलें। जो सामान्य हैं, उनके साथ तालमेल बिठाने और बिना टकराये समय गुजारने भर की बात सोचनी चाहिए।

🔷 वे जहाँ तक सहन कर सकें उतना उन्हें सत्परामर्श से लाभान्वित भी करें और वैसी सज्जनता बरतें जैसी कि सामान्य जनों के साथ बरती जानी चाहिए। हर किसी के साथ घनिष्ठता बढ़ाने, अनावश्यक उदारता बरतने और आशा लगाने की भावुकता अन्ततः महँगी ही पड़ती है। इसलिए सम्पर्क क्षेत्र में इस प्रकार का वर्गीकरण और नीति निर्धारण आवश्यक हो जाता है। ऐसा भी होता रहता है कि व्यक्तियों के स्तर बदलें। मध्यम ऊँचे उठें और श्रेष्ठों जैसा स्तर विकसित करें। अपवाद ऐसे भी होते हैं जिनमें ऊँचे लोग भी नीचे की ओर खिसकने लगते हैं। अतएव वर्गीकरण सामयिक होते हैं। जहाँ स्तर में हेर-फेर हो रहा हो, वहाँ अपने निर्धारण में भी तदनुरूप परिवर्तन करना भी उचित है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Essence of Worship-Intercession. (Part 2)

🔷 GAYATRI mantra means refinements of sentiments that I had been taught by my GURU. Friends! My all heart and soul is soaked in GAYATRI mantra which for me is a mantra that only refines & systemizes human brain. I spend all my brain on how to make my style of thinking, wishes and view-point like that of a devotee of GAYATRI. I continued to test & assess if there is any fault me. In olden days rupees were used to be tested on KASAUTI to short out defective ones and genuine ones. I continued to test my every attitude to see which one is defective and which one is pure? I also simultaneously continued to rectify my defectiveness and further improve genuineness.
                             
🔶 My intercession has never been confined to morning PUJA-PATH only.  My UPASANA has been going on 24 hours. I have been on fire all along 24 hours in order to refine and rectify myself. Every moment I have been testing my mind-tendency to be refined simultaneously if it hasn’t been. I have made my mind such that BHAGWAN having once come within it must not go back distressed & disappointed. He must not go back with hate so is very essential to clean/purify the mind.
                             
🔷 BHAGWAN deeply hates longings and cunningness of human beings. BHAGWAN is not likely to concede to buttering by human beings. There is no need to pronounce the words of name of BHAGWAN.  the BHAGWAN is not of so low-standard that he be grabbed or overpowered when you praise him, butter him or repeatedly chant his name. BHAGWAN is not of so weak heart and nature. We the human beings usually assume BHAGWAN to be so weak that any man can get anything from him just by buttering him. Tell, how that can be our BHAGWAN?
                            
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 16)

🔶 मित्रो! आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ आपको शिविरों का संचालन करना पड़ेगा। शुरू के तीन दिन तो आपको वहाँ के लोगों की रूपरेखाओं और व्यवस्थाओं को समझने में लगेगा। कार्यकर्ताओं को तो मालूम नहीं है। उन बेचारों पर तो हवन हावी रहता है। बस साहब! हम तो हवन करेंगे और यहाँ बस हवन होगा। हवन के अलावा उन्हें कोई दूसरी चीज दिखाई नहीं पड़ती। दूसरी चीज उनको समझ में नहीं आती। उनको यह बताना पड़ेगा कि हवन आवश्यक नहीं है। हवन हमारा लक्ष्य नहीं है, हवन हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य ज्ञानयज्ञ है। ज्ञान हमारा पूज्य है। हवन के माध्यम से यज्ञ के माध्यम से हम लोगों में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करते हैं। इसलिए हमारे सारे के सारे क्रियाकलापों में उन सब बातों का समन्वय होना चाहिए, जिससे सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन होना संभव हो सके। इसलिए आप लोगों से कहना कि आप अपना श्रम दीजिए, समय दीजिए।

🔷 आप यह कोशिश करना कि यज्ञशालाओं को बनाने के लिए कार्यकर्ता अपना श्रम और समय देना सीखें। परिश्रम करना सीखें, सहयोग देना सीखें। श्रम की कीमत है, समय की कीमत है। पैसों की कीमत नहीं है। पैसे के बिना हमारे कार्य न कभी रुके हैं और न कभी रुकेंगे। इसलिए आप प्रत्येक कार्यकर्ता को श्रमशील और श्रमनिष्ठ होने के लिए कहना, प्रेरित करना। असली कीमत समय की है, श्रम की है। श्रद्धा की है। श्रद्धा जो है, वह समय के साथ जुड़ी हुई है, श्रम के साथ जुड़ी हुई है। इन्हीं के आधार पर हमारे कार्यक्रम चलेंगे। श्रम का जहाँ अभाव दीखेगा, वहाँ हमारा कोई कार्यक्रम नहीं चलेगा, कोई मिशन नहीं चलेगा। कोई भजन नहीं होगा, कोई पूजन नहीं होगा।

🔶 मित्रो! हमें आप के श्रम की और समय की बहुत आवश्यकता है। अगर हमें आप अपना श्रम और समय देना शुरू करेंगे, तो आपकी निष्ठा में बहुत हेर फेर हो जायेगा। तब फिर आपकी निष्ठाएँ परिपक्व होंगी। जो व्यक्ति मिशन की गंभीरता को समझता है और क्रियाशीलता की गंभीरता को समझता है उसके लिए श्रम और समय देना एक कसौटी है। मित्रो मिशन के कार्यों में परिजनों के परिश्रम का जितना बड़ा योगदान रहा होगा, मैं उतनी ही ज्यादा सफलता मानूँगा। आप लोगों को पसीना बहाना सिखाना और श्रेय उन्हीं लोगों को देना जिन्होंने पसीना बहाना शुरू किया है। आप गरीब हैं तो क्या, छोटे हैं तो क्या और अमीर हैं तो क्या? पसीना किसने लगाया-बहाया, हमको श्रेय पसीने को देना है। हम सम्मान पसीने को देना चाहते हैं, श्रम को देना चाहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 35)

👉 गुरु से बड़ा तीनों लोकों में और कोई नहीं

🔷 गुरुगीता में वर्णित यह गुरुतत्त्व बुद्धिगम्य ही नहीं, ध्यानगम्य व भक्तिगम्य भी है। जिनकी अंतर्चेतना ने भक्ति का स्वाद चखा है, जो ध्यान की गहराइयों में अंतर्लीन हुए हैं, उन्हें यह सत्य सहज ही समझ में आ जाता है। इस तथ्य को श्रीरामकृष्ण देव के शिष्य लाटू महाराज स्वामी अद्भुतानन्द के उदाहरण से समझा जा सकता है। श्री ठाकुर एवं उनके शिष्य समुदाय की जीवन कथा को पढ़ने वाले सभी जानते हैं  कि लाटू महाराज अनपढ़ ही थे। गुरुभक्ति ही उनकी साधना थी। भक्त समुदाय में बहुप्रचलित श्रीरामकृष्ण देव की समाधिलीन फोटो जब बन कर आयी, तो श्री ठाकुर ने स्वयं उसे प्रणाम किया। लाटू महाराज बोले - ठाकुर यह क्या, अपनी ही फोटो को प्रणाम। इस पर ठाकुर हँसे और बोले - ‘‘नहीं रे! मेरा यह प्रणाम इस हाड़-मांस की देह वाले चित्र को नहीं है, यह तो उस परम वन्दनीय गुरु चेतना को प्रणाम है, जो इस फोटो की भाव मुद्रा से छलक रही है।’’
  
🔶 श्री ठाकुर के इस कथन ने लाटू महाराज को भक्ति के महाभाव में निमग्न कर दिया। इन क्षणों में उन्हें परमहंस का एक और वाक्य याद आया - ‘जे राम जे कृष्ण सेई रामकृष्ण’ अर्थात् जो राम, जो कृष्ण, वही रामकृष्ण। पर इन सब बातों का अनुभव कैसे किया जाए? इस जिज्ञासा के समाधान में  श्री ठाकुर ने कहा - ‘‘भक्ति से, ज्ञान से। इसी से तेरा सब कुछ हो जाएगा। अपने सद्गुरु के वचनों को हृदय में धारण कर।’’ लाटू महाराज गुरुभक्ति को प्रगाढ़ करते हुए ध्यान- साधना में जुट गए।
  
🔷 उनकी यह साधना निरंतर अविराम तीव्र से तीव्रतर एवं तीव्रतम होती गई। इस साधनावस्था में एक दिन उन्होंने देखा कि ठाकुर किसी दिव्य लोक में हैं। बड़ा ही प्रकाश और प्रभापूर्ण उपस्थिति है उनकी। स्वर्ग के देवगण, विभिन्न ग्रहों के स्वामी रवि, शनि, मंगल आदि उनकी स्तुति कर रहे हैं। ध्यान के इन्हीं क्षणों में लाटू महाराज ने देखा कि श्री ठाकुर की परा चेतना ही विष्णु-ब्रह्मा एवं शिव में समायी है। माँ महाकाली भी उनमें एकाकार हैं। ध्यान में एक के बाद अनेक दृश्य बदले और लीलामय ठाकुर के दिव्य चेतना के अनेक रूपों का साक्षात्कार होता गया। अपनी इस समाधि में लाटू महाराज कब तक खोए रहे, पता नहीं चला।
  
🔶 समाधि का समापन होने पर लाटू महाराज पंचवटी से सीधे श्री ठाकुर के कमरे में आए और उन्हें वह सब कह सुनाया, जो उन्होंने अनुभव किया था। अपने अनुगत शिष्य की यह अनुभूति सुनकर परम कृपालु परमहंस देव हँसते हुए बोले - ‘‘अच्छा रे! तू बड़ा भाग्यवान है, माँ ने तुझे सब  कुछ सच-सच दिखा दिया। जो तूने देखा, वह सब ठीक है।’’ फिर थोड़ा गंभीर होकर उन्होंने कहा - ‘‘शिष्य के लिए गुरु से भिन्न तीनों लोकों में और कुछ नहीं है। जो इसे जान लेता है, उसे सब कुछ अपने-आप मिल जाता है।’’ श्री ठाकुर के यह वचन प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 59

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...